भयभीत सत्ता की तानाशाह प्रतिक्रिया

Rajendra singh
Rajendra singh
सरकारों व जनप्रतिनिधियों के संवेदनशून्य रवैये को देखते हुए यदि आगे चलकर स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद को गंगा संरक्षा में प्राण गंवाने पड़े, तो भी कोई आश्चर्य नहीं होगा। फिलहाल सरकार अपनी साज़िश में सफल हो गई है। 13 जून से शुरू हुआ स्वामी सानंद का अनशन लंबा होता जा रहा था और उसके साथ ही अनिर्णय पर टिकी उत्तराखंड सरकार की मुश्किलें भी। सरकार हरिद्वार के मातृसदन जैसी कठिन अनशनस्थली से उन्हें जबरन उठाने का रास्ता खोज रही थी। वह उसने कानून की एक धारा में तलाश लिया। प्रो. अग्रवाल को उत्तराखंड राज्य की सरहद से दूर पटककर फिलहाल अपना पिंड भी छुड़ा लिया है।स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद उर्फ प्रो. जी. डी. अग्रवाल के गंगा अनशन को आत्महत्या को प्रयास बताकर हरिद्वार प्रशासन ने 309 ए के तहत मामला दर्ज किया। चार घंटे थाने में बैठाया। जेल ले गए। तीन गनधारियों की निगरानी में चुपके से भोर अंधेरे नई दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान लाया गया, मानों वह कोई एक दुर्दांत अपराधी हों। वहां भी आई सी यू के आइसोलेशन - 2 में रखा गया है। एक दिन में एक घंटे के समय में कुल जमा एक मुलाकाती को मिलने की इजाज़त दी गई है; यानी उन्हे लोगों से दूर रखा जा रहा है। प्रशासन द्वारा यह सब उनकी सेहत की चिंता के बहाने किया जा रहा है। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस अनशन और सत्याग्रह को खुद कांग्रेस ने आज़ादी दिलाने वाले महत्वपूर्ण औजार के रूप में प्रतिष्ठित किया; जिस अनशन और सत्याग्रह के प्रयोग के कारण महात्मा गांधी को आज राष्ट्र ‘राष्ट्रपिता’ और दुनिया ‘अहिंसा पुरुष’ के रूप में पूजती है..... उसी अनशन और सत्याग्रह को उत्तराखंड के कांग्रेसी शासन में ‘आत्महत्या का प्रयास’ करार दिया गया है। इन्हें महात्मा गांधी के उत्तराधिकार वाली कांग्रेस कहने में स्वयं गांधीवादियों को भी आज शर्म आती होगी। अनशन को आत्महत्या बताने की यह साज़िश, सिर्फ जी डी के खिलाफ नहीं, पूरे गांधीवादी सिद्धांतों के खिलाफ है। अनशन जैसे वैचारिक और पवित्र कर्म को आत्महत्या बताने का कुकृत्य तो शायद कभी अंग्रेजी हुकूमत ने भी नहीं किया होगा। यह लोकप्रतिनिधि और लोकसेवकों का लोकतांत्रिक मूल्यों से गिर जाना है।

यह इस बात का संकेत है कि मात्र साढ़े छह दशक में हमारा लोकतंत्र... लोकतंत्र की मूल अवधारणा से कितनी दूर चला गया है। यह इस बात का भी संकेत है कि हमारा शासन-प्रशासन स्वस्थ चुनौती व सत्य स्वीकारने की शक्ति खो बैठा है। जब सत्ता कमजोर होती है, तो वह साधारण सी चुनौतियों से बौखला उठती है। भयभीत सत्ता समझती है कि हर तीर के निशाने पर वही है। इसलिए वह साधारण परिस्थितियों में भी तानाशाह हो उठती है। अपना धैर्य खो बैठती है। आजकल यही हो रहा है। यूं लोकतंत्र में कोई सत्ता नहीं होती। लोक होता है और लोकप्रतिनिधि होते हैं। उनका प्रतिनिधित्व करने वाली पंचायतें, विधानसभाएं और लोकसभा होती है। दुर्भाग्य से लोकप्रतिनिधि सभाओं के प्रतिनिधियों ने स्वयं को सत्ता समझ लिया है। इसी का नतीजा है वर्तमान में अलोकतांत्रिक होता भारतीय लोकतंत्र।

