मतभेद इस बात पर भी संभव है कि बिल खरीददार को भूमि जबरन खरीदने से रोकने की चिंता तो करता है, लेकिन जंगल, नदी, पहाड़ और समंदर की उस भूमि की कोई चिंता इस बिल में नहीं है, जिसकी सरकार जबरिया मालकिन बन बैठी है; जबकि संकट ऐसी भूमि पर भी कम नहीं है।’ जनांदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय’ ने मतभेद जताया है कि रोक सिर्फ बहुफसली भूमि पर होगी, जबकि गरीब-आदिवासियों के पास ज्यादातर भूमि एकफसली ही है। यह न हृदय परिवर्तन है और न किसी पाप का प्रायश्चित। इसे ‘गेम चेंजर’ कहना भी जल्दबाजी होगी। किंतु यह बिल भूमि अधिग्रहण पर छप चुके 119 साल पुराने ब्रितानी निशान को मिटाने की सिर्फ एक कोशिश भर भी नहीं है। यह यू टर्न है 23 साल पहले लिए आर्थिक उदारवाद के उस फैसले का, जिसने तीन-चौथाई आबादी के कृषि आधारित होने के बावजूद विकास को सिर्फ और सिर्फ औद्योगिक विकास व शोषण के रास्ते पर ढकेल दिया। भूमि अधिग्रहण का यह बिल यदि कानून बन सका, तो खाद्य सुरक्षा के लिए जरूरी खाद्यान्न उत्पादन को भूमि सुरक्षा मुहैया कराएगा। कृषि-सामुदायिक भूमि बचाएगा। ग्रामसभाओं की ताकत बढ़ाएगा। किसान की हैसियत बढ़ाएगा। इतनी ही नहीं, खाद्यान्न और भूमि के समझदार उपयोग के लिए हमें विवश भी करेगा यह बिल।
मेरे गांव की जुगनी को शायद न मालूम हो कि उसके बंजर की कीमत क्या है। लेकिन उद्योगपति जानता है कि भूमि अधिग्रहण बिल बंजर भूमि की कीमत भी कई गुना बढ़ा देगा। हकीक़त यह है कि भूमि अधिग्रहण का कानून बनने के साथ ही तय हो जाएगा कि भविष्य में भारत के आर्थिक विकास के प्रधानता पैमाने पर कौन आगे होगा - औद्योगिक गलियारा या कृषि गली? यह बुनियादी बात औद्योगिक जगत में भूमि अधिग्रहण बिल के विरोध का भी कारण है और लोकसभा के भीतर इसके अप्रत्याशित स्वीकृति का भी।
तारीफ यह है कि बिल में संशोधन 116 हुए। 216 के मुकाबले 19 मत खिलाफ भी पड़े। लेकिन बहस के दौरान राज्यों में सत्ताशीन कोई दल ऐसा नहीं दिखा, जिसने सदन में यह दिखाने की कोशिश न की हो कि वही गरीब और किसान का सबसे बड़ा पक्षधर है। उसने अपने राज्य में भूमि अधिग्रहण के लिए पहले ही बहुत कुछ किया है। कमोबेश सभी दलों ने इस बिल को पास कराने में अपनी भूमिका निभाई। वजह वोट का गणित भी हो सकता है कि पिछले चार सालों में लोकसभा का यह पहला सत्र है, जो न्यूनतम हंगामे के साथ संपन्न हुआ। किंतु सदन के बाहर तस्वीर उलट है। औद्योगिक जगत में हंगामा ही हंगामा है। फिक्की, एसोचैम, सी आई आई जैसे भारतीय औद्योगिक-व्यापारिक संगठन ही नहीं, प्राइस वाटर हाउस कूपर जैसे पानी के सबसे बड़े अंतर्राष्ट्रीय व्यापारी समूह ने भी प्रतिक्रिया खिलाफ ही दी।
विरोध का आधार आकलन है कि निर्माण उद्योग चरमरा जाएगा। परियोजनाएं समय पर शुरू नहीं हो पाएंगी। पीपीपी परियोजनाएं प्रभावित होंगी। खनन उद्योग बाधित होगा। उद्योगों की ढाँचागत लागत 3 से 5 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी। भवन निर्माण परियोजनाओं में लागत वृद्धि 25 प्रतिशत तक होगी। विरोध यह कहकर भी किया जा रहा है कि भूमि अधिग्रहण की सुझाई प्रक्रिया सामाजिक आकलन आदि के लिए गठित की जाने वाली कई समितियों से होकर गुजरेगी। जिनके ज्यादातर सदस्य अधिकारी और सामाजिक-पर्यावरणीय कार्यकर्ता होंगे। अतः पूरी प्रक्रिया ही अधिकारियों और सिविल सोसाइटी की बंधक होकर रह जाएगी।
