पिछले चार-पाँच सालों में उत्तराखण्ड ने एक के बाद एक कई बार बाढ़ व भूस्खलन का दंश झेला है। पहले भी हर साल ऐसा कुछ-न-कुछ हो ही रहा था, पर 2013 में तो हद ही हो गई। ऐसे विनाश की तो किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। इस आपदा से तात्कालिक भौतिक नुकसान तो हुआ ही, पर इसमें प्रदेश की अर्थव्यवस्था को भी हिलाकर रख दिया। यहाँ छोटे-बड़े व्यवसाय में लगे किसी भी व्यक्ति से बात करके आप इस तथ्य में अन्तर्निहित सत्य को सहज ही समझ सकते हैं। दावे चाहे जो भी हों, आपदा के इन परोक्ष प्रभावों से पूरी तरह से उबरने में निश्चित ही लम्बा समय लगने वाला है। हम चाहें जो कर लें, रातों-रात तो यह होने से रहा। हम योजनाएँ बना सकते हैं, कार्यक्रम बना सकते हैं और उन पर अमल कर सकते हैं, पर महत्त्वपूर्ण यह है कि यहाँ आने वालों को हमारी तैयारी व यह सब कितना भाते हैं।
निरन्तरता में हुई इन आपदाओं से कुछ और हुआ हो या नहीं, पर प्रकृति ने इनके माध्यम से ऊपर से लेकर नीचे तक सभी को इस क्षेत्र की आपदा संवेदनशीलता से परिचित अवश्य करा दिया। इस अवधि में जिस तरह से और जैसे भी हो, पर अनेकों प्रकार की योजनाएँ बनाई गई हैं और भविष्य में इस प्रकार की आपदाओं के प्रभावों को कम करने के प्रयास भी शुरू हो ही गए हैं। कहीं नदी के किनारे पुश्ते बनाए जा रहे हैं तो कहीं नदी तल को गहरा करने या फिर नदी के पानी को नियंत्रित करने के प्रयास किये जा रहे हैं। प्रयास भूस्खलनों के उपचार के भी किये जा रहे हैं। इस सब से भविष्य में फायदा तो निश्चित ही होगा, पर सुरक्षा की गारंटी किस हद तक होगी, यह तो आने वाला समय ही बताएगा। अभी बिना किसी विस्तृत अध्ययन के इस पक्ष पर टिप्पणी कर पाना न ही सम्भाव होगा और न ही उचित।
अब पिछले 4-5 सालों से हम बाढ़ व भूस्खलन से परेशान थे, इसलिये वर्तमान में किये जा रहे प्रयासों का इन पर केन्द्रित होना स्वाभाविक है, पर वर्तमान परिदृश्य में भूकम्प सुरक्षा के प्रति पूरी तरह से आँख मूँद लेने में भी समझदारी नहीं है। फिर देखा जाये तो भूकम्प हमारे इस क्षेत्र के लिये हमेशा से ही सबसे बड़ा खतरा रहता है। पिछले कुछ समय में किये गए वैज्ञानिक शोध इस खतरे की गम्भीरता को स्पष्ट दर्शाते हैं। जैसा कि प्राय: कहा जाता है कि हम हमेशा ही दो भूकम्पों के बीच होते हैं। एक वो जो आ चुका है और दूसरा वो जो कभी भी आ सकता है। कभी इसलिये वैज्ञानिक शोध यह तो बताता है कि खतरा है, पर उससे कहीं भी यह पता नहीं चलता कि हमारे पास समय कितना बाकी है। जो भी हो इतना तय है कि हर बीतते पल के साथ यह खतरा हमारी ओर बढ़ रहा है। यह कुछ-कुछ हमारा जन्मदिन मनाने जैसा ही है। हर बीतते साल के साथ हम अपने अन्त की ओर सरक रहे होते हैं।
फिर यह भी सत्य है कि भूकम्प किसी को नहीं मारता। आज तक भूकम्पों में मरे करोड़ों लोगों में से सभी कमजोर इमारतों की वजह से मारे गए न कि भूकम्प की वजह से। ऐसे में आवश्यक हो जाता है कि लोगों को बताया जाये कि वह कैसे अपने घरों को सुरक्षित बना सकते हैं।
