प्रकृतिक एवं मानवजनित कारणों से उत्पन्न लवणता एवं जलग्रसनता ने अर्ध शुष्क क्षेत्रों की अर्थ व्यवस्था एवं पर्यावरण को प्रभावित किया है, जिससे इन क्षेत्रों में भूजल संसाधनों की संवेदनशीलता में वृद्धि हुई है। इन प्रतिकूल प्रभावों को भूजल स्तर में सतत वृद्धि के रूप में देखा जा सकता है जिसके कारण इस राज्य के दक्षिण-पश्चिमी भाग में जलग्रसनता एवं लवणता क्षारीयता की समस्याएं पैदा होती है, जहां पर खारा लवणीय/ क्षारीय गुणवत्ता के कारण भूजल का निष्कर्षण सीमित है।
पिछले 3-4 दशकों के दौरान पंजाब राज्य ने चावल-गेहूं की फसल प्रणाली में बेहतर सिंचाई सुविधाओं की बदौलत कृषि उत्पादन में शानदार बढ़त हासिल की है, जिससे राज्य ने देश में पर्याप्त खाद्यान उत्पादन में अग्रणी भूमिका निभाई है। इसके कारण सिंचाई जल मांग कई गुणा बढ़ गई है, जिसके परिणामस्वरूप राज्य के अधिकांश हिस्सों में भूजलस्तर में तीव्र गति से गिरावट आई है। पंजाब के कई जिले 100% या उससे भी अधिक भूजल दोहन को दर्शाते हैं और यह अत्याधिक आर्द्र वर्षों को छोड़कर मानसून पूर्व अवधि में जल स्तर में दीर्घकालिक गिरावट को प्रदर्शित करते हैं।
भारत के दक्षिण-पश्चिम पंजाब में जलग्रसन एवं भूजल गुणवत्ता की विकृत समस्या ने 200 वर्ग किमी से बड़ा क्षेत्र प्रभावित किया है। अपर्याप्त जलनिकासी व्यवस्था, सिंचाई जल का जरूरत से ज्यादा उपयोग, भूजल संसाधनों का कम उपयोग एवं कीटनाशक दवाइयों का अत्यधिक उपयोग इस समस्या के मुख्य कारकों के रूप में समझे जाते हैं। बढ़ती हुई भूजल लवणता, पीने एवं सिंचाई की आवश्यकताओं के लिए शुद्ध जल की उपलब्धता को कम कर रही है। 75 वर्ग कि.मी. से ज्यादा का क्षेत्र लवणीय हो गया है। यह फसल उत्पादन को भी प्रभावित कर रहा है। उथले एवं गहरे जलभृतों के भूजल में एवं मृदा में लवणता की उत्पत्ति तथा स्थान एवं समय के संदर्भ में इसकी वृद्धि को अच्छी प्रकार से समझा नहीं गया है।
कुछ हद तक सिंचाई की आवश्यकता को नहर सिंचाई को अपनाकर पूरा किया गया जिसने जलग्रसन के विकास में मुख्य भूमिका निभाई और तदुपरान्त लवणीकरण ने मुख्यतः पंजाब के दक्षिण-पश्चिमी भाग में उपजाऊ भूमि के बड़े खण्डों को बंजर बना दिया। नहरों का अनुपयुक्त अलाइन्मेन्ट, नहरों एवं वितरिकाओं से रिसन प्रवाह, जल निकासी संकुचन, भूजल की खारी गुणवत्ता, मृदा के स्वभाव एवं गुण, दोषपूर्ण सिंचाई कार्यप्रणाली, और अत्यधिक जल की मांग वाली फसलों की कृषि इत्यादि अन्य कारकों ने जलग्रसन की समस्या को बढ़ाया है। यह समस्या स्थलाकृतिक न्यूनता की स्थिति, भूमि सतह के निकट अभेद्य परत, प्राकृतिक जल निकासी एवं अविरल वर्षा की अनुपस्थिति जैसे प्राकृतिक घटकों द्वारा और आगे बढ़ रही है।
