भारत के 100 शहर भयानक जल संकट की चपेट में हैं

जलसंकट
जलसंकट

बेंगलुरु मेट्रो सिटी है। इसलिए जलसंकट का प्रचार ज्यादा हो रहा है। वैसा ही संकट देश के 90 प्रमुख शहरों में भी गहरा गया है, या कुछ समय बाद विकराल रूप में नजर आएगा। इन शहरों में दिल्ली ही नहीं पहाड़ों पर बसा शहर शिमला भी है। इसकी चर्चा आगे लेख में करूंगा। बात बेंगलुरु से शुरू हुई थी, इसलिए वहां उत्पन्न जल संकट की वजह पहले बताऊंगा। यह कोई नई पैदा हुई समस्या नहीं है। आजादी के बाद से ही जल संरचनाओं पर अतिक्रमण हुआ है। बड़े लोगों ने पानी का शोषण किया है। पिछले 75 सालों में हमने जल संरचनाओं के महत्त्व को कभी भी नहीं समझा।

हम सिर्फ यही जानते हैं कि अगर शहर में पानी कम हुआ तो दूसरे शहर से ले आएंगे। बेंगलुरु में पानी को लेकर भी यही सोच रही कि कावेरी का पानी लाकर शहर की प्यास बुझाएंगे। मेट्रो सिटी में 370 झीलें थीं, उनकी कभी सुध नहीं ली गई और न उन्हें बचाने का प्रयास हुआ। जनसंख्या बढ़ी, जीवनशैली बदली एक मटका पानी की जगह 10 मटका पानी खर्च किया जाने लगा। फिर 20 मटका पानी लगने लगा। यह बढ़ता गया। पानी की ज्यादा खपत करने वाले लोगों को विकसित कहा जाने लगा। आज बेंगलुरु में प्रति व्यक्ति पानी की खपत जरूरत से ज्यादा है। भारत ने जीवन के पैमाने विकास के नाम पर तेजी से बदलने शुरू कर दिए, इसकी वजह ने कई संकट पैदा हुए। अगर एक पंक्ति में कहा जाए तो हमने अपने जल संस्कार भुला दिए। आजादी के बाद पानी के उपयोग की जो आचार संहिता बननी थी, उस तरफ ध्यान ही नहीं दिया गया। विकास का प्राण पानी है, लेकिन पानी का ज्यादा भोग, उपयोग, दुरुपयोग करने वाले को बड़ा आदमी मानने की सोच ठीक नहीं थी। यह गलती राज्य से हुई है। पानी की आचार संहिता भी उसे ही बनानी थी। पानी के उपयोग की जो विधि बनाई जानी थी, वह भी नहीं बनाई गई। इसके स्थान पर पानी से पैसा बनाने, पानी को दूषित करने, पानी का व्यापार करने, पानी को बोतल में बंद करके बेचने को बढ़ावा दिया जाता रहा। इससे फायदा क्या हुआ ?

आज भारत के लगभग 100 शहर भयानक जल संकट की चपेट में हैं। भारत की स्थिति दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन से भयावह होगी। यह अभी जनसामान्य को नहीं दिखाई दे रही है। इसमें दो-तीन साल और लग जाएंगे। इसे इस तरह से समझना होगा कि भारत में 80% पानी भू-जल से आता है। देश का 62% भूजल पहले ही अधिक निकाला जा चुका है। नीति आयोग भी यही बात कहता है। पानी का हमारा उपभोग करने का तरीका गलत है। चाहे पीने के पानी के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले आरओ हों, बोतलबंद पानी हो या फिर शौचालय का डिजाइन। सभी दोषपूर्ण हैं। शौचालय में एक बटन से 15 लीटर पानी खर्च होता है। ऐसा नहीं है कि भारतीय पानी इस्तेमाल करना या उसका संरक्षण नहीं जानते थे। भारतीय विद्या में इसका प्रमुखता से वर्णन था लेकिन विकास की परिभाषा में इसे भुला दिया गया।

