भूमि उपयोग के संदर्भ में सोन घाटी के पूर्वी क्षेत्र का भू-आकृतिक अध्ययन (Geomorphologic study of the eastern part of Son-valley with reference to land use)


सारांश


प्रस्तुत शोध पत्र सोन घाटी, जिला सोनभद्र उ.प्र. के पूर्वी भाग में किये गये भू-वैज्ञानिक व भू-आकृतिक अध्ययन पर आधारित है। इस अध्ययन का मुख्य क्षेत्र महाकौशल ग्रुप (पूर्व में बीजावर ग्रुप) की चट्टानें हैं जो कि विंध्यन सुपर-ग्रुप के दक्षिण में स्थित हैं। इस क्षेत्र का भौगोलिक विस्तार अक्षांश 24015’-24031’ एवं देशान्तर 82015’-82030’ के मध्य स्थित है। यह क्षेत्र सर्वे ऑफ इण्डिया टोपोशीट सं. 63/पी/7 के अंतर्गत आता है। भू-वैज्ञानिक तथा भू-आकृतिक अध्ययन के आधार पर इरा क्षेत्र को विभिन्न वर्गों में विभक्त किया जा सकता है, जैसे- चरागाह, वानिकी, शुष्क व नम कृषि क्षेत्र। इनका अध्ययन इस क्षेत्र में कृषि व उद्योगों को विकसित एवं प्रोत्साहित करने में सहायक होगा। इस क्षेत्र में उपस्थित खनिजों व चट्टानों का उपयोग भी पर्यावरण को बिना हानि पहुँचाये किया जा सकता है। जिससे क्षेत्रवासी लाभान्वित हो पायेंगे। मौसम की दृष्टि से यह क्षेत्र दीर्घ तप्त ग्रीष्मकाल, कम वर्षा वाला तथा संक्षिप्त एवं साधारण शीतकाल दर्शाता है। इस क्षेत्र का तापमान शीत व ग्रीष्मकाल में क्रमशः 8.50 व 460 से.ग्रे. के मध्य रहता है। वर्षा जून से अक्टूबर तक होती है। वनक्षेत्र में महुआ, साल, तेंदूपत्ता तथा बांस आदि प्रमुख उत्पाद हैं।

Abstract - Geological and geomorphologic studies especially terrain evaluation of the eastern part of Son-valley, District Sombhadra, U.P., reveals the areas suitable for pastures, forestry, wet and dry cultivation. It can help in the development of sectors like agriculture and industry apart from mining. The utilization of natural resources of the area taking into account the potential and constraints specific to the environment can be properly managed by land use planning.

1. भू-विज्ञानी स्तरक्रम (Geological setting) - इस क्षेत्र का भू-वैज्ञानिक अध्ययन ऑडेन, घोष एवं अन्य मेडलीकॉट, मुखर्जी, पोस्को, शुक्ला एवं श्रीवास्तव, शुक्ला, मिश्रा एवं अन्य वैज्ञानिकों ने किया है। इस क्षेत्र में तीन मुख्य शैल समूहों की चट्टानें पायी जाती हैं। सबसे प्राचीन दुद्धी ग्रेनीटॉयड कॉम्प्लेक्स, महाकौशल समूह के मेटा सेडीमेंट्स का अनुक्रम व विंध्यन सुपरग्रुप। दो प्रमुख विवर्तगिक फेज के परिणामस्वरूप विभिन्न प्रकार के वलनों का निर्माण महाकौशल ग्रुप की चट्टानों में व निम्न (लोअर) विंध्यम की चट्टानों में देखने को मिलता है। महाकौशल ग्रुप की फिलाइट व शिष्ट चट्टानों में ग्रेनाइट के प्लूटॉन के इम्प्लेस्ट (Implaced) -होने के कारण सभी ओर मेटामॉर्फिक आरियोल का निर्माण हुआ है। भ्रंशों, सिलीसीफाइड ब्रेक्सिया, स्लिकेनसाइड तथा मिनरेलाइजेशन आदि रचनाओं की उपस्थिति इस क्षेत्र में हुई। विवर्तनिक गतिविधियों की ओर इंगित करती हैं। क्षेत्र का भूगर्भीय स्तर क्रम निम्न प्रकार से है-

