रासायनिक विनाश के लिये अब तक जापान के दो बड़े शहरों हिरोशिमा और नागासाकी को ही याद किया जाता रहा था लेकिन अब इसमें भोपाल का नाम भी जुड़ गया था। हजारों लाशों के मुहाने पर बैठे भोपाल शहर के बाशिन्दों को उम्मीद थी कि त्रासदी के बाद इन मौत के सबक को सरकारें बड़ी गम्भीरता से लेंगी और अब कहीं कोई भोपाल त्रासदी जैसी घटनाएँ नहीं हो पाएँगी। लेकिन तब 9 लाख की आबादी के इस शहर में 6 लाख गैस प्रभावित दर्ज होने के बाद भी आज तक उन्हें कहीं से कोई न्याय नहीं मिला है। 03 दिसम्बर की सुबह भोपाल शहर में हुई गैस त्रासदी के 32 साल पूरे हो जाएँगे। इतना लम्बा वक्त गुजर जाने के बाद भी यहाँ के लोगों को न तो न्याय मिल पाया है और न ही उनकी सेहत के लिये अनुकूल पर्यावरण। यहाँ तक कि साफ पानी और हवा के लिये भी ये लोग बार-बार गुहार लगाकर अब थक चुके हैं। गैस प्रभावित मानते हैं कि कभी कोई गम्भीर जतन नहीं किया गया, उन्हें तब से अब तक सिर्फ-और-सिर्फ छला ही गया है।
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल की सुन्दरता इसकी झीलों से है, दूर-दूर तक साफ-स्वच्छ पानी से लबालब झीलों और उसके आसपास चौड़ी सडकों पर शहर को भागते-दौड़ते देखना अच्छा लगता है। झीलों के पानी में अपनी खूबसूरती निहारता यह शहर अलसुबह से देर रात तक धड़कता रहता है। लेकिन इसी शहर के बीचोंबीच बरसों से बन्द पड़ा किसी कंकाल की तरह जंग लगी मशीनों के साथ लंगर डाले जहाज की तरह खड़ा है यूनियन कार्बाइड का कारखाना।
कभी इसी कारखाने में खेतों में खड़ी फसलों को कीटों से बचाने के लिये जहरीला कीटनाशक बनाया जाता था, लेकिन आज से ठीक 32 साल पहले 02-03 दिसम्बर की देर रात इस कारखाने से हवा में रिसी एक तरह की गैस ने ऐसा कोहराम मचाया कि यह हँसता-खेलता शहर मरघट में तब्दील हो गया। देखते-ही-देखते सड़कें और घर लाशों से पट गए। कुछ जिन्दा तो थे पर उनकी आँखों की रोशनी हमेशा के लिये खत्म हो चुकी थी।
अस्पतालों में मरीजों के खड़े रहने तक की जगह नहीं थी और श्मशान में मुर्दे जलाने की जगह नहीं थी। कमोबेश यही स्थिति कब्रिस्तानों की भी थी। कई जगह तो घर में कोई नहीं बचा था। परिवार के परिवार रातों रात सोते हुए ही उजड़ चुके थे। इस काली रात और उस मनहूस सुबह की याद से ही लोग अब भी सिहर उठते हैं।
रासायनिक विनाश के लिये अब तक जापान के दो बड़े शहरों हिरोशिमा और नागासाकी को ही याद किया जाता रहा था लेकिन अब इसमें भोपाल का नाम भी जुड़ गया था। हजारों लाशों के मुहाने पर बैठे भोपाल शहर के बाशिन्दों को उम्मीद थी कि त्रासदी के बाद इन मौत के सबक को सरकारें बड़ी गम्भीरता से लेंगी और अब कहीं कोई भोपाल त्रासदी जैसी घटनाएँ नहीं हो पाएँगी। लेकिन तब 9 लाख की आबादी के इस शहर में 6 लाख गैस प्रभावित दर्ज होने के बाद भी आज तक उन्हें कहीं से कोई न्याय नहीं मिला है। न्याय की राह तकते हुए चन्द रुपए के मुआवजे के सहारे उन्होंने सालों इसी आस में गुजार दिये। यहाँ तक कि न्याय की लड़ाई लड़ते हुए इन लोगों को अपनी सेहत के लिये बुनियादी जरूरतें भी नहीं मिल पा रही हैं।
आपको ताज्जुब होगा कि जिस पानी को जाँच के बाद जहरीला घोषित कर दिया गया हो और बाकायदा इस बात की मुनादी वहाँ के हैण्डपम्पों पर तख्ती लगाकर कर दी गई हो, वही पानी पीते हुए यहाँ के लोग बड़ी-बड़ी बीमारियों का शिकार हो रहे हैं। इससे भी बड़ी बात कि इस बन्द पड़े कारखाने में अब भी हजारों टन खतरनाक रासायनिक कचरा पड़ा हुआ है जो हर साल बारिश के साथ जमीन में गहरा और गहरा उतरता जा रहा है और जमीनी पानी को भी जहरीला कर रहा है। यहाँ 346 मीट्रिक टन कचरा जमीन में रिस रहा है।
