चाहता मन

गोमती तट
दूर पेंसिल-रेख-सा
वह बाँस झुरमुट
शरद दुपहर के कपोलों पर उड़ी वह
धूप की लट।
जल के नग्न ठंडे बदन पर का
झुका कुहरा
लहर पीना चाहता है।
सामने के शीत नभ में आइरन-ब्रिज की कमानी
बाँह मस्जिद की
बिछी है।
धोबियों की हाँक
वट की डालियाँ दुहरा रही हैं।
अभी उड़कर गया है वह
छतर-मंजिल का कबूतर झुंड।

तुम यहाँ
बैठी हुई थीं अभी उस दिन
सेब-सी बन लाल
चिकने चीड़-सी वह
बाँह अपनी टेक पृथ्वी पर
यहाँ इस पेड़-जड़ पर बैठ
मेरी राह में
उस धूप में।
बह गया वह नीर
जिसको पदों से तुमने छुआ था।
कौन जाने
धूप उस दिन की कहाँ है
जो तुम्हारे कुंतलों में
गरम, फूली
धुली, धौली लग रही थी।

चाहता मन
तुम यहाँ बैठी रहो,
उड़ता रहे चिड़ियों सरीखा
वह तुम्हारा धवल आँचल।
किंतु अब तो ग्रीष्म
तुम भी दूर
औ’ यह लू।

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