चिन्ता का सबब बनता गंगा में बढ़ता प्रदूषण


लक्षयोजना विस्तीर्णा दैर्घ्ये पंचगुणा ततः।
आवृता या तपोलोके तां गंगा प्रणमाम्यहम्।।


गंगा अर्थात् “पांच लाख मील चौड़े तथा उससे भी पाँच गुना लम्बे क्षेत्र को पवित्र रखने वाली गंगा को मैं प्रणाम करता हूँ।”

हिमालय के उतुंग शिखरों से कल-कल करके बहती गंगा की धाराएँ सदियों से हमारी सामाजिक-आर्थिक-भौगोलिक तथा सांस्कृतिक पहचान रही है। गंगा भारत के एक बड़े भू-भाग को हरियाली तथा खुशहाली से महकाती है इसलिये यह जीवनदायिनी कही जाती है।

लगभग 2525 कि.मी. लम्बे सफर में गंगा के किनारे करोड़ों लोग रहते हैं जिनके भरण-पोषण में गंगा प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। गंगा सदियों से भारत के लिये धार्मिक आस्था का प्रतीक भी रही है तथा धर्मशास्त्रों ने इसे मोक्षदायिनी बताया है।

साल भर पानी से लबालब भरी रहने वाली गंगा न जाने कितने जीव-जन्तुओं तथा पेड़-पौधों को जीवन देती है। मगर आज औद्योगीकरण तथा उपभोक्तावादी संस्कृति के बढ़ने के साथ-साथ गंगा के अस्तित्त्व पर भी संकट के बादल मँडरा रहे हैं।

हाल के कुछ दशकों में गंगा में लगातार बढ़ता प्रदूषण भौगोलिक-पर्यावरणीय तथा पारिस्थितिक तंत्र के लिये गम्भीर खतरे का सबब बनता जा रहा है।

‘गंगा का पानी खराब नहीं होता’ यह अब सिर्फ किंवदन्ती मात्र बनकर रह गया है। वैदिक काल से लेकर गुप्त-मौर्यकाल, सल्तनत काल तथा मुगलकाल तक गंगा शुद्धतम् बनी रही, इसीलिये सभी धर्मों तथा सम्प्रदायों के शासकों ने गंगा को पर्याप्त सम्मान दिया।

यहाँ तक की अंग्रेजों ने भी परीक्षणों में पाया कि गंगा में हानिकारक बैक्टीरिया प्रतिरोधी तत्व पाये जाते हैं। मगर यह कहना भी गलत न होगा कि ब्रिटिश शासन के दौरान से ही गंगा में प्रदूषण की मात्रा बढ़ने लगी थी। कूड़ा-कचरा, मल-मूत्र तथा अनेक प्रकार के अपशिष्ट पदार्थों के पड़ने से गंगा सीवेज नाले में तब्दील होती जा रही है।

अब वैज्ञानिक तथा स्वास्थ्य विशेषज्ञ भी परीक्षणों के बाद इस बात पर एक मत हैं कि अधिकांश स्थानों पर गंगा का पानी पीने तथा नहाने के योग्य नहीं रह गया है। अगर प्रदूषण की मौजूदा रफ्तार समान रूप से जारी रही तो इस बात की आशंका भी बलवती होती जाएगी कि शायद कुछ समय बाद गंगा का पानी सिंचाई के लायक भी न रह पाये।

प्रारम्भिक स्थान से ही प्रदूषित हो रही गंगा


गंगा का उद्गम गंगोत्री के पास गोमुख है। इसका उद्गम भगीरथी नदी के नाम से होता है। भगीरथी तथा अलकनन्दा देव प्रयाग में आकर मिलती हैं। इस स्थल के बाद ही इसे गंगा नदी के रूप में जाना जाता है।

उत्तराखण्ड में ही कई अन्य सहायक नदियाँ गंगा में आकर मिलती हैं जिनमें मन्दाकिनी, भिलंगना, अलकनन्दा, धौली, नयार इत्यादि प्रमुख हैं।

मन्दाकिनी तथा अलकनन्दा का उद्गम दो अन्य प्रमुख तीर्थों केदारनाथ तथा बदरीनाथ में है। प्रतिवर्ष औसतन 4 लाख से अधिक यात्री इन तीर्थ स्थलों की यात्रा करते हैं।

मगर अफसोस इस बात का है कि गंगोत्री, यमनोत्री, केदारनाथ तथा बदरीनाथ जैसे प्रसिद्ध स्थलों पर न तो कूड़ा तथा अवशिष्ट (बायोडिग्रेडेबल तथा नाॅनबायोडिग्रेडेबल) पदार्थ निस्तारण की कोई स्थायी व्यवस्था है और न ही सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट तथा सीवर लाइन जैसी कोई व्यवस्था है।

होटल, रेस्टोरेंट, आश्रमों, धर्मशालाओं तथा रिहायशी मकानों की गन्दगी सीधे ही गंगा तथा उसकी सहायक नदियों में समा जाती है। इसके अलावा पर्यटकों, स्थानीय लोगों तथा व्यवसायियों के क्रिया-कलापों या उनकी दिनचर्या के कारण जो भी प्रदूषित पदार्थ इधर-उधर बिखरा पड़ा रहता है वह बरसात के मौसम में बहकर नदियों में समा जाता है।

उत्तराखण्ड के कई हिल स्टेशनों तथा तीर्थ स्थानों पर आने वाले अधिकांश पर्यटकों का हिमालयी पर्यावरणीय संवेदनशीलता से बहुत अधिक सरोकार नहीं रहता, अतः वे कई प्रकार के अवशिष्ट व प्रदूषित पदार्थों को यों ही इधर-उधर फेंक देते हैं।

स्थानीय लोगों तथा व्यवसायियों में भी जागरुकता का अभाव रहता है। उनको भी अधिकांशतः पर्यटकों से होने वाली आमदनी से मतलब रहता है। वे भी अवशिष्ट पदार्थों को यों ही इधर-उधर बिखेर कर छोड़ देते हैं।

इसमें कोई सन्देह नहीं है कि इस ओर बहुत अधिक सक्रियता नहीं दिखाई गई है। अभी तक इसका भी पूरा ब्यौरा उपलब्ध नहीं है कि आखिर तीर्थ स्थलों तथा प्रमुख शहरों या कस्बों से प्रतिवर्ष कितना अवशिष्ट गंगा तथा उसकी सहायक नदियों में जा पड़ता है।

