भारत के वनों और शहरी हरियाली के संरक्षण द्वारा ही पर्यावरण बचाना संभव

भारत के वनों और शहरी हरियाली के संरक्षण द्वारा ही पर्यावरण बचाना संभव
भारत के वनों और शहरी हरियाली के संरक्षण द्वारा ही पर्यावरण बचाना संभव

आज जरूरत इस बात की है कि हम जलवायु परिवर्तन संकट निदान की  दिशा में "थिंक ग्लोबली, एक्ट लोकली की नीति पर चलें" । वैश्विक अनुबंध आमतौर पर विकसित देशों के हितों के अनुरूप होती हैं लेकिन हमारी रिपोर्ट हमारे स्थानीय खतरों और निदान पर विमर्श करती है।

हमारा देश जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों की मार झेल रहा है, लेकिन दुर्भाग्य है कि हम आम लोगों को इस भयानक आप और उससे बचने के तरीकों पर जागरूक नहीं कर पा रहे हम सभी पर्यावरण संरक्षण से जुड़े ग्लासगो और पेरिस घोषणापत्र पर तो विमर्श करते हैं लेकिन हमारे देश की अपनी इस बारे में जारी रिपोर्ट पर चर्चा करना भूल जाते हैं। भारत सरकार के केंद्रीय पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय द्वारा तैयार पहली जलवायु परिवर्तन मूल्यांकन रिपोर्ट के संकेत बेहद चिंताजनक हैं। यह रिपोर्ट न केवल धरती पर मंडरा रहे खतरे की तरफ इशारा करती बल्कि उससे बचने के सुझाव भी देती है।

यह रिपोर्ट बताती है कि भारत में कई ऐसे इलाके हैं जो कि पेड़-पौधे प्राणियों की जैवविविधता की स्थानीय प्रजाति ही नहीं बल्कि वैश्विक प्रजातियों के लिए भी संवेदनशील माने गए हैं। यदि जलवायु परिवर्तन की रफ्तार तेज होती है तो इन प्रजातियों पर अस्तित्व का खतरा हो सकता है। इस पहली भारतीय रिपोर्ट में चेतावनी दी गयी है कि देश का औसत तापमान वर्ष 2100 के अंत तक 4.4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। तापमान में तेजी से बढ़ोतरी के मायने है भारत के प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र, कृषि उत्पादन और मीठे पानी के संसाधनों पर संकट में इजाफा होगा, जिसका इस और विपरीत प्रभाव जैवविविधता, भोजन, जल, ऊर्जा सुरक्षा तथा सार्वजनिक स्वास्था पर पड़ेगा।

रिपोर्ट में भारतीय शहरों में पर्यावरण के प्रति लापरवाही से बचने और देश के जंगलों और शहरी हरियाली की रक्षा करने की दिशा में सशक्त नीति और अनुसंधान की अनिवार्यता पर बल दिया है। यह एक बेहद खतरनाक संकेत है कि हमारे देश में सन 1901-2018 की अवधि में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के कारण औसत तापमान पहले ही लगभग 0.7 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है और अनुमान है कि यदि हमने माकूल कदम नहीं उठाये तो 2100 के अंत तक यह बढ़ोतरी लगभग 4.4 डिग्री सेल्सियस हो जायेगी।

औद्योगिक क्रांति के पहले वैश्विक औसत तापमान में लगभग एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। 2015 के पेरिस समझौते में यह संकल्प किया गया था कि औद्योगिक क्रांति के पहले के मानकों की तुलना में ग्लोबल वार्मिंग को दो डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखा जाए और तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोका जाए लेकिन आज ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के जो हालात हैं, उसके मुताबिक तो दुनिया के औसत तापमान में 3 से 5 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी को नियंत्रित करना असम्भव है। भारत की रिपोर्ट में भी आगाह किया गया है कि 2100 के अंत तक, भारत में गर्मियों (अप्रैल-जून) में चलने वाली लू या गर्म हवाएं 3 से 4 गुना अधिक हो सकती हैं। इनकी औसत अवधि भी दुगनी होने का अनुमान है। वैसे तो लू का असर सारे देश में ही बढ़ेगा लेकिन घनी आबादी वाले भारत-गंगा नदी बेसिन के इलाकों में इसकी मार ज्यादा तीखी होगी।

इस रिपोर्ट के अनुसार, उष्णकटिबंधीय हिंद महासागर के समुद्र की सतह का तापमान ( एसएसटी) भी 1951-2015 के दौरान औसतन एक डिग्री सेल्सियस बढ़ा है, जो कि इसी अवधी की वैश्विक औसत वार्मिंग 0.7 डिग्री सेल्सियस से अधिक है।