मतभेद बाजार मूल्य तय करने के तरीके और अधिग्रहण की समय सीमा को लेकर भी हैं। कहा जा रहा है कि राज्य सरकारों को मिली लचीलेपन की छूट, भूमि की लूट की छूट जैसी ही है। पेप्सी ने पंजाब में टमाटर की ठेका खेती करने के बाद ज़मीन हिंदुस्तान लीवर को बेच दी। यह बिल भू-उपयोग बदलने और मालिकाना बदलने के खेल पर ठोस रोक लगाता नहीं दिखता। बिल द्वारा धर्म के नाम पर कब्जाई जा रही भूमि पर लगाम लगाने से परहेज करने पर भी किसी को मतभेद हो सकता है। तात्कालिक अधिग्रहण के नाम पर सामाजिक प्रभाव आकलन की अनदेखी की आशंका भाजपाध्यक्ष ने व्यक्त की ही।
मतभेद इस बात पर भी संभव है कि बिल खरीददार को भूमि जबरन खरीदने से रोकने की चिंता तो करता है, लेकिन जंगल, नदी, पहाड़ और समंदर की उस भूमि की कोई चिंता इस बिल में नहीं है, जिसकी सरकार जबरिया मालकिन बन बैठी है; जबकि संकट ऐसी भूमि पर भी कम नहीं है।’ जनांदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय’ ने मतभेद जताया है कि रोक सिर्फ बहुफसली भूमि पर होगी, जबकि गरीब-आदिवासियों के पास ज्यादातर भूमि एकफसली ही है। भूमि आंदोलनों के अगुवा पी वी राजगोपाल की प्रमुख मांग का केन्द्र भूमिहीन रहे हैं। वह कह सकते हैं कि भूमिहीनों को भूमिधर बनाने की कोई इच्छा इस बिल में दिखाई नहीं देती।
भूमि अधिग्रहण बिल के वास्तुकार जयराम रमेश ने इन सब प्रश्नों को जवाब यह कहकर दिया कि जिस बिल के कारण थोड़े से लोगों को ज्यादा कीमत चुकानी पड़े, लेकिन ज्यादा लोगों को ज्यादा मुनाफ़ा हो, वह बिल राष्ट्र के हित में है।बीते 29 अगस्त को लोकसभा में पारित भूमि अधिग्रहण बिल की सबसे बड़ी ताकत यही है। इस बिल के कानून में तब्दील होने पर इसका नाम बदलकर ‘भूमि अधिग्रहण, पुनर्स्थापना व पुनर्वास में पारदर्शिता तथा उचित मुआवजा अधिकार कानून’ हो जाएगा। राहत व पुनर्वास के 14 कानून इस नए कानून का हिस्सा बन जाएंगे। शहरी भूमि का मुआवजा बाजार मूल्य का दोगुना और ग्रामीण भूमि का मुआवजा चौगुना चुकाना होगा। भूमालिक को अधिकार होगा कि वह एक मुश्त भत्ता, मंहगाई के अनुसार परिवर्तनशील मासिक भत्ता अथवा परियोजना में प्रति परिवार एक आवश्यक रोज़गार में से किसी एक विकल्प को चुन सके। पुनर्वास की स्थिति में भूमालिक को मकान के लिए ज़मीन मिलेगी। हां! तीन साल के अस्थाई सरकारी अधिग्रहण में पुनर्वास का कोई झंझट नहीं होगा। पांच सितम्बर, 2011 को पहली बार भूमि अधिग्रहण का प्रारूप सदन के सामने लाया गया था। इस तारीख या बाद अधिग्रहित भूमि मालिक इस बिल के अनुसार मुआवज़े का अधिकारी होगा।
