बढ़ती आबादी से उत्तराखंड के भंगुर पारिस्थितिकी तंत्र पर लगातार बोझ बढ़ रहा है। आधुनिक बदलाव ने प्रकृति पर बुरा असर डाला है।उत्तराखंड में इस बार बारिश ने सैकड़ों जानें लीं। हजारों घर-घाट लगा दिए। लेकिन दिल्ली और देहरादून की सरकारें राहत राशि और मुआवजे की सियासत में उलझ गईं। उत्तराखंड सरकार ने तबाही को राष्ट्रीय आपदा घोषित करने और राज्य को पांच हजार करोड़ रुपए का विशेष पैकेज देने की मांग की है। केंद्र सरकार ने राहत के रूप में फौरी तौर पर राज्य सराकर को पांच सौ करोड़ रुपए दे दिए हैं। अब राहत पैकेज और मुआवजे के बंटवारे को लेकर सियासत होने लगी है लेकिन प्रकृति के रूठने के कारक तत्वों की वैज्ञानिक पड़ताल की बात कोई भी सियासी दल नहीं कर रहा है।
उत्तराखंड के पहाड़ भू-गर्भीय नजरिए से बेहद कमजोर हैं। भूकंप और बारिश के वक्त यहां के नाजुक पहाड़ दरकते रहे हैं। इन हादसों में यहां जान और माल का बेहिसाब नुकसान होता रहा है। सीमांत जिले-पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, बागेश्वर, चंपावत, चमोली, उत्तरकाशी, पौड़ी, टिहरी और रूद्रप्रयाग- भूकंप के लिहाज से जोन-पांच में आते हैं। जबकि देहरादून, हरिद्वार, ऊधमसिंह नगर और नैनीताल जिले का कुछ हिस्सा जोन-चार में शामिल हैं। यहां भूकंप के छोटे और मध्यम दर्जे के झटके तकरीबन हर रोज आते हैं। कुमाऊं विश्वविद्यालय के भूकंपमापी केंद्र में भू वैज्ञानिकों ने 2000 और 2009 के बीच इस क्षेत्र में भूकंप के करीब पांच हजार से ज्यादा छोटे और मध्यम झटके रिकार्ड किए हैं। इनकी तबियत एक से साढ़े चार तक आंकी गई है। उत्तराखंड में भूकंप और भू-स्खलन की घटनाओं की लंबी-चौड़ी फेहरिस्त है। इधर कुछ वर्षों से यहां बादल फटने की घटनाएं भी बढ़ी हैं। इन हादसों में अब तक हजारों जाने जा चुकी हैं। हजारों करोड़ रुपए की संपत्ति का नुकसान हुआ है।
उत्तराखंड का कुल औद्योगिक क्षेत्रफल 53,483 वर्ग किलोमीटर है। इसमें से 34,651 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्रफल वन विभाग के पास है। बाकी क्षेत्र में सिविल सोयम, वन पंचायत और निजी वन हैं। राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के सापेक्ष 45.65 फीसद वन क्षेत्र वन विभाग के पास है। प्रश्न यह है कि कुल इन क्षेत्र में से कितना क्षेत्र सघन वनाच्छादित है और कितना क्षेत्र महज वन भूमि है। इसका आंकड़ा वन विभाग के पास मौजूद नहीं है, लेकिन जानकारों की राय में वास्तविक वनाच्छादित क्षेत्र सिर्फ 29 फीसद के ही आसपास हैं।
पहाड़ की अर्थव्यवस्था प्राकृतिक संसाधनों पर ही निर्भर है। पर्वतीय समाज का संपूर्ण जीवन चक्र वनों की उर्जा से ही घूमता है। ग्रामीण क्षेत्रों की अधिकांश जरूरतें वनों से ही पूरी होती हैं। प्राकृतिक संसाधनों की संवेदनशीलता और वहन क्षमता के बीच संतुलन नहीं होने की वजह से दानशील प्रकृति का संतुलन खतरनाक ढंग से गड़बड़ा गया है।