स्वच्छता को मुंह चिढ़ाता यूनियन कार्बाइड का कचरा
भोपाल गैस त्रासदी के तीन दशक बाद भी इस सवाल का जवाब न तो केंद्र सरकार के पास है और न ही राज्य सरकार के पास कि यूनियन कार्बाइड के कचरे का निष्पादन अभी तक क्यों नहीं हो पाया? इसके लिए दोषियों को सजा देने की मांग कर रहे स्थानीय रहवासियों एवं गैस पीड़ितों को अभी भी यहां के जहरीले कचरे का प्रभाव झेलना पड़ रहा है।
कई सरकारी एवं गैर सरकारी अध्ययनों में यह साफ कहा जा रहा है कि इस जहरीले कचरे के कारण आसपास की मिट्टी एवं जल प्रदूषित हो गई है, पर निष्पादन के नाम पर अभी तक आश्वासन ही मिलता आया है। स्थानीय बच्चे यूनियन कार्बाइड के कचरे को डंप करने के लिए बनाए गए सोलर इंपोरेशन तालाब के बारे में यह जानते हैं कि यहां यूनियन कार्बाइड का कचरा डाला जाता था, पर उन्हें यह नहीं मालूम कि यह जहरीला है।
तालाब के मिट्टी को छूने से शरीर पर भले ही तत्काल असर नहीं पड़े, पर यह धीमे जहर के रूप में असर डालने में सक्षम है। यह कचरा इतना जहरीला है कि 5 किलोमीटर क्षेत्र के भूजल को जहरीला बना चुका है।
भोपाल गैस त्रासदी पर काम कर रहे विभिन्न संगठन लगातार यह आवाज उठाते रहे हैं कि यूनियन कार्बाइड परिसर एवं उसके आसपास फैले रासायनिक कचरे का निष्पादन जल्द-से-जल्द किया जाए, पर अभी भी यूनियन कार्बाइड परिसर के गोदाम में एवं उसके आसपास खुले में कचरा पड़ा हुआ है।
पिछले 30 सालों में इस अति हानिकारक रासायनिक कचरे के कारण भूजल एवं मिट्टी के प्रदूषण का दायरा 3 किलोमीटर से बढ़कर 5 किलोमीटर हो गया है एवं पहले जहां 14 बस्तियों के भूजल को प्रदूषित माना जा रहा था, अब 22 बस्तियों का भूजल पीने लायक नहीं रहा गया है।
भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के संयोजक अब्दुल जब्बार कहते हैं कि केंद्र सरकार का स्वच्छता मिशन को यह कचरा मुंह चिढ़ा रहा है। सरकारों को शर्म करना चाहिए कि वे स्वच्छता अभियान का ढिंढोरा पीट रहे हैं, पर पर्यावरण एवं जल और मिट्टी को प्रदूषित करने वाले कचरे का निष्पादन वे नहीं कर रहे हैं।
सरकार तो सोलर इंपोरेशन तालाब में पड़े रासायनिक कचरे के बारे में बात भी नहीं करना चाहती, जबकि वह लगभग 18 हजार टन है। उसके कारण आसपास के पर्यावरण एवं भोजन चक्र में यूनियन कार्बाइड कारखाने में उपयोग होने वाले रसायन शामिल हो गए हैं। यदि जल्द ही इसका समाधान नहीं किया गया, तो यह भोपाल के लिए एक नई त्रासदी का कारण बन सकता है।
2012 में इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ टॉक्सिकोलॉजिकल रिसर्च, लखनऊ ने यूनियन कार्बाइड परिसर एवं उसके आसपास के क्षेत्र से भूजल का नमूना लेकर जांच किया था, जिसमें उसने पाया कि परिसर से उत्तर-पूर्व की ओर 5 किलोमीटर तक भूजल प्रदूषित हो गया है एवं भोपाल की 22 बस्तियों का भूजल पीने लायक नहीं है। संस्था ने सर्वोच्च न्यायालय में अपनी रिपोर्ट को प्रस्तुत किया, तो गैस त्रासदी पर कार्यरत संगठनों की बात पर मुहर लग गई।
सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह कहा कि रासायनिक कचरे का निष्पादन जल्द-से-जल्द होना चाहिए एवं स्वास्थ्य और पर्यावरण के स्तर पर अब किसी भी तरह का कोई नुकसान भोपाल में नहीं होना चाहिए। पर जो स्थितियां दिख रही हैं, उसमें यह नहीं लगता कि न्यायालय की बात को तरजीह देकर सरकार कोई कदम उठा रही है। उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र की मिट्टी एवं पानी की जांच 1989 से लेकर अब तक 15 से अधिक बार सरकारी एवं गैर सरकारी स्तर पर की जा चुकी है।
1993-95 में कमर सईद नाम के ठेकेदार को रासायनिक कचरा पैक करने का जिम्मा दिया गया था। उसने फ़ैक्टरी के आसपास के डंपिंग साइट से बहुत ही कम कचरे को पैक किया था, जो लगभग 390 टन था। उसके बाद परिसर एवं परिसर से बाहर इंपोरेशन तालाब में पड़े कचरे को पैक करने की जहमत किसी ने नहीं उठाई। कंपनी डंपिंग साइट एवं इंपोरेशन तालाब में काली प्लास्टिक की पन्नी बिछाकर 1969 से 1984 तक कचरा डालती रही थी, जो कि लगभग 18 हजार टन अनुमानित है।
समय के साथ पन्नियां फट गई एवं खतरनाक रसायन भूजल में मिलने लगे, जिसका परिणाम यह हुआ है कि कचरा पानी के साथ दूर तक पहुंच चुका है। यद्यपि अभी भी उन साइट्स पर मिट्टीनुमा कचरे का ढेर है, जिसे उठाकर पैक करने की जरूरत है, पर अब उसे सरकार रासायनिक कचरा मान ही नहीं रही है एवं शेड में पैक कर रखे गए सिर्फ 346 टन रासायनिक कचरे की ही बात की जा रही है। 40 टन कचरा चुपके से पीथमपुर की रामकी एनवायरो में जला दिया गया था, जिसका वहां के पर्यावरण पर प्रतिकूल असर पड़ा था एवं स्थानीय लोगों ने पुरजोर विरोध किया, जिससे सरकार ने अपना कदम पीछे खींच लिया। केंद्र एवं राज्य सरकार सिर्फ पैक्ड कचरे के निष्पादन से ही जूझ रही है।
सबसे पहले गुजरात के अंकलेश्वर में कचरे को भस्म करने की बात की गई, फिर मध्य प्रदेश के पीथमपुर में कचरे को भस्म करने की बात की गई और उसके बाद नागपुर के पास स्थित तमोजा में रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन की प्रयोगशाला में जलाने की बात की गई, पर स्थानीय विरोध एवं सरकारों के इनकार के बाद ऐसा संभव नहीं हो पाया।
जून 2012 में जर्मनी की कंपनी जर्मन एजेंसी फॉर इंटरनेशनल कोऑपरेशन से बात की गई थी, पर उसने भी इनकार की दृष्टि से कड़े शर्त लाद दिए, जिसे नहीं मानने पर उसने कचरे के निष्पादन से इनकार कर दिया। तीन दशक पूरे होने के बाद भी कचरे के निष्पादन एवं इस पर आने वाले खर्च के लिए डाउ केमिकल्स को जवाबदेह नहीं ठहराने पर भोपाल गैस पीड़ित अपने साथ न्याय की अपेक्षा कैसे करें?
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