उत्तराखंड में हर साल औसतन ढाई हजार हेक्टेअर जंगल जल रहे हैं, गर्मियां शुरू होते ही पहाड ़पर हाहाकार शुरू हो जाता है। हर ओर धुंध ही धुंध। जलते जंगलों के बीच अक्सर सांस लेना तक मुश्किल हो जाता है। पहाड़ों पर जंगल में आग फैलने के साथ ही शुरू होता है आग के कारणों पर बहस का एक अंतहीन सिलसिला। वन विभाग ‘खलनायक’ की भूमिका में नजर आने लगता है, तो दोष स्थानीय ग्रामीणों के सिर भी जाता है । दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि असल कारण हर कोई जानता है, मगर उसका उपाय न सरकार करना चाहती है और न महकमा। दरअसल पहाड़ में आग का असल कारण है चीड, जिसकी सूखी पत्तियों के कारण आज पूरा पहाड़ ‘बारूद’ के ढेर पर है। आश्चर्य यह है कि सरकार इसे खत्म करने या रोकने के बजाय उसकी सूखी पत्तियों से कभी बिजली और ईधन बनाने की योजनाएं बनाकर राज्य की आर्थिकी मजबूत करने और बेरोजगारी दूर करने का दावा करती है, तो कभी चीड़ की सूखी पत्तियों से चेकडैम बनाकर भूकटाव रोकने की बात करती है। न जाने क्यों सरकार और उसके सलाहकार यह भूल जाते हैं कि इन योजनाओं से न तो चीड़ के दुष्प्रभावों में ही कमी आएगी और न उसका मूल स्वभाव ही बदलेगा।
कुछ तो है जो सरकार चीड़ के मोह में फंसी है। हर साल सरकार की हवा हवाई योजनाओं पर लाखों रुपया खर्च होता है। सरकार की इन योजनाओं से पिरूल तो कम नहीं हुआ। हां, जंगलों में चीड़ के फैलाव के साथ ही पहाड़ की ढलानों पर पिरूल बेतहाशा बढ़ता जरूर चला गया। पहाड़ के ढलानों पर लाखों टन पिरूल जमा है, जो एक साल आग से बच जाए तो अगले साल के लिए कई गुना अधिक खतरनाक हो जाता है। जंगल जिस प्रदेश की पहचान है, जहां 70 फीसदी से अधिक जंगल बताया जा रहा है, वहां आज हालात यह है कि बांज, बुरांश, देवदार के जंगल खत्म हो रहे हैं, चैड़ी पत्तियों वाले मिश्रित वन घट रहे हैं। वहां का पर्यावरण लगातार बिगड़ रहा है, जलस्रोत सूख रहे हैं, तमाम औषधीय वनस्पतियां या तो लुप्त हो चुकी हैं या लुप्त होने की कगार पर हैं। यकीनन, सिर्फ जंगल के ही नहीं पहाड़ पर जन जीवन के भी हालात चिंताजनक बने हुए हैं। चीड़ उत्तराखंड की बहुत बड़ी समस्या बन चुका है, जिसका अंदाजा सरकार और सिस्टम दोनो को है। मगर आश्चर्य यह है कि फिर भी चीड़ से सरकारों की ‘मोहब्बत‘ कम नहीं होती।
हर साल पचास लाख टन से अधिक पिरूल इन जंगलों से गिर रहा है। एक आंकड़े के मुताबिक तकरीबन 71 फीसद वन भू-भाग वाले उत्तराखंड में वन विभाग के अधीन 25,86,318 हेक्टेयर वन क्षेत्र है। जिसमें चीड़ ने 15.25 फीसदी पर कब्जा कर लिया है, जबकि बांज के जंगल सिमटकर 12.81 फीसदी रह गए हैं। यह आंकड़ा सरकारी है और सालों पुराना है, जबकि सच्चाई यह है कि चीड़ का वन क्षेत्र 17 फीसदी से भी अधिक हो चुका है। नीति नियंता भले ही इस सच्चाई से मुंह मोड़ लें, लेकिन तेजी से बढ़ता चीड़ जैव विविधता और वनस्पतिक विविधता के साथ ही वातावरण की नमी को भी खत्म कर रहा है।