उत्तराखण्ड, जो अपने अद्भुत प्राकृतिक सौन्दर्य के लिये विश्व प्रसिद्ध है, पर्यटकों का नैसर्गिक स्वर्ग कहा जाता है। मगर अब यहाँ भी प्रकृति से मनुष्य की बढ़ती छेड़छाड़ से हरियाली कम हो रही है तथा प्रदूषण बढ़ रहा है। आँकड़ों में चाहे कितनी ही अच्छी स्थिति न दिखाई गई हो मगर सच्चाई यह है कि पिछले दो दशकों में उत्तराखण्ड में वनों को काफी हानि हुई है, बरसात में दरकते नंगे पहाड़ इसके प्रमाण हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में परम्परागत पेयजल स्रोतों का सूखना भी बेहद चिन्ता का विषय बना हुआ है। सर्वेक्षणों से यह भी पता चला है कि उत्तराखण्ड के गंगोत्री, पिंडारी, पोटिंग, सुंदरढंगा, नामिक तथा कफनी ग्लेशियर भी पिछले 50 सालों में काफी पीछे खिसक चुके हैं। ऊपर से ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभाव भी इस क्षेत्र पर पड़े हैं। ये सारे विषय एक-दूसरे से जुड़े हैं तथा एक-दूसरे पर प्रभाव डालते हैं। मसलन प्राकृतिक जलस्रोतों के सूखने तथा ग्लेशियरों के पीछे खिसकने से सदानीरा गंगा के बहाव में भी कमी आई है। गंगोत्री ग्लेशियर की ही बात करें तो यह पिछले दो दशकों में लगभग 200 मीटर से अधिक पीछे खिसक चुका है।

वर्ष 1995 में केन्द्र सरकार के तत्त्वाधान में गंगोत्री संरक्षण परियोजना भी तैयार की गई, जिसके अन्तर्गत मुश्किल से 5 साल बाद उत्तरकाशी में एक समन्वयक की नियुक्ति की गई। लेकिन परियोजना का संचालन तथा नियंत्रण दिल्ली से ही होता रहा। पर्यावरण संरक्षण के नाम पर गंगोत्री में वृक्षारोपण तथा कूड़ा निस्तारण केन्द्र बनाने की भी घोषणा हुई, मगर न कोई कार्यदायी संस्था दिखी न उसका काम। गंगोत्री के ऊपरी क्षेत्र को पर्यावरण संवर्धन व सुरक्षा की दृष्टि से गंगोत्री नेशनल पार्क का दर्जा भी दिया गया मगर यथार्थ में अधिक कुछ हुआ नहीं। क्षेत्र में कई बार सफाई अभियान भी चलाए गए मगर शासन-प्रशासन, स्थानीय व्यवसायियों, कामगारों तथा तीर्थपुरोहितों के बीच समन्वय की कमी के कारण अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई। गंगोत्री से लेकर हरिद्वार तक लगभग 350 किमी. क्षेत्र में बसी सैकड़ों बस्तियाँ भी पर्यटकों की आवाजाही बढ़ने के साथ-साथ कस्बों तथा शहरों का रूप ले रही हैं। मगर इनमें भी कूड़ा-अवशिष्ट निस्तारण की स्थायी व्यवस्था तथा सीवेज ट्रीटमेंट न होने के कारण गंगा नदी में टनों मैला समा रहा है। गंगोत्री, भटवाड़ी, उत्तरकाशी, चिन्यालीसौड़, छाम तथा ऋषिकेश जैसे बड़े शहरों तक में अवशिष्ट तथा सीवेज ट्रीटमेंट की कोई कारगर व्यवस्था नहीं है। यही हाल गंगा (भागीरथी) की सहायक नदियों के किनारों पर बसे कस्बों का भी है।

मसलन केदारनाथ से निकलने वाली मन्दाकिनी नदी पर केदारनाथ सहित गौरीकुण्ड, गुप्तकाशी, अगस्त्यमुनी, तिलवाड़ा तथा रुद्रप्रयाग जैसे बड़े कस्बे बसे हैं तो वहीं बदरीनाथ से निकलने वाली अलकनन्दा के तट पर बदरीनाथ सहित जोशीमठ, पीपलकोटि, चमोली, कर्णप्रयाग, गौचर, श्रीनगर तथा देवप्रयाग जैसे बड़े कस्बे बसे हैं। मगर इनमें भी प्रदूषित पदार्थों के निस्तारण की उचित व स्थायी व्यवस्था न होने से टनों प्रदूषित पदार्थ प्रतिवर्ष नदियों में समा रहा है। पर्यावरण विशेषज्ञ लम्बे समय से इस बात की माँग करते रहे हैं कि हिमालयी क्षेत्रों में शहरोें या कस्बों को पर्यावरणीय तथा भूगर्भीय मानकों के तहत मास्टर प्लान के अनुसार बसाया जाय। मगर नई टिहरी के अलावा कोई भी शहर मास्टर प्लान के मानकों को पूरा नहीं करता है।

हरिद्वार से लेकर बदरीनाथ तक 13 नगर गंगा एक्शन-प्लान में शामिल हैं। मगर गंगा एक्शन प्लान इकाइयाँ तथा संस्थाएँ मानो हाथ-पर-हाथ धरे बैठी हुई हैं। पालीथीन तथा प्लास्टिक जैसे नाॅनबायोडिग्रेडेबल पदार्थ पिछले कई सालों से हिमालयी क्षेत्र के पर्यावरण के लिये सिरदर्द बने हुए हैं। मगर न इनका प्रयोग कम हुआ है और न ही इनके निस्तारण व प्रबन्धन का कोई कारगर तरीका ढूँढा गया है। नतीजतन पहाड़ों की चोटियों से लेकर नदियों के किनारे तक प्लास्टिक तथा पालीथीन के कचरे का ढेर लगा रहता है।

मैली होती गंगा


गंगा में मिलते कचरा एवं गंदे नाले वैज्ञानिक अध्ययनों से पता चला है कि ऋषिकेश तथा हरिद्वार जैसे स्थानों से ही गंगा इतनी प्रदूषित है कि उसका पानी पीना खतरे से खाली नहीं है। ऋषिकेश में गंगा में प्रदूषण ‘डी’ तथा हरिद्वार में ‘बी’ श्रेणी में पहुँच चुका है। प्रदूषण का शिकार सिर्फ मनुष्य ही नहीं बल्कि जलीय व स्थलीय जीव तथा वनस्पतियाँ भी हैं। प्रदूषण के चलते गंगा अपनी शीतलता खो रही है। गंगा में आॅक्सीजन कंटेंट 12 से घटकर 3-4 रह गया है। इसके अलावा पिछले तीन दशकों में गंगा में बैक्टीरिया की संख्या में 10 गुना इज़ाफा हुआ है। एक चौंकाने वाला तथ्य यह भी है कि गंगा में ई-कोलाई (इशचेरिचिया कोलाई) बैक्टीरिया की कुछ खतरनाक प्रजातियाँ भी पाई गई हैं जो मनुष्य की किडनी तथा स्नायु तंत्र पर बुरा प्रभाव डालती हैं। ग़ौरतलब है कि ई-कोलाई की 700 से अधिक प्रजातियाँ हैं जिनमें से कुछ ही प्रजातियाँ घातक होती हैं। ई-कोलाई सामान्यतः मनुष्यों तथा मवेशियों के पेट में विद्यमान रहता है। मगर इसकी कुछ प्रजातियाँ जानलेवा भी साबित हो सकती हैं।