 

सुपर ग्रुप

ग्रुप

फॉरमेशन

लिथोलॉजी

आयु

 

 

एल्युवियग

बालू, सिल्ट, क्ले

रिसेन्ट

विंध्यन

कैमूर ग्रुप

कैमूर सैंड स्टोन

सैंडस्टोन

अपर प्रोटीरोजोइक

 

सेमरी ग्रुप

पोरसीलेनाइट कजराहट लाइम स्टोन बेसल फॉरमेशन

पोरसीलेनाइट चूना पत्थर कांग्लोमीरेट (जेस्पर सहित) सैंडस्टोन

लोअर मिडिल प्रोटीरोजोइक

 

महाकौशल ग्रुप

पारसोई फॉरमेशन

डाइक ग्रेनाइट, क्वार्टज वेन फिलाइट, शिष्ट स्लेट व क्वार्टजाइट

लोअर प्रोटीरोजोइक

 

दुद्धी ग्रेनीटॉइड कॉम्प्लेक्स

 

नाइस व ग्रेनाइट्स

ऑर्कियन

 

2. भू-आकृति (Geomorphology) - इस क्षेत्र के दक्षिणी भाग में ऊँची-नीची पहाड़ियाँ तथा उत्तर में लम्बाकार (Linear) स्ट्राइक श्रेणियाँ हैं जोकि कगार (स्कार्प) के रूप में विकसित हैं। मध्यवर्ती भू-भाग लगभग समतल है तथा मिट्टी और बालू से आच्छादित है। इन पहाड़ियों की अधिकतम ऊँचाई 413 मीटर तथा न्यूनतम ऊँचाई 200 मीटर है। इन चट्टानों का सामान्य ढलान उत्तर व पूर्व की तरफ है। इस क्षेत्र को भू-आकृति की दृष्टि से मुख्यतः तीन इकाइयों में बाँटा जा सकता है।

क. पूर्व-पश्चिम दिशा प्रवृत्ति की लम्बाकार व कम ऊँचाई की श्रेणियाँ जो दक्षिणी भाग में स्कार्प (कगार) की तरह दिखती हैं।
ख. लम्बाकार (लीनियर) रिजेज व उनके बीच की घाटियाँ जोकि क्रमशः कठोर व मृदुल शैलों द्वारा निर्मित हैं और मध्य तथा दक्षिणी क्षेत्र में स्थित हैं।
ग. अल्यूवियल प्लेन (सपाट मैदानी भाग) जो उत्तर में सोन नदी, मध्य में पंडा व बिछुली नदियों व दक्षिण में कनहर नदी का क्षेत्र है।

3. अपवाह तंत्र (Drainage System) इस क्षेत्र की प्रमुख नदी सोन है जो पूर्व दिशा की ओर लगभग 2 किमी. चौड़ी घाटी में बहती है। जल वाहिकाएँ (चैनल) छोटी व पतली हैं तथा विसर्पाकार मार्ग से चैनल बार के बीच बहती हैं। कनहर, पंडा, सतबानी, बिछुली आदि नदियाँ ड्रेनेज नेटवर्क बनाती हैं तथा पन्डरवा, सिक्किया, बोमिनी, पूरापानी तथा मेगहरदा आदि सहायक नदियाँ हैं। मैदानी क्षेत्र जो कि ग्रेनाइट, नाइस व अन्य आर्कियन चट्टानों से निर्मित हैं, डेन्ड्राइटिक प्रतिकृति (पैटर्न) प्रकार का अपवाह तंत्र दर्शाता है। महाकौशल ग्रुप की शिष्ट, फिलाइट स्लेट का क्षेत्र है वहाँ का अपवाह तंत्र सबडेन्ड्राइटिक प्रकार का है और आयताकार प्रतकृति अपवाह तंत्र विकसित है। विंध्यन सुपरग्रुप की चट्टानों में संधि, विभंग व दरारें पायी जाती हैं अतः अपवाह तंत्र उपसगानान्तर व आयताकार दिखता है।

4. भू-आकृतिक इकाइयाँ (Geomorphological units) क्षेत्र की सतह के उच्चावचन (relief) ढलान (slope) सतही (surface) आवरण (cover) व स्थानीय शैलों के आधार पर निम्नलिखित भू-आकृतिक इकाइयों में विभाजित किया जा सकता है-

