भविष्यवाणी सच हुई-राहत हक बनी

पीड़ितों को जरूरत के समय मदद मिले इसका कोई भी विवेकशील व्यक्ति विरोध नहीं करेगा मगर यदि कोई दुर्घटना एक निश्चित समय किसी निर्दिष्ट स्थान पर हर साल बिना नागा घटती हो तो उसका निदान एक ऐसी स्थायी व्यवस्था होती है जिसमें कोई भी परिवार बिना किसी बाहरी मदद के सम्मानपूर्वक जीवन यापन कर सके। यह पीड़ित परिवार के साथ जिम्मेवारी पूर्ण और बराबरी के रिश्ते का समाधान है और यह काम वही व्यक्ति या संस्था कर सकती है जो लोगों में आत्म विश्वास और आत्म सम्मान जगा सके।

राज्य में 1968, 1971, 1974, 1975, 1978, 1984, 1987, 1991, 1993, 1995, 1996, 1998, 2000, 2002, 2004, 2007 और 2008 में भीषण बाढ़ें आयीं। 2008 की बाढ़ यद्यपि कोसी घाटी तक सीमित रही मगर कोसी तटबन्ध में कुसहा में पड़ी दरार ने इतिहास रचा। लगातार आने वाली बाढ़ों तथा उनसे बचाव के लिए बनायी गयी संरचनाओं के निरंतर ”ह्रास ने बाढ़ का सामना करने वाले दूसरे सबसे अच्छे समाधान ‘रिलीफ’ को भी महत्वपूर्ण बनाया। 2005 तक केन्द्र सरकार राज्यों को मुश्किल से बाढ़/सूखा/चक्रवात आदि जैसी घटनाओं का सामना करने के लिए 100-150 करोड़ रुपये वार्षिक अनुदान दे दिया करती थी। इसके साथ एक शर्त होती थी कि जितना पैसा केन्द्र अनुदान के रूप में देगा उसका एक चौथाई राज्य को अपने स्रोतों से निवेश करना पड़ेगा। बाढ़ में हुए नुकसान को देखते हुए यह रकम बहुत ही कम हुआ करती थी।

अपर्याप्त राहत और वायदा खिलाफी


राज्य में आबादी के विस्तार के साथ-साथ बाढ़ से प्रभावित होने वाले लोगों की तादाद भी बढ़ी है यद्यपि यह आनुपातिक नहीं है। दो-चार हजार रुपयों से बढ़ कर रिलीफ बजट भी अब अरबों रुपये से ऊपर चला गया है। बाढ़ से होने वाला नुकसान उपलब्ध रिलीफ के दस गुने की मियाद पार कर चुका है। इस तरह से रिलीफ बजट अरबों में होने के बावजूद सागर में बूँद के बराबर की ही औकात रखता है। राज्य सरकार के पास राहत कार्य चलाने के लिए उपलब्ध पैसा, आपदा राहत कोष, आपदा राहत के लिए राष्ट्रीय राहत कोष, राज्य सरकार का अपना हिस्सा तथा दूसरे तरीकों से जुटायी गयी राहत राशि आदि सब मिला कर भी बाढ़ प्रभावित लोगों की जरूरतों को देखते हुए किसी ओर की नहीं होती। दुनु रॉय कहते हैं, “... इससे यह प्रतीत होता है कि भले ही केन्द्र ने 75 प्रतिशत राशि अपने स्तर से निर्गत कर दी हो मगर यह राशि राज्य सरकार द्वारा निर्धारित वास्तविक जरूरतों के दस प्रतिशत से अधिक नहीं होती।

इसमें अगर राज्य सरकार का 25 प्रतिशत का अंश भी जोड़ दिया जाए तो भी इससे कुल नुकसान के 14 प्रतिशत से ज्यादा की भरपाई नहीं हो सकती। इसका यह मतलब निकलता है कि या तो राज्य सरकारें बाढ़ से हुए नुकसानों को इतना ज्यादा बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर रही हैं (10 गुने से भी ज्यादा) या फिर जो प्रावधान किया जाता है वह बुरी तरह से नाकाफी है ... इसका यह भी मतलब होता है कि अगर बाढ़ से प्रभावित लोग बाढ़ का पानी निकल जाने के बाद अपनी जीविका के उपार्जन के लिए अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश करें तो यह कोशिश उन्हें अपने संसाधनों के ही दम पर और बड़े पैमाने पर करनी पड़ेगी।’’

राज्य सरकारों द्वारा बाढ़ से हुए नुकसान को बढ़ा कर बदस्तूर जारी रहने और आपदा पीड़ितों की जरूरतों का संज्ञान लेकर बारहवें वित्त आयोग ने केन्द्र सरकार को 2005-2010 के समय के लिए राहत कार्यों के लिए अपनी सिफारशें दीं जिसे भारत सरकार ने स्वीकार कर लिया। अब राहत कार्यों की जद में बाढ़, सूखा, तूफान, चट्टान खिसकना, बादल फटना, कीड़ों का हमला तथा हिम-स्खलन आदि सभी कुछ आते हैं। इन सिफारिशों की सूची इन्टरनेट पर उपलब्ध हैं जिसके विस्तार में हम नहीं जायेंगे। अब यह सुविधायें अधिकार के दायरे में आ गयी हैं।

इस तरह 2005 से राहत कार्यों के लिए उपलब्ध संसाधन में बेतहाशा वृद्धि हुई है। बिहार में 2007 और 2008 में हुए राहत कार्यों में आशातीत सुधार बारहवें वित्त आयोग की सिफारिशों के कारण हुआ था न कि किसी राजनीतिक नेता की सदाशयता और खुद की ताकत से। पीड़ितों को जरूरत के समय मदद मिले इसका कोई भी विवेकशील व्यक्ति विरोध नहीं करेगा मगर यदि कोई दुर्घटना एक निश्चित समय किसी निर्दिष्ट स्थान पर हर साल बिना नागा घटती हो तो उसका निदान एक ऐसी स्थायी व्यवस्था होती है जिसमें कोई भी परिवार बिना किसी बाहरी मदद के सम्मानपूर्वक जीवन यापन कर सके। यह पीड़ित परिवार के साथ जिम्मेवारी पूर्ण और बराबरी के रिश्ते का समाधान है और यह काम वही व्यक्ति या संस्था कर सकती है जो लोगों में आत्म विश्वास और आत्म सम्मान जगा सके।

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Post By: tridmin
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