अब लम्बे समय से भूकम्प के न आने के कारण हम खतरे के प्रति निश्चित ही बेपरवाह हो सकते हैं, पर हमारी यह बेपरवाही हमें कम-से-कम सुरक्षा तो देने से रही। फिर जिस तरह का निर्माण आज विशेष रूप से पहाड़ों में हो रहा है, उससे यह खतरा लगातार बढ़ रहा है। इन भवनों की भूकम्प सुरक्षा का आकलन करने के लिये इंजीनियरी ज्ञान की आवश्यकता भी नहीं है, क्योंकि इनमें इंजीनियरी नियमों की अवहेलना के अलावा कुछ और होता ही नहीं है।
अब ऐसा भी नहीं है कि किसी को इन सब की कोई चिन्ता ही नहीं है। सरकार द्वारा बनाए गए नियम-कानून में स्पष्ट किया गया है कि क्या, कैसे और कितना ऊँचा बनना चाहिए। अब यह अलग बात है कि इन नियम-कायदों में से ज्यादातर को बस इतना ही समझ में आता है कि पहाड़ों में 12 मीटर से ऊँचा निर्माण नहीं किया जा सकता।
अब जहाँ न नक्शा बनाने के लिये इंजीनियर हों और न ही कोई ऐसा जो नक्शा देख कर यह बता दे कि कहाँ क्या करना है, लोगों से इन नियमों के अनुपालन की अपेक्षा करना भी तो ठीक नहीं है। फिर ज्यादातर जगहों पर कोई यह देखने वाला भी तो नहीं है कि कौन, क्या और कहाँ बना रहा है। ऐसे में मिस्त्री से सलाह करके जिसे जो समझ में आया, वो बना दिया जाता है। फिर यह मिस्त्री भी तो बस अनुभव से ही सीखते हैं। आपको शायद विश्वास न हो, पर हमारे यहाँ जहाँ एक ओर हर चीज सिखाने के लिये विशेष प्रशिक्षण संस्थान हैं, वहीं इनती बड़ी संख्या में नियमित रूप से बनने वाली अवसंरचनाओं को कैसे बनाया जाये, यह सिखाने की कहीं कोई व्यवस्था नहीं है। कैसे मसाला बनाया जाये, बने मसाले को कितनी देर तक इस्तेमाल किया जाये, किस ग्रेड का सीमेंट उपयोग में लाया जाये, मसाले का कब क्या अनुपात हो, र्इंटों के बीच दूरी क्या हो और उनके जोड़ कैसे लगाए जाएँ, सरिया कितना मोटा हो, उन्हें जोड़ा और मोड़ा कैसे जाये, उनके बीच दूरी कितनी हो। यह सब उन अनेक प्रश्नों में से कुछ हैं, जिनके ऊपर निर्भर करता है कि कोई संरचना भूकम्प में खड़ी रह पाएगी या नहीं।
पर यह सब किया कैसे जाये, यह कोई संस्थान पढ़ता-सिखाता तो है नहीं। इसलिये अनुभव के आधार पर, जिसे जैसे समझ में आया, वो कर दिया। तभी तो आपको इन सब कामों में एकरूपता नहीं मिलती है। ऐसे में शायद कुछ भवन अवश्य ही ठीक से बने हो सकते हैं, पर ज्यादातर के ऐसा होने की अपेक्षा करना बेवकूफी ही होंगी।
जहाँ तक संरचनाओं की ऊँचाई का सवाल है, पहाड़ों में 12 मीटर के प्रतिबन्ध के औचित्य को समझ पाना अपने आप में एक पेचीदा सवाल है फिर वैसे आज की तारीख में करीब-करीब इतनी ऊँचाई तो राम भरोसे बनाए गए बीम-कॉलमों के सहारे सड़क के स्तर तक पहुँचने में निकल जाती है और फिर वहाँ से मकान की ऊँचाई नापी जाती है।
