आज सड़कों पर दिखाई देने वाली गाड़ियों से लेकर बिजली के अभाव में प्रयुक्त जनरेटर तक के इंजन में ईंधन के रूप में 95 प्रतिशत जीवाश्म ईंधन अर्थात पेट्रोलियम-डीजल का उपयोग होता है। यह ईंधन नवीकरणीय न होने के कारण अपर्याप्त, बल्कि भविष्य में प्राप्त भी नहीं होगा। दूसरी ओर इसके प्रयोग से निकलने वाले धुएँ में कई ऐसे कारक हैं, जो जैव-पारिस्थितिकी के सन्तुलन को बिगाड़ने में अहम भूमिका निभाते हैं। डीजल इंजन के उपयोग हेतु डीजल का प्रतिस्थापन के रूप में सामने आ चुका है, बायोडीजल।
बायोडीजल का जीवाश्म ईंधन के एक बेहतरीन विकल्प के रूप में उपयोग किया जाने लगा है। इसका उत्पादन वनस्पति तेल (यथा - सोयाबीन, कपास, बीज, करंज, जट्रोफा, कॉर्न आदि के तेल, शैवाल जनित तेल, पुनर्चक्रित खाद्य तेल, चर्बी, पशु चर्बी या इन पदार्थों के विभिन्न संयोजन से होता है। अधिकांश बायोडीजल का निर्माण रेस्टोरेन्ट, औद्योगिक खाद्य उत्पादक, चिप्स निर्माता आदि द्वारा प्रयुक्त वनस्पति तेल, खाद्य तेल, चर्बी आदि से किया जाता है। इनके परिष्करण हेतु अपनाए गए उपायों में ट्रांसएस्टरीफिकेशन, तेल निष्कर्षण, परिशोधन आदि शामिल हैं। इसका उत्पादन न्यूनतम लागत पर सामान्य जैवरासायनिक प्रक्रिया से किया जाता है। अतएव, बायोडीजल पुनर्चक्रित एवं नवीकरणीय दोनों होते हैं। उच्च दहन बिन्दु होने के कारण दुर्घटना की स्थिति में बायोडीजल जीवाश्म ईंधन से कहीं अधिक सुरक्षित भी है।
जैव ईंधन पर राष्ट्रीय नीति
भारत सरकार द्वारा जैव ईंधन पर एक नई ‘परिवर्धित राष्ट्रीय नीति’ लाने की कोशिश हो रही है। तत्कालीन सरकार के नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय द्वारा तैयार ‘जैव ईंधन पर राष्ट्रीय नीति’ को केन्द्रीय मंत्रिमंडल द्वारा 11 सितम्बर, 2008 को मंजूरी दी गई थी। इस राष्ट्रीय जैव ईंधन नीति के अनुसार, 2017 से जैव ईंधन के रूप में 20 प्रतिशत मिश्रण के लिये बायोइथेनॉल और बायोडीजल प्रस्तावित किया गया था। इसमें घोषित नीति के तहत देश में उपजाऊ भूमि में पौधरोपण को प्रोत्साहन देने की बजाय सामुदायिक, सरकारी, जंगली बंजर भूमि पर जैव ईंधन से सम्बन्धित पौधरोपण को बढ़ावा दिया जाएगा तथा व्यर्थ, डिग्रेडेड एवं सीमान्त भूमि में होने वाले अखाद्य तेल बीजों से बायोडीजल का उत्पादन किया जाएगा।