बढ़ती आबादी से उत्तराखंड के भंगुर पारिस्थितिकी तंत्र में लगातार बोझ बढ़ रहा है। आधुनिक बदलाव ने प्रकृति पर बुरा असर डाला है। अतीत में पेड़ों की अंधाधुंध कटाई ने पहाड़ी क्षेत्रों की जलवायु को गंभीर खतरा पहुंचाया है। उत्तराखंड में बने और मौजूदा वक्त में बन रहे विशालकाय बांध, पहाड़ों का सीना चीर कर बनाई जा रही सुरंगों, मोटर सड़कों और अन्य निर्माण कार्यों में इस्तेमाल किए जा रहे विस्फोटकों ने स्थिति बद से बदतर बना दी है। पिथौरागढ़ और बागेश्वर जिले में बड़े पैमाने पर चल रहे खड़ियां के वैध और अवैध खनन ने हजारों हेक्टेअर कृषि भूमि सफाचट कर दी है। यहां जेबीसी मशीनों के जरिए खनन कार्य चल रहा है। पहाड़ के सीढ़ीनुमा खेतों के ढलानों पर चल रहे खनन ने पहाड़ की प्राकृतिक भू-आकृतिक सुंदरता नष्ट कर दी है। सड़क निर्माण, खनन और अन्य विभिन्न प्रकार के निर्माण कार्यों से निकलने वाले मलबे को पहाड़ के ढलानों में लुढ़का देने की प्रवृति से ढलानों की मूल वनस्पति नष्ट हो रही है।
निर्मम शोषण और प्रदूषण की वजह से पहाड़ के वनों से कई पादप जातियों का विलोप हो रहा है। प्राकृतिक संसाधनों के अवैज्ञानिक और अति उपयोग से न केवल वन्य जीवन को नुकसान पहुंचा है, बल्कि पहाड़ का भौतिक पर्यावरण भी बिगड़ रहा है। अति दोहन का ही परिणाम है- अनिश्चित जलवायु। उत्तराखंड में बढ़ता नगरीकरण, भूमि उपयोग में परिवर्तन और अनियोजित व अनियंत्रित पर्यटन के विकास ने भी पहाड़ के पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया है। एशिया की प्रसिद्ध फल पट्टी इलाका रामगढ़, मुक्तेश्वर, टिहरी और उत्तरकाशी के क्षेत्र बिल्डरों और भूमाफियाओं के हवाले हो चुके हैं। कृषि भूमि और फलों के बगीचों से भरा पूरा पहाड़ का एक बड़ा इलाका कंक्रीट के जंगल की शक्ल ले चुका है। अलग राज्य बनने के बाद भूमि उपयोग के बदलाव का यह सिलसिला और तेज हुआ है।
हाल के सालों में उत्तराखंड के पर्यावरण में बदलाव की रफ्तार तेज हो गई है। विकास और प्रगति के साथ पर्यावरणीय सुरक्षा को नजरअंदाज किए जाने की वजह से पहाड़ में वन आरक्षण घटा है। पौधों और वनस्पति के पुनर्जन्म की रफ्तार थम सी गई है। वन और कृषि भूमि में वृक्षों और वनस्पति का आवरण लगातार छिछला होते जाने से जमीन का पानी सोखने की क्षमता घट गई हैं। बरसात का पानी पेड़-पौधों और वनस्पतियों के जरिए जमीन के भीतर संग्रहीत होने की बजाय नाले-नदियों के जरिए मैदानी क्षेत्रों की ओर बह रहा है। जिससे मैदानी इलाकों में बाढ़ की स्थिति पैदा हो रही है। पानी के साथ बेहिसाब बेशकीमती उपजाऊ मिट्टी भी बह रही है। हर साल पानी के साथ बह रही इस मिट्टी को नुकसान में शामिल नहीं किया जाता है। जबकि यह मिट्टी अनमोल है। क्योंकि प्रकृति करीब एक सौ साल में सिर्फ एक इंच मिट्टी बनाती है। जमीन की ऊपरी मिट्टी के बहने से पहाड़ में खाद्यान्न उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
प्राकृतिक संसाधनों का अवैज्ञानिक तरीके से अति शोषण ने पारिस्थितिकी असंतुलन बढ़ाया है। ग्लेशियर लगातार सिकुड़ रहे हैं। बरसात में अपनी क्षमता से कहीं ज्यादा पानी ढोने वाली जीवनदायनी नदियों का जल स्तर बारिश के बाद कम हो जाता है। अबकी पहाड़ और मैदान में कहर बरपा देने वाली वर्षा के बावजूद यहां पानी के बारहमासी सोते सूख रहे हैं।
