लोग कहते हैं कि भारतीय संस्कृति, अप्रतिम है। किन्तु क्या इसके वर्तमान को हम अप्रतिम कह सकते हैं? माँ और सन्तान का रिश्ता, हर पल स्नेह और सुरक्षा के साथ जिया जाने वाला रिश्ता है। क्या आज हम इस रिश्ते को हर पल स्नेह और साझी सुरक्षा के साथ जी रहे हैं?
इस स्नेहिल रिश्ते के बीच के अनौपचारिक बन्धन को प्रगाढ़ करना तो दूर, हम इस रिश्ते के औपचारिक दायित्व की पूर्ति से भी भागते हुए दिखाई नहीं दे रहे? बेटियों के पास तो माँ के लिये हर पल समय है; किन्तु हम बेटों के पास दायित्व से दूर भागने के लिये लाख बहाने हैं।
कभी-कभी मुझे खुद अपराध बोध होता है कि माँ, मेरी भी प्राथमिकता सूची में ही नहीं है; न जन्म देने वाली माँ और न पालने-पोषने में सहायक बनने वाली हमारी अन्य माताएँ।
आर्थिक स्वावलम्बन ने हमें और गिराया है।
आज ‘मदर डे’ है। सम्भवतः यह दिन हम नालायक बेटों को दायित्व की याद दिलाने के लिये ही बनाया गया है। जागें! अपने स्वार्थी दिमाग को झटकें। अपने दिल की आवाज सुनें। भूले नहीं कि एक माँ गंगा भी है; ऐसी माँ, जैसी कोई और नहीं।
वह जब बेहद उदास होता है। अनिर्णय की स्थिति में होता है या उसे अपने कष्ट का निदान ढूंढे नहीं मिलता, तब वह अपनी जन्म देने वाली माँ के पास नहीं जाता। वह उस माँ के पास जाता है, जिसे उसकी माँ भी माँ ही कहती है। वह हठात् गंगा की ओर चल पड़ता है। गंगा के प्रथम स्पर्श के साथ ही उसका मन शान्त होने लगता है। कहता है कि गंगा माँ ने उसे कभी अनुत्तरित नहीं लौटाया।
मैं अक्सर सोचता हूँ कि आखिर गंगा के ममत्व में कोई तो बात है कि काँवरिए गंगा को अपने कन्धों पर सवार कर वहाँ भी ले जाते हैं, जहाँ गंगा का कोई प्रवाह नहीं जाता। आखिर इस माँ में ऐसा क्या है कि मातृसदन, हरिद्वार के शिष्य स्वामी निगमानन्द और श्मशान घाट, वाराणसी के एक सन्यासी ने प्राण त्यागे। विद्यामठ, वाराणसी के कई सन्यासियों ने कठोर अनशन किया।
प्रो जी डी अग्रवाल जैसी आईआईटी कानपुर का प्रोफेसर.. विज्ञानी भी गंगा के संकट का समाधान विज्ञान की बजाय आस्था में खोजने को विवश हुआ; सन्यासी बना। अनशन से प्राणों पर घात की आशंका से दूसरे भले घबराते रहे, किन्तु जी डी यही कहते रहे - “गंगा मेरी माँ है। मैं माँ के प्राणों की कीमत पर अपनी प्राणरक्षा नहीं करना चाहता।’’
ये इस 21वीं सदी के दूसरे दशक के लौकिक जगत के सच्चे अनुभव हैं। “मैं तोहका सुमिरौं गंगा माई..’’ और “गंगा मइया तोहका पियरी चढइबै..’’ जैसे गीत गंगा के मातृत्व के प्रति लोकास्था के गवाह हैं ही।