राष्ट्रीय नीति में स्पष्ट किया गया था कि उत्पादकों को उचित मूल्य प्रदान करने के लिये जैव ईंधन तेल बीजों के मूल्य को समय-समय पर बदलने के प्रावधान के साथ न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) घोषित किया जाएगा। उत्पादकों को एमएसपी प्रणाली की विस्तृत जानकारी दी जाएगी और जैव ईंधन संचालन समिति द्वारा समय-समय पर नई दरों पर विचार किया जाएगा। तेल विपणन कम्पनियों द्वारा बायोइथेनॉल की खरीद के लिये न्यूनतम खरीद मूल्य (एमपीपी) उत्पादन की वास्तविक लागत और बायोइथेनॉल के आयातित मूल्य पर आधारित होगा। बायोडीजल के मामले में एमपीपी वर्तमान खुदरा डीजल मूल्य से भी सम्बन्धित होगा। बायोडीजल स्वदेशी उत्पादन पर केन्द्रित होगा और पाम तेल आदि वसामुक्त अम्ल (फैट फ्री एसिड, एफएफए) के आयात की अनुमति नहीं होगी। जैव ईंधन यानी बायोडीजल और बायोइथेनॉल को ‘घोषित उत्पादों’ के तहत रखा जाएगा ताकि जैव ईंधन के अप्रतिबन्धित परिवहन को राज्य के भीतर और बाहर सुनिश्चित किया जा सके।
नीति में बताया गया है कि कोई भी कर या शुल्क बायोडीजल पर नहीं लगाया जाएगा। राष्ट्रीय जैव ईंधन समन्वय समिति की अध्यक्षता प्रधानमंत्री द्वारा की जाएगी। जैव ईंधन संचालन समिति की अध्यक्षता कैबिनेट सचिव द्वारा की जाएगी। जैव ईंधन के क्षेत्र में शोध के लिये जैव प्रौद्योगिकी विभाग, कृषि और ग्रामीण विकास मंत्रालय और नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय के नेतृत्व में संचालन समिति के अधीन एक उप समिति का गठन किया जाएगा। शोध, विकास और प्रदर्शन पर विशेष जोर दिया जाएगा। जिसके केन्द्र में रोपण, प्रसंस्करण और उत्पादन प्रौद्योगिकी समेत दूसरी पीढ़ी के सेलुलोज से बने जैव-ईंधन शामिल होंगे। सरकार को उम्मीद थी कि भारत में वर्ष 2022 तक जैव ईंधन कारोबार 50,000 करोड़ रुपए पहुँच जाएगा।
भारत में अखाद्य तेल बीजों का उत्पादन
भारत में व्याप्त भौगोलिक असमानता के कारण अलग-अलग क्षेत्रों में अलग फसलों का उत्पादन होता है। चूँकि बाजार में सर्वाधिक माँग खाद्य तेल एवं इनके बीजों की होती है अतएव, एक बड़े भूभाग पर इन्हीं का उत्पादन किया जाता है। सरकार की ‘जैव ईंधन पर राष्ट्रीय नीति’ घोषित होने और इसके अनुरूप विभिन्न एजेंसियों को सरकारी उत्प्रेरण के फलस्वरूप अखाद्य तेल बीजों के उत्पादन पर जोर दिया जाने लगा है। इन अखाद्य तेल बीजों में प्रमुख हैं- जट्रोफा तथा करंज।
जट्रोफा
इसे देश के अलग-अलग हिस्से में जंगली अरंड, व्याघ्र अरंड, रतनजोत, चन्द्रजोत, जमालगोटा आदि के नाम से जाना जाता है, जबकि इसका वानस्पतिक नाम जैट्रोफा करकस है। जट्रोफा आमतौर पर विश्व के कटिबन्धीय तथा उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में अधिक पाया जाता है। इसके प्राकृतिक स्रोतों में भारत के अलावा दक्षिणी अमेरिका, मैक्सिको, अफ्रीका, बर्मा, श्रीलंका, पाकिस्तान प्रमुख देश हैं। यह एक बहुवर्षीय, छोटे आकार (3-4 मीटर) एवं चौड़ी पत्तियों वाला झाड़ीनुमा, पतझड़ी, नरम छाल युक्त, तेजी से बढ़ने की प्रकृति वाला पौधा है। जट्रोफा के बीज से बने तेल अपनी भौतिक एवं रासायनिक विशेषताओं के कारण एक विश्वसनीय पारम्परिक डीजल का विकल्प होने की क्षमता रखता है। जट्रोफा तेल को डीजल में 5 से 20 प्रतिशत तक मिलाकर इंजन की बनावट में बिना कोई परिवर्तन किए प्रयोग किया जा सकता है।