भारत के दक्षिण-पश्चिम पंजाब में जलग्रसन एवं भूजल गुणवत्ता की विकृत समस्या ने 200 वर्ग किमी से बड़ा क्षेत्र प्रभावित किया है। अपर्याप्त जलनिकासी व्यवस्था, सिंचाई जल का जरूरत से ज्यादा उपयोग, भूजल संसाधनों का कम उपयोग एवं कीटनाशक दवाइयों का अत्यधिक उपयोग इस समस्या के मुख्य कारकों के रूप में समझे जाते हैं। बढ़ती हुई भूजल लवणता, पीने एवं सिंचाई की आवश्यकताओं के लिए शुद्ध जल की उपलब्धता को कम कर रही है। 75 वर्ग कि.मी. से ज्यादा का क्षेत्र लवणीय हो गया है। यह फसल उत्पादन को भी प्रभावित कर रहा है। उथले एवं गहरे जलभृतों के भूजल में एवं मृदा में लवणता की उत्पत्ति तथा स्थान एवं समय के संदर्भ में इसकी वृद्धि को अच्छी प्रकार से समझा नहीं गया है।
दक्षिण-पश्चिम पंजाब
पंजाब के दक्षिण-पश्चिम भाग में भटिंडा,बरनाला, फरीदकोट, फिरोजपुर, मानसा, मोगा, मुक्तसर एवं संगरूर जिलों को शामिल किया गया है। इस क्षेत्र का वार्षिक औसत तापमान 23 से से 26 से के मध्य है और इस क्षेत्र में 300 से 400 मि.मि. की लम्बी अवधी की वर्षा होती है, जिसमें औसत गुणांक लगभग 38% तक परिवर्तनशील रहता है। मुक्तसर में 350 मि.मि. की दर से सामान्य वर्षा होती है जो कि वार्षिक आधार पर कम वर्षा को दर्शाता है। वास्तव में दक्षिण-पश्चिमी पंजाब कम वर्षा वाला क्षेत्र है। जिलेवार जलग्रसन तालिका में दर्शाया गया है। दक्षिण-पश्चिम पंजाब में अधिकतम जलग्रसन की कुल मात्रा का 76% भाग मुक्तसर जिले में पाया जाता है।
जलग्रसन
सबसे पहले हमें जलग्रसन एवं लवणीकरण की अवधारणा को समझना चाहिए। जब किसी क्षेत्र मे भूजल तल इस स्तर तक बढ़ जाता है कि फसल के जड़ क्षेत्र में मृदा रंध्र संतृप्त हो जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप वायु का सामान्य संचलन बाधित हो जाता है, ऑक्सीजन के स्तर में गिरावट एवं कार्बन डाइआक्साइड के स्तर में वृद्धि हो जाती है, तब उस क्षेत्र को जलग्रस्त क्षेत्र कहते हैं जल स्तर की । हानिकारक गहराई फसल के प्रकार, मृदा का प्रकार एवं जल गुणवता के ऊपर निर्भर होती है।
स्रोतः (एन.आर. एस. सी. आई. एस. आर. ओ., डिपार्टमेट ऑफ स्पेस, गवमेंट ऑफ इंडिया- http://planningcommission.gov.in/report s/genrep/rep waterpunjab2702.pdf)
मुख्य सिंचाई कमान
तालिका-2 में दिए गये विवरण के अनुसार राज्य के दक्षिण-पश्चिम भाग में प्रमुख सिंचाई कमान सरहिंद नहर प्रणाली, सरहिंद फीडर प्रणाली, पूर्वी नहर प्रणाली इत्यादि हैं। सरहिंद नहर प्रणाली में अधिकतम कृषि योग्य कमान क्षेत्र (सी.सी.ए.) एवं सकल कृषि योग्य क्षेत्र ( जी.सी.ए.) हैं। सरहिंद नहर प्रणाली में सी. सी. ए. एवं जी. सी. ए. कुल भाग का क्रमशः 59 और 49 प्रतिशत है।उपरोक्त सिंचाई कमान के अतिरिक्त अन्य नहर प्रणाली जैसे बीकानेर (गोंग) नहर और राजस्थान फीडर जो कि दक्षिण-पश्चिम भाग से गुजरते हैं, ये भी रिसन के कारण क्षेत्र में जलग्रसन की समस्या को बढ़ावा देते हैं।
भूविज्ञान / जलीय भूविज्ञान
