भूला भटका भूदान

vinoba jee ka bhoodaan
vinoba jee ka bhoodaan
विनोबाजी का भूदान आंदोलन कभी भारत के भूमिहीनों के लिए एक बड़ा सपना बन कर आया था। लेकिन सरकारों की इच्छाशक्ति में कमी, लालफीताशाही और जमींदारों की कुटिल चालों ने इस महत्वाकांक्षी अभियान को ध्वस्त कर दिया। इस आंदोलन को फिर से जांचा-परखा जा रहा है। इसकी जरूरत और अहमियत की पड़ताल कर रहे हैं प्रसून लतांत।

हमें विभाजन के कड़वे दर्द के साथ आज़ादी ज़रूर मिली और इसके थोड़े समय बाद हमने अपने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को भी खो दिया था। यह दोहरी मार थी। गनीमत थी कि देश में एक लोकतांत्रिक सरकार काम करने लगी थी। लेकिन सरकार और समाज के सामने भू-स्वामित्व की विषमता विकराल चुनौती के रूप में खड़ी थी। इस कारण देश की ऊर्जा कुंठित हो रही थी। आर्थिक और सामाजिक न्याय की दृष्टि से भूमि के पुनर्वितरण की जरूरत सभी समझ रहे थे। जमींदारी उन्मूलन जैसे कदम से भी भूमिहीन मज़दूरों को कोई लाभ नहीं मिला। जमींदारी कानून बनने से पहले ही जमींदार कई तिकड़मों और हथकंडों को अपना कर अपनी ज़मीन का बेनामी हस्तांतरण कर चुके थे। राज्यों की विधान सभाओं में ज़मीन संबंधी प्रस्तावों पर कानून बनने में देरी होती रही। इस तरह कोई कारगर पहल न होने से 1951 में तेलंगाना जैसा हिंसक आंदोलन देश ने देखा। साम्यवादी ताक़तों ने जमींदारों के सामने मोर्चा खोल दिया था। रक्तपात और हत्याएं हुईं। इससे निपटने के लिए केंद्र और राज्य सरकारें कानून बनाने में जुटी हुई थीं। कत्ल और कानून का आसरा लिए हिंसक साम्यवादी क्रांतिकारी ताकतें और सरकारें गरीबों को ज़मीन दिलाने के मंसूबे बांध चुकी थीं।

इसी दौरान विनोबा भावे के रूप में एक किरण दिखाई पड़ी, जो अहिंसक रास्ते पर चलने वाले गांधीजी के सशक्त उत्तराधिकारी बन कर उभरे। विनोबा के सक्रिय होने के पहले तक ज़मीन का मसला न क्रांतिकारियों की हिंसा से हल हो रहा था और न ही सरकारी क़ानूनों से विनोबा ने लोगों में सत्य की चाह को प्रेरित किया और इससे उत्पन्न प्रेम और करुणा को प्रवाहित कर ऐसी पहल की जिससे पैदा हुआ भूदान आंदोलन और यह आंदोलन केवल भूदान तक सीमित नहीं रहा। विनोबा की ओर से प्रेम और करुणा की बलवती प्रवाह का आलम यह रहा कि मामला ग्रामदान, बिहार दान, संपत्ति दान से लेकर जीवन दान तक पहुंच गया। दो-ढाई दशकों तक चले इस आंदोलन के दौरान कई राज्यों में भूदान और ग्रामदान पर कानून भी बने। गांधीजी चाहते थे कि स्वराज्य की समग्र रचना का केंद्र गांव हो। विनोबा इसी छोर को लेकर आगे बढ़े। ग्रामोत्थान और ग्राम संस्कृति के नव संस्करण काम उन्होंने उठा लिया। गाँवों को ही केंद्र में रख कर ग्रामस्वराज्य की और परिपुष्ट गाँवों की विश्व व्याख्या की एक समग्र रूपरेखा उन्होंने खींच दी। काका कालेकर ने भूदान आंदोलन को भारतीय संस्कृति के एकदम अनुकूल बताते हुए कहा था, ‘हमारी संस्कृति की आत्मा ही इस आंदोलन के जरिए व्यक्त रही है।’