इस बिल की दूसरी सबसे बड़ी और निर्णायक खूबी यह है कि यह पहला ऐसा प्रयास है, जो सिर्फ मुआवजा बढ़ाने की चिंता नहीं करता, कृषि भूमि बचाने की चिंता भी करता है। केन्द्र और राज्यों द्वारा अभी तक पेश भूमि अधिग्रहण नीतियों/प्रारूपों में सिर्फ मुआवजा बढ़ाने का ज़ज़्बा दिखाया गया था। दुर्योग से किसानों ने भी लड़ाइयां सिर्फ ज्यादा से ज्यादा वसूलने की ही लड़ीं। कृषि भूमि की चिंता उसे भी कम ही हुई। बिल के अनुसार विशुद्ध निजी परियोजना के लिए 80 प्रतिशत और सरकारी व ‘पीपीपी’ परियोजनाओं के लिए 70 भू-मालिकों की सहमति के बगैर भूमि अधिग्रहण संभव नहीं होगा। पांच साल के भीतर अधिग्रहित भूमि का उपयोग न करने अथवा पूरा मुआवजा न चुकाने पर भूमि भू-मालिक, उसके उत्तराधिकारी अथवा राज्य द्वारा स्थापित भूमि-बैंक को वापस लौटानी होगी। शर्त यह भी कि पूरा मुआवजा देने के बाद ही भूमालिक को ज़मीन खाली करने को कहा जा सकेगा।
बिल के अनुसार सरकार अब चिकित्सा, शिक्षा व होटल श्रेणी की किसी निजी परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण नहीं करेगी। परमाणु ऊर्जा, रेल तथा राष्ट्रीय-राज्यीय राजमार्गों इस बिल से बाहर होंगे। लेकिन सेना, पुलिस, सुरक्षा, सार्वजनिक, सरकारी, सरकारी सहायता प्राप्त अथवा प्रशासित शिक्षा-शोध संस्थान, स्वास्थ्य, पर्यटन, परिवहन, अंतरिक्ष संबंधी परियोजनाएं, कानून द्वारा स्थापित कृषक सहकारी समितियों से लेकर औद्योगिक गलियारे, सेज, खनन, राष्ट्रीय निवेश एवम निर्माता क्षेत्र व जलसंचयन परियोजनाओं तक पर बिल लागू होगा। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि बहुफसली भूमि के अधिग्रहण पर पूरी तरह रोक हो जाएगी। अधिग्रहण पूर्व प्रत्येक परियोजना के सामाजिक पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन जरूरी होगा।
इन सभी प्रावधानों से परियोजनाओं की लागत बढ़ेगी; मुनाफ़ा कुछ कम होगा। विरोध का कारण सिर्फ यह नहीं है। विरोध का कारण उद्योग, खनन और भवन निर्माण परियोजनाओं के लिए अधिग्रहण के नाम पर अलग-अलग सरकारों के संरक्षण में ही चल रही भूमि की लूट है। वास्तविक जरूरत कम है, किंतु ज़मीन ज्यादा अधिग्रहित की जा रही है। एक ओर औद्योगिक योजना क्षेत्रों में प्लाट खाली पड़े हैं और दूसरी ओर उद्योगपतियों की निगाहें है कि कृषि भूमि से हट ही नहीं रही। हकीक़त यह है कि उद्योगों के नाम पर ली गईं जमीनें उद्योग कम, भविष्य में उसे बेचकर कमाने की दृष्टि से ज्यादा ली जा रही हैं। प्राकृतिक संसाधनों पर कंपनियों के कब्ज़े के नए दौर ने इस होड़ को और बढ़ावा दिया। दुष्परिणाम हम सभी ने भुगता।
एक ओर हमारी जीडीपी बढ़ी, दूसरी ओर किसानों की आत्महत्या के आंकड़े। एक ओर अरबपति बढ़े, तो दूसरी ओर कंगालपति। भूमिहीन बढ़कर 35 करोड़ हुए। विस्थापित चार करोड़ ! बेरोज़गारी का आंकड़ा 29 करोड़ पर पहुंच गया। 76 लाख वनवासी उजाड़ दिए गए। अकेले झारखंड, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के आठ लाख लोग खनन और औद्योगीकरण के नाम पर बेदखल हो गए। पिछले पांच साल में एक ही राज्य - छत्तीसगढ़ में 50 हजार एकड़ ज़मीन गरीब के हाथ से निकलकर औने-पौने में उद्योग जगत के कब्ज़े में चली गई। सैन्य सुरक्षा के नाम पर नेतरहाट, झारखंड के 145 गांव नहीं जानते कि उनके हिस्से की आज़ादी उन्हें कब मिलेगी। 32 लाख लोगों की भूमि की हकदारी आज भी बिहार के न्यायालयों में लंबित है। उत्तराखंड में कृषि भूमि का आंकड़ा गिरकर सात प्रतिशत पर पहुंच गया है। बीते दशक में खाद्यान्न उत्पादन पिछले वर्ष की तुलना में कई बार कम हुआ। दालें आयात करने को हम विवश हैं ही। बिल इस परिदृश्य को बदलेगा।
