जल के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। यही वजह है कि, मानव अपने नए गृह के अन्वेषण के दौरान सर्वप्रथम जिस तत्व की खोज करता है वह जल ही है। जल न केवल मानव सभ्यता अपितु विभिन्न जन्तु, वनस्पति एवं पर्यावरण के चिरकालीन विकास के लिए महत्वपूर्ण एवं अमूल्य धरोहर है। पुरातत्ववेत्ताओं ने भी अपने अध्ययन में यही पाया है कि अतीत में मानव सभ्यता एवं नगरों का विकास नदियों और जल स्त्रोतों के आस-पास ही हुआ है। आदिकाल में जल की उपलब्धता प्रकृति द्वारा नियंत्रित होती थी और लोगों को इसे संरक्षित रखने की जरूरत नहीं थी। जल चक्र के सिद्धांत के अनुसार जल की कुल मात्रा सदैव स्थिर रहती है। जल चक्र का प्रारंभ समुद्रों से सूर्य की ऊर्जा के प्रभाव से होता है। समुद्रों एवं मिट्टी की सतह से वाष्पन एवं पेड़-पौधों से होने वाले वाष्पोत्सर्जन के द्वारा जल वाष्पित होकर वायुमंडल की ओर उठता है और क्षोभमंडल की अंतिम सतह में पहुंचकर बादलों में तब्दील हो जाता है यही बादल वर्षा के रूप में पुनः घरती पर बरसते हैं और इस प्रकार जल चक्त नियमित रूप से चलता रहता है। इन सब रोचक तथ्यों के बावजूद सवाल ये है कि आखिर आज इन जल स्त्रोतों की स्थिति इतनी भयावह एवं दयनीय क्यों है? और क्या वैज्ञानिक हस्तक्षेप द्वारा जल स्त्रोतों के कायाकल्प तथा पुनरुद्धार की गुंजाइश है?
प्रस्तुत आलेख भारतीय परिपेक्ष में जल की उपलब्धता पर प्रकाश डालने के साथ-साथ इसकी विदित समस्याओं को भी उजागर करने एवं साथ ही इससे निपटने के उपाय सुझाने के उद्देश्य से लिखा गया है। पर्यावरण के प्रमुखतः 4 घटक हैंः शिलामंडल, जैवमंडल, वायुमंडल एवं जलमंडल। धरती की सतह पर समुद्रों, नदियों, झीलों, भूजल आदि में उपलब्ध समस्त जल, जलमंडल कहलाता है। पृथ्वी का लगभग 71% भाग जल से घिरा हुआ है किन्तु, इसका 97% जल खारा होने के कारण पीने योग्य नहीं है शेष बचे हुए 3% जल में से (जो कि पीने योग्य है), 2% हिमनद (ग्लेशियर) के रूप में है और इस प्रकार जलमंडल में उपलब्ध समस्त जल की केवल 1% से भी कम मात्रा ही पीने योग्य है जो कि सतही जल एवं भूजल के रूप में नदियों, झरनों, झीलों, तालाबों, कुओं, आदि में उपलब्ध है। और यदि इस उपलब्ध जल को पृथ्वी में उपस्थित कुल आबादी (7.85 बिलियन) में समान रूप से बाँटा जाये तो जल की उपलब्धता 7,900 घन सकते हैं। मीटर/व्यक्ति/वर्ष निर्धारित की जा सकती है जो कि एक जल समृद्ध श्रेणी का उदाहरण है (सारणी-1)। किन्तु, यह सिद्धांत सामान्य रूप से दुनिया के हर क्षेत्र में लागू नहीं होता।
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भारतीय परिपेक्ष्य में बात करें तो, भारत एक जल समृद्ध देश की श्रेणी में आता है जहाँ, जल की उपलब्धता 1588 घन मीटर/व्यक्ति/वर्ष है किन्तु, निराशाजनक बात यह है कि जल की उपलब्धता का यह ग्राफ निरंतर गिरता जा रहा है, और यदि जल्द ही ठोस कदम नहीं उठाये गए तो हम शीघ्र ही जल समृद्ध राष्ट्र न होकर एक जल की कमी वाले राष्ट्र होंगे। वहीं दूसरी ओर, भारत के पास विश्व के समस्त उपलब्ध जल संसाधनों में से 4% भाग ही उपलब्ध है जबकि जनसंख्या की दृष्टि से विश्व की लगभग 17% आबादी भारत में निवास करती है। अतः दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि 4% जल से 17% जनमानस की प्यास आखिर कैसे बुझाई जाए। इन चुनौतियों से विचलित होने के स्थान पर अगर इसके समाधान सुझाने के प्रयास किए जाएं तो परिणाम और भी रोचक हो सकते हैं।