भूमिहीनों के पक्ष में विनोबा ने देश में जिस तरह का अतुलनीय प्रयास किया उसके बारे में किसी ने न सोचा था और न ही कोई उम्मीद किसी को थी। आज़ादी के पांच साल बाद ज़मीन के मसले पर देश के विभिन्न इलाकों में तनाव फैल रहा था लेकिन इस मसले का भूदान जैसा कोई मानवीय हल निकल आएगा, ऐसी कोई प्रारंभिक परिकल्पना भी किसी के मन में नहीं थी। न तबके प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के मन में और न स्वयं विनोबा के ही मन में। गांधीजी देहावसान के पहले देश को नई दिशा में लेकर चलने के बारे में एक बैठक सेवाग्राम में बुलाने के लिए पूरी तरह मन बना चुके थे, लेकिन उनकी शहादत ने सब कुछ छिन्न-भिन्न कर दिया था। गांधीजी की निर्मम हत्या के कारण उनसे जुड़े लोग खुद को अनाथ-सा महसूस करने लगे। पर ऐसी स्थिति ज्यादा समय तक नहीं रही। दो महीने बाद ही बापू के सभी धाराओं के उत्तराधिकारी सेवाग्राम में मिले और आगे की दिशा तय की। लेकिन उस वक्त लिए गए फैसलों में भी भूदान आंदोलन की शुरुआत होने की कोई भनक तक नहीं थी। इस बैठक में गांधीवादी संस्थाओं के संचालन वगैरह के बारे में किए फ़ैसलों के साथ यह तय किया गया था कि देश भर में समय-समय पर सर्वोदय समाज का सम्मेलन किया जाएगा।

ऐसे ही सम्मेलन की तैयारी 1951 में तेलंगाना के शिवरामपल्ली में की जा रही थी। इसमें विनोबा को बुलाया गया तो वे अपने महाराष्ट्र के वर्धा स्थित पवनार आश्रम से पैदल ही चल पड़े। वे चले तो उनके साथ पवनार, वर्धा और सेवाग्राम के आश्रमों में रहने वाले कार्यकर्ता भी चल पड़े। शिवरामपल्ली तक आने के दौरान विनोबा ने ग्रामीणों खासकर भूमिहीनों की दयनीय दशाओं को गहराई से महसूस किया। वे भूमिहीनों को ज़मीन दिलाने के लिए नक्सलियों की ओर से लगातार की जा रही हिंसा से चिंतित हुए। ऐसे में विनोबा गांधीजी के अहिंसा के रास्ते पर चल कर और सरकार से कोई मदद लिए बगैर लोक शक्ति को जगाकर आम लोगों के जीवन में बदलाव लाने को संकल्पबद्ध हो गए थे। उनके इस चिंतन को तब तूफान जैसी गति मिल गई जब 18 अप्रैल, 1951 में पोचमपल्ली में एक जमींदार ने स्वयंप्रेरित होकर अपनी सौ एकड़ जमीन भूमिहीनों को देने की घोषणा सभा में विनोबा की मौजूदगी में की। पोचमपल्ली की इस घटना से भूदान का जन्म हुआ। इस घटना से विनोबा इतने अभिभूत हुए कि उन्होंने भूदान के लिए पूरे देश की यात्रा करने की ठान ली। विनोबा भूदान के लिए जिस भी राज्य में गए, उन्हें भूमिहीनों के लिए भूदान करने स्वयं भूपति आगे बढ़ कर आ जाते। गांधीजी जिस लोकशक्ति की बात करते थे उसे विनोबा ने जागृत रखा वे निरंतर दो दशकों तक राष्ट्र की किसी न किसी सड़क पर या गांव में चलते-फिरते भूदान की अपील करते रहे। उनके पराक्रम और सीधे प्रभाव से इस काम में जुटे दस हजार से ज्यादा सर्वोदयी कार्यकर्ताओं के कठोर परिश्रम से करीब सात लाख से ज्यादा भू-स्वामियों ने ज़मीन दिए और लाखों भूमिहीनों के बीच पचीस लाख एकड़ ज़मीन वितरित की गई। हालांकि भूदान पर गांधीजी के अहिंसक आंदोलनों की तरह ज्यादा अध्ययन और शोध नहीं हुए लेकिन इस आंदोलन की कल्पना इतनी मौलिक है, इसकी पद्धतियां इतनी नई हैं और उसके उद्देश्य इतने क्रांतिकारी हैं कि इसे समझने के लिए और उचित परिप्रेक्ष्य में रखने के लिए विशेष प्रयत्न करने की जरूरत है।