चीड़ से सरकार की ‘मोहब्बत‘ का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि सरकार आज भी चीड़ को हटाने की बात नहीं करती। बात होती है तो चीड़ की पत्तियों, मतलब पिरूल के इस्तेमाल की। हाल ही में सरकार ने पिरूल से बिजली बनाने के लिए बीस लोगों को आवंटन पत्र जारी किये हैं। फिलवक्त यह आवंटन 675 किलोवाट बिजली पैदा करने के लिए दिये गए है, लेकिन सरकार का दावा है कि राज्य में सालाना 14.47 लाख मिट्रिक टन पिरुल से 162 मेगावाट बिजली तैयार की जाएगी। सरकार के मुताबिक तकरीबन 60 हजार लोगों को इससे रोजगार मिलेगा। मौजूदा त्रिवेंद्र सरकार ने इस योजना को पिरूल नीति का नाम दिया है।
सुनने में यह काफी अच्छा लग रहा है कि सरकार पिरूल से 162 मेगावाट बिजली तैयार करेगी, लेकिन सच्चाई यह है कि यह एक योजना मात्र है, जिसमें 100 मेगावाट बिजली तैयार करने का लक्ष्य ही 2030 तक रखा गया है। दूसरी बात यह कि यह कोई नया सपना नहीं है, पिछली सरकार भी यही सपना दिखा चुकी है। चलो, थोड़ी देर के लिए सरकार की योजना पर यकीन कर भी लिया जाए तो सवाल यह खड़ा होता है कि 15 साल बाद 100 मेगावाट बिजली पैदा होने से क्या चीड़ से खड़ी समस्या का समाधान हो जाएगा ? जिस तेजी से चीड़ आक्रांता की तरह पहाड़ के मिश्रित वनों में घुस रहा है, उससे तो अगले 15 सालों में भयावहता का सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि पिरूल से बिजली की योजना पर सरकार उस समय तालियां बटोर रही थी, जब वन विभाग के सीजनल कर्मचारी पिरूल के कारण जंगलों में लगी आग बुझाने के लिए अपनी जान को दाव पर लगाए हुए थे।
सच यह है कि पिरूल की बिजली और ईंधन की जिस योजना से सरकार रोजगार और आर्थिकी के सपने दिखा रही है, वह कोई नयी नहीं है। योजना प्रदेश में पहले से चल रही है, पिरूल से बिजली उत्पादन हो भी रहा है। सवाल दरअसल योजना पर नहीं सवाल व्यवहारिकता का है। पिरूल के इस्तेमाल के लिए योजना बनाना मर्ज का इलाज करना नहीं बल्कि साइड इफेक्ट का इलाज करने जैसा है। आज जरूरत पिरूल के इलाज की नहीं बल्कि चीड़ के इलाज की है। जहां तक पिरूल के इस्तेमाल को लेकर योजनाओं का सवाल है तो यह योजनाएं तो वर्षों से बनती बिगड़ती आ रही हैं। योजनाएं चर्चा में आती हैं और फिर गुम भी हो जाती हैं। मसलन पिरूल से कोयला बनाने और पानी के तेज प्रवाह पर चेकडेम बनाने की योजना भी खासी चर्चा में रही। चीड़ की पत्तियों से कोयला बनाने को ही लें। यह सही है कि पिरूल से कोयला बन रहा है, मगर दूसरा पहलू यह भी है कि यह श्रम साध्य होने के साथ ही खर्चीला भी है। चीड़ की पत्तियों को एक सीमा से अधिक एकत्र करना मानव श्रम से बाहर की बात है। एक बार तो यहां तक भी कहा जा रहा था कि पिरूल से कागज तैयार किया जाएगा, इस योजना का तो कहीं अता पता भी नही है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि पिरूल से कोयला बनाने और चेकडैम की योजनाओं पर काम हुआ है। कुछ योजनाएं काफी समय से संचालित भी हैं, लेकिन सवाल वही है कि क्या इन योजनाओं को चीड़ से खड़ी हुई समस्या के समाधान के तौर पर देखा जा सकता ?
