देश की लाखों हेक्टेयर खेतों को बंजर बनाने का ही इरादा कर लिया हो तो बात दूसरी है, वरना भूमि संवर्धन को खान उद्योग का एक अनिवार्य अंग मानकर चलना बहुत जरूरी है। अमेरिका में किसी भी खदान को तभी मंजूरी दी जाती है जब भूमि संवर्धन की योजना भी साथ-साथ पेश की जाती है। न्यूयार्क के साइराक्यूज स्थित कॉलेज ऑफ एनवायर्नमेंटल सांइसेस एंड फारेस्ट्री के प्रो. मोहन वली कहते हैं, “1977 के फेडरल स्टेट माइनिंग एंड कंट्रोल एक्ट की एक बुनियादी धारा यह है कि खान का काम पूरा हो जाने के बाद एक निश्चित अवधि में वहीं की जमीन को बिल्कुल पहले की तरह, बल्कि उससे अच्छा बनाना होगा।” इसके ठीक विपरीत स्थिति है हमारे यहां। केंद्रीय मृदा व जल संरक्षण शोध व प्रशिक्षण संस्थान, देहरादून के श्री आरके गुप्ता के शब्दों में, “वर्तमान कानूनों में खान खुदाई के साथ भूमि की और पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण की कोई बात है ही नहीं।”
खदानों की खुदाई शुरू करते समय ही भूमि संवर्धन को खदान का ही एक अंश मानकर चलें तो वह काम आसान, सस्ता और कम खतरनाक होता है बनिस्बत छोड़े हुए इलाके को सुधारने के। मिसाल के तौर पर, खुली खदानों में ऊपरी हिस्से को साफ करने के लिए सतह की सारी मिट्टी हटाई जाती है। अक्सर ‘फालतू’ चीजों को बेतरतीब इधर-उधर फेंक दिया जाता है। इससे सतह की उपजाऊ मिट्टी नीचे दबती है और उसके ऊपर कंकड़-पत्थर, चिकनी मिट्टी आदि डाल दी जाती है। शुरू से ही भूमि संवर्धन के काम को ध्यान में रखें तो इस सारे ‘फालतू’ कचरे और मिट्टी आदि को अलग-अलग ढेरों में रख सकते हैं ताकि बाद में उनका समुचित उपयोग किया सा सके।
खदानों से निकले मलबे के ढेरों से पर्यावरण सबसे ज्यादा बिगड़ता है। भूमि संवर्धन का ध्यान रखें तो इस मलबे से होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है। इसके लिए मिट्टी, जल संरक्षण, वन रोपण, पेड़-पौधे उगाने और प्रदूषण नियंत्रण के बुनियादी नियमों का ख्याल रखना पड़ेगा।
जहां तक संभव हो, मलबे के ढेर खेतों, जंगलों और जलाशयों से काफी दूर लगाने चाहिए। प्रदूषक चीजें बहकर फैलें नहीं, इसके लिए आड़ी दीवारें खड़ी करनी होंगी। ढेरों के पास अवरोधक बांध बनाकर उसके साथ पानी साफ करने का साधन जोड़ना होगा। इससे प्रदूषण का खतरा और कम होगा। एक ढेर पूरा होगा, एक गड्ढा भर गया तो उसे ढंक कर उसके ऊपर घास, बेल और पौधों को उगाया जा सकता है। ऐसे जंगलों में वे ही पेड़ लगाने चाहिए जिनसे गांव वालों को चारा और ईंधन मिल सके। पहाड़ी ढलानों में पत्थर की खदानों के बंद होने पर उस जगह को चरागाह में भी बदला जा सकता है।
खदानों की छत के बचाव के लिए रेत के थैले, लकड़ी के फट्टे आदि लगाने में और सुरंगों के बीच खंभा खड़ा करने में लापरवाही से अक्सर जमीन के धंसने का खतरा होता है। उत्पादन लक्ष्य पूरा करने का दवाब जब भी बढ़ता है तब खदानों के प्रबंधक सुरक्षा उपायों की अवहेलना करने लगते हैं। नतीजा यह होता है कि छत गिरती है, लाचार मजदूर दबकर मरते हैं और आसपास के क्षेत्र के धंसने का खतरा हमेशा के लिए बना रहता है। खदानों की दुर्घटनाओं के अधिकृत परीक्षणों से यह बात कई जगह सही सिद्ध हुई है। पोलैंड के अपर सिलेसिया कोयला खान क्षेत्र में 1790 में सुरक्षात्मक खंभों से 42 प्रतिशत कोयला निकला पर सुरंगों को वापस खान के अवशेषों से भरकर, जमीन धंसने के खतरे को दूर किया गया था। इससे प्रदूषण का भय भी कम हो जाता है। वहां जो भूमि संवर्धन को खान खुदाई का ही अंग मानकर काम किया जाता है।
