मेरठ जनपद में किसानों द्वारा फसलों की सिंचाई में 85 प्रतिशत भूजल का इस्तेमाल किया जाता है। जबकि सिचाई हेतु मात्र 15 प्रतिशत पानी ही नहरों व रजवाहों से लिया जाता है। यहां कृषि कार्य में पानी की खपत भी बहुत अधिक इसलिए है क्योंकि किसानों द्वारा अपनी कुल कृषि भूमि के लगभग 90 प्रतिशत भाग पर गन्ने की पैदावार ली जाती है। अगर इसी प्रकार से भूजल स्तर का नीचे जाना लगातार जारी रहा तो यहां भी बुंदेलखंड व राजस्थान जैसे हालात होंगे। हमें यहां भी भली-भांति समझ लेना चाहिए कि धरती के गर्भ में पानी सीमित है और इसकी मितव्वयता से खर्च करना चाहिए।
जब से सृष्टि की उत्पत्ति हुई जल धरती पर उपलब्ध है। कई पीढ़ियां व राजा के राज गुजर गये लेकिन जल हमेशा स्वराज बना रहा और लोग इसे नये-नये तरीको से सहेजने का कार्य करते रहे। वेदों एवं ऋषियों मुनियों ने भी जल का सुदंरतम वर्णन किया है तथा इसके महत्व को समझा है। लेकिन वर्तमान में हमने वेदों में वायु, जल सर्वत्र हो सुगन्ध को धारण किये उक्ति को निर्रथक कर दिया है। अब हम कहते है कि जल ही जीवन है पर उसको आचरण मे नहीं ले रहे हैं। गंगा व यमुना नदी के बीच का दो आब कहलाने वाला क्षेत्र भी अब विकट स्थिति में है। आज से दस वर्ष पहले तक जहां भूजल स्तर 15 से 20 फीट होता था वह अत्यधिक दोहन व वर्षा की कमी के कारण अब 50-60 फीट तक जा पहुंचा है। गांव देहात में अधिकतर किसानों के ट्यूबवेल पानी देने में असहाय हो चुके हैं। किसान किसी भी हालात में अपनी फसल को चौपट होता नहीं देख सकता। उसके द्वारा कर्ज लेकर भी अपने ट्यूबवेल गहरे कराने का कार्य नहीं कर पा रहा हैं। या फिर सबमर्सिबल पंप लगाये जा रहे हैं। यही नहीं खेतों में लगे हुए निजी नलकूप ने भी पानी देना बन्द कर दिया है।इन हैंडपंपों को भी या तो ठीक कराया जा रहा है। या फिर यहां भी सबमर्सिबल पंप धरती के सीने को चीरते हुए धरती के गर्भ में छिपे पानी तक पंहुचाये जा रहे हैं लेकिन भविष्य में जब भूजल सबमर्सिबल की पहुंच से भी दूर हो जायेगा तब स्थितियां कैसी होंगी? उत्तर प्रदेश में जल से संबंधित कार्यक्रमों के माध्यम से यह बताया जा सकता है कि हमारे जीवन में भूजल का कितना महत्व है। वर्तमान में इसकी क्या स्थिति है तथा भविष्य के लिए यह कैसे बचेगा? उद्योगों, कृषि व अन्य दैनिक जरूरतों में खर्च होने वाले पानी के कारण सम्पूर्ण राज्य भयंकर भूजल की कमी झेल रहा है। उत्तर प्रदेश में कभी पानीदार कहा जाने वाला मेरठ जनपद भी अब भूजल के लगातार गिरने से संकट मे है। जनपद के तीन ब्लॉक रोहटा, रजपुरा व खरखौदा सूखा प्रभावित क्षेत्र में पहले ही आ चुके है। जबकि अन्य ब्लॉकों की हालत भी गंभीर होती जा रही है। जहां पर रेतीली भूमि पर चोया आ जाता था अब वहां भी रेत उड़ रहा है।
मेरठ जनपद का भूजल स्तर प्रतिवर्ष लगभग एक से दो मीटर नीचे खिसक रहा है। सेंटर फॉर साइंस एण्ड एन्वायरनमेंट के अध्ययन के अनुसार मेरठ शहर के दैनिक दिनचर्या की आवश्यकता की पूर्ति हेतु प्रतिदिन 1967 लाख लीटर पानी की आवश्यकता होती है। जबकि नगर निगम द्वारा 1640 लाख लीटर पानी की आपूर्ति की जाती है। इस आपूर्ति का 99 प्रतिशत भाग भूजल होता है। जबकि केवल 20 लाख लीटर पानी ही भोला की झाल से सप्लाई होता है। सोचने वाली बात यह है कि जिस 437 लाख लीटर पानी की कमी है उसे शहरवासीयों द्वारा अपने स्तर पर हैंडपंपों या फिर सबमर्सिबल पम्प आदि के माध्यम से जमीन से खींचा जाता है। शहरों में विकास प्राधिकरणों द्वारा 300 मीटर प्लॉट पर अनिवार्य किये गये वर्षा जल संरक्षण का पूर्णतः पालन नहीं किया जा रहा है। कई जगह रेनवाटर हार्वेस्टिंग के नाम पर मात्र गड्ढा ही कर दिया जाता है। भूगर्भ जल का स्तर बढ़ाने के लिए वर्षाजल संरक्षण प्रणाली एवं तालाब, जोहड़, पोखर ही कारगर सिद्ध हो सकते हैं।
मेरठ जनपद में किसानों द्वारा फसलों की सिंचाई में 85 प्रतिशत भूजल का इस्तेमाल किया जाता है। जबकि सिचाई हेतु मात्र 15 प्रतिशत पानी ही नहरों व रजवाहों से लिया जाता है। यहां कृषि कार्य में पानी की खपत भी बहुत अधिक इसलिए है क्योंकि किसानों द्वारा अपनी कुल कृषि भूमि के लगभग 90 प्रतिशत भाग पर गन्ने की पैदावार ली जाती है। अगर इसी प्रकार से भूजल स्तर का नीचे जाना लगातार जारी रहा तो यहां भी बुंदेलखंड व राजस्थान जैसे हालात होंगे। हमें यहां भी भली-भांति समझ लेना चाहिए कि धरती के गर्भ में पानी सीमित है और इसकी मितव्वयता से खर्च करना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि हम भविष्य में पानी-पानी चिल्लायें और पानी नसीब न हों। हम जमीन के नीचे से पीने के पानी के साथ लेन-देन के रिश्ते को बनाये रखें तभी हम भूगर्भ जल को सुरक्षित रख पायेंगे। हमारे देश में मानसून के समय प्रतिवर्ष लगभग 100 घंटे वर्षा होती है। यदि हम इन 100 घंटों में मिलने वाली धरोहर का संचय करें तो हम मानसून की खुशहाली तथा अपनी पीढ़ी के लाभ को और बढ़ा सकते हैं तथा वर्षा रहित 8660 घंटो की दुर्दशा को भी कम कर सकते हैं।
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