हो सकता है चीड़ वन महकमे के लिए वन क्षेत्र बढ़ाने में मुफीद रहा हो, लेकिन यह तथ्य भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि उत्तराखंड के लिए यह विनाशकारी साबित हुआ है। निसंदेह हर वृक्ष की तरह चीड़ के अपने गुण भी होंगे, मगर आज का सच यही है कि चीड़ पहाड़ पर न तो मानव जीवन के लिए उपयोगी है, न जीव जंतुओं और पक्षियों के लिए। दरअसल चीड़ उत्तराखंड का मूल वृक्ष है ही नहीं, इसका यहां के स्थानीय समाज व परंपराओं से कोई रिश्ता नहीं है। यह वृक्ष तो अंग्रेजराज की देन है। अंग्रेज अपनी व्यवसायिक जरूरतों की पूर्ति के लिए इसे यूरोप से यहां लाए थे। चीड़ की खासियत है कि वह 40 से 50 मीटर तक सीधे ऊपर की ओर तेजी से बढ़ता है, कुछ ही सालों में ही इसका तना भी काफी मोटा हो जाता है। चीड़ की इसी विशेषता के चलते अंग्रेजों ने हिमालयी क्षेत्र में बड़े पैमाने पर इस रोपण किया और कटान भी किया। उन्होंने रेल लाइनों के निर्माण से लेकर भवन और पुलों के निर्माण में चीड़ के ही स्लीपरों का इस्तेमाल किया। एक समय में तो पक्की सड़क निर्माण में लिए इस्तेमाल होने वाले तारकोल में भी चीड़ की खासी उपयोगिता रही है। इस लिहाज से देखा जाए तो चीड़ एक समय में व्यवसायिक लिहाज से खासा फायदेमंद रहा है। मौजूदा समय में यह चीड़ निष्प्रोज्य हो चुका है। अब सवाल यह नहीं है कि चीड़ कितना लाभकारी है, सवाल यह है कि चीड़ आज कितना विनाशकारी है ? उत्तराखंड का आधे से अधिक भू-भाग हमेशा से ही जंगलों से घिरा रहा है। अतीत गवाह है कि पहले जंगलों में आग की घटनाएं बहुत कम होती थीं। ग्रामीण जंगलों पर निर्भर थे, उनका जंगल के साथ एक भावनात्मक रिश्ता था। स्थानीय ग्रामीण जंगलों को अपने पाल्यों की तरह पालते थे। पशुओं के चारे के लिए तब जंगल में कटीली झाड़ियों को जलाकर जगह बनायी जाती थी, लेकिन फिर भी जंगल में आग नहीं फैलती थी। बरसात शुरू होते ही जंगल मुलायम घास से भरपूर हरे हो जाते थे। जंगल में चैड़ी पत्तियों के पेड़ बहुतायात में हुआ करते थे जो जल्द आग नहीं पकड़ते थे।
आज परिस्थितियां बदल चुकी हैं, अधिकांश जगह ग्रामीण अब जंगलों से घास नहीं लाते। घास के लिए कंट्रोल फायर अब बीते जमाने की बात हो चली है, इसके बाद भी सैकड़ों हेक्टेयर जंगल हर साल झुलस रहे हैं। अलग राज्य बने अभी बीस साल पूरे नहीं हुए हैं लेकिन अकेले इस दौरान ही राज्य का तकरीबन 45 हजार हेक्टेअर से अधिक जंगल आग का शिकार हो चुका है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इसका सीधा जिम्मेदार चीड़ है। चीड़ प्राकृतिक रूप से फैलने की क्षमता भी रखता है। वन विभाग ने वन विकास के लिए जो चीड़ रोपा, धीरे-धीरे वह उत्तराखंड के बड़े इलाके में पसर गया। चिंताजनक यह है कि राज्य में चार लाख हेक्टेयर से अधिक वन क्षेत्र पर चीड़ खड़ा है। हर साल पचास लाख टन से अधिक पिरूल इन जंगलों से गिर रहा है। एक आंकड़े के मुताबिक तकरीबन 71 फीसद वन भू-भाग वाले उत्तराखंड में वन विभाग के अधीन 25,86,318 हेक्टेयर वन क्षेत्र है। जिसमें चीड़ ने 15.25 फीसदी पर कब्जा कर लिया है, जबकि बांज के जंगल सिमटकर 12.81 फीसदी रह गए हैं। यह आंकड़ा सरकारी है और सालों पुराना है, जबकि सच्चाई यह है कि चीड़ का वन क्षेत्र 17 फीसदी से भी अधिक हो चुका है। नीति नियंता भले ही इस सच्चाई से मुंह मोड़ लें, लेकिन तेजी से बढ़ता चीड़ जैव विविधता और वनस्पतिक विविधता के साथ ही वातावरण की नमी को भी खत्म कर रहा है।