विश्व बैंक का एक पत्र साफ कहता है कि कचरा जान लेता है; तो क्यों न कचरा फैलाने वाले उद्योगों को उन देशों में भेजा जाए, जहां प्रति व्यक्ति आय कम है। संभव है, यह बिल इस विदेशी कचरा घुसपैठ पर रोक लगा पाए। दरअसल इस पूरे दौर में यह समझा ही नहीं गया कि किसान खेती करके सिर्फ अपना पेट ही नहीं भरता; वह दूसरों के लिए भी अन्न, फल व सब्ज़ियाँ उगाता है। उसके उगाए चारे पर ही मवेशी जिंदा रहते हैं। जिनके पास जमीनें नहीं हैं, ऐसे मज़दूर व कारीगर भी अपनी आजीविका के लिए अप्रत्यक्ष रूप से कृषि भूमि पर ही निर्भर होते हैं। अतः सिर्फ औद्योगिक उत्पादन और उसकी कमाई से कृषि उत्पाद आयात कर लेने से काम चलने वाला नहीं। कृषि भूमि बचाने से ही बचेगी भारतीय अर्थव्यवस्था, गांव और रोज़गार। यह बिल लालच के इस दौर पर कितनी लगाम पाएगा? कहना मुश्किल है। इतना तय है कि बिल ने आर्थिक तरक्की में खेती और गरीब के हिस्से की चिंता की है। इससे नदी, जंगल, चारागाह से लेकर आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग, व्यापार और शहर के लिए क्षेत्रफल की सीमा रेखा बनानी की चिंता शुरू होगी। यह अच्छा होगा।
दुआ कीजिए कि उद्योगपति अब कंपनी की बजाए पहले अपने लोगों के व्यक्तिगत नाम से ज़मीन खरीदकर बाद में कंपनी के नाम करने का चोर रास्ता न अपनाएं।
तभी हम आश्वस्त हो सकते हैं कि भविष्य में फिर कोई नहीं कहेगा कि
“चार बीघा खेती ही ठहराव थी।
गांव के बाहर इक झोपड़ी ही ठांव थी।
छीन ली सब जालिमों ने।
अब बताओ, क्या करूं?'
आर्थिक विकास का कृषि मार्ग खोलेगा यह भूमि बिल
मेरे गांव की जुगनी को शायद न मालूम हो कि उसके बंजर की कीमत क्या है। लेकिन उद्योगपति जानता है कि भूमि अधिग्रहण बिल बंजर भूमि की कीमत भी कई गुना बढ़ा देगा। हकीक़त यह है कि भूमि अधिग्रहण का कानून बनने के साथ ही तय हो जाएगा कि भविष्य में भारत के आर्थिक विकास के प्रधानता पैमाने पर कौन आगे होगा - औद्योगिक गलियारा या कृषि गली? यह बुनियादी बात औद्योगिक जगत में भूमि अधिग्रहण बिल के विरोध का भी कारण है और लोकसभा के भीतर इसके अप्रत्याशित स्वीकृति का भी।
नेता सहमत: उद्योगपति नाखुश
तारीफ यह है कि बिल में संशोधन 116 हुए। 216 के मुकाबले 19 मत खिलाफ भी पड़े। लेकिन बहस के दौरान राज्यों में सत्ताशीन कोई दल ऐसा नहीं दिखा, जिसने सदन में यह दिखाने की कोशिश न की हो कि वही गरीब और किसान का सबसे बड़ा पक्षधर है। उसने अपने राज्य में भूमि अधिग्रहण के लिए पहले ही बहुत कुछ किया है। कमोबेश सभी दलों ने इस बिल को पास कराने में अपनी भूमिका निभाई। वजह वोट का गणित भी हो सकता है कि पिछले चार सालों में लोकसभा का यह पहला सत्र है, जो न्यूनतम हंगामे के साथ संपन्न हुआ। किंतु सदन के बाहर तस्वीर उलट है। औद्योगिक जगत में हंगामा ही हंगामा है। फिक्की, एसोचैम, सी आई आई जैसे भारतीय औद्योगिक-व्यापारिक संगठन ही नहीं, प्राइस वाटर हाउस कूपर जैसे पानी के सबसे बड़े अंतर्राष्ट्रीय व्यापारी समूह ने भी प्रतिक्रिया खिलाफ ही दी।
