भीमताल/भवाली। उत्तराखण्ड के सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं आर्थिक विकास में जनपद नैनीताल के भीमताल क्षेत्र का महत्त्व बड़ा ही अद्वितीय रहा है। महाबली भीमसेन की यह नगरी सनातन काल से श्रद्धा व आस्था का पावन संगम रही है। नागवंशियों में महाप्रतापी नाग करकोटक नाग की तपोभूमि भीमताल का पुरातन स्वरूप आधुनिकता की आपाधापी में गुम होती जा रही है। अनुपम सुषमा को धारण किए भीमताल के सौंदर्य को भी दिन प्रतिदिन ग्रहण लगता जा रहा है।
सदियों से लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता यह पावन भूभाग दिन पर दिन कंक्रीट के जंगल में तब्दील होता जा रहा है। जिन खेतों में कभी प्रचुर मात्रा में सेब, नाशपाती, आडू, खुमानी, पूलम सहित विभिन्न प्रकार के फलों का उत्पादन होता था, वे अब धीरे-धीरे आधुनिकता के दंश की चपेट में हैं। गेहूँ, मंडुवा, मक्का, जौ, झंगोरा, कौणी, भट्टा, मटर उगलने वाले खेत खलिहान दिन प्रतिदिन सिमटते जा रहे हैं। भीमताल ही नहीं बल्कि नौकुचियाताल, गरुड़ताल, रामताल, सीताताल, लक्ष्मणताल, नल दमयन्तीलाल, सूखाताल, मतवाताल, खुर्पाताल, सड़ियाताल आदि का सौन्दर्य भी वनों के विनाश से घटता जा रहा है।
राज्य गठन के बाद यह प्रबल उम्मीद थी कि यह भूभाग आध्यात्म का विराट केन्द्र बनेगा। पर्यटन के अलावा तीर्थाटन स्थल विकसित होंगे। तीर्थ गमन के नियमों का निर्धारण होगा, इन सबके विकास से रोजगार विकसित होंगे, लेकिन ये सब तो कुछ नहीं हुआ। हाँ इन तमाम क्षेत्रों में शराब की संस्कृति जरूर विकसित हुई, जिसने युवापीढ़ी को खोखला बनाकर रख दिया। 1371 मीटर की ऊँचाई पर जनपद मुख्यालय से तेईस किलोमीटर की दूरी पर स्थित भीमताल नौका विहार के लिये ही नहीं बल्कि आध्यात्मिक शान्ति के लिये भी प्रसिद्ध रहा है। 448 मी. लम्बा तथा 175 मी. चौड़ा यह ताल सुन्दरता की मिसाल है। इस ताल के बीच एक भव्य टापू है, जहाँ नाव द्वारा पहुँचा जाता है।
भगवान श्री रामचन्द्र के पूर्वज राजा ऋतुपर्ण व उनके मित्र राजा नल ने यहाँ की पहाड़ियों को अपनी साधना का केन्द्र बनाया और साधना के बल पर ही इन दोनों महाप्रतापी राजाओं ने ब्रह्माण्ड प्रसिद्ध गुफा पाताल भुवनेश्वर के दर्शन कर भगवान शंकर का सानिध्य प्राप्त किया। महाभारत के वीर योद्धा भीम व हिहिम्बा की अद्भुत प्रेम गाथा का गवाह रहे भीमताल की भूमि पर अब भूमाफियाओं की भी तीखी नजरें हैं। उजाड़ होते वन, कंक्रीट के उगलते जंगल इस बात की गवाही देते नजर आते हैं।
इसके आस-पास के क्षेत्र व पहाड़ियाँ रामगढ़, मुक्तेश्वर आदि क्षेत्रों का भी यही आलम है। भीमताल व भवाली के मध्य स्थित मेहरा गाँव भीमताल का मनमोहक गाँव है। इस गाँव में स्थित आदि शक्ति नव दुर्गा मन्दिर गुरु मोक्ष धाम से चारों ओर के पर्वतों का नजारा मन को अलौकिक शान्ति का एहसास प्रदान करता है। यह आश्रम अपने आप में सनातन संस्कृति का विराट इतिहास समेटे है। पंचदशनाम जूना अखाड़े के संत स्वामी दयानंद सरस्वती जिनकी उदारता व भक्ति, निष्ठा के चलते लोग उन्हें दयालु महाराज के नाम से पुकारते हैं, दशकों से यहाँ साधनारत हैं। उन्होंने इस क्षेत्र की पावन संस्कृति के