1. अनाच्छादन पहाड़ियाँ (Denudational hills) महाकौशल ग्रुप व विंध्यन सुपरग्रुप की चट्टानों को भू-वैज्ञानिक संरचना व शैल लक्षण के आधार पर अनाच्छादन पहाड़ियों को दो भागों में बाँटा जा सकता है-

अ. उत्तरी क्षेत्र की मॉडरेटली (साधारण) विच्छेदित रिजेज - ये पहाड़ियाँ रेक्टीलीनियर आकार में मुख्यतया सैंडस्टोन, लाइमस्टोन व पोरसीलेनाइट चट्टानों द्वारा निर्मित है। जोकि पूर्व-पश्चिम दिशा में लम्बाकार स्ट्राइक रिजेज के रूप में विकसित हैं। ये चट्टानें दक्षिणी भाग में क्वेस्टा (Cuesta) व कमनति वाले कगार (scarp) के रूप में दिखते हैं। पहाड़ियों के ढ़लान व उनके बीच का भू-भाग मलबा (debris) व मिश्रोढ़ (colluvial) पदार्थ से ढका हुआ है। भू-आकृतिक रचना विभंगों (fractures) के द्वारा नियंत्रित है। अपवाह तंत्र समानान्तर व आयताकार प्रतिकृति प्रकार का है। इन रिजेज (श्रेणियों) के ऊपर झाड़ीदार वन पाये जाते हैं। क्षेत्र का सामान्य ढलान 17-250 है। क्वेस्टा दृश्य-भूमि (cuesta landscape) विंध्यन सैंडस्टोन व पोरसीलेनाइट की विशेषता है।

ब. इस श्रेणी के पहाड़ मुख्यतया स्लेट, फिलाइट व क्वार्टजाइट चट्टानों से निर्मित हैं तथा ऊँची-नीची (undulatory) मेसा का निर्माण करते हैं। यह श्रेणियाँ ट्रेंड (trend) ई.एन.ई. डब्ल्यू.एस.डब्ल्यू है तथा बीच का घाटीनुमा भू-भाग क्रमशः कठोर व मृदुल शैलों के कारण बना है। इन रिजेज के ऊपरी भाग चौड़े हैं तथा जहाँ पर क्वार्ट्ज और फिलाइट की चट्टानें हैं वहाँ पर संगीय (craggy) स्थलाकृति हैं। अपवाह तंत्र आयताकार व ट्रेलिस पैटर्न का है जिसकी मुख्य इकाइयाँ स्थानीय स्ट्राइक के समानान्तर है। इन पहाड़ियों पर मृदा आच्छादन कम है। अतः झाड़ीदार वनस्पतियाँ ज्यादा पनपती हैं। जबकि प्रमुख घाटियाँ hill wash पदार्थ से परिपूर्ण हैं और घने वनों से ढकी हुई हैं।

2. मेसा व ब्यूट (Mesa and Butte) पटगढ़ व गरबंध गाँव एक सपाट भूमि पर स्थित है जिसकी लम्बाई 4 कि.मी. व चौड़ाई 3.5 कि.मी. है। यह मेसा भू-आकृति है जिसके सभी तरफ तीव्र ढलान हैं व चट्टानों की नति (dip) बहुत कम व दक्षिण की ओर है। यह मेसा अपर विंध्यन ग्रुप के कैमूर सैंडस्टोन का बना हुआ है। एक छोटी अलग हुई इकाई रोहनिया व गरबंध गाँव से 3 कि.मी. दूरी पर मिलती है। जिसे ब्यूट (Butte) कहते हैं। इन स्थलाकृतियों के मध्य भाग पर मोटा मृदा आच्छादन है जो कि कैमूर सैंडस्टोन के ऊपर पाई जाने वाली शैल के अपक्षय से बना है।