विरोध के आधार
विरोध का आधार आकलन है कि निर्माण उद्योग चरमरा जाएगा। परियोजनाएं समय पर शुरू नहीं हो पाएंगी। पीपीपी परियोजनाएं प्रभावित होंगी। खनन उद्योग बाधित होगा। उद्योगों की ढाँचागत लागत 3 से 5 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी। भवन निर्माण परियोजनाओं में लागत वृद्धि 25 प्रतिशत तक होगी। विरोध यह कहकर भी किया जा रहा है कि भूमि अधिग्रहण की सुझाई प्रक्रिया सामाजिक आकलन आदि के लिए गठित की जाने वाली कई समितियों से होकर गुजरेगी। जिनके ज्यादातर सदस्य अधिकारी और सामाजिक-पर्यावरणीय कार्यकर्ता होंगे। अतः पूरी प्रक्रिया ही अधिकारियों और सिविल सोसाइटी की बंधक होकर रह जाएगी।
मतभेद और भी
मतभेद बाजार मूल्य तय करने के तरीके और अधिग्रहण की समय सीमा को लेकर भी हैं। कहा जा रहा है कि राज्य सरकारों को मिली लचीलेपन की छूट, भूमि की लूट की छूट जैसी ही है। पेप्सी ने पंजाब में टमाटर की ठेका खेती करने के बाद ज़मीन हिंदुस्तान लीवर को बेच दी। यह बिल भू-उपयोग बदलने और मालिकाना बदलने के खेल पर ठोस रोक लगाता नहीं दिखता। बिल द्वारा धर्म के नाम पर कब्जाई जा रही भूमि पर लगाम लगाने से परहेज करने पर भी किसी को मतभेद हो सकता है। तात्कालिक अधिग्रहण के नाम पर सामाजिक प्रभाव आकलन की अनदेखी की आशंका भाजपाध्यक्ष ने व्यक्त की ही।
मतभेद इस बात पर भी संभव है कि बिल खरीददार को भूमि जबरन खरीदने से रोकने की चिंता तो करता है, लेकिन जंगल, नदी, पहाड़ और समंदर की उस भूमि की कोई चिंता इस बिल में नहीं है, जिसकी सरकार जबरिया मालकिन बन बैठी है; जबकि संकट ऐसी भूमि पर भी कम नहीं है।’ जनांदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय’ ने मतभेद जताया है कि रोक सिर्फ बहुफसली भूमि पर होगी, जबकि गरीब-आदिवासियों के पास ज्यादातर भूमि एकफसली ही है। भूमि आंदोलनों के अगुवा पी वी राजगोपाल की प्रमुख मांग का केन्द्र भूमिहीन रहे हैं। वह कह सकते हैं कि भूमिहीनों को भूमिधर बनाने की कोई इच्छा इस बिल में दिखाई नहीं देती।
कुछ का घाटा: ज्यादा का फायदा
भूमि अधिग्रहण बिल के वास्तुकार जयराम रमेश ने इन सब प्रश्नों को जवाब यह कहकर दिया कि जिस बिल के कारण थोड़े से लोगों को ज्यादा कीमत चुकानी पड़े, लेकिन ज्यादा लोगों को ज्यादा मुनाफ़ा हो, वह बिल राष्ट्र के हित में है।