भू-जल संग्रह दोहावली

धरती माँ की कोख में, जल के हैं भंडार।
बूंद-बूंद को तड़प रहे, फिर भी हम लाचार।।

दोहन करने के लिये, लगा दिया सब ज्ञान।
पुनर्भरण से हट गया, हम लोगों का ध्यान।।

गहरे से गहरे किये, हमने अपने कूप।
रही कसर पूरी करी, लगा लगा नलकूप।।

जल तो जीवन के लिए, होता है अनमोल।
पर वर्षा के रूप में,मिलता है बेमोल।।

अगर संजोते हम इसे, देकर पूरा ध्यान।
सूखा बाढ़ न झेलते, रहता सुखी जहान।।

आओ मिल- जुल रोक लें, हम वर्षा की धार।
कूप और नलकूप फिर, कभी न हो बेकार।।

बूंद-बूंद जल रोकिये, भरिये जल भंडार।
पुनर्भरण से कीजिए, अब अपना उद्धार।।

पुनर्भरण में राखिये, तीन बात का ध्यान।
आवक संग्रह और रिसन, सफल करें अभियान।।

काया में जल की कमी, बढ़ा देय ज्यों ताप।
वैसी ही यह भूमि भी, तपन झेलती आज।।

इक रोगी को चाहिये, जैसे कि उपचार।
वैसा ही अब कीजिये, जमीं संग व्यवहार।।

विद्या है बिल्कुल सरल, भाषा भी है आम।
जन-जन के मन में बसी, रोगी वैद्य जुबान।।

ज्यों काया चंगी रखें, भोजन और अभ्यास।
वैसे ही इस भूमि पर, कीजै कुछ प्रयास।।

कृषि योग्य सब भूमि पर, लीजै फसल उगाय।
कीजै ढाल विरूद्ध यह, रोके जल अधिकाय।।

धरती माता के लिए, यह उत्तम अभ्यास।
भूमि सतह रहती नरम, बढै़ रिसन की आस।।

स्वस्थ रहे यह भूमि भी, रखिये इसका ध्यान।
होती जैविक खाद से, यह अच्छी बलवान।।

ज्यों काया को दूध फल, दें ताकत और स्वाद।
वैसी ही इस भूमि का, देती जैविक खाद।।

गर कचरा हो पेट में, भोजन नहीं सुहाय।
तब जुलाब देकर इसे, सुंदर स्वच्छ बनाय।।

इसी भांति जब भूमि में, बाढ़ै जल से पीर।
नदी,नाले, तलाब सब, करैं साफ हित नीर।।

दर्द घटाने के लिये, मालिश एक उपाय।
करें मुलायम यह त्वचा, रोम रोम खुल जाय।।

इसी भांति गर भूमि को, जोतें गहरा खूब।
होगी पोली भुर-भुरी, बाढ़ै जल की भूख।।

जहां-जहां जिस भूमि पर, हो संभव यह काम।
नेक जतन करवाइये, हो जल का अराम।।

या खेती का क्षेत्र हो या पड़त जमीन।
सभी जगह बजवाये यह, जल की सुन्दर बीन।।

कभी-कभी ज्वर के लिये, बिना खर्च बिन दाम।
ठंडे जल में डोब कर, पट्टी करती काम।।

इसी भांति जब खेत में, बिछ जाये पतवार।
वर्षा जल ज्यादा थमे, रिसे अनेकों बार।।

घास फूस या पत्तियां, जो होवें बेकार।
जगह जगह बिछवाइये, नमी करें साकार।।

पौधों की जड़ के तले, रक्खें कुछ पतवार।
जल की होवे खपत कम, उडे़ नहीं बेकार।।

वर्षा जल का भूमि पर, होय रिसन गर बंद।
समझो जैसे मात का, हुआ हाजमा मंद।।

पाचक गोली दीजिये, बढ़ जायेगी भूख।
धरती पर जल धार भी, जाये जल्दी सूख।।

जहां-जहां जल देखिये, बहता हो बेकार।
खोदें गड्ढा पुरूष भर, देंय उचित आकार।।

पहले भर दें, बोल्डर, फिर गिट्टी फिर रेत।
जल धारा को मोड़कर, ता में देंय समेट।।