प्रचार-प्रसार में अपना अभूतपूर्व योगदान दिया है और आज भी वे लोगों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करते हैं। इस आश्रम की स्थापना वर्षों पूर्व स्वामी श्री श्री 1008 ब्रह्मलीन संत ब्रह्मानंद सरस्वती महाराज ने अपने गुरु परम सिद्ध संत स्वामी शिवानंद महाराज की प्रेरणा से की, उनके पावन उद्देश्य व लक्ष्य को दयालु महाराज आगे बढ़ा रहे हैं। भवाली व भीमताल के मध्य इस आश्रम में ब्रह्मलीन संत सरस्वती महाराज की समाधि के दर्शन बड़े ही फलदायी माने जाते हैं।
स्थानीय भक्तजनों का कहना है कि जो भी श्रद्धापूर्वक इस दरबार में अपने आराधना के श्रद्धापुष्प अर्पित करता है, उसकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। इस दरबार में मांगी गई मनौती कभी भी व्यर्थ नहीं जाती है। मन्दिर के उत्तर दिशा में घोड़ाखाल, दक्षिण में हिड़िम्बा मंदिर, पूर्व में करकोटक नाग व सामने ऋतुपर्ण पहाड़ी का विहंगम नजारा देखने को मिलता है। आश्रम परिसर में स्थित नवदुर्गा मंदिर दर्शनार्थियों के लिये जगत माता की ओर से अद्भुत सौगात है।
कभी-कभी यहाँ माता के वाहन शेर का आवागमन होता है। वनों में मानव के बढ़ते दखल से अब यह दर्शन दुर्लभ हो गए हैं। मंदिर के पास कत्यूरियों की खली पुरातन यादों की धरोहर है। कुल मिलाकर इस आश्रम ने इस क्षेत्र में आध्यात्म की जो अलख जगाई है, वह अपने आप में एक अद्भुत मिशाल है।
भीमताल का पौराणिक महत्त्व जितना विराट है, उतना ही रोमांचक भी। स्कंद पुराण के मानस खण्ड के 45वें अध्याय में भीमताल का विस्तृत वर्णन आता है। महर्षि ब्यासजी ने सप्तऋषियों को इस क्षेत्र की महिमा बताते हुए कहा कि इस क्षेत्र में महाबली भीमसेन ने भगवान शंकर की कठोर तपस्या की। पुराणों के अनुसार एक बार भीमसेन अकेले ही हिमालय की यात्रा पर निकले, मार्ग में उन्होंने चित्रशिला के दर्शन कर चित्रेश्वर महादेव का पूजन व वहाँ स्थित वट की प्रदक्षिणा कर वे पर्वत पर आरूढ़ हुए। चित्रशिला के दर्शन के प्रभाव से आकाशवाणी ने भीम का मार्गदर्शन करते हुए उन्हें भगवान शंकर की आराधना करने को कहा तथा आदेश दिया कि आराधना के उपरान्त अन्जलिदान कर शिव कृपा से अपनी कीर्ति को युग पर्यन्त स्थाई करो।
आकाशवाणी से मिले मार्गदर्शन को भगवान शिव की महान कृपा मानते हुए भीम ने अपनी गदा भूमि पर रख दी तथा शिवजी की कठोर आराधना कर उन्हें प्रसन्न किया। गदा से पर्वत का भेदन कर गंगा का आह्वान कर गंगाजल से भरी अंजलियां भगवान शंकर को प्रदान की। भीम के अंजलिदान से यह जलाशय परम पूज्यनीय है और जलचरों का आवास क्षेत्र भी है। पूजनोपरान्त वहीं पुनः आकाशवाणी हुई। अशरीरी वाणी ने यह सुनाया कि भीम अब तुम हस्तिनापुर वापस जाओ, तुम्हारा कल्याण होगा। आकाशवाणी के आदेश पर भीम वापस हो गए।
इस तरह भीम सरोवर भीमताल के रूप में जगत में प्रसिद्ध हुआ और सरोवर के तट पर स्थित शिवालय भीमेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि जो भी जन श्रद्धापूर्वक इस सरोवर में स्नान करते हैं वे देवलोक में आनन्दित होते हैं। यहाँ स्नान करने से निःसंदेह गंगा स्नान का फल मिलता है, वहीं भीमेश्वर का पूजन करने से मनोवांछित सिद्धि की प्राप्ति होती है।