इसका ज्यादातर संक्रमण मल, अधपका माँस या खाना खाने, दूषित पानी पीने, कच्चा दूध पीने तथा जानवरों के साथ काम करने से होता है। चूँकि गंगा में भारी मात्रा में मल-मूत्र बहाया जाता है, अधजली लाशों तथा मवेशियों को डाला जाता है इसलिये ई-कोलाई के संक्रमण का खतरा काफी बढ़ जाता है। गंगा किनारे बसने वाले प्रमुख धार्मिक तथा औद्योगिक शहरों (कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी तथा पटना) में प्रदूषण का यह आलम है कि यहाँ गंगा किनारे नहाना तो दूर कहीं-कहीं दुर्गंध के कारण टहलना भी गवारा नहीं होता। पानी की गुणवत्ता मापने के लिये केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) ने BOD (Biological Oxygen Demand) तथा घुलित आॅक्सीजन (DO) रीडिंग का प्रावधान रखा है। 2.5 मिलीग्राम प्रतिलीटर BOD का मतलब है पानी पीने लायक है, 3.0 मिग्रा से 5 मिग्रा प्रति लीटर BOD का अर्थ है कि ट्रीटमेंट के बाद पानी पिया जा सकता है, मगर इससे अधिक BOD रीडिंग वाला पानी मनुष्यों तथा पशुओं दोनों के लिये हानिकारक होता है। मगर गंगा में औसत रीडिंग 9 मिग्रा प्रति लीटर तक पहुँच चुकी है।

विशेषज्ञों का मानना है कि BOD रीडिंग तथा प्राणघातक बैक्टीरिया के बढ़ने के कारण गंगा का पानी उपरोक्त बड़े शहरोें में उपयोग करने के लायक नहीं रह गया है क्योंकि इससे पेचिश, हैजा, पीलिया, आँतों में ऐंठन, किडनी व स्नायु तंत्र में खराबी, एसिडिटी, दाद-खाज, खुजली तथा कुष्ठ रोगों का खतरा बढ़ जाता है।

उत्तर भारत के प्रमुख औद्योगिक शहर कानपुर के चमड़े, कपड़े तथा अन्य उद्योगों के अवशिष्टों के प्रभाव से वहाँ गंगा का पानी काला होता जा रहा है। वर्ष 1985 में कानपुर में BOD रीडिंग के अनुसार गंगा के प्रदूषण का स्तर 6.9 मिग्रा/लीटर था जो आज 21 मिग्रा/लीटर के खतरनाक स्तर पर पहुँच चुका है।

मुजफ्फरनगर जिले में शुक्रतीर्थ के पास से मेरठ तक करीब 55 किमी. प्रवाह क्षेत्र में गंगा का प्रवाह पिछले दो दशकों में काफी कम हो गया है। हस्तिनापुर अभयारण्य क्षेत्र से होकर बहने वाली गंगा उथली होकर बेहद कम प्रवाह के साथ बहती है। हिमालयी क्षेत्र में गंगा तथा उसकी सहायक नदियों पर बन रहे बड़े-बड़े बाँधों से गंगा का प्रवाह स्तर कई स्थानों पर बेहद कम होने की सम्भावना है। वैसे भी ग्लेशियरों के पिघलने की दर को देखते हुए स्थिति पहले ही चिन्ताजनक बनी हुई है। गंगा के किनारे बसे प्राचीन धार्मिक तथा ऐतिहासिक नगरों में भी स्थिति बेहद चिन्ताजनक है। गंगोत्री से लेकर वाराणसी तक गंगा नदी में लगभग 1611 नदियाँ तथा नाले गिरते हैं।

केवल वाराणसी के विभिन्न घाटों पर प्रत्येक वर्ष लगभग 30,000 से अधिक लाशों का दाह संस्कार किया जाता है परिणामस्वरूप 1.5 लाख टन राख प्रतिवर्ष गंगा में बहा दी जाती है जो प्रदूषण का कारण बनती है। वाराणसी में कम-से-कम 35 स्थानों पर खुले नाले गंगा में कूड़ा-कचरा तथा मैला फेंकते हैं। यद्यपि वाराणसी में गंगा एक्शन प्लान के तहत सीवेज सिस्टम के डाइवर्जन का काम तो हुआ है मगर सीवेज गिरने बन्द नहीं हुए हैं। यहाँ प्रवेश करते ही रविदास पार्क के पास गंगा में एक बड़ा खुला नाला गिरता है। ‘शिवाला‘ तथा‘दशाश्वमेध’ जैसे ऐतिहासिक घाट अब धोबी घाट में तब्दील हो गए हैं जहाँ खुले-आम कपड़े धोए जाते हैं, कचरा फेंका जाता है तथा मृत मवेशियों को नदी में बहाया जाता है। मल-मूत्र त्यागने के लिये भी गंगा के किनारे सुगम स्थान बन गए हैं।

ऐतिहासिक शहर इलाहाबाद की बात करें तो यहाँ के विश्व प्रसिद्ध त्रिवेणी संगम पर पानी से अधिक प्रदूषण दिखाई देता है। गंगा का प्रवाह अस्थायी होने के कारण यहाँ के अधिकांश घाट कच्चे तथा गन्दे हैं। इससे बरसात में यहाँ प्रदूषण और अधिक बढ़ जाता है। दिसम्बर तथा जनवरी में त्रिवेणी संगम पर पानी घुटनों तक भी नहीं रहता है तथा माघ मेले में प्रशासन को श्रद्धालुओं के स्नान के लिये जेसीबी से खुदाई करवाकर गंगा की धारा को यमुना की तरफ मोड़ा जाता है। ग़ौरतलब है कि त्रिवेणी संगम पर गंगा, यमुना तथा सरस्वती (अब विलुप्त) का मिलन होता है। ऐतिहासिक शहर पटना (प्राचीन पाटलिपुत्र) की स्थिति भी अच्छी नहीं है। यहाँ के 9 बड़े तथा 172 छोटे नालों से 61 MLD सीवेज का पानी प्रतिदिन गंगा में गिरता है। मूर्तियों के विसर्जन के नाम पर भी लाखों टन रसायन युक्त मिट्टी गंगा में बहाई जाती है। पटना में पिछले एक दशक में गंगा नदी में प्रदूषण का स्तर 8 मिग्रा/लीटर BOD से बढ़कर 20 मिग्रा/लीटर BOD तक पहुँच गया है। बैक्टीरिया की संख्या में भी 10 गुना बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। इसके अलावा प्रमुख धार्मिक स्थलों से भी प्रतिदिन गंगा में हवन की राख, फूल, अगरबत्तियाँ तथा अन्य सामग्रियों को पालीथीन या प्लास्टिक के थैलों में भरकर बहाना भी प्रदूषण का कारण बन गया है। बिहार में भागलपुर तथा उसके पास मुंगेर तथा साहिबगंज के पुराने घाटों से भी गंगा विदा हो चुकी है।