आप माने या न माने, पर इतने ऊँचे मकान तो हमारे यहाँ पहाड़ों में आज से 1000 साल पहले भी बनाए जाते थे और इनको आज भी प्रदेश के दूरदराज वाले इलाकों में शान से सिर उठाए खड़े देखा जा सकता है। भूकम्प सुरक्षा के नियमों के अनुपालन के बिना इन भवनों का इतने लम्बे समय तक सुरक्षित रह पाना सम्भव नहीं हो पाता और सच में हमारे इन भवनों को बनाने में हमारे पूर्वजों ने गजब की सूझ-बूझ का परिचय देते हुए भूकम्प सुरक्षा के सभी उपाय किये थे।
जिस तरह से हमारे पूर्वज पहले भी यहाँ पहाड़ों में 12 मीटर ऊँचे भवन बनाते थे और आज भी हम 12 मीटर ऊँचे भवन ही बना सकते हैं। इसका तो एक ही मतलब निकलता है कि इतने सालों में हम भवन निर्माण की विधा में बहुत तरक्की नहीं कर पाये हैं। इंजीनियरी ज्ञान के धुरन्धर इस कथन पर निश्चित ही मेरा मजाक उड़ा सकते हैं, पर मैं यह मानने को तैयार नहीं हूँ कि यह 12 मीटर वाला प्रतिबन्ध उनकी राय या सहमति के बिना इन नियम-कानूनों में सम्मिलित किया गया होगा।
ऐसे में ऊँचाई के इस प्रतिबन्ध के औचित्य पर सवाल उठते ही इन विशेषज्ञों की नीयत पर भी सवाल उठना लाज़िमी है। ऐसी क्या मजबूरी थी, जो हर दूसरी बात पर टीवी व अखबारों में बयानबाजी करने वाले यह विशेषज्ञ इस महत्त्वपूर्ण विषय पर मुखर नहीं हो पाये। कुछ का मानना है कि जब हम कम ऊँचाई के भवनों में ही तकनीकी पक्षों का समावेश सुनिश्चित नहीं कर पा रहे हैं तो ऐसे में जोखिम कम करने का सरल तरीका यही है कि ज्यादा ऊँचे भवन बनने ही नहीं दिये जाएँ। इस तर्क की हिमायत करने वालों को तब तो अपने प्रधानमंत्री की बुलेट ट्रेन की परिकल्पना पर भी प्रश्नचिन्ह लगाना चाहिए। जब हम अपनी आज की खटारा रेलगाड़ियों को ही सुरक्षित नहीं दौड़ा पा रहे हैं तो ऐसे में बुलेट ट्रेन की तो आलोचना होनी ही चाहिए। आप इसे कुतर्क कह सकते हैं, पर इसका तोड़ इतना सरल भी नहीं होगा।
पहाड़ों में रहने वालों या पहाड़ों की स्थितियों से परिचित व्यक्ति मानेंगे कि पहाड़ों में एक चीज जिसकी सबसे ज्यादा कमी है, वह और कुछ नहीं बसावट के लिये सुरक्षित जगह है। वहाँ कहीं तेज ढाल है तो कहीं नदी-नाले। बाकी बची जगहों पर जंगल है।
फिर जनसंख्या में लगातार हो रही वृद्धि और विभिन्न प्रत्यक्ष एवं परोक्ष कारणों से गाँवों से हो रहे पलायन के कारण पहाड़ के शहरों और कस्बों में जनसंख्या का दबाव बेतहाशा बढ़ रहा है। इस तथ्य की पुष्टि इस तथ्य से हो जाती है कि बीते एक दशक में गुणात्मक जनसंख्या वृद्धि दर्शाने वाले अल्मोड़ा व पौड़ी गढ़वाल जनपदों के शहरी क्षेत्रों में भी इस अवधि में क्रमशः चौदह व पच्चीस प्रतिशत की वृद्धि हुई है। अब जनसंख्या बढ़ रही है, तो ऐसे में रहने के लिये घरों के साथ-साथ अन्य सभी सुविधाओं का भी विकास करना ही होगा। बाजार, स्कूल, अस्पताल, पानी बिजली, पार्किंग, साफ-सफाई, दफ्तर, सड़क, इन सबके लिये ज़मीन चाहिये, जो पहाड़ों में आसानी से उपलब्ध है नहीं।
12 मीटर से ऊँचे भवन बना नहीं सकते। ऐसे में अनधिकृत निर्माण के साथ ही असुरक्षित स्थानों में निर्माण का होना ही एकमात्र विकल्प रह जाता है और ऐसा हो भी रहा है। तभी तो आपदाओं से यहाँ होने वाली क्षति का परिणाम लगातार बढ़ रहा है और सन्नाटे के साथ ही तेजी से बढ़ रहा है तो वह है यहाँ आसन्न भूकम्प का जोखिम।