शासन के उक्त प्रतिकार का एक संकेत यह भी है कि आज लोकप्रतिनिधि लोक के साथ नहीं, लोभ के साथ खड़े हैं। ऐसे में सत्ता द्वारा लोकतांत्रिक मूल्यों का अपमान हो, तो क्या आश्चर्य? कोई आश्चर्य नहीं कि हरिद्वार में रेत उठान और पत्थर चुगान के खिलाफ नौजवान स्वामी निगमानंद को प्राण गंवाने पड़े। चंबल में खनन के खिलाफ खड़े आई पी एस अधिकारी को जैसे मारा गया, वह यादें अभी ताज़ा हैं ही। ट्रैक्टर ट्राली से कुचलकर मारने की वैसी ही कोशिश अभी चंद दिन पहले हरिद्वार, लक्सर के गांव भिक्कमपुरा में खनन माफ़िया पर छापा डालने तहसीलदार पर की कोशिश की गई। न मालूम किस दबाव में तहसीलदार ने बाद में अपना बयान बदल दिया। प्रशिक्षु आई ए एस अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल द्वारा हिंडन-यमुना से रेत के अवैध खनन पर लगाम लगाने की जुटाई हिम्मत का हश्र आप जानते हैं। यह हश्र इस सभी के बावजूद है कि स्थानीय खुफ़िया इकाई ‘एल आई यू’ की जिस रिपोर्ट के आधार पर कार्रवाई की गई है, उसमें दुर्गा का नाम ही नहीं है। डी एम की रिपोर्ट गवाह है कि एस डी एम दुर्गा का निलंबन दुर्गा द्वारा रेत माफ़िया पर कानूनी कार्रवाई की तैयारी से डरे और बौखलाये लोगों की कारगुज़ारी है। रही बात सरकारी ज़मीन पर बन रहे इबातदतगाह की दीवार गिराने की, तो यदि दुर्गा ने ऐसा कोई आदेश दिया भी है, तो वह सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश की अनुपालना ही है, जो सरकारी ज़मीन पर ऐसे किसी निर्माण को अवैध ठहराता है। दुर्गा का निलंबन तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश की पालना करने के मार्ग में बाधा उत्पन्न करना है। यह एक तरह से सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवमानना ही है।

कितना हास्यास्पद है कि बजाय इसके कि सत्य का आग्रह करने के लिए उसकी पीठ थपथपाई जाती; उसे निलंबित कर दिया गया! सरकारी ज़मीन पर इबादतगाह बनाने की अपनी गलती समझने वाले स्थानीय मुस्लिम भाइयों की समझदारी को मिसाल के रूप में पेश करने की बजाय नेताओं ने उसमें भी वोट की रोटी सेंकने का रास्ता निकाल लिया। तिस पर दंभ ऐसा कि 41 मिनट में निलंबन कराने को स्थानीय राजनेता ने इस तरह सार्वजनिक किया, मानो उन्होंने कोई विश्व रिकार्ड जीत लिया हो। यह भारतीय राजनीति का एक ऐसा पक्ष है, जो राजनीतिज्ञों के प्रति संजीदगी और सम्मान... दोनों खत्म करता है। किसी भी लोकतंत्र के लिए यह शुभ लक्षण नहीं है।

