भविष्य के लिए जल संरक्षण आवश्यक

वर्षा के जल का संचय विशेष रूप से बनाए गए तालाबों, जलाशयों, गड्ढों और छोटे-छोटे बाँधों में किया जा सकता है। पानी के संरक्षण की कुछ और सामान्य विधियाँ भी हैं। पहले से बने हुए और नवनिर्मित मकानों की छतों में इकट्ठा होने वाले वर्षा के जल के संचय की व्यवस्था की जानी चाहिए। घरों और खेतों में पानी के उपयोग में किफायत करनी होगी। घरों से निकलने वाले बेकार पानी का उपयोग घरों में सब्जी उत्पादन के लिए करना चाहिए। कृषि में फसलों को सिंचाई का पानी खुली नालियों द्वारा देने के विकल्प के रूप में सिंचाई की आधुनिक तकनीकें अपनानी चाहिए जिनमें बून्द-बून्द और छिड़काव पद्धतियाँ प्रमुख है। मानव समाज के लिए शुद्ध पेयजल की कमी इस सदी का सबसे बड़ा संकट होने की आशंका है। विश्व में प्रतिवर्ष 8 करोड़ लोगों की वृद्धि जारी है। बढ़ती जनसंख्या के कारण प्रत्येक वर्ष लगभग 64 अरब घन मीटर स्वच्छ जल की माँग बढ़ रही है।

भारतवर्ष में भी जहाँ विश्व की कुल आबादी के 16 प्रतिशत लोग रहते हैं वहाँ विश्व के कुल भू-भाग का केवल 2.45 प्रतिशत और जल संसाधनों का केवल 4 प्रतिशत भाग ही हमारे पास है। यद्यपि देश में प्रतिव्यक्ति जलापूर्ति 16589 घनमीटर प्रतिवर्ष है, वहीं उसके विपरीत साबरमती घाटी तथा राजस्थान के कई हिस्सों में यह 360 मीटर से भी कम है।

देश में वर्षा का वार्षिक औसत 1100 मिलीमीटर है लेकिन वर्षा का अनियमित होना, अलग-अलग स्थानों पर भारी अन्तर होना और 3-4 महीनों में ही उपलब्ध होना जल की नियमित उपलब्धता के लिए अच्छा नहीं है। भारतवर्ष में सभी स्रोतों से 4000 अरब घनमीटर पानी प्राप्त होता है जिसमें से 700 अरब घनमीटर पानी का वाष्पीकरण हो जाता है, 700 अरब घनमीटर पानी भूमि की सतह से बहकर चला जाता है तथा 150 अरब घन मीटर बाढ़ के रूप में समुद्र में चला जाता है।

हमारे पास लगभग 1100 अरब घनमीटर पानी बच जाता है जिसमें से 430 अरब घनमीटर पानी भूमि के अन्दर चला जाता है, 370 अरब घन मीटर का उपयोग भूमि की सतह पर किया जाता है तथा 300 अरब घनमीटर पानी ऐसा बच जाता है जिसका हम संचय दोहन कर सकते हैं।

संयुक्त-राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के अनुसार सन् 2025 से पहले ही भारत में जल दबाव उत्पन्न हो जाएगा। अन्तरराष्ट्रीय जनसंख्या कार्यवाई संस्था के अनुसार 2054 तक 54 देशों के 4 अरब लोग अर्थात् उस समय की 40 प्रतिशत जनसंख्या जल संकट से प्रभावित होगी।

केन्द्रीय भूजल बोर्ड के एक अनुमान, के अनुसार अगर भूमिगत जल के अन्धाधुन्ध प्रयोग का सिलसिला जारी रहा तो देश के 15 राज्यों में भूमिगत जल के भण्डार 2025 तक पूरी तरह खाली हो जाएँगे। एक अनुमान के अनुसार हमारे देश में 2 करोड़ 10 लाख किसान फसलों की सिंचाई के लिए भूमिगत पानी का उपयोग करते हैं और कुल सिंचित क्षेत्र में से दो तिहाई में भूमिगत जल का प्रयोग होता है। पानी एक अत्यन्त महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन है और जल संसाधनों का नियोजन और विकास राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर करना आवश्यक है। एक अनुमान के अनुसार देश में करीब 40 करोड़ हेक्टेयर मीटर वर्षा और हिमपात में से भूमिगत जल की उपलब्धता करीब 17 करोड़ 5 लाख हेक्टेयर मीटर है।