विनोबा केवल बड़े भूपतियों से ही जमीन नहीं मांगते थे बल्कि वे हर एक व्यक्ति से अपनी ज़मीन का कम से कम छठा हिस्सा दान करने को कहते। उन्होंने पूरे देश में दलितों गरीबों और भूमिहीनों के लिए पांच करोड़ एकड़ ज़मीन हासिल करने का लक्ष्य रखा था, जो भारत में तीस करोड़ एकड़ जोतने लायक ज़मीन का छठा हिस्सा था। उनका यह लक्ष्य पूरा नहीं हुआ। ज़मीन तो आसानी से मिल जाती थी पर उसका भूमिहीनों के बीच वितरण बहुत मुश्किल था। बँटवारे के काम में सरकार के राजस्व विभाग की मदद की जरूरत थी, जो अपेक्षानुरूप नहीं मिली। 1951 में शुरू हुए भूदान आंदोलन के पांचवें साल पूरे होने तक विनोबा को चालीस लाख एकड़ जमीन दान में मिल चुकी थी। 1955 तक आते-आते इस आंदोलन ने नया रूप धारण कर लिया। इसे ग्रामदान के रूप में जाना गया। इसका अर्थ था- सारी भूमि गोपाल की। ग्रामदान वाले गाँवों की सारी ज़मीन सामूहिक स्वामित्व की मानी गई। पहला ग्रामदान ओड़िशा में हुआ फिर विभिन्न राज्यों में भी हजारों गाँवों में ग्रामदान हुए, जो एक चमत्कार से कम नहीं था।

दो ढाई दशकों से ज्यादा समय तक जारी रहने वाले भूदान आंदोलन की ओर पूरी दुनिया का ध्यान गया क्योंकि महात्मा गांधी के अहिंसक आंदोलन के बाद देश में ही नहीं दुनिया भर में ज़मीन के मामले को लेकर भूदान सरीखा कोई आंदोलन नहीं हुआ था। भूदान के लिए विनोबा अनवरत यात्रा पर रहे। गांधीजी से जुड़े देश भर के आश्रमों और संस्थाओं के लोग विनोबा के साथ सड़क पर उतर आए थे। वे विनोबा के साथ गांव-गांव में भूदान के लिए सभाएं करते, भूपतियों से मिलने वाले दानपत्रों को इकट्ठा करते और भूमिहीनों के बीच उसके वितरण सुनिश्चित करते। इस तरह भूदान आंदोलन देश भर में फैल गया था। हरेक राज्य से सैकड़ों युवक आंदोलन के साथ खड़े हो गए थे। देश के कई प्रभावशाली नेताओं ने इसमें शक्ति लगाई और अपना जीवनदान तक कर दिया था। जयप्रकाश नारायण सरीखे शीर्षस्थ और प्रखर राजनीतिक नेता को तो जैसे नया राजनीतिक दर्शन ही मिल गया। स्वामित्व का स्वेच्छा से विसर्जन करने की प्रेरणा देने वाले इस अभूतपूर्व आंदोलन के लिए जीवनदान करने वाले जयप्रकाश नारायण कहते थे, ‘अगर विनोबाजी ने भूदान जैसा क्रांतिकारी आंदोलन शुरू न किया होता तो हम लोग अभी भी जहां के तहां ही रहते, चरखा चलाते, गांधी की तस्वीर घर में रखते। जन्माष्टमी और रामनवमी की तरह गांधी जयंती और उनकी पुण्यतिथि पर उपवास रखते लेकिन अहिंसक क्रांति का विचार एकदम भूल गए होते और ‘सर्वोदय’ बाजी हार गया होता। भूदान आंदोलन से गांधीजी के रचनात्मक कार्यक्रम का क्रांतिकारी स्वरूप हमारे सामने स्पष्ट हुआ।’ इस आंदोलन से जुड़े लोग ही थे, जो बाद में बिहार आंदोलन के वाहक बने और आपातकाल का विरोध करते हुए केंद्र की सत्ता में लंबे समय से आरूढ़ कांग्रेस की जड़ों को लोकतांत्रिक तरीके से उखाड़ फेंका था और दूसरी आज़ादी का रास्ता साफ किया था। हालांकि विनोबा ‘आपातकाल को अनुशासन पर्व’ कहने के कारण जेपी आंदोलन में शामिल हुए अपने ही लोगों के एक बहुत बड़े हिस्से से अलग-थलग हो गए थे।

