अगर हम यह मान लें कि लौह-अयस्क की कीमत 50 डॉलर प्रति टन है, तब भी पिछले साल गोवा की खनन कंपनियों ने करीब 1.15 अरब डॉलर यानी करीब 5,175 करोड़ रुपए की कमाई की है। नियम के मुताबिक ये कंपनियां प्रति टन के हिसाब से सरकार को रॉयल्टी देती हैं। अगर प्रति-टन अधिकतम पांच डॉलर की रॉयल्टी मान लें तो सरकार को मिले हैं सिर्फ 24 करोड़ रुपये। यहां जो लूट मची है और लोगों का जितना नुकसान हो रहा है, उसके मुकाबले यह रकम ऊंट के मुंह में जीरे की तरह है।गोवा में लौह-अयस्क हासिल करने के लिए हो रहे अंधाधुंध खनन से वहां के जंगल बर्बाद हो रहे हैं और लोग उजड़ रहे हैं। किसानों की खेती योग्य भूमि छीनी जा रही है और उनके जल संसाधन नष्ट हो रहे हैं। ग्रामीणों ने इसका हिंसक प्रतिरोध शुरू कर दिया है। पर सवाल है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है कि लोगों की आजीविका के साधनों को खत्म कर खनन का काम हो रहा है। हक़ीकत यह है कि चीन में लौह-अयस्क की मांग लगातार बढ़ रही है और इस बढ़ती मांग के कारण इसकी कीमत 14 डॉलर प्रति टन से बढ़कर 60 डॉलर प्रति टन हो गई है। इस तरह लौह-अयस्क के खान सोने की खान में तब्दील हो गए हैं और जिन खानों को घाटे का सौदा मान कर बंद कर दिया गया था, उन्हें फिर से चालू किया जा रहा है। ऐसी कुछ खानों को लोगों के प्रतिरोध के भय से बंद किया गया था, लेकिन अब उन्हें भी खोला जा रहा है। उद्योग जगत का कहना है कि यह ‘बूम टाइम’ है। चीन खराब क्वालिटी का लौह-अयस्क लेने के लिए तैयार है, जिसकी गोवा में भरमार है।
गोवा का उद्योग जगत चीन की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए किए जा रहे अंधाधुंध खनन पर सवाल नहीं उठा रहा है, बल्कि इस मांग को पूरा करने के लिए उतावला हो रहा है। जनवरी 2007 में चीन ने एक अनुमान के मुताबिक करीब तीन करोड़ 60 लाख टन लौह-अयस्क का आयात किया है, जिसमें अकेले भारत ने 70 लाख टन की आपूर्ति की है। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि भारत से चीन को होने वाले लौह-अयस्क के निर्यात में 18 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। इस आपूर्ति श्रृंखला में गोवा शीर्ष पर है। पिछले छह सालों में गोवा से होने वाले खनिज पदार्थों का निर्यात 35 फीसदी बढ़ कर करीब दो करोड़ तीन लाख टन हो गया है। इससे एक बात स्पष्ट है कि गोवा का चीनी कनेक्शन गोवा के लिए बहुत भारी पड़ेगा। एक तरफ इस अंधाधुंध खनन से खनन कंपनियों का मुनाफा लगातार बढ़ रहा है, जो उनकी स्टॉक की कीमतों व बैलेंस शीट में दिख रहा है, लेकिन जिन गांवों में खनन का काम चल रहा है, वहां से लोग उजड़ रहे हैं। सरकारी अनुमानों के मुताबिक गोवा में 430 खदानों के लाइसेंस दिए गए हैं। इनमें से ज्यादातर पुर्तगाली सरकार द्वारा दिए गए थे, जिन्हें भारत सरकार ने लीज में तब्दील कर दिया था। पर 1998 तक इनमें से महज 99 खदान चल रहे थे। अब आनन-फानन में सारे खदान खोले जा रहे हैं।