भू-आकृति और अन्य बाधाओं की वजह से केवल 50 प्रतिशत उपलब्ध जल का ही प्रयोग किया जा सकता है। वर्षाजल के संग्रह के अभाव, अवैज्ञानिक तरीकों से पानी का उपयोग तथा वर्षा की असमानता आदि कारणों से देश में प्रतिवर्ष कहीं-न-कहीं सूखे की स्थिति बनी रहती है।

भूमिगत जल के अवैज्ञानिक और अन्धाधुन्ध उपयोग से भी जल संकट गहरा रहा है। विश्व भर में प्रत्येक वर्ष 160 क्यूबिक किलोमीटर मात्रा में भूमिगत जल निकाला जाता है जिसकी भरपाई नहीं हो पाती है। परिणामस्वरूप आज गुजरात में भूमिगत जल स्तर 6 मीटर की दर से प्रतिवर्ष गिर रहा है और भूमिगत जल 300 मीटर की गहराई पर उपलब्ध हो रहा है।

पंजाब में भी सिंचाई के लिए 70 प्रतिशत आपूर्ति कुँओं द्वारा ही पूरी की जाती है। सन् 2004 में 20 प्रतिशत कुएँ सूख गए और कई कुँओं को 10 फुट तक गहरा करना पड़ा।

भारतवर्ष में पिछले 10 वर्षों में भूमिगत जल के उपयोग के लिए कुँओं की एक क्रान्ति शुरू हुई और 2 करोड़ से अधिक कुएँ खोदे गए जिन पर कुल 60,000 करोड़ रुपए खर्च हुए हैं।

आज भारतवर्ष में हाथों से खोदे हुए कम गहराई वाले और खुले लाखों कुएँ पहले ही सूख गए हैं।

कुँआंसन् 2004 में स्वीडन में हुए विश्व जल सम्मेलन में वैज्ञानिकों ने जल संकट से पैदा होने वाली अकाल जैसी स्थिति के लिये भविष्य में आगाह किया है। पिछले 50 वर्षों में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता तेजी से घटी है जो सन् 1951 में 5200 घनमीटर की तुलना से सन् 2001 में केवल 1820 घनमीटर ही रह गई है और अगर समय रहते जरूरी उपाय न किए गए तो सन् 2050 तक पानी की उपलब्धता घट कर 1140 घन मीटर ही रह जाएगी।

हमारे देश में बनाए गए ‘पानी दृष्टि 2025 दस्तावेज’ के अनुसार सन् 2025 में 1027 अरब घन मीटर पानी की आवश्यकता होगी जिससे खाद्यान्न सुरक्षा, लोगों की पानी की आवश्यकता तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी व पर्यावरण संरक्षण सम्बन्धी पानी की जरूरतों को पूरा किया जा सके।

सन् 2025 में हमें 730 अरब घन मीटर पानी की आवश्यकता सिंचाई के लिए, 70 अरब घन मीटर घरों में आपूर्ति के लिए, 77 अरब घनमीटर पानी पर्यावरण संरक्षण सम्बन्धी जरूरतों के लिए, 12 अरब घन मीटर पानी औद्योगिक क्षेत्र के लिए तथा शेष दूसरे क्षेत्रों के लिए होगी।

आज देश में बड़े पैमाने पर वर्षा जल के संचय, जल संरक्षण और भूमिगत जल भण्डारों को फिर से भरने के उपाय करने की आवश्यकता है।

भारतवर्ष में 40 प्रतिशत भूमिगत जल का उपयोग कृषि के लिए किया जाता है। देश के लगभग 15 प्रतिशत भाग पर सिंचाई की सुविधा उपलब्ध नहीं है। कृषि की पैदावार बढ़ाने के लिए वर्षा का जल संचयन महत्वपूर्ण है।

वर्षा ऋतु के समय भूमि पर से जो अतिरिक्त पानी बहकर निकल जाता है, इस पानी का संग्रहण करना ही जल संचयन कहलाता है। पानी का संरक्षण करने से सूखे से निपटने में मदद मिलेगी तथा पानी के उपयोग के अच्छे तरीकों से हमारे संसाधनों पर पड़ने वाले बोझ में भी कमी आएगी। पानी के संरक्षण से पर्यावरण को सन्तुलित बनाने में मदद मिलेगी। वर्षा के जल का उपयोग भूमिगत जल स्रोतों को भरने में किया जा सकता है और बाद में इस पानी का उपयोग सिंचाई या पीने के लिए किया जा सकता है। वर्षा के जल संग्रह के कई लाभ है।