3. विच्छेदित पेडिमेंट्स (Dissected Pediments) इस क्षेत्र के पेडिमेंट्स मुख्यतया अपरदन शैल (Eroded Rock Surface) के हैं जो कि पूर्व से पश्चिम तक डेन्यूडेशनल पहाड़ों के आधार पर स्थित है। इस क्षेत्र के नदियों व उनकी सहायक वाहिकाओं के विच्छेदित अपरदानी व निक्षेपित कार्यों के फलस्वरूप गलींग व शीट वाश (Gullying and sheet wash) की उत्पत्ति हुई है। कुछ स्थानों पर मलबे की पतली पर्त मिलती है। जबकि अधिकतर क्षेत्रों में मृदा पर्त उपस्थित नहीं है। पेडिमेंट्स की ढलान औसतन कम परंतु कहीं-कहीं अधिक (moderate) है और ग्रेवल (बजरी) तथा मोटी सैंड द्वारा आच्छादित है। जिसके बीच में कहीं-कहीं पर अंशदर्शन (outcrop) दिखता है। नालियों का बनना एक्टिव व प्रोमिनेंट है जिसकी वजह से नीचे की चट्टान दिखाई देती है।

4. जलोढ़ इकाई (Alluvial unit) सोन, कनहर, पन्डा आदि नदियों के निक्षेप इस श्रेणी में आते हैं। उत्तरी क्षेत्र में सोन नदी द्वारा निक्षेपित जलोढ़ कुछ दूरी तक नदी के किनारे पहाड़ों के आधार पर मिलते हैं। पण्डा नदी ने मध्य क्षेत्र में एक बड़ा बेसिन का निर्माण किया है जबकि कनहर नदी ने दक्षिण क्षेत्र में बाढ़ तल निक्षेप का निर्माण किया है। इन नदी प्रवाहिका तंत्र द्वारा दो प्रकार की टिरेसेज (Terraces) निक्षेपित की गयी है।

अ. प्राचीन जलोढ़ पृष्ठ (Older Alluvial Surface-T1) प्राचीन पृष्ठ, सोन, पण्डा व कनहर नदियों के दोनों किनारों पर मिलते हैं। T1 व T0 के बीच का ब्लफ जोन 2.5 से 5.0 मीटर है। T1 पृष्ठ बनाने वाले अवसाद (सेडिमेंट्स) कम संपीडित मध्य से महीन कणों वाले सिल्ट, बजरी व पेबेल्स हैं जिनका आहरण आर्कियन, महाकौशल व विंध्यन समूह की चट्टानों से हुआ है। ये कई स्थानों पर ग्रेडेड बेडिंग व करेंट बेडिंग भी दर्शाते हैं।

ब. नवीन जलोढ़ पृष्ठ (Younger Alluvial Surface- T0) यह इकाई मुख्य सहायक वाहिकाओं के किनारे पतली संकरी जलोढ़ की संस्तर (Fringes) बनाती है तथा प्वाइन्ट बार, चैनल बार, कट ऑफ मियान्डर आदि स्थलाकृतियों के आकार में दिखाई देती है। सोन नदी के नवीन जलोढ़ पृष्ठ 100-150 मीटर तक चौड़े हैं। जबकि पंडा व कनहर नदियों के किनारे यह पतली पट्टिकाओं की भाँति मिलते हैं। नवीन जलोढ़ पृष्ठ का निर्माण मध्य से महीन कणों वाली लोम के द्वारा हुआ है जिसमें क्वार्ट्ज, फेल्सपार, फिलाइट व पोरसीलेनाइट आदि से आयातित बजरी व पेबेल्स मिश्रित मिलते हैं। इन अवसादी निक्षेपों की मोटाई 1.0-1.5 मीटर तक है।

5. मिश्रोढ़ (Colluvium) मिश्रोढ़ का निर्माण विच्छेदित पेडिमेन्ट्स व पहाड़ों की चट्टानों के शीट वाश इरोजन द्वारा होता है। ये पहाड़ों के आधार के ढलानों व गली में बनते हैं। मिश्रोढ़ का पार्श्विक फैलाव कोन गाँव के पास दिखाई देता है। इसकी चौड़ाई 15-20 मीटर तक है व 270 मीटर तक की ऊँचाई पर मिलती है। इस इकाई का निर्माण सभी प्रकार के अपरिष्कृत शेल फ्रैग्मेंट्स, विभिन्न आकार तथा माप में सिल्ट व क्ले के साथ मिलकर विजातीय (Heterogeneous) मिश्रण द्वारा होता है।