भू-गर्भ वैज्ञानिक मानते हैं कि आज हिमालयी क्षेत्र की पारिस्थितिकी और पर्यावरण खतरे में है। मनुष्य के अस्तित्व को बचाने के लिए वनस्पति और वन्य प्राणी समूह की सुरक्षा जरूरी है। पहाड़ की पारिस्थितिकी स्थिति बहुत नाजुक दौर में पहुंच चुकी है। पहाड़ के पर्यावरण की हिफाजत के लिए अगर तुरंत कारगर उपाय अमल में नहीं लाए गए तो भविष्य में क्षतिपूर्ति कठिन हो जाएगी।
उत्तराखंड के पहाड़ भू-गर्भीय नजरिए से बेहद कमजोर हैं। भूकंप और बारिश के वक्त यहां के नाजुक पहाड़ दरकते रहे हैं। इन हादसों में यहां जान और माल का बेहिसाब नुकसान होता रहा है। सीमांत जिले-पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, बागेश्वर, चंपावत, चमोली, उत्तरकाशी, पौड़ी, टिहरी और रूद्रप्रयाग- भूकंप के लिहाज से जोन-पांच में आते हैं। जबकि देहरादून, हरिद्वार, ऊधमसिंह नगर और नैनीताल जिले का कुछ हिस्सा जोन-चार में शामिल हैं। यहां भूकंप के छोटे और मध्यम दर्जे के झटके तकरीबन हर रोज आते हैं। कुमाऊं विश्वविद्यालय के भूकंपमापी केंद्र में भू वैज्ञानिकों ने 2000 और 2009 के बीच इस क्षेत्र में भूकंप के करीब पांच हजार से ज्यादा छोटे और मध्यम झटके रिकार्ड किए हैं। इनकी तबियत एक से साढ़े चार तक आंकी गई है। उत्तराखंड में भूकंप और भू-स्खलन की घटनाओं की लंबी-चौड़ी फेहरिस्त है। इधर कुछ वर्षों से यहां बादल फटने की घटनाएं भी बढ़ी हैं। इन हादसों में अब तक हजारों जाने जा चुकी हैं। हजारों करोड़ रुपए की संपत्ति का नुकसान हुआ है।
उत्तराखंड का कुल औद्योगिक क्षेत्रफल 53,483 वर्ग किलोमीटर है। इसमें से 34,651 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्रफल वन विभाग के पास है। बाकी क्षेत्र में सिविल सोयम, वन पंचायत और निजी वन हैं। राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के सापेक्ष 45.65 फीसद वन क्षेत्र वन विभाग के पास है। प्रश्न यह है कि कुल इन क्षेत्र में से कितना क्षेत्र सघन वनाच्छादित है और कितना क्षेत्र महज वन भूमि है। इसका आंकड़ा वन विभाग के पास मौजूद नहीं है, लेकिन जानकारों की राय में वास्तविक वनाच्छादित क्षेत्र सिर्फ 29 फीसद के ही आसपास हैं।
पहाड़ की अर्थव्यवस्था प्राकृतिक संसाधनों पर ही निर्भर है। पर्वतीय समाज का संपूर्ण जीवन चक्र वनों की उर्जा से ही घूमता है। ग्रामीण क्षेत्रों की अधिकांश जरूरतें वनों से ही पूरी होती हैं। प्राकृतिक संसाधनों की संवेदनशीलता और वहन क्षमता के बीच संतुलन नहीं होने की वजह से दानशील प्रकृति का संतुलन खतरनाक ढंग से गड़बड़ा गया है।बढ़ती आबादी से उत्तराखंड के भंगुर पारिस्थितिकी तंत्र में लगातार बोझ बढ़ रहा है। आधुनिक बदलाव ने प्रकृति पर बुरा असर डाला है। अतीत में पेड़ों की अंधाधुंध कटाई ने पहाड़ी क्षेत्रों की जलवायु को गंभीर खतरा पहुंचाया है। उत्तराखंड में बने और मौजूदा वक्त में बन रहे विशालकाय बांध, पहाड़ों का सीना चीर कर बनाई जा रही सुरंगों, मोटर सड़कों और अन्य निर्माण कार्यों में इस्तेमाल किए जा रहे विस्फोटकों ने स्थिति बद से बदतर बना दी है। पिथौरागढ़ और बागेश्वर जिले में बड़े पैमाने पर चल रहे खड़ियां के वैध और अवैध खनन ने हजारों हेक्टेअर कृषि भूमि सफाचट कर दी है। यहां जेबीसी मशीनों के जरिए खनन कार्य चल रहा है। पहाड़ के सीढ़ीनुमा खेतों के ढलानों पर चल रहे खनन ने पहाड़ की प्राकृतिक भू-आकृतिक सुंदरता नष्ट कर दी है। सड़क निर्माण, खनन और अन्य विभिन्न प्रकार के निर्माण कार्यों से निकलने वाले मलबे को पहाड़ के ढलानों में लुढ़का देने की प्रवृति से ढलानों की मूल वनस्पति नष्ट हो रही है।