तापमान में वृद्धि का असर भारत के मानसून पर भी कहर ढा रहा है। सनद रहे कि हमारी खेती और अर्थव्यवस्था का बड़ा दारोमदार अच्छे मानसून पर निर्भर करता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के ऊपर ग्रीष्मकालीन मानसून वर्षा ( जून से सितंबर) में 1951 से 2015 तक लगभग छह प्रतिशत की गिरावट आई है, जो भारत-गंगा के मैदानों और पश्चिमी घाटों पर चिंताजनक हालात तक घट रही है।

रिपोर्ट के अनुसार गर्मियों में मानसून के मौसम के दौरान सन 1951-1980 की अवधि की तुलना में वर्ष 1981-2011 के दौरान 27 प्रतिशत अधिक दिन सूखे दर्ज किये गए। इसमें चेताया गया है कि बीते छः दशक के दौरान बढ़ती गर्मी और मानसून में कम बरसात के चलते देश में सूखा ग्रस्त इलाकों में इजाफा हो रहा है। खासकर मध्य भारत, दक्षिण-पश्चिमी तट, दक्षिणी प्रायद्वीप और उत्तर-पूर्वी भारत के क्षेत्रों में औसतन प्रति दशक दो से अधिक अल्प वर्षा और सूखे दर्ज किये गए। यह चिंताजनक है कि सूखे से प्रभावित क्षेत्र में प्रति दशक 1.5 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है। रिपोर्ट ने संभावना जताई है कि जलवायु परिवर्तन की मार के चलते ना केवल सूखे की मार का दायरा बढ़ेगा, बल्कि अल्प वर्षा की आवृत्ति में भी औसतन वृद्धि हो सकती है।

हिमालय पर गंभीर प्रभाव

भारत की जलवायु परिवर्तन रिपोर्ट में कहा गया है कि हिंदूकुश हिमालय (एचकेएच) क्षेत्र में 1951-2014 के दौरान लगभग 1.3 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि दर्ज की गयी है "एचकेएच के कई क्षेत्रों में हाल के दशकों में बर्फवारी और ग्लेशियरों के पीछे हटने की घटनाओं में गिरावट आई है। इसके विपरीत बहुत उंचाई वाले काराकोरम हिमालय में अधिक हिमपात हो रहा है, जिसके चलते वहां ग्लेशियर सिकुड़ नहीं पाए हैं। इक्कीसवीं सदी के अंत तक, एचकेएच पर वार्षिक औसत सतह के तापमान में लगभग 5.2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होने का अनुमान है। मानवजन्य गलतियों के कारण बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन के चलते 1951-2014 के दौरान प्रति दशक हिमालय और तिब्बती पठार के ताप में 0.2 डिग्री की दर से वृद्धि हुई है।"

रिपोर्ट में कहा गया है कि एचकेएच क्षेत्र में भविष्य में, 2100 के अंत तक तापमान में 2.6-4.6 डिग्री सेल्सियस वृद्धि का अनुमान है। यदि ऐसा हुआ तो हिमपात कम होगा और इससे ग्लेशियर के आकार घटेंगे और इसका असर जलविद्युत परियोजना तथा खेती किसानी पर बहुत बुरा होगा।

भारत की जल, खाद्य और ऊर्जा सुरक्षा पर संकट

केंद्रीय पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की रिपोर्ट में कहा गया है कि मीठे पानी की उपलब्धता पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव भारत के लिए चिंता का मुद्दा है और जलवायु परिवर्तन के कारण बरसात का स्वरूप बदल रहा है। इसके चलते बाढ़ व सुखा दोनों की मार और तगड़ी होगी, साथ ही सतही और भूजल के रिचार्ज का गणित गड़बड़ायेगा और यह देश की जल सुरक्षा के लिए खतरा है।

इसी तरह बढ़ते तापमान, गर्मी और वरसात के चरम से, देश की खाद्य सुरक्षा पर भी दवाव रहेगा, क्योंकि इसके चलते वर्षा आधारित खेती चौपट हो सकती है। जब गर्मी असहनीय होगी तो उससे बचने के लिए परिवेश को ठंडा करने की खातिर ऊर्जा की मांग में वृद्धि होने की संभावना है, और यदि इसकी आपूर्ति के लिए अगर तापीय उर्जा (थर्मल पावर) पर हम निर्भर रहे तो जाहिर है कि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में और वृद्धि होगी। यही नहीं, बिजली पैदा करने के लिए तापीय ऊर्जा बिजलीघरों के शीतलन के लिए पानी की जरूरत में भी इजाफा होगा। इस तरह के पानी की मांग की आपूर्ति के लिए बांध के जलाशयों, नदियों व नहरों के मीठे पानी की खपत होगी और इसके चलते खेती, पेयजल आदि के लिए पानी की खपत में कटौती करना होगा। पहले से ही जल संकट झेल रहे इलाकों में ये हालात तबाही ला देंगे। वहीं समुद्री तट के आस-पास स्थापित बिजली संयंत्र, जो शीतलन के लिए समुद्री जल का उपयोग करते हैं, समुद्र जलस्तर में वृद्धि, चक्रवात और तूफान से नुकसान की चपेट में आयेंगे। रिपोर्ट बताती है कि जलवायु परिवर्तन के कारण देश की ऊर्जा संरचना और आपूर्ति की आत्मनिर्भरता प्रभावित हो सकती है।