कच्चे लोहे को निथारने और खनिज मूलक उद्योगों के क्षेत्रों में प्रदूषण नियंत्रण रोकने के उपाय आज सबको मालूम हैं और उसके साधन उपलब्ध भी हैं। झीपपानी के सीमेंट कारखाने में फिल्टर बैग और बिजली की छलनियां (ई.सी.पी. इलेक्ट्रोस्टोटिक प्रेसीपिटेटर) लगाई गई होती तो आसपास की खेती की पैदावार इतनी नहीं घटती।
खदानों की खुदाई शुरू करते समय ही भूमि संवर्धन को खदान का ही एक अंश मानकर चलें तो वह काम आसान, सस्ता और कम खतरनाक होता है बनिस्बत छोड़े हुए इलाके को सुधारने के। मिसाल के तौर पर, खुली खदानों में ऊपरी हिस्से को साफ करने के लिए सतह की सारी मिट्टी हटाई जाती है। अक्सर ‘फालतू’ चीजों को बेतरतीब इधर-उधर फेंक दिया जाता है। इससे सतह की उपजाऊ मिट्टी नीचे दबती है और उसके ऊपर कंकड़-पत्थर, चिकनी मिट्टी आदि डाल दी जाती है। शुरू से ही भूमि संवर्धन के काम को ध्यान में रखें तो इस सारे ‘फालतू’ कचरे और मिट्टी आदि को अलग-अलग ढेरों में रख सकते हैं ताकि बाद में उनका समुचित उपयोग किया सा सके।
खदानों से निकले मलबे के ढेरों से पर्यावरण सबसे ज्यादा बिगड़ता है। भूमि संवर्धन का ध्यान रखें तो इस मलबे से होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है। इसके लिए मिट्टी, जल संरक्षण, वन रोपण, पेड़-पौधे उगाने और प्रदूषण नियंत्रण के बुनियादी नियमों का ख्याल रखना पड़ेगा।
जहां तक संभव हो, मलबे के ढेर खेतों, जंगलों और जलाशयों से काफी दूर लगाने चाहिए। प्रदूषक चीजें बहकर फैलें नहीं, इसके लिए आड़ी दीवारें खड़ी करनी होंगी। ढेरों के पास अवरोधक बांध बनाकर उसके साथ पानी साफ करने का साधन जोड़ना होगा। इससे प्रदूषण का खतरा और कम होगा। एक ढेर पूरा होगा, एक गड्ढा भर गया तो उसे ढंक कर उसके ऊपर घास, बेल और पौधों को उगाया जा सकता है। ऐसे जंगलों में वे ही पेड़ लगाने चाहिए जिनसे गांव वालों को चारा और ईंधन मिल सके। पहाड़ी ढलानों में पत्थर की खदानों के बंद होने पर उस जगह को चरागाह में भी बदला जा सकता है।
खदानों की छत के बचाव के लिए रेत के थैले, लकड़ी के फट्टे आदि लगाने में और सुरंगों के बीच खंभा खड़ा करने में लापरवाही से अक्सर जमीन के धंसने का खतरा होता है। उत्पादन लक्ष्य पूरा करने का दवाब जब भी बढ़ता है तब खदानों के प्रबंधक सुरक्षा उपायों की अवहेलना करने लगते हैं। नतीजा यह होता है कि छत गिरती है, लाचार मजदूर दबकर मरते हैं और आसपास के क्षेत्र के धंसने का खतरा हमेशा के लिए बना रहता है। खदानों की दुर्घटनाओं के अधिकृत परीक्षणों से यह बात कई जगह सही सिद्ध हुई है। पोलैंड के अपर सिलेसिया कोयला खान क्षेत्र में 1790 में सुरक्षात्मक खंभों से 42 प्रतिशत कोयला निकला पर सुरंगों को वापस खान के अवशेषों से भरकर, जमीन धंसने के खतरे को दूर किया गया था। इससे प्रदूषण का भय भी कम हो जाता है। वहां जो भूमि संवर्धन को खान खुदाई का ही अंग मानकर काम किया जाता है।
कच्चे लोहे को निथारने और खनिज मूलक उद्योगों के क्षेत्रों में प्रदूषण नियंत्रण रोकने के उपाय आज सबको मालूम हैं और उसके साधन उपलब्ध भी हैं। झीपपानी के सीमेंट कारखाने में फिल्टर बैग और बिजली की छलनियां (ई.सी.पी. इलेक्ट्रोस्टोटिक प्रेसीपिटेटर) लगाई गई होती तो आसपास की खेती की पैदावार इतनी नहीं घटती।
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