भूमि उपयोग पैटर्न (Land Use Pattern in Area)- अध्ययन क्षेत्र में शहरी निर्माण (urban built up) की रचनायें मौजूद नहीं है। परंतु ‘‘विंढयमगंज’’ व ‘‘नगर उन्टारी’’ गाँवों को अर्ध-शहरी (semi-urban) की श्रेणी में रखा जा सकता है। एक तिहाई क्षेत्र में कृषि कार्य होते हैं तथा बाकी क्षेत्र में वन हैं। क्षेत्र का सावधानीपूर्वक, वैज्ञानिक तथा तकनीकी जानकारी व विकास की योजनाओं का बेहतर व उपयोगी प्रबंधन के द्वारा अधिक विकास किया जा सकता है। जिससे वहाँ की पर्यावरण व पारिस्थितिक तंत्र का विनाश बचाया जा सके। भू-वैज्ञानिक संरचना व भू-आकृति के अध्ययन के आधार पर निम्नलिखित सुझाव दिये गये हैं-

1. अति उपजाऊ जलोढ़ क्षेत्र (T1) को सजल खेती (wet cultivation) के लिये प्रयुक्त किया जाना चाहिये। वहाँ पर ड्रिलिंग करके ट्यूबवेल व नदियों के ऊपरी स्थानों पर चेक बाँध बनाकर जल की व्यवस्था की जा सकती है।
2. प्राचीन जलोढ़ क्षेत्र की बैड लैंड टोपोग्राफी कोन और आस-पास के गाँवों के पास पंडा नदी की कटान व अपक्षयन से बचाया जाये। इसके लिये इस प्रकार की वनस्पतियाँ (पेड़ व झाड़ियाँ) लगाई जायें जो अपनी जड़ों की गहराई तक जाकर मृदा अपक्षयन रोक सके।
3. कम ढलान वाले विच्छेपित पेडिमेंट्स क्षेत्र का उपयोग शुष्क खेतीबारी (Dry Cultivation) के लिये किया जाना चाहिए। इसके लिये कंटूर बंडिंग की ऊँचाई उठाने तथा समोच्च समानान्तर जुताई (parallel plaughing) व स्टेप फॉर्मिंग का प्रयोग करना चाहिए।
4. 50-100 ढलान के क्षेत्रों का उपयोग घास के मैदान, चारागाह विकसित करने में होना चाहिए जिससे ढलान (slope) का सुदृढीकरण हो सकेगा।
5. गरबंध गाँव के पास जल-संचयन बंधा बनाया जा सकता है जिससे उपजाऊ सूखे क्षेत्र का, सींचने की व्यवस्था के बाद कृषि कार्य में उपयोग हो सकता है।
6. लघु व्यवसाय के रूप में ईंट का व्यवसाय कोन गाँव के पास हो सकता है।
7. सैंडस्टोन, पोरसीलेनाइट, ग्रेनाइट, क्वार्जाइट, एन्डालूसाइट आदि शैलों का प्रयोग निर्माण सामग्री के रूप में किया जा सकता है।
8. विच्छेदित पहाड़ों पर वनीकरण का कार्य किया जा सकता है।

आभार- लेखक डॉ. जी.एस. श्रीवास्तव, पूर्व डिप्टी डायरेक्टर जनरल, भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण प्रो. ए.के. श्रीवास्तव, भू-विज्ञान विभाग लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ एवं प्रो. एस.के. कुलश्रेष्ठ, पूर्व प्रोफेसर, पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़, को महत्त्वपूर्ण चर्चा एवं सुझावों हेतु आभार ज्ञापित करता है।

संदर्भ


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लेखक परिचय


संजय शुक्ल
एसोसिएट प्रोफेसर, भूविज्ञान विभाग, बी.एस.एन.वी.पी.जी. कॉलेज, लखनऊ 226001 उ.प्र.
drsanjaygco@gmail.com
प्राप्त तिथि-29.07.2016 स्वीकृत तिथि-16.08.2016

Sanjay Shukla
Associate Professor, Department of Geology, B.S.N.V.P.G. College, Lucknow-226001, U.P., India.
drsanjaygco@gmail.com

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