प. बंगाल में गंगा ‘हुगली‘ के नाम से जानी जाती है। मगर यहाँ चल रहे कपड़ा, पटसन, कागज, शराब तथा चमड़े के लगभग 200 कारखानों का अवशिष्ट पानी बिना किसी खास ट्रीटमेंट के ही हुगली में गिराया जाता है। सदियों से अपनी गहरी नीली धारा से लोगों को आकर्षित करने वाली हुगली का पानी भी प्रदूषण के कारण दिन-प्रतिदिन काला होता जा रहा है। हुगली के तट अब सदाबहार ठंडी हवा के लिये नहीं बल्कि बदबूदार गन्दी हवा के लिये जाने जाते हैं। प. बंगाल में बड़े कारखानों के औद्योगिक, घरेलू तथा व्यावसायिक रूप से होने वाले प्रदूषण के अलावा बूचड़खानों, धोबीघाटों तथा झोपड़पट्टियों की गंगा किनारे बढ़ती संख्या भी गंगा के पानी को प्रदूषित करने में बड़ी भूमिका निभा रही है। इस प्रकार हजारों शहरों, कस्बों का मैला ढोती गंगा लम्बा सफर तय करके गंगा सागर में निढाल होकर अन्ततः समुद्र में मिल जाती है। भारत में माँ के रूप में पूजनीय तथा सम्मानित गंगा का यह हश्र किसी त्रासदी से कम नहीं है।

रंग नहीं ला पाये प्रयास


हरिद्वार में गंगा खनन गंगा को प्रदूषण मुक्त बनाने के लिये शुरू की जाने वाली सर्वप्रथम महत्त्वाकांक्षी योजना ‘गंगा कार्य योजना’ थी जिसे तत्कालीन केन्द्रीय पर्यावरण विभाग (अब पर्यावरण तथा वन मंत्रालय) के तत्त्वावधान में शुरू किया गया था। योजना की देख-रेख के लिये तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की अध्यक्षता में ‘केन्द्रीय गंगा प्राधिकरण’ का गठन किया गया। गंगा एक्शन प्लान के प्रथम चरण में गंगा नदी को पूर्णतः प्रदूषण मुक्त करने का लक्ष्य रखा गया था जबकि दूसरे चरण में गंगा की सहायक नदियों (यमुना, दामोदर, महानंदा, घाघरा, गोमती इत्यादि) को स्वच्छ बनाने का प्रावधान था। इस योजना के संचालन के लिये पर्यावरण विभाग के अधीन ‘गंगा योजना निदेशालय’ की स्थापना भी की गई। 14 जून, 1985 को प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने बनारस में इस योजना का शुभारम्भ किया मगर प्रभावी नीतियों के निर्धारण तथा उनके सफल क्रियान्वयन एवं समन्वय के अभाव में यह योजना अधिक सफल नहीं हो पाई। यद्यपि इस योजना का कार्यकाल मार्च, 1990 में पूरा हो जाना था मगर समयानुरूप लक्ष्यों को प्राप्त न कर पाने के कारण पहले इसका कार्यकाल वर्ष 2000 तक तथा बाद में सितम्बर 2008 तक बढ़ाया गया।

इसी प्रकार वर्ष 1995 में ‘राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना’ (NRCP) जैसी महत्त्वाकांक्षी योजना शुरू हुई। प्रारम्भ में इस योजना के अन्तर्गत 18 गन्दी हो चली नदियों को सामान्य दशा में वापस लाने का प्रावधान रखा गया था। मगर बाद में इस योजना के अन्तर्गत 20 राज्यों के 167 शहरों में 38 नदियाँ शामिल की गईं। NRCP के अन्तर्गत निम्न प्रमुख कार्य शामिल किये गए: (1) खुले नालों के माध्यम से नदी में बह रहे कच्चे सीवेज को रोकने तथा उसके शोधन (ट्रीटमेंट) के लिये अवरोध एवं विपथन कार्य; (2) विपथित सीवेज के शोधन के सभी सीवेज शोधन संयंत्रों की स्थापना; (3) कम लागत से स्वच्छता शौचालयों का निर्माण; (4) लकड़ी का प्रयोग रोकने के लिये विद्युत शवदाह गृहों तथा परिष्कृत काष्ठ शवदाह गृहों का निर्माण; (5) नदी मुहाना विकास; (6) नदी के तटों पर वृक्षारोपण तथा (7) सार्वजनिक भागीदारी तथा जागरुकता पैदा करना। मगर अब तक 4690 करोड़ रुपए खर्च करने के बावजूद यह योजना अभी अपने लक्ष्यों से काफी दूर है।

केन्द्र सरकार ने गंगा को राष्ट्रीय नदी का दर्जा दे रखा है तथा गंगा को प्रदूषण मुक्त बनाने के लिये 20 फरवरी, 2009 को ‘पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम-1986’ के तहत राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण (NGRBA) का गठन किया गया है। यह प्राधिकरण केन्द्रीय वन तथा पर्यावरण मंत्रालय के अधीन एक शक्ति सम्पन्न नियोजन, वित्तपोषण माॅनीटरिंग तथा समन्वय प्राधिकरण के रूप में स्थापित किया गया है। प्राधिकरण के अध्यक्ष प्रधानमंत्री हैं तथा जिन-जिन राज्यों से होकर गंगा गुजरती है उसके मुख्यमंत्री इसके सदस्य हैं। इसके अलावा वित्त, शहरी विकास, जल संसाधन, बिजली, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के मंत्री तथा योजना आयोग के उपाध्यक्ष भी इसके सदस्य होंगे। पर्यावरणीय अभियांत्रिकी, हाइड्रोलाॅजी, नदी संरक्षण तथा सामाजिक क्षेत्र के पाँच विशेषज्ञ भी इसके सदस्य होते हैं। यह प्राधिकरण गंगा नदी के लिये योजना, वित्त, निगरानी तथा नियामक का कार्य करेगा तथा इसका उद्देश्य वर्ष 2020 तक गंगा नदी में गिराए जाने वाले सभी अवशिष्ट का ट्रीटमेंट कर गंगा को प्रदूषण मुक्त बनाना है। 15 जून, 2011 को NGRBA तथा विश्व बैंक के बीच हुए समझौते के तहत विश्व बैंक प्राधिकरण को एक अरब डाॅलर देगा। यह महत्त्वाकांक्षी योजना भी अपने लक्ष्यों की प्राप्ति में कहाँ तक सफल होगी कुछ कहा नहीं जा सकता, क्योंकि इसकी शुरुआत भी उम्मीदों के अनुरूप प्रभावी ढंग से नहीं हो पाई है।