यह समझना जरूरी है कि इस खनन का गांव वालों के लिए क्या मतलब है? अगर लाइसेंसशुदा सारे खदान चालू हो जाएं तो गोवा की 8.5 फीसदी भूमि इनके दायरे में आ जाएगी। उद्योग जगत का कहना है कि इससे बहुत नुकसान नहीं होगा, लेकिन हक़ीकत कुछ और है। वास्तविकता यह है कि कई जगह पूरे के पूरे गांव खदान के दायरे में आ रहे हैं। सूचना का अधिकार के तहत मांगी गई सूचना के मुताबिक कई गावों में भूमि का ज्यादातर हिस्सा खदान के लिए लीज पर दे दिया गया है। उदाहरण के लिए कोलंबो गांव को लिया जा सकता है, जिसके 1,900 हेक्टेयर क्षेत्रफल में से 1,500 हेक्टेयर खदान के दायरे में आ रहा है। यह सिर्फ एक गांव का मसला नहीं है, बल्कि इस तरह के खदानों से गांव के गांव बर्बाद हो रहे हैं और लोगों की आजीविका छीनी जा रही है।
खनन के क्षेत्र में आई तेजी का और भी ख़ामियाज़ा लोगों को भुगतना पड़ रहा है। खनिज पदार्थ ट्रकों के जरिए गांवों के बीच से ले जाए जा रहे हैं, जिससे प्रदूषण फैल रहा है, यातायात की परेशानी पैदा हो रही है और ट्रकों से गिरने वाला कच्चा खनिज पदार्थ कई तरह की समस्याएं पैदा कर रहा है। इस वजह से कई जगह गांवों के लोगों ने इन ट्रकों को रोकना शुरू कर दिया है। पिछले साल गोवा से करीब तीन करोड़ तीस लाख टन खनिज पदार्थ बाहर ले जाया गया है। गोवा के अलावा कर्नाटक भी इसी रास्ते से अपने खनिज पदार्थ भेजता है। अगर सिर्फ गोवा के खनिज पदार्थों की ढुलाई के आंकड़ों का विश्लेषण करें तो पता चलता है कि हर दिन सात हजार ट्रक गोवा के विभिन्न गावों की सड़कों से खनिज पदार्थ लेकर निकलते हैं।
अब सवाल पूछा जा सकता है कि आखिर हम इसे लेकर इतने चिंतित क्यों हैं? निश्चित रूप से ‘एन्वायरन्मेंट इंपैक्ट असेसमेंट (ईआईए)’, वन विभाग आदि को इसका ध्यान रखना चाहिए। समस्या यह है कि कानून के हिसाब से यह तो अनिवार्य है कि पर्यावरण पर होने वाले असर का आकलन करते हुए लोगों की राय ली जाए। लेकिन जब जन सुनवाइयों में लोग इन खदानों को न कह देते हैं , तब भी केंद्र सरकार का वन व पर्यावरण मंत्रालय इसकी मंजूरी दे देता है। दूसरी समस्या यह है कि गोवा में वनों का बहुत सा हिस्सा अधिसूचित नहीं किया गया है। इनमें ज्यादातर वन इलाके समुदायों की ज़मीन पर हैं या निजी ज़मीन पर, इसलिए इन्हें काटने के लिए वन विभाग की मंजूरी अनिवार्य नहीं है। इसलिए कोई इसका ध्यान नहीं रखता है कि कैसे गावों के लोगों के जल स्रोत ग़ायब हो रहे हैं। ऊपर से स्थानीय लोगों को समझाने का उद्योग जगत का अपना तरीका है। कई जगहों पर जहां जाकर मैंने देखा, मुझे भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के बारे में सुनने को मिला। पंचायत प्रमुखों से लेकर स्थानीय नेताओं तक की मिली-भगत से सारा खेल चल रहा है। चुने हुए प्रतिनिधि यहां मध्यस्थ के अलावा कोई भूमिका नहीं निभा रहे हैं- मसला चाहे खनन का हो या माल ढुलाई का।