बीते 29 अगस्त को लोकसभा में पारित भूमि अधिग्रहण बिल की सबसे बड़ी ताकत यही है। इस बिल के कानून में तब्दील होने पर इसका नाम बदलकर ‘भूमि अधिग्रहण, पुनर्स्थापना व पुनर्वास में पारदर्शिता तथा उचित मुआवजा अधिकार कानून’ हो जाएगा। राहत व पुनर्वास के 14 कानून इस नए कानून का हिस्सा बन जाएंगे। शहरी भूमि का मुआवजा बाजार मूल्य का दोगुना और ग्रामीण भूमि का मुआवजा चौगुना चुकाना होगा। भूमालिक को अधिकार होगा कि वह एक मुश्त भत्ता, मंहगाई के अनुसार परिवर्तनशील मासिक भत्ता अथवा परियोजना में प्रति परिवार एक आवश्यक रोज़गार में से किसी एक विकल्प को चुन सके। पुनर्वास की स्थिति में भूमालिक को मकान के लिए ज़मीन मिलेगी। हां! तीन साल के अस्थाई सरकारी अधिग्रहण में पुनर्वास का कोई झंझट नहीं होगा। पांच सितम्बर, 2011 को पहली बार भूमि अधिग्रहण का प्रारूप सदन के सामने लाया गया था। इस तारीख या बाद अधिग्रहित भूमि मालिक इस बिल के अनुसार मुआवज़े का अधिकारी होगा।
कृषि-सामुदायिक भूमि बचाने का पहला प्रयास
इस बिल की दूसरी सबसे बड़ी और निर्णायक खूबी यह है कि यह पहला ऐसा प्रयास है, जो सिर्फ मुआवजा बढ़ाने की चिंता नहीं करता, कृषि भूमि बचाने की चिंता भी करता है। केन्द्र और राज्यों द्वारा अभी तक पेश भूमि अधिग्रहण नीतियों/प्रारूपों में सिर्फ मुआवजा बढ़ाने का ज़ज़्बा दिखाया गया था। दुर्योग से किसानों ने भी लड़ाइयां सिर्फ ज्यादा से ज्यादा वसूलने की ही लड़ीं। कृषि भूमि की चिंता उसे भी कम ही हुई। बिल के अनुसार विशुद्ध निजी परियोजना के लिए 80 प्रतिशत और सरकारी व ‘पीपीपी’ परियोजनाओं के लिए 70 भू-मालिकों की सहमति के बगैर भूमि अधिग्रहण संभव नहीं होगा। पांच साल के भीतर अधिग्रहित भूमि का उपयोग न करने अथवा पूरा मुआवजा न चुकाने पर भूमि भू-मालिक, उसके उत्तराधिकारी अथवा राज्य द्वारा स्थापित भूमि-बैंक को वापस लौटानी होगी। शर्त यह भी कि पूरा मुआवजा देने के बाद ही भूमालिक को ज़मीन खाली करने को कहा जा सकेगा।
कौन अंदर: कौन बाहर
बिल के अनुसार सरकार अब चिकित्सा, शिक्षा व होटल श्रेणी की किसी निजी परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण नहीं करेगी। परमाणु ऊर्जा, रेल तथा राष्ट्रीय-राज्यीय राजमार्गों इस बिल से बाहर होंगे। लेकिन सेना, पुलिस, सुरक्षा, सार्वजनिक, सरकारी, सरकारी सहायता प्राप्त अथवा प्रशासित शिक्षा-शोध संस्थान, स्वास्थ्य, पर्यटन, परिवहन, अंतरिक्ष संबंधी परियोजनाएं, कानून द्वारा स्थापित कृषक सहकारी समितियों से लेकर औद्योगिक गलियारे, सेज, खनन, राष्ट्रीय निवेश एवम निर्माता क्षेत्र व जलसंचयन परियोजनाओं तक पर बिल लागू होगा। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि बहुफसली भूमि के अधिग्रहण पर पूरी तरह रोक हो जाएगी। अधिग्रहण पूर्व प्रत्येक परियोजना के सामाजिक पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन जरूरी होगा।
सिर्फ मुनाफ़े में कमी नहीं विरोध का कारण
इन सभी प्रावधानों से परियोजनाओं की लागत बढ़ेगी; मुनाफ़ा कुछ कम होगा। विरोध का कारण सिर्फ यह नहीं है। विरोध का कारण उद्योग, खनन और भवन निर्माण परियोजनाओं के लिए अधिग्रहण के नाम पर अलग-अलग सरकारों के संरक्षण में ही चल रही भूमि की लूट है। वास्तविक जरूरत कम है, किंतु ज़मीन ज्यादा अधिग्रहित की जा रही है। एक ओर औद्योगिक योजना क्षेत्रों में प्लाट खाली पड़े हैं और दूसरी ओर उद्योगपतियों की निगाहें है कि कृषि भूमि से हट ही नहीं रही। हकीक़त यह है कि उद्योगों के नाम पर ली गईं जमीनें उद्योग कम, भविष्य में उसे बेचकर कमाने की दृष्टि से ज्यादा ली जा रही हैं। प्राकृतिक संसाधनों पर कंपनियों के कब्ज़े के नए दौर ने इस होड़ को और बढ़ावा दिया। दुष्परिणाम हम सभी ने भुगता।