राज्य का दक्षिण- पश्चिम भाग सिंधु नदी जलोढ़ मैदान का गठन करता है, जो कि परिपूर्ण आधुनिक युग से संबद्ध है। जलोढ़ जमा में कैल्शियम कार्बोनेट के साथ जुड़े हुए कंकड़ से युक्त बालू, गाद और मृतिका की वैकल्पिक पट्टी समाविष्ट है। दानेदार क्षेत्र 20 मी.गहराई के नीचे महीन बालू की पतली परतों के साथ लचकदार कठोर मृत्तिका पट्टी के रूप में बारी-बारी से है एवं इनकी सघनता गहराई के साथ बढ़ती है। क्षेत्र के अधिकतर भाग में सतही अपवाह के रिसाव को रोकने हेतु अवरोध की तरह कार्य करने वाली भूमि की सतह के नजदीक 2-4 मी. मोटाई की अप्रवेश्य सतह अनवरत पट्टी के रूप में विद्यमान है।
भूजल
दक्षिण-पश्चिमी भाग में भूजल अनकन्फाइन्ड और कन्फाइन्ड दोनों अवस्थाओं में पाया जाता है। उप सतही लिथोलॉजी और खारी गुणवत्ता के कारणभूजल की गैर पंपिंग के लिए नहरों एवं वितरकों से रिसन के अतिरिक्त जल स्तर में वृद्धि उत्तरदायी है।
जल स्तर की गहराई
अक्टूबर 2011 माह के जल स्तर की गहराई के आंकड़े दर्शाते हैं कि जिला मुक्तसर जलग्रसन से अत्यधिक प्रभावित है। जिला क्षेत्र के 12% भाग में जल स्तर 1.5 मी. के भीतर और 75% भाग में 5 मी. गहराई के भीतर है। फिरोजपुर, फरीदकोट, भटिडा एवं मानसा ऐसे अन्य जिले हैं जहां पर या तो क्षेत्र जलग्रस्त है या जलग्रसन की ओर प्रवृत्त है।
भूजल गुणवत्ता
ई.सी. (विद्युत चालकता) का मान 25 से. तापमान पर 470 से 6000 माइक्रो सीमेंस / से. मी. के मध्य पाया जाता है। करीब 83% जिला क्षेत्र में 25° से. तापमान पर ई.सी. का मान 1000 माइक्रो सीमेंस/ से. मी. पाया गया है जिसमें से 30% जिला क्षेत्र में ई.सी. का मान 25 से. तापमान पर 3000 माइक्रो सीमेंस/ से.मी. है। राज्य के दक्षिणी और पश्चिमी हिस्से ई.सी. के उच्च मान दिखा रहे हैं। ई.सी. में वृद्धि जल के स्तर में वृद्धि एवं संभवतः रेगिस्तान के समीप के क्षेत्रों में ग्रीष्म में तुलनात्मक रूप से अधिक तापमान के कारण हो सकती है।
नहरों से निरतंर रिसन, अप्रवेश्य मृदा परत के कारण कमजोर अंत:स्रवण और उचित जलनिकासी तंत्र की कमी के साथ जुड़े हुए, क्षेत्र के अवनमन ग्रस्त स्थल व्यापक रूप से जल स्तर में वृद्धि के लिए उत्तरदायी हैं। इसके अतिरिक्त सिंचाई की तीव्रता एवं भूमि समतलीकरण ने प्राकृतिक स्थलाकृति एवं जलनिकासी के तवस्मरण में मुख्य भूमिका निभाने के साथ युग्मित रूप से फसल स्वरूपों एवं कार्यप्रणाली में मुख्य विस्थापन (जैसे धान के प्रत्यारोपण की अवधि) का पिछले 50 से 60 वर्षों के दौरान मुख्य परिवर्तन से एकसाथ गुजरना हुआ है एवं इन सभी ने जलग्रसन एवं लवणता की दोहरी समस्या को संयुक्त रूप से बढ़ाने में योगदान दिया है। दक्षिण पश्चिम पंजाब के बड़े भाग में अधिकतर असंतृप्त क्षेत्र (वैडोस जोन) भूजल स्तर में वृद्धि के साथ कमजोर हो चुके हैं। अब कैपिलरी फ्रिंज निचले तलछट की तुलना में मृदा क्षेत्र में अधिक सक्रियता से संचालित होती है, जो कि स्पष्टतया लवणीकरण में बढ़त और मृदा की द्रवीय जल निकासी को कम करती है।