ऐसे में यदि कोई बड़ा भूकम्प आ गया तो विनाश की भयावहता की परिकल्पना हममें से किसी की भी सोच से कहीं ज्यादा गम्भीर होगी। ऐसे में अवसंरचनाओं की ऊँचाई नियंत्रित करने से कही ज्यादा जरूरी है कि निर्माण की गुणवत्ता व उसमें भूकम्प सुरक्षित तकनीक का उपयोग सुनिश्चित किया जाये। वैसे भी पहाड़ हो या मैदान जनसंख्या के एक सीमा से अधिक हो जाने के बाद अवसंरचनाओं की ऊँचाई बढ़ाना ही एकमात्र उपलब्ध विकल्प रह जाएगा। फिर इंजीनियरी के विशेषज्ञ भी आपको सहज ही बता देंगे कि भवन ऊँचा हो या अपेक्षाकृत कम ऊँचा अगर ठीक से न बना हो तो उसका भूकम्प में गिरना तय है। ऐसे में इस धारणा को तोड़ना जरूरी है कि पहाड़ों में 12 मीटर तक के भवन सर्वथा सुरक्षित है।
अब हमारे आँखें मूँदे रहने से तो समस्या का हल होने से रहा और लगातार पेचीदा हो रही इस समस्या का समाधान करना जितनी जल्दी आरम्भ कर दिया जाये उतना ही उचित होगा। इसके लिये सबसे पहले हमें खतरे को स्वीकारना होगा और इस स्वीकारोक्ति का सत्ता के सर्वोच्च स्तर से होना जरूरी है, क्योंकि इस समस्या का हल दृढ़ राजनैतिक इच्छाशक्ति के बिना हो पाना सम्भव ही नहीं है।
यह स्वीकार करने के साथ कि यहाँ हमारे प्रदेश में भूकम्प का खतरा है। हमें नियोजित तरीके से लोगों को इस खतरे के प्रति जागरूक करना होगा और उन्हें इसे कम करने के उपाय बताने होंगे।
आज हम अपनी तमाम कोशिशों के बाद भी पहाड़ों में डॉक्टर तो उपलब्ध करवा नहीं पा रहे हैं। ऐसे में यह सोचना तो ठीक नहीं होगा कि हम पहाड़ों में बनने वाले सभी भवनों को भूकम्प सुरक्षित बनाने के लिये इंजीनियर उपलब्ध करवा देंगे। ऐसे में लोगों को पहले से विशेषज्ञों द्वारा बनाए गए विभिन्न प्रकार के मकानों के नक्शे उपलब्ध करवाए जा सकते हैं। इसकी शुरुआत विभिन्न सरकारी आवासीय योजनाओं के लाभार्थियों को ऐसे डिज़ाइन व नक्शे उपलब्ध करवाने से की जा सकती है।
साथ ही हमें यह भी मानना पड़ेगा कि आज की ही तरह आने वाले समय में भी ज्यादातर भवनों की भूकम्प सुरक्षा राजमिस्त्रियों के ज्ञान पर ही निर्भर करेगी। इस स्वीकारोक्ति के साथ हमें राजमिस्त्रियों को भूकम्प सुरक्षित भवन निर्माण के विभिन्न पक्षों पर प्रशिक्षित करना होगा और इसके लिये औपचारिक रूप से संस्थागत व्यवस्था करनी होगी। थोड़ा जुगाड़ करके इसकी व्यवस्था हमारे इतने सारे औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों में सहज ही की जा सकती है। सरकारी निर्माण कार्यों में प्रशिक्षित मिस्त्रियों का होना अनिवार्य करके व इन मिस्त्रियों के लिये अतिरिक्त मजदूरी की व्यवस्था करके मिस्त्रियों के साथ ही अन्य बेरोजगार व्यक्तियों को भी इन प्रशिक्षणों को लेने के लिये प्रोत्साहित किया जा सकता है।