बड़ी उम्मीदों के बावजूद साठ के दशक में भूदान और ग्रामदान आंदोलन का प्रभाव कम हो गया। लोगों की राय में इसकी रचनात्मक क्षमताओं का आमतौर पर उपयोग नहीं किया जा सका। दान में मिली पैंतालीस लाख एकड़ जमीन में से 1961 तक 8.72 लाख एकड़ ज़मीन भूमिहीनों के बीच बांटी जा सकी। इसकी वजह यह बताई गई कि दान में मिली ज़मीन का अच्छा-खासा हिस्सा खेती के लायक नहीं था। काफी जमीन मुकदमें में फंसी हुई थी। सरकार के अधिकारियों और कर्मचारियों की नीयत भी भूमिहीनों की तकदीर बदलने में नहीं रही। भूदान के शुरू होने के चार साल बाद बोधगया के सर्वोदय समाज सम्मेलन में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भूदान की व्यापकता के संदर्भ में विनोबा के अनुरोध पर आशंका प्रकट की कि सरकार से संबंध रखने वाले इसमें पड़ेंगे तो उसका रूप बदल जाने का डर है। उनकी इस आशंका के कारण सरकार के लोग अलग-थलग ही रहे और शायद यही कारण रहा कि सरकारें बाद में भी भूदान के काम को निपटाने के लिए सक्रिय नहीं हुई। सरकार पूरे मन से मददगार बन कर भूदान के साथ खड़ी होती तो मिली कुल ज़मीन का वितरण सुनिश्चित हो गया होता।

जब से अपने देश में नवउदारवादी आर्थिक नीति लागू हुई है, तबसे भारतीय राज व्यवस्था के रडार से भूमि या भूमि सुधार का मुद्दा गायब हो गया है ज़मीन का मुद्दा राजनीतिक दलों की प्राथमिकता सूची में भी नहीं रह गया है। ऐसे में प्राथमिकता सूची में भी नहीं रह गया है। ऐसे में विनोबा के भूदान को कौन याद करे। भूदान पर तो गांधीजनों ने भी ध्यान देना छोड़ दिया है।