सरकारों व जनप्रतिनिधियों के संवेदनाशून्य रवैये को देखते हुए मैं कह सकता हूं कि यदि आगे चलकर स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद को गंगा संरक्षा में प्राण गंवाने पड़े, तो भी कोई आश्चर्य नहीं होगा। फिलहाल सरकार अपनी साज़िश में सफल हो गई है। 13 जून से शुरू हुआ स्वामी सानंद का अनशन लंबा होता जा रहा था और उसके साथ ही अनिर्णय पर टिकी उत्तराखंड सरकार की मुश्किलें भी। सरकार हरिद्वार के मातृसदन जैसी कठिन अनशनस्थली से उन्हें जबरन उठाने का रास्ता खोज रही थी। वह उसने कानून की एक धारा में तलाश लिया। प्रो अग्रवाल को उत्तराखंड राज्य की सरहद से दूर पटककर फिलहाल अपना पिंड भी छुड़ा लिया है। अब केन्द्र की सरकार जाने और राजधानी की जनता जाने।

ये कदम अन्यायपूर्ण हैं। अलोकतांत्रिक! तानाशाह और अदूरदर्शी ! हालांकि सरकार जिद्द पर अड़ी है, लेकिन दुर्गा की शक्ति के साथ आई ए एस संघ एकजुट है।कुछेक संस्थाएं भी निलंबन का विरोध कर रही हैं। मामला अदालत की निगाह में भी पहुंच चुका है। राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने भी पर्यावरण मंजूरी के बिना नदी किनारे रेत खनन पर रोक लगाकर दुर्गा के प्रयास को अप्रत्यक्ष रूप से अपना समर्थन जता दिया है। हो सकता कि यह लेख छपने तक दुर्गा शक्ति नागपाल का निलंबन रद्द हो जाए, लेकिन अनशन को आत्महत्या का प्रयास करार देने जैसी वैचारिक अपराध के खिलाफ कहीं-कोई पहल दिखाई नहीं दे रही। हालांकि जलपुरुष राजेन्द्र सिंह समेत कई पानी-प्रकृति प्रेमियों ने जी डी पर केस दर्ज करने के विरोध में बयान दिया है। किंतु क्या सरकारों की संवेदनशून्यता को देखते हुए बयान मात्र काफी है? ध्यान रहे कि जी डी ने अपने करीबियों से हमेशा यही कहा - “लोग मेरी सेहत की चिंता तो कर रहे हैं, लेकिन मां गंगा की सेहत की चिंता किसी को नहीं है। जाकर गंगाजी की चिंता कीजिए। मेरी चिंता अपने आप हो जाएगी।’’ गंगा के प्रति अन्याय को लेकर सुप्त समाज कब अपनी तंद्रा तोड़ेगा? धर्मशक्तियों की समाधि कब टूटेगी? सामाजिक संस्थाएं कब अपने झंडे-डंडे से बाहर निकलेंगी? गंगा को ‘राष्ट्रीय नदी’ दर्जे की मांग करने व दर्जा मिलने पर खुशी मनाने वाले कब राष्ट्रवादी होंगे?... ये प्रश्न अभी बने हुए हैं। इन प्रश्नों का उत्तर तलाशने के लिए पिछले एक साल से गंगा आंदोलनकारियों के बीच पसरे सन्नाटे का संदर्भ तलाशना होगा।

मैं कहता हूं कि सरकारें यदि भारत की नदियों को बेचने और पानी का बाजार खड़ा करने वालों के साथ हैं, तो रहें। यदि धरती, पानी, आकाश बेचकर ही सरकार की जीडीपी बढ़ती हो, तो बढ़ायें। यदि वे देश के पानी व नदियों को बचाने के लिए कुछ नहीं कर सकतीं, तो मत करें; लेकिन कम से कम सजग शक्तियों को सत्य का आग्रह करने से तो न रोके। उन्हें तो अपना कर्तव्य निर्वाह तो करने दें। मैं दावे से कह सकता हूं कि यदि महात्मा गांधी आज जिंदा होते, तो ऐसी हरकत के खिलाफ वह निश्चित ही खुद अनशन पर बैठ जाते। आइए! ऐसी हरकतों को रोकें। दर्ज केस व निलंबन वापस कराएं। गंगा के जीवन संघर्ष पर पसरे सन्नाटे को तोड़ें। किंतु क्या जन को जोड़े बगैर यह संभव है?

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और पानी व लोकतांत्रिक मसलों से जुड़े संगठनों से संबद्ध कार्यकर्ता हैं।

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