चेतना की नदी

(नदी प्रतीक है त्रिकालव्यापी व्यक्ति चैतन्य के प्रवाह की। इसी व्यक्ति चैतन्य के भीतर लोक चैतन्य (कलेक्टिव कांशसनेस) भी प्रतिष्ठित है, ठीक वैसे ही जैसे व्यक्तिदेह के भीतर कूटस्थ अचल विश्वसत्ता प्रकाशित है। अतः जो मेरी नदी है वह सर्वव्यापिनी भी है और मेरा भोग, मेरा आस्वाद वास्तव में एक प्रीतिभोज है, सारे समूह के भोग और आस्वादन से जुड़ा हुआ। यदि उस बाहर की नदी के साथ भीतर की नदी का, जो वस्तुतः एक चैतन्य प्रवाह के दो रूप है, योग-संयोग निबिड़तर और अधिक अनुभव-संवेद्य हो उठे तो मेरा संपूर्ण जीवन ही सारी सृष्टि के लिए एक प्रीतिभोज बन जाएगा। पर ऐसा होना बड़ा कठिन है। यह असाध्य साधना है। यही तो बुद्धत्व है। इसी को निर्वाण कहते हैं।-कु.ना.रा.।)

प्रस्तावना


मैं उस अनामा नदी के तट पर
बार-बार जाऊँगा
जहाँ जरठ काले महीरुहों की छाँह में
तह पर तह शीतल शांति है, सुरक्षा है
जहाँ चलती है मंद-मंद, पके जामुन की
गंध से लदी मीठी काषाय हवा
जहां नदी के प्रवाह की अविराम कटि-भंगिमा है
जहां अनवरत प्रवाहमान संकोचहीन प्रतीक्षा है
जहां यहाँ से वहां तक सर्वत्र व्याप्त है
एक अविभाजित अभुक्त काषाय क्षण का स्वाद
(मेरी प्रतीक्षा में, केवल मेरी प्रतीक्षा में!)
उसी अनामा नदी के तट पर
कल
सदैव, बार-बार जाऊँगा।
वहां घनी झमार पत्र-राशि के बीच
सरस (परिपक्व) गूदेदार गुच्छ के गुच्छ
लटके हैं रूप के रस के गंध के,
जहाँ मन चाभता है सद्य: ताजे स्वादिष्ट प्राण
जहाँ दूर अति दूर कोई दुर्विनीत शब्द
सघन वन गर्भ में टूटती शाखा-सा चटखता है
फिर उधर ही कहीं, किसी गहरे गंभीर में
डूबता-डूबता
उसी ओर कहीं अतल लीन हो जाता है
जहाँ कोई लीला हिल्लोलित शोख क्षण
क्रिड़ावश या लोभवश तट से आ टकराता है
और,
नरम उँगलियों से कठोर कगार का दृढ़ मन
टटोल जाता है
फिर, प्रवाह समर्पित हो विनीत बह जाता है
एक बार भी घूमकर देखता नहीं
चला ही जाता है विनीत और नतशीश
किसी सजल, अनंत और व्यापक हृदय के पास
मैं इन शोख दुर्विनीत क्षणों की विनीत इच्छाओं का
खेल देखने आज, कल
सदैव और बार-बार
उस अनामा नदी के तट पर जाऊँगा।

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