विनोबा जी का भूदानभूदान की जमीन जिन भूमिहनों को मिली थी, उनमें से कुछ ही लोगों का कब्जा बरकरार रह पाया। तकरीबन चालीस फीसद भूदान किसान ऐसे हैं, जिन्हें जमीन पर कब्जा मिला ही नहीं और जिन्हें मिला भी, उन्हें कुछ समय बाद बाहुबली जमींदारों ने बेदखल कर दिया। इस कारगुजारी में सरकार की भूमिका जमींदारों पक्ष के में दिखी। लाखों किसान सरकारी दफ्तरों और अदालतों का चक्कर लगा कर थक चुके हैं और अब तो वे हिंसक माओवादियों से मदद लेने को मजबूर हैं। उधर सरकार का तौर तरीका यह है कि वह भूदान की जमीन को भूमिहीनों के बीच बांटने में कतई रूचि नहीं ले रही है। मौजूदा दौर में भूदान को लेकर जो काम चल रहा है उसकी हालत अच्छी नहीं है। कार्यकर्ताओं का घोर अभाव है और सरकार बस अपना इतना ही दायित्व मानती है कि बोर्ड या कमेटियों का गठन कर दो। आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में जो काम चल रहा है वह बहुत हद तक निजी प्रयासों तक सीमित है। राजस्थान और मध्य प्रदेश में तो भूदान समितियों को राज्य सरकारों ने विघटित कर दिया है और ओड़िशा में भूदान समिति के प्रमुख सरकारी अधिकारी होते हैं। देश भर में सबसे ज्यादा यानी पंद्रह लाख एकड़ भूदान की जमीन झारखंड में है, लेकिन वहां सरकार ने भूदान समिति का गठन किया ही नहीं। आंध्र प्रदेश में 76 हजार एकड़ भूदान ज़मीन के दस्तावेज़ गायब हैं। इस राज्य में 2010 में भूदान की ज़मीन कारपोरेट घरानों को दे दी गई है। इस पर आंध्र प्रदेश विधानसभा में हंगामा भी हुआ था। तब सरकार ने मामले की जांच का एलान किया था। आज उस एलान के कई साल हो गए, सरकार ने इस दिशा में कोई कार्रवाई नहीं की है। उत्तर प्रदेश में भी भूदान का काम ठहरा हुआ है। इस मामले में बिहार सरकार जरूर प्रशंसा की पात्र है कि यहां न सिर्फ भूदान समिति का नियमित गठन होता रहा है बल्कि उस समिति के प्रति सरकार अपना दायित्व भी स्वीकार करती रही है, लेकिन अफ़सर और सरकारी अमलों का रवैया न केवल नकारात्मक है बल्कि पूरी तरह से आपत्तिजनक भी।

केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश का कहना है कि विभिन्न राज्यों में भूदान की चौबीस लाख एकड़ ज़मीन के दस्तावेजों के गायब होने पर केंद्र ने कड़ा रुख अख्तियार किया है। रमेश के मुताबिक हमारे देश में जमीन का मुद्दा बहुत ही जटील है। भूदान आंदोलन के तहत ली गई जमीन का सही इस्तेमाल नहीं हो सका। उन्होंने कहा कि भूदान आंदोलन के दौरान 40.8 लाख एकड़ ज़मीन दान में दी गई थी, लेकिन इसमें से 20.8 लाख एकड़ ज़मीन ही भूमिहीन गरीबों को दी गई थी। राजस्थान मध्य प्रदेश, झारखंड, बिहार और आंध्र प्रदेश ने भूदान की जमीनों के साथ सबसे ज्यादा अनियमितता बरती। भूदान की बची जमीन और भूदान किसानों के वजूद को बचाए रखने का जरूरी काम अभी बाकी है। बिहार भूदान यज्ञ समिति के अध्यक्ष कुमार शुभमूर्ति का कहना है कि इन भूदान की भूमि भूदान किसानों को दिलाना एक चुनौती है। भूदान प्रमाण पत्र की सार्थकता तभी है जब इसके आधार पर भूमिहीन को जमीन हासिल हो।

देश में भूमि सुधार को लेकर अब तक 272 कानून बन चुके हैं। इसमें जमींदारी उन्मूलन और भूमि हदबंदी जैसे कानून भी कारगर साबित नहीं हुए। पंचवर्षीय योजनाओं के साथ राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठकों, मुख्यमंत्रियों और राजस्व मंत्रियों के सम्मेलनों के बावजूद भूमि स्वामित्व की स्थिति अब भी विषम है। वामपंथी भी जमीन के मसले पर अपना जोर लगा चुके हैं दलित संगठन भी भूम के सवाल पर कई आंदोलन कर चुके हैं। एकता परिषद के राजगोपाल हजारों भूमिहीनों के साथ दो बार ग्वालियर से दिल्ली तक पैदल यात्रा कर चुके हैं। लेकिन, सरकार इस दिशा में केवल आश्वासनों का झुनझुना ही थमाती आई है। कोई पहल कामयाब नहीं हो रही है। विनोबा का भूदान आंदोलन एकमात्र ऐसा आंदोलन रहा है, जिसमें लाखों भूमिहीनों को जमीन मिली। इस आंदोलन के इतिहास में झांकें तो जमीन के मसले को हल करने की दिशा आज भी मिल सकती है।

Path Alias

/articles/bhauulaa-bhatakaa-bhauudaana

Post By: admin
×