निर्मम शोषण और प्रदूषण की वजह से पहाड़ के वनों से कई पादप जातियों का विलोप हो रहा है। प्राकृतिक संसाधनों के अवैज्ञानिक और अति उपयोग से न केवल वन्य जीवन को नुकसान पहुंचा है, बल्कि पहाड़ का भौतिक पर्यावरण भी बिगड़ रहा है। अति दोहन का ही परिणाम है- अनिश्चित जलवायु। उत्तराखंड में बढ़ता नगरीकरण, भूमि उपयोग में परिवर्तन और अनियोजित व अनियंत्रित पर्यटन के विकास ने भी पहाड़ के पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया है। एशिया की प्रसिद्ध फल पट्टी इलाका रामगढ़, मुक्तेश्वर, टिहरी और उत्तरकाशी के क्षेत्र बिल्डरों और भूमाफियाओं के हवाले हो चुके हैं। कृषि भूमि और फलों के बगीचों से भरा पूरा पहाड़ का एक बड़ा इलाका कंक्रीट के जंगल की शक्ल ले चुका है। अलग राज्य बनने के बाद भूमि उपयोग के बदलाव का यह सिलसिला और तेज हुआ है।
हाल के सालों में उत्तराखंड के पर्यावरण में बदलाव की रफ्तार तेज हो गई है। विकास और प्रगति के साथ पर्यावरणीय सुरक्षा को नजरअंदाज किए जाने की वजह से पहाड़ में वन आरक्षण घटा है। पौधों और वनस्पति के पुनर्जन्म की रफ्तार थम सी गई है। वन और कृषि भूमि में वृक्षों और वनस्पति का आवरण लगातार छिछला होते जाने से जमीन का पानी सोखने की क्षमता घट गई हैं। बरसात का पानी पेड़-पौधों और वनस्पतियों के जरिए जमीन के भीतर संग्रहीत होने की बजाय नाले-नदियों के जरिए मैदानी क्षेत्रों की ओर बह रहा है। जिससे मैदानी इलाकों में बाढ़ की स्थिति पैदा हो रही है। पानी के साथ बेहिसाब बेशकीमती उपजाऊ मिट्टी भी बह रही है। हर साल पानी के साथ बह रही इस मिट्टी को नुकसान में शामिल नहीं किया जाता है। जबकि यह मिट्टी अनमोल है। क्योंकि प्रकृति करीब एक सौ साल में सिर्फ एक इंच मिट्टी बनाती है। जमीन की ऊपरी मिट्टी के बहने से पहाड़ में खाद्यान्न उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
प्राकृतिक संसाधनों का अवैज्ञानिक तरीके से अति शोषण ने पारिस्थितिकी असंतुलन बढ़ाया है। ग्लेशियर लगातार सिकुड़ रहे हैं। बरसात में अपनी क्षमता से कहीं ज्यादा पानी ढोने वाली जीवनदायनी नदियों का जल स्तर बारिश के बाद कम हो जाता है। अबकी पहाड़ और मैदान में कहर बरपा देने वाली वर्षा के बावजूद यहां पानी के बारहमासी सोते सूख रहे हैं।
भू-गर्भ वैज्ञानिक मानते हैं कि आज हिमालयी क्षेत्र की पारिस्थितिकी और पर्यावरण खतरे में है। मनुष्य के अस्तित्व को बचाने के लिए वनस्पति और वन्य प्राणी समूह की सुरक्षा जरूरी है। पहाड़ की पारिस्थितिकी स्थिति बहुत नाजुक दौर में पहुंच चुकी है। पहाड़ के पर्यावरण की हिफाजत के लिए अगर तुरंत कारगर उपाय अमल में नहीं लाए गए तो भविष्य में क्षतिपूर्ति कठिन हो जाएगी।
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