घर की मोरी के निकट, हैंडपम्प के पास।
छत जल को भी सोखने, कीजै यही प्रयास।।

पाचक गोली इस तरह, देंगी दोहरा लाभ।
जल तो सोखेंगी बहुत, गांव रखेंगी साफ।।

पाचक गोली से अगर, बने न पूरा काम।
ग्लूकोस की बाटली, तब आयेगी काम।।

वर्षा जल से खेत में, जहां बहे जल धार।
कुंडी इक खुदवाइये, देय उचित आकार।।

लंबा चैड़ा कीजिये, देख खेत की ओर।
गहराई हो दो पुरूष, रहे रिसन पुर जोर।।

आवक जावक की तरफ, दीजै पत्थर डाल।
संग लगावें घास कुछ, छन्नी जैसा जाल।।

वर्षा जल या कुण्ड में, छन-छन के भर जाय।
सींच, सपर जो भी बचें, बूंद-बूंद रिस जाय।।

जब बढ़ जाये दर्द अरू, निर्बल होय शरीर।
सुई एक लगवाइये, घट जायेगी पीर।।

दवा सुई के मार्ग से, जैसे जाय शरीर।
वैसे ही इस भूमि में, भर दीजै कुछ नीर।।

कूप नदी या बावड़ी या कोई तालाब।
भर जायें जो जल्द ही, इक दो वर्षा बाद।।

इनके जल को पम्प से, नलकूपों में डार।
भू-जल को बढ़वाइये, कभी न टूटे धार।।

जब मरीज हो जाये, अति खाने से लाचार।
मुख में भोजन दीजिये, सीधे ही सरकार।।

धरती मां के मुख सभी, खेत गांव के कूप।
वर्षा जल को मोड़कर, इनमें भरिये खूब।।

छन्नी एक बनाइये, जल मारग के बीच।
बालू,मिट्टी, बोल्डर, फिर पाइप से खींच।।

कूप भरेंगे जल सब, बरसा में कई बार।
रिस-रिस खूब बढ़ायेंगे, भू-जल का भण्डार।।

मुख भोजन से भी अगर, बंधै न पूरी धीर।
डाल नली इक नाक में, जीवत करैं शरीर।।

नलकूपों से लीजिये, आप नली का काम।
भू-तल की गहराई में, इनका खूब मुकाम।।

गड्ढा इक खुदवाइये, केसिंग के चहुं ओर।
केसिंग में चहुं छेद कर, बांधे नरियल डोर।।

पहले भरिये बोल्डर, फिर गिट्टी फिर रेत।
जलधारा को मोड़कर, दीजै उसे समेट।।

बरसा जल को मोड.कर, नलकूपों की ओर।
छान-छान भर दीजिये, भू-जल हो पुर जोर।।

छत जल को भी रोककर, कर छन्नी से पार।
कूप ओर नलकूप में, देंय जतन से डार।।

बरसा जल जो व्यर्थ ही, बह जाता बेकार।
जमीं तले, पा जायेगा, भू-जल का भंडार।।

हर प्रयास के बाद भी, अगर रहें लाचार।
चीर-फाड़ से कीजिये, तब उसका उपचार।।

भूमि हो ढालू बहुत, रूके नहीं जल धार।
नाली कुछ बनवाइये, या डालें कुछ पार।।

जल नाली में बैठकर, लेगा कुछ विश्राम।
प्यास बुझाकर भूमि की, देगा कुछ आराम।।

बंधानों की रोक से, ठहरेगी जलधार।
सोख अधिक जल भूमि भी, कर लेगी उद्धार।।

गर नाली, बंधान से, मिटै न भू की प्यास।
बना वेदिका कीजिये, जल पावन की आस।।

ढलों की लम्बाई को,, दें सिढ़ी का रूप।
बहता जल रूक रूक चले, मिटे धरा की भूख।।

ज्यों अस्वस्थ मां के लिये, नहीं टूटती आस।
उसी भांति इस भूमि पर, कीजै सकल प्रयास।।

मेहनत से बढ़ जायेगा, भू -जल का भंडार।
मानो नेक सलाह यह कहे अवधेश कुमार।।
 

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