भारत को औसतन 4,000 BCM शुद्ध जल वर्षा के रूप में प्राप्त होता है। किन्तु, इसका लगभग 1869 BCM जल अपवाहित हो जाता है और विडंबना इस बात की है कि अपवाहित जल का केवल 690 BCM जल ही हम सिंचाई इत्यादि गतिविधियों में उपयोग कर पाते हैं तथा शेष जल (लगभग 63%) पुनः समुद्र एवं महासागरों में जा समाता है। क्या हो यदि हम इस अपवाहित जल का उचित प्रबंधन कर लें? क्या इससे हमारे देश की 30.7% असिंचित भूमि को सिंचित नहीं किया जा सकता? क्या इससे हमारी 3.3% बंजर जमीन को उपजाऊ नहीं बनाया जा सकता? ऐसे न जाने कितने सवालों का जवाब जल के इस 63% अपवाहित जल के उचित प्रबंधन एवं संयोजन में छिपा है। यद्यपि यह एक चुनौतीपूर्ण कार्य है तथापि असंभव नहीं। आवश्यकता है वैज्ञानिक रणनीतिक कदम उठाने की। बाढ़ एवं सूखा दोनों परस्पर विपरीत घटनाएं हैं किन्तु हमारे देश का दुर्भाग्य देखिए कि इन दोनों घटनाओं को एक साथ देखा जा सकता है। असल में , ये हमारा दुर्भाग्य नहीं, नाकामी है जिसे हमने दुर्भाग्य की चादर ओढ़े, दामन में छुपा रखा है। परंतु कब तक ? हमें जल्द जरूरत है रणनीतिक वैज्ञानिक हस्तक्षेप की, ऐसे वैज्ञानिक अनुसंधान एवं योजना की जो जल विहीन हो चुकी मौसमी नदियों को वार्षिक प्रवाह वाली नदियों से जोड़ सके। भारतीय नदी संरक्षण आयोग के द्वारा दी गई एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में करीब 300 से अधिक ऐसी नदियां हैं, जो विलुप्त हो चुकी हैं। लगभग 4000 से ज्यादा तालाबों के विलुप्त होने का अनुमान है, किन्तु कितने जीवित हैं और कितने विलुप्त हो गए, इसका कोई आधिकारिक आंकड़ा ही उपलब्ध नहीं। भारत सरकार के थिंक टैंक, नीति आयोग के अनुसार, पूरे भारत में लगभग 5 मिलियन प्राकृतिक झरने हैं, जिनमें से लगभग 3 मिलियन अकेले भारतीय हिमालयी क्षेत्र (IHR) में उपलब्ध हैं किन्तु, इन प्राकृतिक झरनों की दशा भी दयनीय है। इनमें से आधे से ज्यादा झरने या तो गतिहीन हो गए हैं, या उनका प्रवाह कम हो गया है, या सामयिक बन गए हैं या फिर उनके पानी की गुणवत्ता खराब हो गई है। नदियां, तालाब एवं प्राकृतिक झरने अनादिकाल से ही निश्छल जल के स्त्रोत माने जाते रहे हैं। और किसी भी देश के सतत विकास की कल्पना इन अविरत जल संसाधनों के बिना नहीं की जा सकती। आज आवश्यकता है इन जल संसाधनों के कायाकल्प एवं जीर्णोद्धार के लिए पूर्ण प्रयास किए जाएं। समाधान पर बात करने से पहले चलिए एक नज़र डालते हैं, हमारे पास कुल उपलब्ध जल संसाधनों पर।
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हालांकि, सारणी-2 में दिये गए आंकड़े भारत के विभिन्न जल संसाधनों में जल की वार्षिक उपलब्धता के गणित को प्रदर्शित नहीं करते फिर भी यदि किसी तरीके से यह संतुलन वर्ष भर बना रहे तब भी भारत के प्रत्येक नागरिक के हिस्से में 101.4 लीटर प्रतिदिन ही जल उपलब्ध होगा (समीकरण- (1)) जिसके अनुसार जल के उपयोग का राष्ट्रीय औसत 135 लीटर/दिन/व्यक्ति से कम है। 5149 अरब घन मीटर 365 दिन = 14.11 अरब लीटर प्रतिदिन अब इसे भारत की कुल आबादी से विभाजित करते हैं। 14.11 अरब लीटर/139 करोड़ लोग = 101.4 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन इसलिए, यदि हम भारत के कुल जल संसाधन को भारत के कुल आबादी से विभाजित करें, तो प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 101.4 लीटर जल आएगा। समीकरण ........ (1)