जट्रोफा की खेती सभी प्रकार की भूमियों, जहाँ कम-से-कम दो फीट गहरी मिट्टी हो, पर आसानी से की जा सकती है। इसे शुष्क एवं अर्धशुष्क क्षेत्रों में भी उगाया जा सकता है। जिन क्षेत्रों में औसतन वार्षिक वर्षा कम-से-कम 600-700 मिमी होती है, वहाँ इसकी खेती अच्छी तरह की जा सकती है। अधिक से अधिक शाखाएँ विकसित करने के लिये समय-समय पर इसकी कटाई-छँटाई करनी पड़ती है। छँटाई के लिये फरवरी-मार्च का महीना श्रेष्ठ रहता है। सामान्य तौर पर जट्रोफा का पौधा दूसरे वर्ष में फूलना व फलना शुरू कर देता है। बरसात के समय पौधे में फूल आना प्रारम्भ हो जाता है तथा नवम्बर-दिसम्बर माह में हरे रंग के फल काले पड़ने (पकने) लगते हैं। इसके फलों को दिसम्बर-जनवरी में पक जाने पर तोड़ लिया जाता है।
जट्रोफा के बीजों की उपज प्रायः तृतीय वर्ष में 12.5 क्विंटल/हेक्टेयर, चतुर्थ वर्ष में 20 क्विंटल/हेक्टेयर तथा पंचम वर्ष में 25 क्विंटल/हेक्टेयर होती है। सिंचित अवस्था इसके पौधों से 5-6 वर्ष बाद 3-4 किग्रा बीज प्रति पौधा तथा असिंचित अवस्था में 1.5-2.0 किग्रा बीज प्रति पौधा प्राप्त होते हैं। इनके बीजों में तेल की मात्रा औसतन 30 प्रतिशत होती है।
विनिर्माण की प्रक्रिया
पूजा की थाली या घरों के दीये जलाने में अक्सर कच्चा वनस्पति तेल, खाद्य तेल, चर्बी या घी का उपयोग होता है। हमारी स्वाभाविक जिज्ञासा हो सकती है कि क्या इनका इस्तेमाल सीधे इंजन में किया जाए? किन्तु नहीं, अनुसन्धान से पता चलता है कि कच्चा वनस्पति तेल, खाद्य तेल, चर्बी या घी की अल्पमात्रा (1%) भी परम्परागत डीजल में मिलाने से इंजन को नुकसान पहुँचता है। ऐसा प्रायः तेल या चर्बी के श्यानता (विस्कोसिटी) के कारण होता है।
तेल या चर्बी की श्यानता तकरीबन 40 वर्ग मिमी/से. है जबकि सामान्य डीजल इंजन 1.3 से 4.1 वर्ग मिमी/से. के लिये सक्षम होता है। फिर, कच्चे तेल या चर्बी के उच्च क्ववथनांक के कारण इसका पूर्ण वाष्पीकरण नहीं हो पाता, खासकर सर्दी के मौसम में। जिससे इसकी ज्वलनशीलता भी प्रभावित होती है। कच्चे तेल या चर्बी के ट्रांसएस्टरीफिकेशन की प्रक्रिया से इनकी श्यानता एवं क्वथनांक दोनों घटकर सामान्य डीजल के आस-पास आ जाते हैं। बायोडीजल की श्यानता 4 से 5 वर्ग मिमी/से. के बीच होती है। बायोडीजल उत्पादन में प्रयुक्त ट्रांसएस्टरीफिकेशन की रासायनिक प्रतिक्रिया को यहाँ दर्शाया गया है-
जहाँ R1, R2, R3 = 15 से 21 कार्बन परमाणुओं वाली हाइड्रोकार्बन श्रृंखला है।