भीमताल के आस-पास के तालों में नौकुचियाताल का महत्त्व भी अति प्राचीन है। इस ताल की विशेषता यह है कि इसकी बनावट बड़ी ही विचित्र है। इसमें नौ कोने हैं। एक स्थान से पूरे सरोवर का आकार नहीं दिखाई पड़ता है। ब्यास जी ने इस स्थान की भी बड़ी महिमा गाई है।
इस सरोवर की गाथा सनतकुमार से जुड़ी हुई है। गहरे नीले रंग के पानी वाले इस ताल की विशेषता के बारे में यह बात भी स्थानीय जन मानस में प्रचलित है कि यदि कोई व्यक्ति एक ही नजर में इस ताल के नौ कोनों को देख ले तो उसकी तत्काल मृत्यु हो जाती है, लेकिन वास्तविकता यह है कि इस ताल के सात से अधिक कोने एक बार में नहीं देखे जा सकते। 1219 मी. ऊँचे इस ताल की अद्भुत विशेषता पुराणों में गायी गई है। प्रवासी पक्षियों को यह ताल विशेष प्रिय है।
सात ताल की आभा मण्डल से आच्छादित ताल भी भीमताल से चार किमी की दूरी पर बरबस ही आगन्तुकों को अपनी ओर खींच लेती है। इस प्रसिद्ध ताल की लम्बाई 990 मी. तथा चौड़ाई 315 मी. व गहराई 150 मी. मानी जाती है। इसमें तीन तालों का समूह बताया जाता है, जो राम सीता सीता लक्ष्मण तालों के नाम से जाने जाते हैं।
अनुपम सौंदर्य की मिशाल नल दमयंती ताल भी भीमताल क्षेत्र की शान है। 1635 मी. की ऊँचाई पर स्थित यह ताल राजा नल व दमयन्ती की भक्ति की निशानी मानी जाती है। स्कंद पुराण में भी इस ताल का मनोरम वर्णन आता है। यह पवित्र जल से परिपूरित है। इसमें स्नान का बड़ा महत्त्व बताया गया है। महर्षि ब्यासजी ने तो यहाँ तक लिखा है। इस जल से जो स्नान करते हैं वे कुरुक्षेत्र स्नान का फल प्राप्त करते हैं।
कुल मिलाकर उत्तराखण्ड की धर्मप्रधान संस्कृति में भीमताल की महिमा न्यारी है। यहाँ के स्थलों का भ्रमण केवल पर्यटन की दृष्टि से ही नहीं अपितु तीर्थाटन की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। प्राकृतिक सौंदर्य की दृष्टि से यह भारतीय भूभाग का महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है, लेकिन पाश्चात्य संस्कृति के हमले से ये क्षेत्र निश्तेज होते जा रहे हैं, जो चिन्तनीय विषय है।
अंग्रेज यह बात भली-भाँति जानते थे कि यदि भारत भूमि पर अपना राज कायम करना है तो यहाँ की संस्कृति को घात पहुँचाना जरूरी है। उन्होंने हमारी संस्कृति की अनेकता में एकता की मूल अवधारणा पर गहरा कुठाराघात किया। धर्म, जाति, क्षेत्र व भाषा के आधार पर अलगाववाद की घोर नीति अपनाई व देश पर लम्बे समय तक राज कर इसे खोखला करने का प्रयास किया।
लम्बे संघर्ष के बाद आजादी मिली। आजादी के बाद भी सांस्कृतिक गौरव को संवारने के ठोस प्रयास सामने नहीं आए। राज्य बना, उम्मीदें जगी लेकिन सांस्कृतिक गौरव के प्रति राज्य को जागरूक करने के गंभीर प्रयास नहीं किए गए। भीमताल क्षेत्र एक उदाहरण मात्र है। पर्यटन व तीर्थाटन को यदि शासन स्तर से समुचित सहायता व प्रोत्साहन दिया जाए तो राज्य से बेरोजगारी भी दूर होगी व पलायन भी रुकेगा।
यदि राज्य के भीतर जमीनों की लूट-खसोट, शराब की संस्कृति यूँ ही पनपती रही तो शेष रह जाएगी पछतावे की सिसकियाँ।
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