हम टीवी के रूपहले पर्दे पर भील आदिवासियों को रंग-बिरंगी पोषाकों में नाचते हुए देखते हैं और मोहित हो जाते हैं लेकिन जब हम उनसे सीधा साक्षात्कार करते हैं तो उनके कठिन जीवन की असलियत देख-सुनकर वह आकर्षण काफूर हो जाता है।
ऐसा ही अहसास मुझे तब हुआ जब मैं उनसे मिला और उनके दुख-दर्द की कहानियां सुनीं। हाल ही मुझे 31 अगस्त से 3 सितंबर तक पश्चिमी मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल अलीराजपुर में रहने का मौका मिला।
इस दौरान एक भिलाला युवक रेमू के साथ मैं डेढ़ दर्जन गांवों में गया। ये सभी गांव अलीराजपुर जिले में स्थित हैं। इनमें से कुछ हैं-खारकुआ, छोटा उण्डवा, तिति नानपुर, घोंगसा, उन्दरी, हिरापुर,फाटा इत्यादि।
यहां के गांवों में बसाहट घनी नहीं है। एक घर से दूसरे घर की दूरी काफी है। पहाड़ियों की टेकरियों पर बने इनके घर कच्चे और खपरैल वाले हैं। इन घरों को मिलाकर एक फलिया (मोहल्ला) बनता है। घास-फूस व लकड़ियों के घर में दीवारें कच्ची, लकड़ी की और कुछ ईंटों की बनी हैं। मुर्गा- मुर्गी, बकरी और मवेशी भी साथ-साथ रहते हैं।
जमीन ऊंची-नीची ढलान वाली व पहाड़ी है तो कहीं समतल मैदान वाली। पेड़ बहुत कम हैं। जब पेड़ नहीं हैं तो पक्षी भी नहीं। वे पेड़ों पर घोंसला बनाकर रहते हैं या बैठते है। छींद और ताड़ी के पेड़ दिखाई दिए, छातानुमा बहुत सुंदर। इन्हीं पेड़ों से ताड़ी निकाली जाती है। गर्मी में ठंडा के रूप में ताड़ी पी जाती है।
खेतों में मूंग, उड़द, मूंगफली और बाजरा की फसल लहलहा रही थी तो कुछ खेतों में कपास भी था। पानी की कमी है, कुछ किसानों ने बताया कि मूंगफली में जब पानी की कमी होती है तो टैंकर से पानी मंगाते हैं। यह जानकारी नई थी।
जब हम गांवों में पहुंचते तो चरवाहे हमें देखकर दौड़ लगा देते थे या पेड़ों के पीछे छिप जाते। जब हम उनसे किसी का पता-ठिकाना पूछते तो जवाब नहीं देते। फिर रेमू अपनी भीली जुबान में पूछता तो बता देते। गांवों में अधिकांश बुजुर्ग लंगोटी में मिले और कुछ जगह हुक्का वाले भी दिखाई दिए।
यहां खेती -किसानी पर ही लोगों की आजीविका निर्भर है, लेकिन खेती में ज्यादा लागत और कम उपज होती है। किसानों पर कर्ज बढ़ता जा रहा है। उसी कर्ज के दुष्चक्र में हमेशा के लिए फंस जाते हैं।
महिलाएं और पुरूष मिलकर खेती का काम करते हैं। वे खेतों में उड़द और मूंगफली की निंदाई करते हुए दिखे। इसके अलावा, महिलाओं पर घर के काम की पूरी जिम्मेदारी होती है। भोजन पकाना, पानी लाना, ईंधन लाना, साफ-सफाई करना, गाय-बैल, बकरी चराना इत्यादि। बच्चों संभालने का काम तो रहता ही है।
आदिवासियों की जिंदगी उधार के पैसे से चलती है। वे साहूकार व महाजनों से कर्ज लेते हैं। लेकिन अक्सर गरीबी और तंगी के कारण समय पर अदा नहीं कर पाते। कर्ज के बदले गिरवी रखी वस्तु वे वापस नहीं ले पाते।
बारिश नहीं हुई तो फसल भी नहीं। मजबूर होकर लोग काम की तलाश में गुजरात चले जाते हैं। भोपाल और दिल्ली भी जाते हैं जो खेती और निर्माण कार्य में मजदूरी करते हैं, उन्हें न उचित मजदूरी मिलती है, न वहां जीने के लिए बुनियादी सुविधाएं।
पलायन करने वालों में जवान स्त्री-पुरूष सभी हैं। ज्यादातर परिवारों में घर के छोटे खाने-कमाने जाते हैं और बड़े-बूढ़े घर की जिम्मेदारी संभालते हैं।