वर्षा जल संचयन को सभी स्थानों पर आसानी से अपनाया जा सकता है। वर्षा का जल संचय पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित विकल्प है। जल संचय करने के लिए भण्डार निर्माण और उसके रख-रखाव में सामुदायिक भागीदारी की अच्छी संभावनाएं हैं। वर्षा का जल शुद्ध और कार्बनिक पदार्थों से युक्त होता है।

वर्षा के जल का संचय विशेष रूप से बनाए गए तालाबों, जलाशयों, गड्ढों और छोटे-छोटे बाँधों में किया जा सकता है। पानी के संरक्षण की कुछ और सामान्य विधियाँ भी हैं। पहले से बने हुए और नवनिर्मित मकानों की छतों में इकट्ठा होने वाले वर्षा के जल के संचय की व्यवस्था की जानी चाहिए।

घरों और खेतों में पानी के उपयोग में किफायत करनी होगी। घरों से निकलने वाले बेकार पानी का उपयोग घरों में सब्जी उत्पादन के लिए करना चाहिए। कृषि में फसलों को सिंचाई का पानी खुली नालियों द्वारा देने के विकल्प के रूप में सिंचाई की आधुनिक तकनीकें अपनानी चाहिए जिनमें बून्द-बून्द और छिड़काव पद्धतियाँ प्रमुख है।

फसलों के बीच में और बगीचों में घास और दूसरे साधनों द्वारा जल संरक्षण करना चाहिए जिससे फसलों और पेड़ों में जल की कम माँग हो। फसलों को पानी आवश्यकता अनुसार दें और एक बार अधिक सिंचाई करने के बदले पानी थोड़ी-थोड़ी मात्रा में बार-बार दें। खेतों में पानी का गैर आवश्यक नुकसान रोकने के लिए खरपतवारों का नियन्त्रण करना होगा।

पानी की उपलब्धता बढ़ाने के लिए हमें अपना रहन-सहन का तरीका बदलना होगा। घरों व कारखानों में पानी का उपयोग ठीक ढंग से व आवश्यकतानुसार ही करना होगा।

भूमिगत जल राष्ट्र की सम्पत्ति है तथा इन सम्पत्ति का उपयोग संयमित और सुनियोजित मात्रा में ही होना चाहिए। भूमिगत जल का उपयोग करने के लिए बनाए जाने वाले खुले कुएँ या बन्द कुओं की संख्या, स्थान आदि के सम्बन्ध में विभिन्न राज्य सरकारों, महानगरपालिकाओं ने नियम बनाए हैं परन्तु उनका उचित रूप से पालन नहीं हो रहा है।

कृषि क्षेत्र में किसानों को दी जाने वाली मुफ्त बिजली की सुविधा से भी भूमिगत जल का उपयोग अन्धाधुन्ध हो रहा है। इसलिए केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों को भूमिगत जल के उपयोग हेतु भी कानून और व्यापक नीति बनानी चाहिए जिससे कुओं की खुदाई पर नियन्त्रण रखा जा सके। इसके अतिरिक्त भूमिगत जल के गिरते हुए स्तर को ध्यान में रखते हुए इस तरह के प्रभावित क्षेत्रों में खेती के लिए फसलों और पौधों का चुनाव भी सावधानीपूर्वक करना चाहिए। ऐसे क्षेत्रों में पानी की अधिक माँग वाली फसलों जैसे धान, गन्ना और ‘अल्फाल्फा’ की खेती कम की जानी चाहिए।

हमारे देश में बाढ़ नियन्त्रण भी एक प्रमुख समस्या है। बाढ़ के द्वारा हर वर्ष 1500 अरब घन मीटर पानी बहकर समुद्र में चला जाता है जिससे प्रतिवर्ष 2400 करोड़ रुपयों का औसतन नुकसान होता है तथा 1200 करोड़ रुपए बाढ़ सहायता के कार्यों में खर्च होते हैं। देश में 26 करोड़ लोग बाढ़ से प्रभावित होते हैं तथा 400 लाख हेक्टेयर क्षेत्र फसलों का व इसके अलावा दूसरा क्षेत्र भी प्रभावित होता है। दूसरी तरफ देश के 14 राज्यों में 116 जिलों में 8 करोड़ 60 लाख लोग सूखे से प्रभावित होते हैं।