उपरोक्त सारे तथ्यों पर विचार करने पर एक अहम प्रश्न उभरकर सामने आता है कि आखिर गंगा या अन्य नदियों के संरक्षण तथा उन्हें प्रदूषण मुक्त बनाने की योजनाएँ अपने लक्ष्यों तक पहुँचने में क्यों विफल रहीं? क्या इन विफलताओं के लिये सिर्फ सरकार को दोष देना उचित होगा? दरअसल इन योजनाओं की विफलता के लिये सबसे बड़ा कारण केन्द्र तथा राज्य सरकारों, सरकारी व गैर-सरकारी संस्थाओं, राजनैतिक-प्रशासनिक व नौकरशाही तंत्र, स्थानीय शासन-प्रशासन, बुद्धिजीवी व प्रभावशाली वर्ग, समाज के विभिन्न वर्गों से जुड़े लोगों तथा स्थानीय लोगों के बीच आपसी तालमेल व समन्वय का अभाव है। स्थानीय राजनैतिक-प्रशासनिक व नौकरशाही तंत्र तो इस मामले में लगभग उदासीनता बरतते हुए ही दिखाई देते हैं। जाहिर है केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकारें केवल अपने दम पर योजनाएँ बनाकर अपेक्षित लक्ष्यों को हासिल नहीं कर सकतीं जब तक कि उन्हें सभी प्राधिकरणों से अपेक्षित सहयोग नहीं मिल जाता।

इसके अलावा प्रकृति से सहजीवन की समाप्ति की ओर बढ़ती मानवीय प्रवृत्तियाँ, लोगों में बढ़ती अति उपभोक्तावादिता उद्योगों द्वारा अधिक उत्पादन के लिये प्राकृतिक संसाधनों का अनियोजित दोहन, व्यवस्था संचालन तथा प्रबन्धन की कमी एवं लोगों में नियम कानूनों तथा आदर्शों को ताक पर रखकर बढ़ती स्वच्छन्दता व उत्शृंखलता की प्रवृत्तियों से भी नदियों को प्रदूषण मुक्त बनाने में कठिनाई आ रही है।

कैसे हो सकती है गंगा प्रदूषण मुक्त?


प्रदूषित गंगा (1) गंगा को प्रदूषण मुक्त बनाने के लिये सर्वप्रथम केन्द्रीय स्तर पर शक्ति सम्पन्न ‘स्वायत्त निकाय’ की स्थापना की जानी चाहिए जिसकी विभिन्न शाखाएँ सम्बद्ध राज्यों में स्थापित हों। यह निकाय न सिर्फ सरकारी तथा गैर-सरकारी संस्थाओं की सहभागिता से अपने कार्यक्रमों का निर्धारण तथा क्रियान्वयन करेगा बल्कि मानीटरिंग तथा समय-समय पर समीक्षा भी करेगा। इसके अलावा प्रदूषण से सम्बन्धित केन्द्रीय तथा राज्य स्तर पर कठोर मानदंड एवं कानूनी प्रावधान भी बनाए जाने चाहिए।

(2) गंगा की स्वच्छता के लिये योजनाएँ बनाने से पूर्व सम्बद्ध क्षेत्रों की सामाजिक-आर्थिक तथा भौगोलिक परिस्थितियों का आकलन करना जरूरी है साथ ही वे विभिन्न कारण भी ढूँढे जाने जरूरी हैं जो गंगा या अन्य नदियों में प्रदूषण के लिये जिम्मेदार हैं। इसके पश्चात बुद्धिजीवी वर्ग, समाज के विविध पक्षों, पर्यावरण विशेषज्ञों तथा वैज्ञानिकों, स्थानीय शासन-प्रशासन से जुड़े प्रतिनिधियों तथा सामाजिक सरोकारों के प्रति संवेदनशील लोगों से व्यापक स्तर पर विचार विमर्श किया जाना चाहिए। इसके बाद जो प्रमुख बातें या आम राय उभरकर सामनें आती हैं उनके अनुसार नीतियों का निर्धारण तथा कार्यान्वयन किया जाना चाहिए।

(3) गंगा से जुड़ी कार्ययोजना को दीर्घकालिक तथा तात्कालिक परिणामों की दृष्टि से कई चरणों अथवा सूक्ष्म योजनाओं (माइक्रोप्लान) में बाँटा जा सकता है। योजना की सफलता के लिये केन्द्र व राज्य सरकारों, सरकारी व गैर-सरकारी संस्थाओं, स्थानीय राजनैतिक तथा प्रशासनिक तंत्र, समाज के विभिन्न पक्षों तथा बुद्धिजीवी वर्ग में बेहतर आपसी समन्वय एवं संवाद जरूरी है। किसी भी कार्ययोजना का प्रत्येक चरण के अन्त में मूल्यांकन तथा विश्लेषण करना जरूरी है ताकि भावी रणनीतियाँ तैयार की जा सकें। इसके अलावा केन्द्र सरकार द्वारा सम्बद्ध राज्यों, अधिकारियों, कर्मचारियों, स्थानीय शासन-प्रशासन तथा सरकारी व गैर-सरकारी संस्थाओं को स्पष्ट निर्देश दिये जाने चाहिए कि अगर वे नीतियों के सफल क्रियान्वयन में सहयोग नहीं करते हैं तथा अपने कर्तव्यों तथा उत्तरदायित्वों के प्रति उदासीनता बरतते हैं अथवा निर्धारित समय तक अपेक्षित लक्ष्यों की प्राप्ति करने में नाकाम रहते हैं तो उनके खिलाफ जाँच कमेटी बिठाकर विधायी कार्रवाई की जा सकती है। योजनाओं को क्षुब्द्ध राजनैतिक स्वार्थों से भी दूर रखा जाना चाहिए तथा यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि कोई भी व्यक्ति (अथवा संस्था) जो सरकारी कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में आड़े आएगा अथवा बाधा डालने का प्रयास करेगा उसके खिलाफ भी कठोर कानूनी कार्रवाई की जाएगी। सरकार चाहे तो इन सबके लिये अलग से भी विधायी प्रावधान बना सकती है।