“अल्लाह मोरे अइहैं, मुहम्मद मोरे अइहैं। आगे गंगा थामली, यमुना हिलोरे लेयं। बीच मा खड़ी बीवी फातिमा, उम्मत बलैया लेय.......दूल्हा बने रसूल।’’ - इन पंक्तियों को पढ़कर भला कौन नकार सकता है कि गंगा के ममत्व का महत्व सिर्फ हिन्दुओं के लिये नहीं, समूचे हिन्दुस्तान के लिये है।
गंगा का एक परिचय वराह पुराण में उल्लिखित शिव की उपपत्नी और स्कन्द कार्तिकेय की माता के रूप में है। दूसरा परिचय राजा शान्तनु की पत्नी और एक ऐसी माँ के रूप में है, जिसने पूर्व कर्मों के कारण शापित अपने पुत्रों को तारने के लिये आठ में सात के पैदा करने के तुरन्त बाद ही मार दिया। पिता राजा शान्तनु के मोह के कारण और शाप के कारण भी जीवित बचे आठवें पुत्र ने गंगादत्त, गांगेय, देवव्रत, भीष्म के नाम ने ख्याति पाई।
वाल्मीकि कृत गंगाष्टम्, स्कन्दपुराण, विष्णु पुराण, ब्रह्मपुराण, अग्नि पुराण, भागवत पुराण, वेद, गंगा स्तुति, गंगा चालीसा, गंगा आरती और रामचरितमानस से लेकर जगन्नाथ की गंगालहरी तक.... मैने जहाँ भी खंगाला, गंगा का उल्लेख उन्हीं गुणों के साथ मिला, जो सिर्फ एक माँ में ही सम्भव हैं, किसी अन्य में नहीं। त्याग और ममत्व! सिर्फ देना ही देना, लेने की कोई अपेक्षा नहीं। शायद इसीलिये माँ को तीर्थों में सबसे बड़ा तीर्थ कहा गया है और गंगा को भी।
सन्त रैदास, रामानुज, वल्लभाचार्य, रामानन्द, चैतन्य महाप्रभु.. सभी ने गंगा के मातृस्वरूप को ही प्रथम मान महिमागान गाए। महाबलीपुरम्, अमरावती, उदयगिरि, देवगढ़, भीतरगाँव, दहपरबतिया, पहाड़पुर, जागेश्वर, बोधगया, हुगली, महानद से लेकर भेड़ाघाट के चौंसठ योगिनी मन्दिर आदि कितने ही स्थानों में गया। इनमें स्थापित गुप्तकालीन, शुंगकालीन, पालकालीन और पूर्व मध्यकालीन इतिहास प्रतिमाओं में कितनी ही प्रतिमाए गंगा की पाईं। कहीं यक्षिणी, तो कहीं देवी प्रतिमा के रूप में स्थापित इन गंगा मूर्तियों में मातृत्व भाव ही परिलक्षित होता है। कोई और भाव जगता ही नहीं।
इसी विश्वास को लेकर वर्ष - 2011 में मैंने सोचा कि गंगा के मातृत्व को संवैधानिक दर्जा मिलना चाहिए; तभी गंगा का मातृत्व सुरक्षित रह सकेगा; तभी हम सन्तानों को गंगा के साथ माँ जैसे व्यवहार के लिये बाध्य कर सकेंगे। जब मैने पहली बार यह माँग दिल्ली की एक बैठक में रखी, तो सरकारी अमले के नकारने से पहले एक छात्र ने ही इसे नकार दिया।
मैं अवाक रह गया। मुझसे कुछ उत्तर देते न बना। उसने कहा - “गंगा में ऐसा क्या है? माँग का समर्थन करना तो दूर, मुझे तो इसे माँ कहने में भी शर्म आएगी।’’ फिर मैंने यही सवाल उन्नाव में दादा की एक पोती से पूछा। वह गंगा माई को उसके घर में काम करने वाली महरी समझ बैठी। मैं सन्न रह गया। ऐसे एक क्यूँ ने मेरे मन में सैकड़ों क्यूँ खड़े कर दिए। मेरे लिये यह जानना, समझना और समझाना जरूरी हो गया कि मेरी सन्तानें गंगा को माँ क्यूँ कहे।