32 सालों में आज तक ऐसे कोई सरकारी प्रयास नहीं हुए कि इससे पता चल सके कि इस कचरे के प्रभाव से यहाँ के लोगों की सेहत पर क्या बुरा असर पड़ रहा है, जबकि सरकारी अस्पतालों के रिकॉर्ड में दर्ज है कि कितने बड़े तादाद में यहाँ के आसपास करीब चार किमी के इलाके में रहने वाले लोग लगातार बीमार हो रहे हैं। यहाँ बीमारी का अर्थ बीमार होकर ठीक हो जाने भर का नहीं है, इन गम्भीर बीमारियों का अर्थ यहाँ धीमी मौत की तरह है। इस इलाके में ऐसे सैकड़ों लोग हैं, जो अपनी मौत का इन्तजार कर रहे हैं।
बीते 32 सालों में इलाके में बड़ी तादाद में मौतें हुई हैं। इनमें ज्यादातर कैंसर और साँस या दमा जैसी गम्भीर बीमारियों के कारण हुई हैं। विशेषज्ञ बताते हैं कि इन बीमारियों की मुख्य वजह कारखाने में जमा कचरा है, जो यहाँ के पानी और हवा को प्रदूषित कर जहरीला बना रहा है। इसके जमीन को दूषित करने का क्षेत्र बढ़ता जा रहा है और अगले कुछ सालों में निराकरण नहीं हुआ तो यह करीब दस किमी तक भी बढ़ सकता है।
अब तक यहाँ हुई दर्जनों अध्ययन रिपोर्टों में इस बात की तस्दीक हुई है कि यहाँ की मिट्टी और जमीनी पानी के प्रदूषित होने से इसका बुरा असर यहाँ के लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। विशेषज्ञों ने इस जगह से कचरे को हटाने सहित कुछ तात्कालिक उपाय भी सुझाए हैं लेकिन आज तक इनमें से किसी पर कोई गम्भीर कदम नहीं उठाया गया है।
कुछ जन संगठनों के मुताबिक इस पूरे क्षेत्र को अधिग्रहित कर सुरक्षात्मक बाड लगा दी जानी चाहिए ताकि अनावश्यक प्रवेश को वर्जित किया जा सके। इसके अलावा कोशिश की जाये कि बरसाती पानी इसके सम्पर्क में नहीं आ सके ताकि इस जमीन में रिसने से रोका जा सके। इसके उपचारित करने की प्रक्रिया जल्द शुरू की जाये। इस प्रक्रिया के लिये पीथमपुर में एक इन्सिनेटर के इस्तेमाल की बात की जा रही है, लेकिन वहाँ के तकनीकी स्टाफ ने इसमें कुछ दिक्कतें और पर्यावरण पर बुरे असर की बात की है। इसे गम्भीरता से लिया जाकर केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मण्डल तथा अन्य विशेषज्ञ संस्थाओं की मौजूदगी में किया जाए।
भूजल में जहरीले तत्वों आर्गेनोक्लोरिन, डाईक्लोरो बेंजिन और ट्राई क्लोरोबेंजिन जैसे खतरनाक तत्व मौजूद मिले हैं। इन रसायनों से खून का कैंसर, लीवर, गुर्दे, मस्तिष्क सहित कई जन्मजात बीमारियाँ पनपती हैं। इनका उचित अध्ययन कर यहाँ के पानी को संक्रमण से बचाने की हरसम्भव कोशिश की जानी चाहिए। जहरीले रसायनों को कचरे से पृथक करने पर भी सोचा जाना चाहिए। पानी में मिली जिंक, मैगनिज, कापर, पारा, क्रोमियम, लेड निकिल जैसे भारी और हानिकारक धातुओं की ज्यादा मात्रा भी घातक है। इस कचरे में 164 टन मिट्टी भी है, जो अब प्रदूषित हो चुकी है।
इतनी बड़ी त्रासदी के लम्बा वक्त बीत जाने के बाद भी सवाल वहीं के वहीं खड़े हैं, भोपाल के लोगों की किस्मत में शायद छले जाना ही लिखा है। न तो उन्हें कहीं से कोई न्याय मिला और न ही कहीं से किसी उम्मीद की आस। वे जिन्दा रहने के लिये आवश्यक साफ पानी जैसी बुनियादी जरूरतों से भी मोहताज हैं। हैण्डपम्पों पर सरकारी तख्तियाँ तो लगी है कि यह पानी पीने लायक नहीं है पर पीने लायक पानी आखिर है कहाँ और कौन देगा उन्हें साफ पानी।
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