चालीस लाख नलकूप हर साल खींच रहे अरबों गैलन पानी

लखनऊ। क्या आपको मालूम है कि उत्तर प्रदेश में छोटे-बड़े लगभग 40 लाख नलकूप हर साल धरती के पेट से चार करोड़ मिलियन गैलन से अधिक पानी निकाल लेते हैं, जो सिंचाई के काम आता है। लगभग इतना ही पानी पीने के लिए निकाला जाता है। यही कारण है कि जमीन के भीतर का जलस्तर 20 से 70 सेंटीमीटर प्रतिवर्ष की दर से नीचे जा रहा है, जिसे रोकना अति आवश्यक है। यह बात किसी और ने नहीं, बल्कि पूर्व मुख्य सचिव नवीन चन्द्र वाजपेयी ने विभागाध्यक्षों व जिलाधिकारियों को दो साल पहले भेजे गये परिपत्र में लिखकर ही आगाह कर दिया था।

सोचिये किस कदर भविष्य से खिलवाड़ हो रहा है। अधाधुंध दोहन के कारण कहीं-कहीं पानी का स्ट्रेटा बिल्कुल सूख गया तो कहीं सूखने की स्थिति में है। भूगर्भ जलविज्ञानी डॉ. धनेश्वर राय की मानें तो कहीं-कहीं 70 से 80 मीटर तक पानी का स्तर गिर चुका है। जब यह हाल है तो धरती फटेगी नहीं तो क्या होगा? आज बुंदेलखंड में घटनाएं हो रही हैं, कल को हर वह ब्लॉक इसकी जद में आ सकता है, जहां पानी का स्तर इंचों में रह गया है अथवा जिन्हें डार्क घोषित किया जा चुका है।

भूवैज्ञानिक मानते हैं कि जल दोहन की रफ्तार यही रही और रिचार्जिग की व्यवस्था नहीं की गयी तो पारिस्थिकीय असंतुलन को कोई रोक नहीं सकता। तब धरती में हलचल बढ़ेगी वह और भी डांवाडोल होगी। भारतीय भूगर्भ विज्ञान केंद्र के महानिदेशक पीएन राजदान बताते हैं कि तीन साल पहले जब बुंदेलखंड में धरती फटी थी, तब भी उसका अध्ययन कराया गया था। उसी समय पता चल गया था कि अत्यधिक जल दोहन ही इसका मुख्य कारण है। इस बार भी वैसे ही नतीजे सामने आ रहे हैं।

राजदान का मानना है कि धरती का पानी समाप्त हो जाने से जमीन के अंदर बड़े-बड़े वैक्यूम बन जाते हैं, जो ऊपरी परत में संकुचन पैदा करते हैं। पानी का सपोर्ट जब तक रहता है, संतुलन नहीं बिगड़ता। पानी समाप्त होते ही धरती धंसने लगती है, जो दरार के रूप में नजर आती है। यह प्रक्रिया नदियों के किनारे उन जगहों पर अक्सर देखने को मिलती है जहां अल्यूवियल मिट्टी है।

राजदान ने तीन साल पहले बुंदेलखंड के उन क्षेत्रों का दौरा किया था, जहां धरती फटी थी। इस बार भी उनकी टीम हमीरपुर, बांदा, जालौन, इटावा व इलाहाबाद का दौरा कर रही है। सभी जगहों पर एक बात जो समझ में आयी, वह यह कि धरती को खोखला करने से ही यह समस्या पैदा हुई। अगर जल दोहन न रोका गया तो प्रकृति माफ नहीं करेगी।

भू वैज्ञानिक डीके श्रीवास्तव भी इसी नतीजे के हैं। उनका कहना है कि पानी का संरक्षण जरूरी है। यह तभी संभव है जब दोहन के सापेक्ष रिचार्चिग होती रहे। यह समस्या उत्तर प्रदेश की ही नहीं, अमेरिका के कुछ प्रांतों जैसे एरीजोना और चीन में भी जहां जल दोहन अधिक हुआ, देखने को मिली।

प्रदेश के बाढ़ नियंत्रण व जलोत्सारण मंत्री जयवीर सिंह पहले ही मानते हैं कि जलसंरक्षण के प्राकृतिक स्रोत सूख जाने से यह नौबत आयी। उनका कहना है कि पहले लोग मिट्टी के घर बनाते थे, जिसके लिए तालाब से मिट्टी निकाली जाती थी। तालाब अपने आप गहरे होते थे, जिनमें जल भंडारण क्षमता कहीं अधिक होती थी। अब पक्के मकान बनने लगे। तालाब कहां से गहरा होगा। जो तालाब बचे हैं, वे खेत खलिहान में बदल गये हैं। कहां से जमीन का पानी बचेगा। जयवीर सिंह इसके लिए एक जनांदोलन चलाने की आवश्यकता पर जोर देते हैं।

उथल-पुथल की आशंका से इनकार नहीं-डॉ. राय


भूगर्भ जल विभाग में वर्षो तक काम करनेवाले पूर्व संयुक्त निदेशक डॉ. धनेश्वर राय कहते हैं कि पानी का दोहन नहीं रुका तो धरती में उथल-पुथल से इनकार नहीं किया जा सकता और महारष्ट्र के लातूर इलाके जैसे गंभीर भूकम्प का सामना करना पड़ सकता है। लातूर में तबाही मचानेवाले भूकम्प से पहले उस इलाके में भी अत्यधिक जल दोहन हुआ था। वैज्ञानिकों ने इसकी चेतावनी भी दी थी किंतु किसी ने ध्यान नहीं दिया।

डॉ. राय के मुताबिक, हाल के दिनों में धरती फटने की घटनाएं यमुना नदी के दोनों किनारों पर इटावा से इलाहाबाद और भदोही तक परिलक्षित हुईं। यह क्षेत्र विन्ध्य पर्वतमाला का 'कॉन्टैक्ट जोन' है जो भूकम्प की दृष्टिकोण से कमजोर क्षेत्र माना जाता है। धरती के नीचे पिघले हुए मैग्मा (सियाल) पर ऊपरी परत (सीमा) तैरता रहता है। जब ऊपरी परत का भार कम पड़ने लगता है तो यह परत इधर-उधर खिसकने लगती है। पानी के दोहन के कारण ऊपरी परतें हल्की होकर आज भी हिमालय की ओर विसर्पण कर रही हैं। यह विसर्पण जब जोर पकड़ने लगता है तो धरती में दरारें आती हैं। आज भले ही यह किसी बड़े नुकसान का कारण न बने किंतु धरती में किसी बड़े हलचल का संकेत तो देती ही हैं। अध्ययन इस बात के करने की है कि यह प्रक्रिया कितने समय बाद होती है। भूगर्भ जल का संरक्षण न किया गया तो इस अनहोनी को कोई रोक नहीं सकता। नदियों के रास्ते समुद्र में जानेवाले पानी को रोककर धरती के गर्भ में रिचार्ज करना ही एकमात्र उपाय है। इसके लिए बड़े पैमाने पर योजना बनाने तथा जनजागरण की आवश्यकता है।

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