जल संरक्षण के कार्यों में गैर सरकारी संस्थाओं और लोगों की भागीदारी का विशेष महत्व है। सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं को लोगों को पानी के गहराते हुए संकट के विषय में जागरुक करना होगा। लोगों को भूमिगत जल के निर्बाध एवं अनियन्त्रित उपयोग को रोकना होगा और जितना जल हम भूमि से निकालते हैं उतना निःसर्ग प्रक्रिया से वापस भूमि में डालना भी होगा। केन्द्र सरकार द्वारा हाल ही के कुछ वर्षों में भूमिगत जल के निर्बाध एवं अनियन्त्रित उपयोग को रोकने व वर्षा के जल के दोहन के लिए कई उपाय किए गए हैं।बाढ़ नियन्त्रण और उस जल के प्रयोग के लिए एक व्यापक नीति बनानी चाहिए। बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में नदियों पर बाँध निर्माण करना, तटबन्धों और नहरों के निर्माण से हम बाढ़ के अनियन्त्रित जल का प्रयोग दूसरे सूखे क्षेत्रों में कृषि में सिंचाई और दूसरे कार्यों के लिए कर सकते हैं। यद्यपि इसमें केंद्र सरकार को 4443312 करोड़ रुपए की आवश्यकता है तथा 35 से 40 वर्षों तक का समय लगेगा, फिर भी इस दिशा में भी केन्द्र सरकार काम कर रही है। उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश में केन व बेतवा नदियों को जोड़ने के लिए सरकार ने विस्तृत योजना बनाने के आदेश दिए हैं और इस योजना पर सन् 2008 में काम शुरू हो जाएगा।

इसी तरह 4 अन्य परियोजनाएँ भी सरकार की प्राथमिकता में है जिनमें मध्य प्रदेश व राजस्थान के बीच बनने वाली पार्वती-काली सिन्ध-चम्बल लिंक परियोजना प्रमुख है।

जल संरक्षण के कार्यों में गैर सरकारी संस्थाओं और लोगों की भागीदारी का विशेष महत्व है। सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं को लोगों को पानी के गहराते हुए संकट के विषय में जागरुक करना होगा। लोगों को भूमिगत जल के निर्बाध एवं अनियन्त्रित उपयोग को रोकना होगा और जितना जल हम भूमि से निकालते हैं उतना निःसर्ग प्रक्रिया से वापस भूमि में डालना भी होगा। केन्द्र सरकार द्वारा हाल ही के कुछ वर्षों में भूमिगत जल के निर्बाध एवं अनियन्त्रित उपयोग को रोकने व वर्षा के जल के दोहन के लिए कई उपाय किए गए हैं। इनमें प्रमुख है राष्ट्रीय वर्षा जल प्राधिकरण का गठन तथा भूमिगत जल के कृत्रिम निःसर्ग पर एक समिति का गठन।

सन् 2007-08 के बजट में ये प्रावधान रखा गया है कि हर एक कृषि विश्वविद्यालय में वर्षा के जल को इकट्ठा करने व सही दोहन से सम्बन्धित प्रदर्शन लगाए जाएँ व किसानों को इस विषय पर अधिक से अधिक संख्या में प्रशिक्षित भी किया जाए। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी के अन्तर्गत भी इस तरह के कार्यों को प्राथमिकता दी जा रही है और इस योजना के अन्तर्गत पहले चरण में किए गए 8 लाख कार्यों में से करीब 54 प्रतिशत काम जल संरक्षण व जल संचयन से सम्बन्धित थे।

इसके अतिरिक्त इस वर्ष केन्द्र सरकार ने जल संरक्षण व जल संचय जैसे महत्वपूर्ण विषय पर सभी राज्यों की एक बैठक भी बुलाई थी जिसमें सभी राज्यों से भूमिगत पानी के निर्बाध एवं अनियन्त्रित उपयोग रोकने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक व्यापक नीति बनाने का आग्रह व प्रयास किया गया।

यदि पानी पर संकट आता है तो यह केवल मानव के लिए ही नहीं अपितु सभी जीवों के लिए संकट होगा, लेकिन हम वैज्ञानिक सोच और सामाजिक सहभागिता से इसे अवश्य हल कर सकते हैं।

(लेखक कवक एवं पादप रोग विज्ञान विभाग, डॉ. यशवन्त सिंह परमार औद्योगिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय, नौणी, सोलन हिमाचल प्रदेश में वैज्ञानिक हैं।)

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Post By: Shivendra
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