चिड़ियों का बिंब चिडीखो

यहां के घने जंगलों में तेंदुआ, सांभर, नीलगाय, चीतल, जंगली सुअर, मोर, लंगूर बंदर होने की जानकारी जंगल वाले देते हैं। पर इन सबसे परे यह अभ्यारण्य 1935 में 22 हेक्टेयर में बने चिड़िया के आकार के तालाब के कारण प्रसिद्ध है, जिसे चिडीखो के नाम से सभी पुकारते हैं। तालाब और घने जंगल ने जंगली जानवरों को ही नहीं बल्कि चिड़ियों को भी आश्रय दिया है और मध्य प्रदेश के राज्य पक्षी दूधराज सहित यहां 170 प्रजाति के पक्षी देखने को मिलते हैं। मध्य प्रदेश के राजगढ़ जिले के नरसिंहगढ़ की पहाड़ियों और उस पर बिछी हरियाली की चादर को नरसिंहगढ़ अभ्यारण्य का दर्जा दिया गया है। भोपाल से गुना-ग्वालियर जाने वाली सड़क पर 80 किलोमीटर दूर दाईं ओर नरसिंहगढ़ अभ्यारण्य का प्रवेश द्वार दिखाई पड़ता है। यह पूर्व में नरसिंहगढ़ स्टेट की शिकारगाह हुआ करता था।

यहां के घने जंगलों में तेंदुआ, सांभर, नीलगाय, चीतल, जंगली सुअर, मोर, लंगूर बंदर होने की जानकारी जंगल वाले देते हैं। पर इन सबसे परे यह अभ्यारण्य 1935 में 22 हेक्टेयर में बने चिड़िया के आकार के तालाब के कारण प्रसिद्ध है, जिसे चिडीखो के नाम से सभी पुकारते हैं।

तालाब और घने जंगल ने जंगली जानवरों को ही नहीं बल्कि चिड़ियों को भी आश्रय दिया है और मध्य प्रदेश के राज्य पक्षी दूधराज सहित यहां 170 प्रजाति के पक्षी देखने को मिलते हैं। अभ्यारण्य के बीच में शैलचित्र और जैन मूर्तियां भी हैं।

अभ्यारण्य के अंदर घुसते ही चारों ओर की हरियाली मेरे अंदर भी छा गई। लोगों के बीच जानवर या पक्षी तो बहुत ही कम सामने आते हैं, पर पेड़-पौधों को देखना अक्सर नए-नए आकार में देखना मजेदार होता है। यद्यपि पेड़-पौधे भी चल पाते, तो शायद वे दूर भाग जाते।

खैर, अभ्यारण्य में सबसे पहला पड़ाव चिड़ीखो ही था। वहां चारों ओर की हरियाली में सागर सरीखा तालाब धुप में चमक रहा था। कई बार ऐसा भी लगा सूरज की चमक में तालाब नहीं, बल्कि तालाब से छिटकती रोशनी में सूरज चमक रहा है। मैं तालाब को निहार ही रहा था कि उस पार कुछ हलचल सी हुई। मैंने दूरबीन लगाई और उस किनारे को इस किनारे लाकर देखा, तो चीतल के दो छौने छलांग लगाते हुए झाड़ियों की ओर निकल गए।

यहां से आगे निकलना अपने को भी था पर झुरमुटों की ओर नहीं बल्कि नेचर ट्रैक की ओर। बिलकुल शांत होने की कोशिश के बावजूद कोलाहल के बीच आगे बढ़ते हुए एक पुरातत्विक अवशेष के पास पहुंच गए। यहां से फिर एक चक्कर लगाते हुए वापस उसी जगह पर बीच में बरसाती नालों से गुजरते हुए, जिसमें पानी अभी भी ठहरा हुआ था। यहां से बाहर निकल एक पहाड़ी से गुजरते हुए अभ्यारण्य को पार करना था।

तालाब के एक छोर से चढ़ाई शुरू की और पहाड़ के ऊपर उसी किनारे एक वॉच टावर बना हुआ था, जिस पर चढ़ कर तालाब को देखने से पता चला कि उसका आकार चिड़िया की तरह है। एक गौरैया की तरह। गौरैया ही क्यों? कोई और क्यों नहीं? तभी किसी ने कहा - बिलकुल मैना की तरह। किसी और की आवाज आई - कोयल की तरह। सबकी अपनी-अपनी चिड़िया। चिड़ियों का बिंब चिडीखो।

चिडीखोकई बार ऐसा होता है कि आंखों से जो चीज छूट जाती है, उसे कैमरा पकड़ लेता है। वॉच टावर से ही तालाब की ओर पेड़ों को देखने से ऐसा लगा कि पेड़ों ने अपनी टहनियों से एक जाल बुन दिया हो। तभी वॉच टावर एक मछुआरा दिखने लगा और लगा, बस वो तालाब में जाल फेंकने ही वाला है। एक रोमांचकारी अनुभव।

अभ्यारण्य के बीचोंबीच बने पैदल पथ पर कभी दाईं ओर तो कभी बाईं ओर, कभी नीचे कुछ ढूंढते हुए और कुछ रोमांचित होते हुए आगे बढ़ते जाना और फिर कभी रुक कर कुछ झाड़ियों या पेड़ों की डालियों के साथ-साथ इधर-उधर दीमक के बनाए पहाड़ों को मुआयना करने में बहुत मजा आ रहा था। कुछ जाने-पहचाने पक्षी एवं कीट पतंगे शाही अंदाज में दिख रहे थे। जब दिन सिर पर चढ़ गया, तब हम पहुंच गए शैल चित्रों वाली जगह पर।

घने जंगलों के बीच प्राचीन मुर्तियों के अवशेष एवं शैल चित्र को खोजने वाले अक्सर मुझे आकर्षित करते हैं। यहां जैन मुर्तियों के अवशेष पड़े हुए थे। दुखद बात यह थी कि मुर्तियों के ऊपर ही युगलों द्वारा कुरेद कर लिखे गए नाम सौंदर्य पर दाग बनकर उभरे हुए थे। कुछ ने तो शैल चित्रों के बगल में अपनी कलाकारी दिखा दी थी।

दिन उतरने की ओर चल पड़ा और हम भी साथ-साथ उतरते हुए पहाड़ के दूसरे छोर की ओर निकल आए। दिन भर पेड़ों, पत्थरों, कंदराओं और ढलानों के बीच से गुजरते हुए पूरे दिन अपने अंदर आनंद की अनुभूति कराने का मौका देने वाले अभ्यारण्य को शुक्रिया तो कहना ही था। शुक्रिया चिडीखो, दिन भर की दोस्ती के लिए।

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Post By: Shivendra
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