यह बहुत स्पष्ट है कि यहां दाँव पर बहुत बड़ी रकम लगी है। अगर हम यह मान लें कि लौह-अयस्क की कीमत 50 डॉलर प्रति टन है, तब भी पिछले साल गोवा की खनन कंपनियों ने करीब 1.15 अरब डॉलर यानी करीब 5,175 करोड़ रुपए की कमाई की है। नियम के मुताबिक ये कंपनियां प्रति टन के हिसाब से सरकार को रॉयल्टी देती हैं। अगर प्रति-टन अधिकतम पांच डॉलर की रॉयल्टी मान लें तो सरकार को मिले हैं सिर्फ 24 करोड़ रुपये। यहां जो लूट मची है और लोगों का जितना नुकसान हो रहा है, उसके मुकाबले यह रकम ऊंट के मुंह में जीरे की तरह है। लेकिन यह प्रक्रिया बहुत दिन तक नहीं चल सकती है। फैसला गोवा को करना होगा। यहां के लोग खुद को सस्ती कीमत पर चीन के हाथों बेचेंगे या खनन के काम को नियंत्रित कर ज्यादा मुनाफ़ा कमाएंगे और लाभ का हिस्सेदार बनेंगे? यह आर या पार की स्थिति है, जिसके बारे में स्पष्ट राय बनानी होगी।
गोवा का उद्योग जगत चीन की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए किए जा रहे अंधाधुंध खनन पर सवाल नहीं उठा रहा है, बल्कि इस मांग को पूरा करने के लिए उतावला हो रहा है। जनवरी 2007 में चीन ने एक अनुमान के मुताबिक करीब तीन करोड़ 60 लाख टन लौह-अयस्क का आयात किया है, जिसमें अकेले भारत ने 70 लाख टन की आपूर्ति की है। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि भारत से चीन को होने वाले लौह-अयस्क के निर्यात में 18 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। इस आपूर्ति श्रृंखला में गोवा शीर्ष पर है। पिछले छह सालों में गोवा से होने वाले खनिज पदार्थों का निर्यात 35 फीसदी बढ़ कर करीब दो करोड़ तीन लाख टन हो गया है। इससे एक बात स्पष्ट है कि गोवा का चीनी कनेक्शन गोवा के लिए बहुत भारी पड़ेगा। एक तरफ इस अंधाधुंध खनन से खनन कंपनियों का मुनाफा लगातार बढ़ रहा है, जो उनकी स्टॉक की कीमतों व बैलेंस शीट में दिख रहा है, लेकिन जिन गांवों में खनन का काम चल रहा है, वहां से लोग उजड़ रहे हैं। सरकारी अनुमानों के मुताबिक गोवा में 430 खदानों के लाइसेंस दिए गए हैं। इनमें से ज्यादातर पुर्तगाली सरकार द्वारा दिए गए थे, जिन्हें भारत सरकार ने लीज में तब्दील कर दिया था। पर 1998 तक इनमें से महज 99 खदान चल रहे थे। अब आनन-फानन में सारे खदान खोले जा रहे हैं।
यह समझना जरूरी है कि इस खनन का गांव वालों के लिए क्या मतलब है? अगर लाइसेंसशुदा सारे खदान चालू हो जाएं तो गोवा की 8.5 फीसदी भूमि इनके दायरे में आ जाएगी। उद्योग जगत का कहना है कि इससे बहुत नुकसान नहीं होगा, लेकिन हक़ीकत कुछ और है। वास्तविकता यह है कि कई जगह पूरे के पूरे गांव खदान के दायरे में आ रहे हैं। सूचना का अधिकार के तहत मांगी गई सूचना के मुताबिक कई गावों में भूमि का ज्यादातर हिस्सा खदान के लिए लीज पर दे दिया गया है। उदाहरण के लिए कोलंबो गांव को लिया जा सकता है, जिसके 1,900 हेक्टेयर क्षेत्रफल में से 1,500 हेक्टेयर खदान के दायरे में आ रहा है। यह सिर्फ एक गांव का मसला नहीं है, बल्कि इस तरह के खदानों से गांव के गांव बर्बाद हो रहे हैं और लोगों की आजीविका छीनी जा रही है।