(4) गंगा नदी के किनारे बसे प्रमुख नगरों, कस्बों तथा तीर्थस्थानों में उचित व अत्याधुनिक सीवेज ट्रीटमेंट प्लांटों की स्थापना व्यापक स्तर पर की जानी चाहिए। इसके अलावा कूड़ा कचरा निस्तारण तथा प्रबन्धन की कारगर तथा स्थायी व्यवस्था होनी जरूरी है। इस सम्बन्ध में स्थायी तथा प्रभावी विधियों-प्रविधियों तथा तकनीकी विकास के लिये अलग से अनुसन्धान एवं विकास प्रकोष्ठ की स्थापना भी की जा सकती है ताकि आवश्यकतानुसार नई तकनीकों का विकास कर उनका व्यावहारिक स्तर पर परीक्षण किया जा सके। इस प्रकार के शोध कार्य विश्वविद्यालयी स्तर तथा इंजीनियरिंग काॅलेजों के पाठ्यक्रम में भी शामिल किये जा सकते हैं। शोध कार्यों के लिये आवश्यक वित्तीय तथा तकनीकी संसाधन एवं अत्याधुनिक बुनियादी ढाँचे की उपलब्धता भी जरूरी है। अनुसन्धान तथा विकास कार्यों में उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले वैज्ञानिकों, तकनीकी विशेषज्ञों तथा कर्मचारियों को अच्छे वेतन पैकेज मुहैया करवाने के अलावा समय-समय पर पुरस्कारों से भी सम्मानित करना चाहिए।

(5) पर्यटकों तथा तीर्थ यात्रियों में जागरुकता पैदा करने के लिये प्रमुख पर्यटक तथा धार्मिक स्थलों में पर्यावरण जागरुकता से सम्बन्धित आवश्यक दिशा-निर्देशों तथा चेतावनियों को बड़े-बड़े होर्डिंग्स या बोर्डों के माध्यम से सार्वजनिक जगहों पर लिखा जाना चाहिए। इसके अलावा प्रमुख धार्मिक तथा पर्यटक स्थलों पर पर्यावरण से जुड़े केन्द्रीय या राज्य स्तरीय निकायों के आॅफिस भी जानकारी देने तथा निगरानी रखने के लिये अवश्य स्थापित किये जाने चाहिए। उक्त स्थानों पर CCTV कैमरों की मदद से भी निगरानी रखी जा सकती है। ऐसे स्थानों पर बायोडिग्रेडेबल तथा नान-बायोडिग्रेडेबल कचरे के लिये अलग-अलग स्थान निर्धारित किये जाने चााहिए। प्रिंट व इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के माध्यम से भी जनजागरुकता कार्यक्रमों को प्रकाशित तथा प्रसारित किया जा सकता है।

(6) सरकार द्वारा निर्धारित स्थान के विपरीत नदी, नालों तथा सार्वजनिक स्थानों पर कूड़ा-कचरा अथवा अवशिष्ट पदार्थ फेंकने वालों के खिलाफ जुर्माना तथा दण्ड सम्बन्धी कानूनी प्रावधान बनाए जाने चााहिए। गंगा के नज़दीक की औद्योगिक इकाइयों के लिये भी स्पष्ट निर्देश दिये जाने चाहिए कि वे अपने औद्योगिक कचरे तथा अवशिष्ट के लिये निस्तारण अथवा सीवेज ट्रीटमेंट की उचित व्यवस्था आवश्यक रूप से करें। गंगा में बिना ट्रीटमेंट के सीवेज अथवा कचरा डालने वाली औद्योगिक इकाइयों के विरुद्ध भी विधायी प्रावधान बनाए जाने चाहिए। इन कार्यों की जाँच तथा निगरानी के लिये गंगा शुद्धता व पर्यावरण से जुड़ी सरकारी एजेंसियों को ‘जाँच तथा निगरानी दल’ का गठन करना चाहिए। गंगा के किनारों पर बने धोबीघाटों, बूचड़खानों तथा मूर्ति विसर्जन स्थलों को हटाकर अलग जगह पर प्रतिस्थापित करना चाहिए। गंगा में लाशों तथा मवेशियों के बहाने, मूर्ति विसर्जन करने, कपड़े धोने, मल-मूत्र त्यागने तथा कूड़ा-करकट फेंकने पर प्रतिबन्ध लगाना चाहिए। ऐसा करने वालों के खिलाफ कानूनी प्रावधान बनाए जाने चाहिए। गंगा किनारे बसे स्थलों में पालीथीन जैसे अवशिष्टों को वर्जित किया जाना चाहिए तथा इन स्थानों पर पर्यावरण के मानकों को स्पष्ट कर लेना चाहिए।

(7) गंगा की उपयोगिता तथा उसको प्रदूषण मुक्त रखने के प्रति जागरुकता पैदा करने के लिये केन्द्र तथा राज्य सरकारों के विभिन्न विभागों, शैक्षिक संस्थानों, पर्यावरण से जुड़ी सरकारी तथा गैर-सरकारी संस्थाओं, स्थानीय शासन- प्रशासन, समाज के विविध वर्गों, बुद्धिजीवियों तथा पर्यावरण विशेषज्ञों को सम्मिलित रूप से समय-समय पर रैलियों, विचार-गोष्ठियों, सम्मेलनों, प्रशिक्षण कार्यक्रमों, प्रदर्शनियों तथा स्वच्छता अभियानों का आयोजन करना चाहिए। इन अभियानों में शामिल प्रत्येक व्यक्ति को एक डायरी देकर उनके सुझावों तथा प्रतिक्रियाओं को एकत्रित करके पर्यावरण से जुड़े निकायों के उच्च स्तर तक भेजना चाहिए तथा इसी आधार पर भावी रणनीतियों एवं अभियानों की रूपरेखा तय की जानी चाहिए। इसके अलावा विभिन्न अभिकरणों को सम्मिलित रूप से गंगा सफाई अभियानों का आयोजन भी करना चाहिए।

(8) हिमालयी क्षेत्र भू-गर्भीय पर्यावरणीय तथा भौगोलिक रूप से बेहद संवेदनशील माना जाता है। यहाँ के प्रमुख संवेदनशील क्षेत्रों को चिन्हित कर ‘आरक्षित क्षेत्र’ घोषित किया जाना चाहिए तथा उनमें अनुचित मानव हस्तक्षेप पर पूर्ण रोक लगाकर उनके संरक्षण तथा संवर्धन के प्रयास किये जाने चाहिए। हिमालयी क्षेत्र में नदियों के तटों तथा संवेदनशील स्थानों पर बसे प्रमुख पर्यटक स्थलों, तीर्थ स्थानों, शहरों तथा कस्बों में पर्यावरण संरक्षण से सम्बन्धित मानकों को कठोर बनाया जाना चाहिए तथा इनका उल्लंघन करने वालों के खिलाफ कठोर कानूनी प्रावधान बनाए जाने चाहिए। हिमालयी क्षेत्र में अवशिष्ट पदार्थों के निस्तारण व प्रबन्धन की स्थायी व्यवस्था की जानी चाहिए, नगरों-कस्बों-पर्यटक स्थलों तथा तीर्थों की बसावट ‘मास्टर प्लान’ के अनुसार की जानी चाहिए तथा पर्यावरण के मानकों के खिलाफ किये जाने वाले अव्यवस्थित तथा अवैध निर्माण कार्यों को हटाया जाना चाहिए। हिमालयी क्षेत्र छोटी तथा मध्यम आकार की जल विद्युत परियोजनाओं के लिये तो उपयुक्त हैं मगर यहाँ की प्रमुख नदियों पर बड़े-बड़े बाँधों का निर्माण पर्यावरण हितों के अनुकूल नहीं कहा जा सकता।