कारण
नहरों से निरतंर रिसन, अप्रवेश्य मृदा परत के कारण कमजोर अंतःस्रवण और उचित जलनिकासी तंत्र की कमी के साथ जुड़े हुए, क्षेत्र के अवनमन ग्रस्त स्थल व्यापक रूप से जल स्तर में वृद्धि के लिए उत्तरदायी हैं। इसके अतिरिक्त सिंचाई की तीव्रता एवं भूमि समतलीकरण ने प्राकृतिक स्थलाकृति एवं जलनिकासी के तवस्मरण में मुख्य भूमिका निभाने के साथ युग्मित रूप से फसल स्वरूपों एवं कार्यप्रणाली में मुख्य विस्थापन (जैसे धान के प्रत्यारोपण की अवधि ) का पिछले 50 से 60 वर्षों के दौरान मुख्य परिवर्तन से एकसाथ गुजरना हुआ है एवं इन सभी ने जलग्रसन एवं लवणता की दोहरी समस्या को संयुक्त रूप से बढ़ाने में योगदान दिया है। दक्षिण पश्चिम पंजाब के बड़े भाग में अधिकतर असंतृप्त क्षेत्र (वैडोस जोन) भूजल स्तर में वृद्धि के साथ कमजोर हो चुके है। अब कैपिलरी फ्रिंज निचले तलछट की तुलना में मृदा क्षेत्र में अधिक सक्रियता से संचालित होती है, जो कि स्पष्टतया लवणीकरण में बढ़त और मृदा की द्रवीय जल निकासी को कम करती है। जलग्रसनता एवं लवणीकरण के निम्नलिखित कारण हैं:
- बिना अस्तर की मृदा से बनी नहरों की प्रणाली से रिसन भूजल स्तर को बढ़ा रहा है।
- सतही एवं उपसतही निकास के अपर्याप्त प्रावधानों के परिणामस्वरूप जल का संचय होना।
- दोषपूर्ण जल प्रबंधन प्रथाऐं।
- अपर्याप्त जलापूर्ति ।
- अत्यधिक सिंचाई एवं सिंचाई के लिए नहर जल के प्रयोग के कारण जड़ क्षेत्र में भूजल स्तर की क्रमिक बढ़ोतरी होती है एवं केशिका क्रिया के द्वारा लवण सतह तक बढ़ जाता है जिसके परिणामस्वरूप लवणीकरण में वृद्धि होती है एवं भूमि खेती के लिए अनुपयुक्त हो जाती है।
निष्कर्षः
प्रबंधन एवं संरक्षण
इन क्षेत्रों के भूमि उद्धार के लिए निम्नलिखित सुधारात्मक प्रबंधन की आवश्यकता है:-
- निर्माण से प्रबंधन तक बड़े पैमाने पर सिंचाई परियोजनाओं पर बल दिए जाने की आवश्यकता है: कम जल खपत वाली फसलों की बुवाई, दुग्ध एवं मत्स्य पालन का विकास आदि नहरों का अस्तीकरण, सतही एवं उपसतही जलनिकासी व्यवस्था का आरम्भ करना ।
- जल उपयोगकर्ताओं को समृद्ध बनानाः किसानों को ऋण एवं सब्सिडी उपलब्ध कराना।
- सहभागिता सिंचाई प्रबंधन: जैव-जल निकासी व्यवस्था का उपयोग, सतही और भूजल का संयुग्मी उपयोग, बाढ़ का नियंत्रण इत्यादि ।
- उन्नत जल उपयोग दक्षता सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली का उपयोग, सटीक खेती विकास प्रणाली का प्रयोग इत्यादि ।
संपर्क करें:- संजय मित्तल एवं गोपाल कृष्ण राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान रुड़की ।
सोर्स :- जल चेतना खण्ड 8 अंक 1 जनवरी 2019
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