खनन के क्षेत्र में आई तेजी का और भी ख़ामियाज़ा लोगों को भुगतना पड़ रहा है। खनिज पदार्थ ट्रकों के जरिए गांवों के बीच से ले जाए जा रहे हैं, जिससे प्रदूषण फैल रहा है, यातायात की परेशानी पैदा हो रही है और ट्रकों से गिरने वाला कच्चा खनिज पदार्थ कई तरह की समस्याएं पैदा कर रहा है। इस वजह से कई जगह गांवों के लोगों ने इन ट्रकों को रोकना शुरू कर दिया है। पिछले साल गोवा से करीब तीन करोड़ तीस लाख टन खनिज पदार्थ बाहर ले जाया गया है। गोवा के अलावा कर्नाटक भी इसी रास्ते से अपने खनिज पदार्थ भेजता है। अगर सिर्फ गोवा के खनिज पदार्थों की ढुलाई के आंकड़ों का विश्लेषण करें तो पता चलता है कि हर दिन सात हजार ट्रक गोवा के विभिन्न गावों की सड़कों से खनिज पदार्थ लेकर निकलते हैं।
अब सवाल पूछा जा सकता है कि आखिर हम इसे लेकर इतने चिंतित क्यों हैं? निश्चित रूप से ‘एन्वायरन्मेंट इंपैक्ट असेसमेंट (ईआईए)’, वन विभाग आदि को इसका ध्यान रखना चाहिए। समस्या यह है कि कानून के हिसाब से यह तो अनिवार्य है कि पर्यावरण पर होने वाले असर का आकलन करते हुए लोगों की राय ली जाए। लेकिन जब जन सुनवाइयों में लोग इन खदानों को न कह देते हैं , तब भी केंद्र सरकार का वन व पर्यावरण मंत्रालय इसकी मंजूरी दे देता है। दूसरी समस्या यह है कि गोवा में वनों का बहुत सा हिस्सा अधिसूचित नहीं किया गया है। इनमें ज्यादातर वन इलाके समुदायों की ज़मीन पर हैं या निजी ज़मीन पर, इसलिए इन्हें काटने के लिए वन विभाग की मंजूरी अनिवार्य नहीं है। इसलिए कोई इसका ध्यान नहीं रखता है कि कैसे गावों के लोगों के जल स्रोत ग़ायब हो रहे हैं। ऊपर से स्थानीय लोगों को समझाने का उद्योग जगत का अपना तरीका है। कई जगहों पर जहां जाकर मैंने देखा, मुझे भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के बारे में सुनने को मिला। पंचायत प्रमुखों से लेकर स्थानीय नेताओं तक की मिली-भगत से सारा खेल चल रहा है। चुने हुए प्रतिनिधि यहां मध्यस्थ के अलावा कोई भूमिका नहीं निभा रहे हैं- मसला चाहे खनन का हो या माल ढुलाई का।
यह बहुत स्पष्ट है कि यहां दाँव पर बहुत बड़ी रकम लगी है। अगर हम यह मान लें कि लौह-अयस्क की कीमत 50 डॉलर प्रति टन है, तब भी पिछले साल गोवा की खनन कंपनियों ने करीब 1.15 अरब डॉलर यानी करीब 5,175 करोड़ रुपए की कमाई की है। नियम के मुताबिक ये कंपनियां प्रति टन के हिसाब से सरकार को रॉयल्टी देती हैं। अगर प्रति-टन अधिकतम पांच डॉलर की रॉयल्टी मान लें तो सरकार को मिले हैं सिर्फ 24 करोड़ रुपये। यहां जो लूट मची है और लोगों का जितना नुकसान हो रहा है, उसके मुकाबले यह रकम ऊंट के मुंह में जीरे की तरह है। लेकिन यह प्रक्रिया बहुत दिन तक नहीं चल सकती है। फैसला गोवा को करना होगा। यहां के लोग खुद को सस्ती कीमत पर चीन के हाथों बेचेंगे या खनन के काम को नियंत्रित कर ज्यादा मुनाफ़ा कमाएंगे और लाभ का हिस्सेदार बनेंगे? यह आर या पार की स्थिति है, जिसके बारे में स्पष्ट राय बनानी होगी।
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