(9) गंगा नदी के किनारों को आरक्षित क्षेत्र घोषित करके वहाँ मानव की अनुचित गतिविधियों तथा निर्माण कार्यों पर रोक लगाई जानी चाहिए और गंगा के तटों पर हरित पट्टी के विकास के लिये व्यापक स्तर पर वृक्षारोपण तथा उनके संरक्षण व संवर्धन का कार्य शुरू किया जाना चाहिए। गंगा किनारों पर मजबूत तटबन्ध बनाने तथा हरित विकास पट्टी की स्थापना से गंगा प्रदूषण काफी हद तक कम हो जाएगा तथा गंगा का पानी स्वच्छ व निर्मल हो जाएगा। इसके लिये जल्दी ही कार्य योजना तैयार करनी चाहिए।

(10) विद्यार्थी भी गंगा को प्रदूषण मुक्त बनाने में अहम भूमिका निभा सकते है बशर्ते इस प्रकार के कार्यक्रमों को उनके पाठ्यक्रमों तथा शैक्षिक गतिविधियों में शामिल किया जाय। बच्चों को अपने पर्यावरण के प्रति बचपन से ही जागरूक बनाने की जरूरत है ताकि वे भविष्य में पर्यावरण के प्रति अपनी सीमाओं तथा उत्तरदायित्वों को पहचान सकें। रैलियों, गोष्ठियों, वाद-विवाद, पोस्टर व निबन्ध प्रतियोगिताओं, कार्यशालाओं तथा प्रदर्शनियों के माध्यम से विद्यार्थियों को जागरूक बनाया जा सकता है। उन्हें अवशिष्ट व प्रदूषित पदार्थों के निस्तारण व प्रबन्धन के लिये प्रशिक्षित किया जा सकता है तथा नदियों के आस-पास वृक्षारोपण व सफाई अभियानों में शामिल किया जा सकता है। पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले विद्यार्थियों को पुरस्कारों एवं छात्रवृत्तियों के माध्यम से भी प्रोत्साहन दिया जा सकता है।

सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (STP)


पूरी दुनिया में भविष्य में प्रयोग करने लायक पानी की उपलब्धता को लेकर बहस जारी है, ऐसे में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट की उपयोगिता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। विकसित देशों में तो सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट को तकनीकी तथा गुणवत्ता के स्तर पर और आर्थिक उन्नत बनाने के लिये व्यापक स्तर पर अनुसन्धान तथा विकास कार्य किये जा रहे हैं। हमारे घरों, व्यावसायिक संस्थानों तथा औद्योगिक इकाइयों का प्रदूषित पानी बहकर किसी नदी या तालाब में पहुँचता है, कभी-कभी यह प्रदूषित पानी कुछ औद्योगिक इकाइयों द्वारा ज़मीन में भी डाल दिया जाता है जो भूजल को प्रदूषित कर देता है। इस प्रदूषित जल को उपचारित कर पुनः प्रयोग में लाने के लिये STP का प्रयोग किया जाता है। सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट में प्रदूषित अवयवों को विशेष विधि से साफ किया जाता है। इसको साफ करने के लिये भौतिक-रासायनिक तथा जैविक विधियों का प्रयोग किया जाता है। प्रदूषित तत्वों का इस प्रकार शोधन किया जाता है कि उसका उपयोग वातावरण के सहायक के रूप में किया जा सके। सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट को ऐसी जगह बनाया जाता है जहाँ विभिन्न स्थानों का दूषित जल वहाँ लाया जा सके। इस प्रदूषित पानी को साफ करने की प्रक्रिया तीन चरणों मेें सम्पन्न होती है। पहले चरण में ठोस पदार्थों को पानी से अलग किया जाता है, दूसरे चरण में जैविक पदार्थ को एक ठोस समूह एवं वातावरण के अनुकूल बनाकर इसका प्रयोग किया जाता है तथा तीसरे चरण में प्रयोग करने योग्य पानी की निकासी की जाती है।

दिल्ली में खतरनाक स्तर तक बढ़ गया है यमुना में प्रदूषण


यमुना यमुनोत्री के पास से निकलने वाली यमुना इलाहाबाद तक करीब 1370 किमी. का सफर तय करती है। यमुना नदी के किनारे पर दिल्ली, मथुरा तथा आगरा सहित कई बड़े शहर, कस्बे तथा गाँव बसे हुए हैं मगर दिल्ली यमुना को प्रदूषित करने में अव्वल है। दिल्ली में यमुना लगभग 25 किमी. क्षेत्र से होकर बहती है यहाँ से 35 करोड़ लीटर सीवेज यमुना में गिरता है। यहाँ यमुना का पानी ‘ब्लैक वाटर’ में तब्दील हो जाता है। केन्द्र सरकार तथा राज्यों ने यमुना की सफाई के लिये भले ही पिछले दो दशकों में 2000 करोड़ रुपए से अधिक धनराशि खर्च कर दी हो मगर हालात सुधरने के बजाय बिगड़ते ही जा रहे हैं। ग़ौरतलब है कि भारतीय संस्कृति में पवित्र तथा पूजनीय मानी जाने वाली यमुना का शुमार विश्व की सर्वाधिक प्रदूषित नदियों में किया जाता है।

दिल्ली को पेयजल की अधिकांश आपूर्ति यमुना से ही होती है और पानी को स्वच्छ तथा पीने योग्य बनाने के लिये दिल्ली सरकार को ट्रीटमेंट पर भारी-भरकम राशि खर्च करनी पड़ती है। इलाहाबाद तथा वाराणसी के जल संस्थानों को पानी को पीने योग्य बनाने के लिये एक हजार लीटर पर जहाँ औसतन 6 रुपए खर्च करने पड़ते हैं वहीं दिल्ली में औसतन 12 रुपए खर्च करने पड़ते हैं। दिल्ली में बड़ी मात्रा में औद्योगिक कचरा तो यमुना में गिरता ही है, व्यावसायिक तथा घरेलू गन्दगी भी भारी मात्रा में गिरती है। यमुना में यहाँ लगभग डेढ़ सौ अवैध आवासीय काॅलोनियों की गन्दगी व कचरा गिरता है, इसके अलावा लगभग 1100 गाँव तथा मलिन बस्तियों की गन्दगी भी यमुना में समा जाती है। इन हालातों में यमुना के पानी का आॅक्सीजन शून्य होने का खतरा बढ़ गया है।