भारत की प्राचीन जीवन शैली में मानव और प्रकृति, दोनों के पोषण का विचार रहता था। मूल आदिवासी किसी भी व्यक्ति को तालाब के पास पेशाब (यूरिन) करने नहीं देता था, यानी उसे इस बात की समझ थी कि तालाब के पानी को शुद्ध कैसे रखा जाए। यह समझ आम भारतीय को भी थी कि पीने के पानी और शौचालय के बीच अपेक्षित दूरी होनी चाहिए। भले ही उसे यह नहीं पता हो कि पेशाब से नाइट्रोजन निकलती है, लेकिन वह यह अवश्य जानता था कि इससे पानी दूषित हो सकता है। आधुनिक शिक्षा की जो व्यवस्था है, उसमें पानी, पेड़ और पर्यावरण सबको टुकड़ों में बांटकर देखा जाता है। प्राचीन भारतीय दर्शन में इन सबको एक साथ ही संरक्षित करने की व्याख्या है।

आज घर-घर जल पहुंचाने वाली योजना की बड़ी चर्चा है। इससे घरों में पानी पहुंचेगा या नहीं लेकिन इससे प्लास्टिक के पाइप का उद्योग खूब फलफूल रहा है। इस योजना के तहत बस्तियों में प्लास्टिक के पाइपों का जाल बिछा दिया गया है, बड़ी-बड़ी टंकियां बना दी गई हैं, लेकिन इसमें जल संरक्षण की कोई सोच नहीं है। भारत जहां पहले की पीढ़ियों को जल संरक्षण की गहरी समझ हुआ करती थी आज वहां 99% जल शोषण हो रहा है। यह जो दूसरे शहर से पानी लाकर जल संकट का समाधान खोजने वाला विचार है, यह किसी भी दृष्टि से ठीक नहीं है। नदियों के पानी पर सिर्फ इस वजह से बड़े शहरों का अधिकार नहीं है कि वहां प्रभावशाली लोग रहते हैं या उन शहरों में ज्यादा कारोबार है।

नदियों पर छोटे कस्बों का भी उतना ही अधिकार है, जितना बड़े शहरों का। जब भी मुझ से जलसंकट से उबरने का तरीका पूछा जाता है तो मेरी यही सलाह होती है कि बचपन से वच्चों को जल संरक्षण के तरीके सिखाए जाएं। बच्चों की बात इसलिए करता हूं क्योंकि बड़ी उम्र के व्यक्ति जल के शोषक हैं। उनकी बजाय वच्चों को जागरूक बनाना अपेक्षाकृत आसान है। जल संरक्षण को प्राथमिक शिक्षा से ही पाठ्यक्रम में शामिल किए जाने की जरूरत है। बदलाव इसी से आएगा। जल संकट का समाधान कहीं बाहर से लाया जाने वाला फार्मूला या तकनीकी नहीं है। यह हमें दूसरे बड़े देशों से अच्छा पता है। हमारे यहां आम ग्रामीण  इससे परिचित हैं। तालाब और पानी को बचाने वाले अन्य उपाय भी हमारे यहां जनसामान्य जानता है। हमें बस इसकी हर गांव, पंचायत, कस्बे, तहसील और जिले में मुहिम चलानी है। पानी तो सबको ही चाहिए। सभी कहते हैं कि पानी ही जीवन है। इसे सिर्फ कहने से काम नहीं चलेगा, जीवन को वचाने के लिए गंभीर प्रयास भी करने होंगे। वैसे ही उपाय जैसे बीमार व्यक्ति को बचाने के लिए किए जाते हैं। हमारे पानी की पूरी व्यवस्था बीमार है। यह साधारण बीमारी न होकर गंभीर बीमारी है। व्यवस्थागत बीमारी दूर करने के उपाय जितने जल्दी किए जाएं, उतना अच्छा है।

(अजय तिवारी की बातचीत पर आधारित)
 

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Post By: Kesar Singh
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