तर्क मिले। लहलहाते खेत, माल से लदे जहाज और मेले ही नहीं, बुद्ध-महावीर के विहार, अशोक-अकबर-हर्ष जैसे सम्राटों के गौरव पल.. तुलसी-कबीर-नानक की गुरूवाणी भी इसी गंगा की गोद में पुष्पित-पल्लवित हुई है। इसी गंगा के किनारे में तुलसी का रामचरित, आदिगुरु शंकराचार्य का गंगाष्टक और पाँच श्लोकों में लिखा जीवन सार - मनीषा पंचगम, जगन्नाथ की गंगालहरी, कर्नाटक संगीत के स्थापना पुरुष मुत्तुस्वामी दीक्षित का राग झंझूती, कौटिल्य का अर्थशास्त्र, टैगोर की गीतांजलि और प्रेमचन्द्र के भीतर छिपकर बैठे उपन्यास सम्राट ने जन्म लिया। शहनाई सम्राट उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ की शहनाई की तान यहीं परवान चढ़ी। आचार्य वाग्भट्ट ने गंगा के किनारे बैठकर ही एक हकीम से तालीम पाई और आयुर्वेद की 12 शाखाओं के विकास किया।
कौन नहीं जानता कि नरोरा के राजघाट पर महर्षि दयानन्द के चिन्तन ने समाज को एक नूतन आलोक दिया! नालन्दा, तक्षशिला, काशी, प्रयाग - अतीत के सिरमौर रहे चारों शिक्षा केन्द्र गंगामृत पीकर ही लम्बे समय तक गौरवशाली बने रह सके। आर्यभारत के जमाने में आर्थिक और कालान्तर में जैन तथा बौद्ध दोनों आस्थाओं के विकास का मुख्य केन्द्र रहा पाटलिपुत्र!
भारतवर्ष के अतीत से लेकर वर्तमान तक एक ऐसा राष्ट्रीय आन्दोलन नहीं, जिसे गंगा ने सिंचित न किया हो। भारत विभाजन का अगाध कष्ट समेटने महात्मा गाँधी भी हुगली के नूतन नामकरण वाली माँ गंगा-सागर संगम पर ही गये - नोआखाली!
लेकिन भारत के लिए गंगा के ये सभी योगदान उस नौजवान और दादा की उस पोती के सवाल के उत्तर के रूप में मुझे सन्तुष्ट नहीं कर सके। असल उत्तर मुझे अतीत के पन्नों में ही मिला -
“यथा माता स्वयं जन्म मलशौच च कारयेत्।
कोडीकृत्य तथा तेषां गंगाप्रक्षालयेन्मलम।’’
अर्थात जिस प्रकार से माता स्वयं बच्चे को जन्म देती है; उसके मल-मूत्र को साफ करती है; उसे गोदी में बिठाती है, उसी प्रकार गंगा भी.. मनुष्य कैसा भी नीच या पापी क्यों न हो, उसके मल-मैल को प्रक्षालित कर उसे पवित्र बना देती है। पद्मपुराण के इस श्लोक की तरह गंगालहरी भी गंगा को एक ऐसी माँ के रूप में उल्लिखित करती है, जो ऐसे कुपूत को भी देखना चाहती है, जो कुत्ते की वृति धारण किए है; झूठ बोलता है; बुरी-बुरी कल्पनाएँ करता है; दूसरे की बुराई में संलग्न है और जिसका मुख कोई दूसरा देखना नहीं चाहता -
’’श्ववृक्रिव्यासंगो नियतमथ मिथ्याप्रलपनं.....