चुनौती विकट है किन्तु समाधान भी अपार हैं। प्रस्तुत हैं कुछ ऐसे समाधान जिन्हें तत्काल ही अमल में लाया जा सकता है एवं जल संसाधनों की बिगड़ती दशा एवं दिशा को बदला जा सकता है। सर्वप्रथम आवश्यकता है कृषि, पेयजल, निर्माण, और औद्योगिक उपयोग के लिए जल की उपलब्धता में सुधार हो सकता है। साथ ही यह जलमार्ग एवं पर्यटन विकास की असीमित संभावनाएं पैदा करता है। यही नहीं, दो नदियों का संबंध विभिन्न समुदायों के बीच सामाजिक एकता, समरसता, और सांस्कृतिक संगठन के बीज बोने में भी हमेशा से सक्षम रहा है। 63% अपवाहित वर्षाजल को उपयोगी बनाने की। यह कार्य वर्षाजल संग्रहण की विभिन्न तकनीकों को अपनाकर किया जा सकता है। उदाहरण के लिए छत वर्षा जल संचयन, परकोलेशन टैंक बनाकर, चेक डैम बनाकर आदि आदि। जरूरत है 300 से अधिक नदियों, जो विलुप्त हो चुकी हैं, को पुनः जीवित करने की। साथ ही ऐसे वैज्ञानिक अनुसंधान एवं योजना की जो विलुप्त हो चुकी तथा मौसमी नदियों को वार्षिक प्रवाह वाली नदियों से जोड़ सकें। ताकि कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा जैसी अकस्मात समस्याओं से निपटा जा सके। नदी-जोड़ो प्रकल्प, जल के असमान वितरण से हो रही वर्तमान समस्याओं के समाधान का सबसे उपयुक्त उपाय है। के मध्य जल संचयन, जलाशय निर्माण, और जल पुनर्निर्माण के माध्यम से जल संसाधनो को बढ़ावा देता है। इससे कृषि, पेयजल, निर्माण, और औद्योगिक उपयोग के लिए जल की उपलब्धता में सुधार हो सकता है। साथ ही यह जलमार्ग एवं पर्यटन विकास की असीमित संभावनाएं पैदा करता है। यही नहीं, दो नदियों का संबंध विभिन्न समुदायों के बीच सामाजिक एकता, समरसता, और सांस्कृतिक संगठन के बीज बोने में भी हमेशा से सक्षम रहा है। तालाब जो कभी ग्रामीण भारत में जल के प्रमुख स्त्रोत हुआ करते थे आज अपना अस्तित्व ही खो चुके हैं। तालाबों की दशा तो कुछ यूं खराब है कि इनकी आधिकारिक संख्या की कोई सूची तक उपलब्ध नहीं। आज आवश्यकता है कि इन विलुप्त हो चुके तालाबों की वैज्ञानिक फेहरिस्त तैयार कर पुनरुद्धार किया जाए। तालाबों का पुनरुद्धार न केवल ग्रामीण इलाकों में जल की आपूर्ति करने में उपयोगी साबित होगा बल्कि आस-पड़ोस के जल स्त्रोतों जैसे कि कुओं, झरनों, नदी-नालों आदि के जलस्तर को बढ़ाने में भी मददगार साबित होगा। आज जरूरत है भारत में उपलब्ध 5 मिलियन प्राकृतिक झरनों के विशाल तंत्र (विशेष रूप से हिमालायी क्षेत्रों में) के कायाकल्प की। जरूरत है जल की गुणवत्ता की नियमित जांच की। चूंकि जल के विभिन्न स्वरूपों (गुणवत्ता के लिहाज से) को भिन्न-भिन्न कार्यों जैसे नहाने, कपड़े धोने, किचन गार्डनिंग, छत पर बागवानी, वैकयार्ड गार्डनिंग आदि के लिए उपयोग किया जा सकता है और इस प्रकार जल के भिन्न-भिन्न उपयोगों का एक पृथक चक्र चलाया जा सकता है जो जल के सदुपयोग की एक नई मिसाल पेश करेगा। जरूरत है नदियों एवं नहरों के माध्यम से परिवहन के विकल्प तलाशने की। जो न केवल परिवहन क्षेत्र में बल्कि जल प्रबंधन के क्षेत्र में भी क्रांतिकारी कदम साबित होगा। "सौर नहर" या "सौर नहर प्रणाली" ऊर्जा संरक्षण एवं जल प्रबंधन के क्षेत्र में एक ऐसा क्रांतिकारी कदम है जो न केवल नहरों से होने वाले वाष्पोत्सर्जन को कम करता है बल्कि सोलर पैनल की दक्षता भी कुछ हद तक बढ़ा देता है। यह प्रणाली, सौर पैनलों की स्थापना के लिए, नहरों के अप्रयुक्त सतह क्षेत्र का उपयोग करके, सौर ऊर्जा उत्पादन और जल संरक्षण दोनों के लाभों को जोड़ती है। ऐसे ही न जाने कितने उपाय हैं एवं हो सकते हैं जो जल संसाधनों की उपलब्धता की तस्वीर बदल सकते हैं और भारत को पुनः एक समृद्ध राष्ट्र की श्रेणी मे लाकर खड़ा कर सकते हैं। बस जरूरत है सही नीयत और ईमानदारी से वैज्ञानिक रणनीतिक हस्तक्षेप की।
सपंर्क करें: पंकज कुमार ठाकुर एवं गोपाल कृष्ण, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की। मो. 8085611415
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