बायोडीजल विनिर्माण प्रक्रिया में तेल एवं चर्बी को मोनो एल्काइल ईस्टर्स में परिवर्तित करना होता है। मोनो एल्काइल ईस्टर्स नामक रासायनिक पदार्थ को ही ‘बायोडीजल’ कहते हैं। इसके विनिर्माण की प्रक्रिया एस्टरीफिकेशन भी कहलाती है। सामान्यतया, 100 किलोग्राम तेल या चर्बी का जब 10 किलोग्राम शॉर्ट-चेन अल्कोहल (प्रायः मिथेनॉल) से एक उत्प्रेरक (सोडियम हाइड्रॉक्साइड या पोटैशियम हाइड्रॉक्साइड) की मौजूदगी में प्रतिक्रिया करायी जाती है तो 102 किलोग्राम बायोडीजल एवं 8 किलोग्राम ग्लिसरीन बनता है। इस तरह बायोडीजल विनिर्माण प्रक्रिया में ग्लिसरीन एक सह उत्पाद के रूप में प्राप्त होता है।
बायोडीजल को अधिक सक्षम, सस्ता एवं उपयोग में आसान बनाया जा सके, इसके लिये विश्वस्तरीय कोशिश जारी है। इसी कोशिश के तहत ‘विश्व बायोडीजल कांग्रेस एवं एक्सपो’ का आयोजन 6-7 दिसम्बर 2017 को अमेरिका के टेक्सास में होने जा रहा है, जिसमें विभिन्न वैज्ञानिक संस्थानों, अनुसन्धानकर्ताओं, अकादमिकों तथा जैव ईंधन उद्योग से जुड़े महारथियों का जमावड़ा होगा और इसकी नई तकनीकों पर चर्चा होगी।
नई पीढ़ी के बायोडीजल
प्रथम पीढ़ी के बायोडीजल का निर्माण, जैसा कि उक्त प्रक्रियाओं में दर्शाया गया है, वनस्पति तेल, खाद्य तेल, चर्बी आदि से किया जाता है। द्वितीय पीढ़ी के बायोडीजल का निर्माण लिग्नो-सेल्यूलॉसिक जैव पदार्थ, लकड़ी, कृषि अवशिष्ट आदि से किया जाता है। शैवाल से परिष्कृत बायोडीजल को तीसरी पीढ़ी के बायोडीजल के रूप में परिभाषित किया जाता है। इस तरह विभिन्न अनुसन्धान से बायोडीजल के परिष्करण की नई-नई प्रणाली विकसित करने की कोशिशें हो रही हैं।
बायोडीजल के उपयोग से लाभ
जीवाश्म ईंधन से उत्सर्जित ‘पार्टिकुलेट मैटर’ मानव स्वास्थ्य पर सबसे बुरा प्रभाव डालता है। बायोडीजल के उपयोग से मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले इस कुप्रभाव को कम किया जा सकता है। वर्ष 2011 में अमेरिकन खनन सुरक्षा एवं स्वास्थ्य प्रशासन विभाग के एक अध्ययन में यह बात सामने आई कि बायोडीजल मिश्रित डीजल के उपयोग से भूमिगत जेनसेट में ‘पार्टिकुलेट मैटर’ का उत्सर्जन प्रभावी ढंग से कम किया जा सकता है। जिसका सकारात्मक प्रभाव श्रमिकों के स्वास्थ्य पर दिखाई दिया।
बायोडीजल के उपयोग से इंजन संचालन भी परिवर्धित होती है। इससे इंजन रख-रखाव पर आने वाले खर्चे को कम किया जा सकता है। इंजन की आयु में बढ़ोत्तरी होती है। पर्यावरण पर भी बायोडीजल का सकारात्मक प्रभाव सिद्ध किया जा चुका है। इस तरह बायोडीजल भविष्य का एक महत्त्वपूर्ण ईंधन विकल्प के रूप में स्वयं को स्थापित कर रहा है।
लेखक परिचय
श्री श्याम सुंदर सिंह
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