रिपोर्ट का संदेश - 1 वनों और शहरी हरियाली को सहेजें

पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में जलवायु परिवर्तन की निरंतर निगरानी, क्षेत्रीय इलाकों में हो रहे बदलावों का बारीकी से आंकलन, जलवायु परिवर्तन के नुकसान, इससे बचने के उपायों को शैक्षिक सामग्री में शामिल करने, आम लोगों को इसके बारे में जागरूक करने के लिए अधिक निवेश करने की जरूरत है। जैसे कि देश के समुद्री तटों पर जीपीएस के साथ ज्वार-भाटे का अवलोकन करना, स्थानीय स्तर पर समुद्र के जल स्तर में आ रहे बदलावों के आंकड़ों को एकत्र करना आदि। इससे समुद्र तट के संभावित बदलावों का अंदाजा लगाया जा सकता है और इससे तटीय शहरों में रह रही आबादी पर संभावित संकट से निबटने की तैयारी की जा सकती है। इसी प्रकार, इस तरह के आंकड़ों का आंकलन जिला और गांव-स्तर पर पानी के संचय, संभावित मानसून और गर्मी के अनुरूप फसल बोने, बीज के चयन आदि में भी मार्गदर्शक होगा।

रिपोर्ट में इस बात पर जोर दिया गया है कि शहर और महानगरों में पर्यावरण को कम से कम नुकसान पहुंचाने वाली विकास योजनाएं और "ग्रीन बिल्डिंग" बनायी जाएं जिससे बढ़ती गर्मी के प्रकोप और वायु प्रदूषण को कुछ कम किया जा सके।

'इसी तरह बढ़ते तापमान, गर्मी और बरसात के चरम से, देश की खाद्य सुरक्षा पर भी दवाब रहेगा, क्योंकि इसके चलते वर्षा आधारित खेती चौपट हो सकती है।'

रिपोर्ट का संदेश 2: समुद्र के उबलने पर चिंता करना जरुरी

जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र बहुत अधिक प्रभावित हो रहे हैं। स्मरण रहे कि ग्लोबल वार्मिंग से उपजी गर्मी का 95 फीसदी हिस्सा समुद्र पहले तो उदरस्थ कर लेते हैं, फिर जब उन्हें उगलते हैं तो ढेर सारी व्याधियां पैदा होती हैं हम जानते ही हैं कि बहुत सी चरम प्राकृतिक आपदाओं जैसे कि बरसात, लू, चक्रवात, जल स्तर में वृद्धि आदि का उद्गम स्थल महासागर या समुद्र ही होते हैं जब बाहर की गर्मी के कारण समुद्र का तापमान बढ़ता है तो अधिक बादल बनने से भयंकर बरसात, गर्मी के केन्द्रित होने से चक्रवात, समुद्र की गर्म भाप के कारण तटीय इलाकों में बेहद गर्मी पड़ना जैसी घटनाएं होती हैं। रिपोर्ट कहती है कि समुद्र में हो रहे परिवर्तनों की बारीकी से निगरानी, उन आंकड़ों का आंकलन और अनुमान, उसके अनुरूप अनुकूलन की योजनाएं तैयार करना समय की मांग हैं।

रिपोर्ट कहती है कि यदि हम वायु प्रदूषण पर काबू पा सके तो इन्सान और परिवेश, दोनों के पर्यावरण पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा तथा इससे कार्य दक्षता में सुधार होगा। रिपोर्ट के अनुसार तापमान बढ़ने से बरसात बढ़ सकती है और यदि हम चाहें तो इसे अवसर में बदल सकते हैं- जरूरत इस बात की होगी कि हम आसमान से गिरने वाली हर बूंद को सहेजने के लायक संरचनाएं तैयार कर सकें, इससे हमारी विद्युत उत्पादन क्षमता पर भी सकारात्मक असर होगा।

आज जरूरत इस बात की है कि हम जलवायु परिवर्तन संकट निदान की दिशा में "थिंक ग्लोबली, एक्ट लोकली" की नीति पर चलें वैश्विक अनुबंध आमतौर पर विकसित देशों के हितों के अनुरूप होती हैं लेकिन हमारी रिपोर्ट हमारे स्थानीय खतरों और निदान पर विमर्श करती है। जाहिर है कि हमारी कार्ययोजना इस देशी रिपोर्ट को आधार बना कर तैयार करना श्रेयस्कर होगा।

श्री पंकज चतुर्वेदी, सहायक संपादक
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, नई दिल्ली 110 070 [ई-मेल: pe7001010@gmail.com]


स्रोत:-  पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की जलवायु परिवर्तन मूल्यांकन रिपोर्ट की विवेचना, विज्ञान प्रगति,जनवरी 2022
 

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Post By: Shivendra
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