एक अध्ययन के मुताबिक एक स्वस्थ चीड़ का पेड़ एक दिन में अपने आसपास की चालीस लीटर तक नमी सोखता है। पहाड़ के लिए बड़ता चीड़ इसलिए विनाशकारी साबित हो रहा है क्योंकि यहां के जन जीवन का जंगलों से गहरा नाता रहा है। यहां के मिश्रित वनों में बांज, बुरांश और दूसरे पेड़ों की पत्तियां जानवरों के खाने के काम आती हैं। तो दूसरी ओर उनकी जड़ों में पानी को रोकने की क्षमता के कारण स्थानीय जलस्रोतों में जीवन बनाए रखने का प्राकृतिकगुण होता है। इसके विपरीत सुरसा के मुंह की तरह फैलते जा रहे चीड़ में ऐसा कोई गुण नहीं, उल्टा इसके दुष्प्रभाव के चलते जलस्रोत सूख रहे हैं। जमीन पर गिरी इसकी पत्तियां घास तक को पनपने नहीं देती, कृषि और बागवानी पर भी दुष्प्रभाव पड़ा है। अम्लीय प्रवृति होने कारण पिरूल मिट्टी को नुकसान पहुंचा रही है। जिन खेतों में चीड़ की पत्तियां गिरती हैं, उनमें दीमक लगने से फसल चैपट हो जाती है। आज बचाकुचा जो पहाड़ बाघ, बंदर और सुअरों से परेशान है, उसके मूल में भी कहीं न कहीं चीड़ ही है। चीड़ के जंगल में न भोजन है और न पानी, जंगली जानवर आबादी का रुख कर मानव जीवन के लिए बड़ी समस्या खड़ी कर रहे हैं। भयावह सच यही है कि चीड़ के कारण पहाड़ पर आज गांव, घर आंगन, जल, जंगल, खेत, जीव, वनस्पति, कुछ भी सुरक्षित नहीं है।
चलिए अब बात समाधान की, इसमें कोई शक नहीं कि पिरूल आधारित योजनाएं बनाकर चीड़ की समस्या से नहीं निपटा जा सकता। जैव विविधता और जल संरक्षण के लिए प्रदेश को मिश्रित वनों में चीड़ की घुसपैठ रोकनी ही होगी। समाधान यह है कि चीड़ का वन क्षेत्र पूरे पहाड़ पर सीमित किया जाए और नियोजित तरीके से चीड़ का कटान किया जाए। सरकार को यह समझना होगा कि पिरूल आधारित सरकार की कोई भी योजना तब तक कारगर नहीं हो सकती, जब तक कि चीड़ के क्षेत्र को सीमित न किया जाए। सरकार को चीड़ को खत्म भी करना होगा और आगे बढ़ने से रोकना भी होगा, प्रदेश में इसे एक अभियान के तौर लिया जाना जरूरी है। व्यक्तिगत तौर पर चीड़ के वृक्षों का कटान संभव नहीं है इसलिए योजना सरकार को ही बनानी होगा। चीड़ के पेड़ों के कटान की उस योजना पर से धूल झाड़नी होगी, जिसका पिछली सरकार सिर्फ प्रचार करती रही है। गौरतलब है कि हरीश रावत सरकार का कहना था कि वह चीड़ के पेड़ों के कटान का प्रस्ताव मंत्रिमंडल से पास कर केंद्र सरकार और उच्चतम न्यायालय को भेंजेंगे। अफसोस उन्होंने ऐसा करने की मंशा जरूर जतायी मगर किया नहीं। क्यों नहीं किया यह अपने आप में प्रश्न है। चीड़ के दुष्प्रभाव पर चिंता हर ओर व्यक्त की जा रही है, लेकिन जरूरते वाकई ठोस कदम उठाने की है। सरकार यूं ही चीड़ से ‘मोहब्बत‘ में रही तो निश्चित ही खतरनाक साबित होगा।
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