अच्छे नहीं भूमि लूट के अनुभव
एक ओर हमारी जीडीपी बढ़ी, दूसरी ओर किसानों की आत्महत्या के आंकड़े। एक ओर अरबपति बढ़े, तो दूसरी ओर कंगालपति। भूमिहीन बढ़कर 35 करोड़ हुए। विस्थापित चार करोड़ ! बेरोज़गारी का आंकड़ा 29 करोड़ पर पहुंच गया। 76 लाख वनवासी उजाड़ दिए गए। अकेले झारखंड, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के आठ लाख लोग खनन और औद्योगीकरण के नाम पर बेदखल हो गए। पिछले पांच साल में एक ही राज्य - छत्तीसगढ़ में 50 हजार एकड़ ज़मीन गरीब के हाथ से निकलकर औने-पौने में उद्योग जगत के कब्ज़े में चली गई। सैन्य सुरक्षा के नाम पर नेतरहाट, झारखंड के 145 गांव नहीं जानते कि उनके हिस्से की आज़ादी उन्हें कब मिलेगी। 32 लाख लोगों की भूमि की हकदारी आज भी बिहार के न्यायालयों में लंबित है। उत्तराखंड में कृषि भूमि का आंकड़ा गिरकर सात प्रतिशत पर पहुंच गया है। बीते दशक में खाद्यान्न उत्पादन पिछले वर्ष की तुलना में कई बार कम हुआ। दालें आयात करने को हम विवश हैं ही। बिल इस परिदृश्य को बदलेगा।
कचरा कम करेगा, रोज़गार बढ़ायेगा यह बिल
विश्व बैंक का एक पत्र साफ कहता है कि कचरा जान लेता है; तो क्यों न कचरा फैलाने वाले उद्योगों को उन देशों में भेजा जाए, जहां प्रति व्यक्ति आय कम है। संभव है, यह बिल इस विदेशी कचरा घुसपैठ पर रोक लगा पाए। दरअसल इस पूरे दौर में यह समझा ही नहीं गया कि किसान खेती करके सिर्फ अपना पेट ही नहीं भरता; वह दूसरों के लिए भी अन्न, फल व सब्ज़ियाँ उगाता है। उसके उगाए चारे पर ही मवेशी जिंदा रहते हैं। जिनके पास जमीनें नहीं हैं, ऐसे मज़दूर व कारीगर भी अपनी आजीविका के लिए अप्रत्यक्ष रूप से कृषि भूमि पर ही निर्भर होते हैं। अतः सिर्फ औद्योगिक उत्पादन और उसकी कमाई से कृषि उत्पाद आयात कर लेने से काम चलने वाला नहीं। कृषि भूमि बचाने से ही बचेगी भारतीय अर्थव्यवस्था, गांव और रोज़गार। यह बिल लालच के इस दौर पर कितनी लगाम पाएगा? कहना मुश्किल है। इतना तय है कि बिल ने आर्थिक तरक्की में खेती और गरीब के हिस्से की चिंता की है। इससे नदी, जंगल, चारागाह से लेकर आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग, व्यापार और शहर के लिए क्षेत्रफल की सीमा रेखा बनानी की चिंता शुरू होगी। यह अच्छा होगा।
दुआ कीजिए कि उद्योगपति अब कंपनी की बजाए पहले अपने लोगों के व्यक्तिगत नाम से ज़मीन खरीदकर बाद में कंपनी के नाम करने का चोर रास्ता न अपनाएं।
तभी हम आश्वस्त हो सकते हैं कि भविष्य में फिर कोई नहीं कहेगा कि
“चार बीघा खेती ही ठहराव थी।
गांव के बाहर इक झोपड़ी ही ठांव थी।
छीन ली सब जालिमों ने।
अब बताओ, क्या करूं?'
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