फिर ऊँचे भवन आज भी बन रहे हैं और आगे भी बनते रहेंगे। इसलिये इन्हें सुरक्षित बनाने के लिये नक्शा बनाने वाले निर्माण की अवधि में देख-रेख करने वाले और सन्तोषजनक व मानकों के अनुरूप निर्माण होने का प्रमाण पत्र देने वाले इंजीनियरों का स्पष्ट उत्तरदायित्व तय करने के लिये कड़े-नियम कानून बनाने होंगे। आखिर केवल डिज़ाइन बनाकर तो यह इंजीनियर पल्ला नहीं झाड़ सकते। ऐसा होने पर जहाँ एक ओर लोगों को सस्ते व सुरक्षित घर उपलब्ध होंगे, वही दूसरी ओर सार्वजनिक अवसंरचनाओं व सुविधाओं पर पड़ने वाले दबाव में भी कमी आएगी।
उपाय और भी कई हो सकते हैं, पर यह सत्य है कि चाहकर भी हम भूकम्प आने को टाल नहीं सकते। कम-से-कम अब तक तो हम ऐसी युक्ति नहीं खोज पाये हैं। सो भूकम्प को आना हमारी मौत की ही तरह अटल है। बस हम उसके आने का सही समय नहीं जानते। ऐसे में वास्तविकता और अपनी कमियों को स्वीकार करने से झिझकने की जगह हमें उचित उपाय तुरन्त शुरू कर देने चाहिए। ऐसा ही हम बिना किसी शर्म के बीमार होने पर भी तो करते हैं। तो मुझे नहीं लगता कि हमें देरी करनी चाहिए, क्योंकि हम जितनी देर करेंगे, काम उतना ही जटिल होता जाएगा और उसे करने के लिये हमारे पास उतना ही कम समय बचेगा।
पर यहाँ यह सोचना भी किसी बेवकूफी से कम नहीं होगा कि यह सब अकेले सरकार या कोई सरकारी संस्थान कर पाएगा। सरकार की इसमें बड़ी और निर्णायक भूमिका आवश्यक है, पर इसमें सहयोग तो हर किसी को करना पड़ेगा। आखिर केवल नियम-कानून बना देने भर से यहाँ किसी समस्या का समाधान होता नजर आता नहीं है। फिर वैसे यहाँ नियम-कानूनों की कमी भी कहाँ है। ऐसे में कुछ भी करके हमें सुरक्षा को अपने व्यवहार में सम्मिलित करना होगा सुरक्षा जीवन के हर पक्ष में। तभी हम एक सुरक्षित समाज की परिकल्पना को सच कर पाएँगे। यह सब निश्चित ही उतना सरल भी नहीं है, पर असम्भव भी नहीं। फिर शायद दुष्यंत कुमार ने सही कहा हो- ‘‘कैसे आकाश में सुराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो।’’
भूकम्प आने पर क्या करें?
1. जहाँ हैं, वही सुरक्षा तलाशें। हड़बड़ी घातक हो सकती है।
2. मजबूत मेज के नीचे छुपें या अन्दरूनी दीवार या स्तम्भ के सहारे खड़े रहें।
3. सिर पर लगी चोटें ज्यादा घातक होती है, इसलिये चेहरे व सिर को हाथों की सुरक्षा प्रदान करें व कम्पन रुकने तक सिर को हाथों की सुरक्षा में रखें।
4. यदि घर के अन्दर हैं तो गिर सकने वाली भारी वस्तुओं से दूर रहें।
5. खिड़कियों से दूर रहें, शीशे के टुकड़े क्षति पहुँचा सकते हैं।
6. अगर घर से बाहर हैं तो खुली जगह तलाशें। भवनों, पेड़ों, बिजली के खम्भों व तारों से दूर रहें।
7. अगर वाहन में हैं तो रुकें और अन्दर ही रहें।
8. पुल, बिजली के तारों, भवनों, खाई और तीव्र ढाल वाली चट्टानों से दूर रहें।
9. भूकम्प भूस्खलनों को जन्म दे सकता है, अत: सतर्क रहें।
डीएमएमसी उत्तराखण्ड द्वारा जारी गाइड लाइन
उत्तराखण्ड में भूकम्प
1991 उत्तरकाशी | 1999 चमोली | |
मानव जीवन | 768 | 106 |
घायल | 5056 | 395 |
पशु हानि | 3096 | 327 |
पूर्ण क्षतिग्रस्त घर | 20,242 | 14,724 |
आंशिक क्षतिग्रस्त घर | 74,714 | 72,126 |
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