नृते त्वत्को नामक्षणि मपि निरीक्षेत वदनम्।’’
इन दो उत्तरों को आज हम सच होते देख रहे हैं। आज हम गंगा को माँ कहते जरूर हैं, लेकिन हमारा व्यवहार एक सन्तान की तरह नहीं है। गरीब-से-गरीब आदमी आज भी अपनी गाढ़ी कमाई का पैसा खर्च कर गंगा दर्शन को आता है, लेकिन गंगा का रुदन और कष्ट हमें दिखाई नहीं देता। हमारे कान गंगा का रुदन सुनने में असमर्थ ही रहते हैं। हमारा सम्बोधन झूठा है। हर हर गंगे! की तान दिखावटी है; प्राणविहीन!
दरअसल हमने गंगा को अपनी माँ नहीं, अपनी लालच की पूर्ति का साधन समझ लिया है; भोग का एक भौतिक सामान मात्र! माँ को कूड़ादान मानकर हम माँ के गर्भ में अपना मल-मूत्र-कचरा-विष सब कुछ डाल रहे हैं। अपने लालच के लिये हम माँ को कैद करने से भी नहीं चूक रहे। हम उसकी गति को बाँध रहे हैं। माँ के सीने पर बस्तियाँ बसा रहे हैं।
अपने लालच के लिये हम माँ गंगा के गंगत्व को नष्ट करने पर उतारू हैं। हम भूल गए हैं कि एक सन्तान को माँ से उतना ही लेने का हक है, जितना एक शिशु को अपने जीवन के लिये माँ के स्तनों से दुग्धपान। हम यह भी भूल गए हैं कि माँ से सन्तान का सम्बन्ध लाड, दुलार, स्नेह, सत्कार और संवेदनशील व्यवहार का होता है, व्यापार का नहीं। हमें गंगा मिलन के मेले याद हैं; स्नान और दीपदान याद हैं, लेकिन हम इन आयोजनों के मूल मन्तव्य और माँ गंगा अन्तरसम्बन्ध को भूल गए हैं।
जानबूझ कर की जा रही हमारी इन तमाम गलतियों के कारण माँ गंगा गुस्साती जरूर है, लेकिन वह आज भी भारत के 37 प्रतिशत आबादी का प्राणाधार बनी हुई है। आज भी माँ गंगा भारत की कुल सिंचित भूमि के 47 प्रतिशत खेतों को पानी पिलाकर जिन्दा रखती है। आज भी गंगा भारत के पानी और पर्यावरण का माॅनीटर बनी हुई है। गंगा एक ऐसी माँ है, जो खुद पर हो रहे तमाम अत्याचारों के बावजूद मृत्यु पूर्व दो बूँद स्तनपान की हमारी कामना की पूर्ति करने के लिये आज भी प्रस्तुत है।
दुनिया में नदियाँ बहुत हैं और माँ भी बहुत। लेकिन गंगा जैसी कोई नहीं। क्या हम यह भूल जाएँ? क्या ऐसी माँ के मातृत्व की रक्षा हमारा दायित्व नहीं? क्या ऐसी माँ को आज हम माँ मानने से इंकार कर दें? क्या उस नौजवान और दादा की उस पोती के लिये इस पर कोई बहस सम्भव है? लेकिन जो बहस संभव है, उसे मैं उसी सवाल के रूप में आज आपके सामने रख रहा हूँ, जो माँ गंगा ने अपने अवतरण से पूर्व भगीरथ से पूछा था - “मैं इस कारण भी पृथ्वी पर नहीं जाऊँगी कि लोग मुझमें अपने पाप धोएँगे। हे पुत्र! बताओ, तब मैं अपने पाप धोने कहाँ जाऊँगी?’’ सोचिए और मुझे भी बताइए। हो सकता है कि मैं आपका सन्देशा माँ तक पहुँचा सकूँ।
विनम्र निवेदन:
कहहु सुनहु करहु अब सोई।
जइसे गंग पुनि सुरसरि होई।।
/articles/bhauulae-nahain-kai-eka-maan-gangaa-bhai-haai