चारे के उत्पादन अथवा चारागाहों की सुरक्षा की ओर बहुत कम ध्यान दिया गया है। अधिकांश चारागाह आज पूर्णतया उपेक्षित बंजर भूमि के क्षेत्र बनकर रह गए हैं।
हमारी भूमि-उपयोग की स्थिति में नाटकीय परिवर्तन हुए हैं। चारागाह और वन-क्षेत्र बड़ी मात्रा में खेतीहर भूमि में परिवर्तित हो गए हैं। चारागाहों के लिए उपलब्ध भूमि में निरन्तर कमी के कारण पशुधन की संख्या चारागाहों की भरण-पालन क्षमता से बढ़ गई है। परिणामस्वरुप चारागाहों के आवश्यकता से अधिक दोहन ने उन्हें बंजर भूमि में परिवर्तित कर दिया है।
यही नहीं, चारे की तलाश में भटकते पशु वन क्षेत्र में भी भारी चराई करते हैं। जब भी इमारती लकड़ी के लिए वनों की कटाई की जाती है, चरने वाले पशु वनों के पुनरुस्फुटन को नष्ट कर देते हैं। इस प्रकार काटे गए वन क्षेत्र निरन्तर बंजर क्षेत्रों में परिवर्तित होते चले जाते हैं। जैसे-जैसे वृक्षाच्छादन कम होता जाता है और पारिस्थितिकीय असंतुलन बढ़ता जाता है। सीमांत क्षेत्रों में स्थित खेतीहर जमीनों पर भी अपरिहार्य रूप से इसका दुष्प्रभाव पड़ता है। ये जमीनें अधिकाधिक रूप से बाढ़ और सूखे के दुश्चक्र में फंस जाती हैं।
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