यद्यपि दिल्ली में बढ़ती आबादी की गन्दगी को साफ-सुथरा करने के लिये 20 ‘सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट’ भी संचालित हैं मगर इससे भी यमुना को प्रदूषित होने से नहीं बचाया जा सका है। यमुना में बढ़ते प्रदूषण को रोकने के लिये ‘जापान बैंक फाॅर इंटरनेशनल काॅर्पोरेशन’ ने भी काम करना शुरू किया मगर उसे भी आशातीत सफलता नहीं मिली। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में यमुना में बढ़ता प्रदूषण बेहद चिन्ताजनक विषय है जिस पर गम्भीरता से विचार किया जाना चाहिए। इस समस्या से निपटने के लिये सरकार के राजनैतिक-प्रशासनिक तंत्र सरकारी व गैर- सरकारी संस्थाओं तथा आम जनमानस को आपसी समझ-बूझ तथा समन्वय बढ़ाकर काम करना चाहिए।

इसके अलावा तकनीकी विकास तथा अन्य राष्ट्रों से तकनीकी समझौते भी करने चाहिए। बायोडिग्रेडेबल तथा नाॅन-बायोडिग्रेडेबल कूड़े का निस्तारण करके उन्हें उर्वरक या अन्य कार्यों के रूप में फिर से उपयोग में लाने योग्य बनाने के लिये अत्याधुनिक तकनीकी विकास जरूरी है। प्रमुख विकसित देशों में घरेलू तथा औद्योगिक कचरे का अत्याधुनिक तकनीकी कुशलता से ट्रीटमेंट करके तथा उसे रिसाइकिल करके फिर से विभिन्न उपयोगी कार्यों में प्रयोग किया जाता है। इसके अलावा उन्नत तकनीकी तथा गुणवत्ता वाले सीवेज ट्रीटमेंट प्लांटों की स्थापना भी जरूरी है। प्रदूषण को रोकने के लिये अन्य प्रकार की ईको फ्रेंडली तकनीकों का विकास करना भी जरूरी है। पर्यावरण के प्रति जनजागरुकता बढ़ाने के लिये विभिन्न स्तरों पर नियमित रूप से जनजागरुकता कार्यक्रमों का आयोजन किया जाना बेहद जरूरी है।

महत्त्वपूर्ण तथ्य


1. पौराणिक आख्यानों के अनुसार राजा सगर के पौत्र राजा भगीरथ ने अपने 60 हजार पुरखों के उद्धार के लिये गंगोत्री क्षेत्र में कई वर्षों तक कठोर तपस्या की थी जिसके पश्चात् शिव की जटाओं से वेगमयी गंगा ब्रह्मा के कमंडल में रुककर धरती पर अवतरित हुई थी। भगीरथ द्वारा धरती पर लाने के कारण गंगा को ‘भागीरथी’, कालिन्दी पर्वत से निकलने के कारण ‘कालिंदी’ तथा जान्हवी के नाम से भी जाना जाता है।

2. गंगोत्री ग्लेशियर के स्रोत गोमुख से निकलने के पश्चात बंगाल की खाड़ी में गिरने तक गंगा लगभग 2525 किमी. का सफर तय करती है।

3. भारत में सर्वाधिक उपनदियाँ गंगा की हैं जिनमें अलकनन्दा, मन्दाकिनी, भिलंगना, यमुना, रामगंगा, तमसा, गोमती, गंडक, कोसी, सोन तथा द्वारका प्रमुख हैं।

4. देवप्रयाग में भागीरथी तथा अलकनन्दा के मिलने के बाद ही भागीरथी को गंगा नाम मिलता है।

5. गंगा उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड तथा पश्चिम बंगाल राज्यों से होकर बहती है। इसके तटों पर गंगोत्री, उत्तरकाशी, देवप्रयाग, ऋषिकेश, हरिद्वार, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी, भागलपुर, पटना तथा कोलकाता जैसे प्रमुख शहर तथा तीर्थ स्थल बसे हुए हैं। गंगा की सहायक नदियों के तट पर केदारनाथ, बदरीनाथ जोशीमठ, रुद्रप्रयाग, श्रीनगर (गढ़वाल), यमुनोत्री, दिल्ली, आगरा तथा लखनऊ जैसे प्रमुख स्थल बसे हुए हैं।

6. इलाहाबाद में गंगा का यमुना से त्रिवेणी घाट पर मिलन होता है। पुराणों में वर्णित सरस्वती नदी (अब विलुप्त) इलाहाबाद में गंगा यमुना नदियों से संगम करती है, इसलिये यह स्थान त्रिवेणी के नाम से प्रसिद्ध है। वरुणा तथा असी नामक दो उपनदियाँ भी बनारस (काशी या वाराणसी) में गंगा से मिलती हैं।

7. भारत के नदी-तटों में सबसे बड़ा गंगानदी संयोजन (838200 वर्ग किमी.) है, यह भारत के कुल क्षेत्रफल का एक चौथाई है।

8. गंगा में 46870 करोड़ सी.सी. पानी (देश की जलराशि का 25.2 प्रतिशत) बहता है तथा यह 21280 करोड़ सी.सी. भूजल का भी सम्भरण करती है।

9. गंगा से देश की 42 प्रतिशत आबादी की जरूरतें पूरी होती हैं।

10. ऊपरी गंगा नहर से रोज़ाना 65 लाख लीटर गंगाजल दिल्ली जाता है।

11. गंगा का अविरल प्रवाह पहली बार 30 अक्तूबर, 2005 को टिहरी बाँध के कारण रुका।

12. गंगा में प्रदूषण का 80 फीसदी कारण शहरी तथा 20 फीसदी ग्रामीण है।

13. औद्योगिक कचरा, गन्दे नालों, अवशिष्ट व गन्दे पदार्थों को फेंकने, बूचड़खानों के जानवरों के अवशेषों व लावारिस जानवरों की लाशों को फेंकने, धोबीघाट व झोपड़पट्टियों द्वारा उत्पन्न गन्दगी, बड़ी-बड़ी मूर्ति विसर्जनों तथा जंगलों के ह्रास के कारण गंगा में प्रदूषण अधिक बढ़ा है।

शंकर प्रसाद तिवारी (विनय)
ग्रा.पो. - गुप्तकाशी (अपर मार्केट)
जनपद- रुद्रप्रयाग (पौड़ी गढ़वाल)
पिन कोड- 246439
मो.नं.- 9756918227, 9917876870
ईमेल : shankerprasadtiwariviney@gmail.com, shankerprasadtiwari@gmail.com

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