खेतों में मूंग, उड़द, मूंगफली और बाजरा की फसल लहलहा रही थी तो कुछ खेतों में कपास भी था। पानी की कमी है, कुछ किसानों ने बताया कि मूंगफली में जब पानी की कमी होती है तो टैंकर से पानी मंगाते हैं। यह जानकारी नई थी। यहां खेती -किसानी पर ही लोगों की आजीविका निर्भर है, लेकिन खेती में ज्यादा लागत और कम उपज होती है। किसानों पर कर्ज बढ़ता जा रहा है। उसी कर्ज के दुष्चक्र में हमेशा के लिए फंस जाते हैं। पहले यहां बहुत अच्छा जंगल हुआ करता था जो इनके जीने का बड़ा आधार था। जंगल से उनका मां-बेटे जैसा संबंध था। वे उससे उतना ही लेते थे जितनी उनको जरूरत होती थी। आदिवासी समाज संग्रह नहीं करते हैं। लेकिन जंगल अब साफ हो चुका है। यहां के पहाड़ नंगे हो गए हैं। आदिवासियों की हालत के बारे में सामाजिक कार्यकर्ता शंकर तलवड़ा बताते हैं कि हमारे सामाजिक ताने-बाने को छिन्न भिन्न कर दिया गया है। बाजार ने हमारी सामूहिकता को तोड़ दिया है। लालच ने एक-दूसरे को सहयोग करने की भावना को खत्म कर दिया।
वे बताते हैं कि फसल चक्र के बदलाव ने हमारे देसी अनाजों को खत्म कर दिया। अब आदिवासी पूरी तरह बाजार के हवाले हो गया, जहां उसे शोषण का शिकार होने पड़ रहा है। वहीं जीने के लिए उसे बुनियादी सुविधाएं और रोजगार भी नहीं मिल पा रहा है।
भीलों की अस्मिता और संस्कृति खतरे में है। वे बताते हैं कि भीलों का रामायण और महाभारत में भी जिक्र मिलता है। भील बालक एकलव्य धर्नुविद्या में महाभारत के क्षत्रिय नायकों में एक अर्जुन से भी ज्यादा निपुण था। लेकिन द्रोणाचार्य ने उसका अंगूठा गुरूदक्षिणा के बतौर मांग लिया था। भीलों से लेने का सिलसिला आज भी चल रहा है। बडे़ बांध बनाने के लिए आदिवासियों को ही उजाड़ा जा रहा है।
आदिवासियों के लिए संविधान में कई प्रावधान किए गए हैं। उनके लिए कई योजनाएं और आयोग बनाए जा चुके हैं। उनकी हालत को लेकर कई रिपोर्टें तैयार की जा चुकी हैं। कानून भी बने। लेकिन आदिवासियों का जीवन दिन प्रतिदिन कठिन होता जा रहा है। सवाल उनकी अस्मिता और संस्कृति का है। खेती-किसानी का है। शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति कैसे सुधरेगी। उनकी बेहतरी का सवाल भी मौजूं है।
ऐसा ही अहसास मुझे तब हुआ जब मैं उनसे मिला और उनके दुख-दर्द की कहानियां सुनीं। हाल ही मुझे 31 अगस्त से 3 सितंबर तक पश्चिमी मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल अलीराजपुर में रहने का मौका मिला।
इस दौरान एक भिलाला युवक रेमू के साथ मैं डेढ़ दर्जन गांवों में गया। ये सभी गांव अलीराजपुर जिले में स्थित हैं। इनमें से कुछ हैं-खारकुआ, छोटा उण्डवा, तिति नानपुर, घोंगसा, उन्दरी, हिरापुर,फाटा इत्यादि।
यहां के गांवों में बसाहट घनी नहीं है। एक घर से दूसरे घर की दूरी काफी है। पहाड़ियों की टेकरियों पर बने इनके घर कच्चे और खपरैल वाले हैं। इन घरों को मिलाकर एक फलिया (मोहल्ला) बनता है। घास-फूस व लकड़ियों के घर में दीवारें कच्ची, लकड़ी की और कुछ ईंटों की बनी हैं। मुर्गा- मुर्गी, बकरी और मवेशी भी साथ-साथ रहते हैं।
जमीन ऊंची-नीची ढलान वाली व पहाड़ी है तो कहीं समतल मैदान वाली। पेड़ बहुत कम हैं। जब पेड़ नहीं हैं तो पक्षी भी नहीं। वे पेड़ों पर घोंसला बनाकर रहते हैं या बैठते है। छींद और ताड़ी के पेड़ दिखाई दिए, छातानुमा बहुत सुंदर। इन्हीं पेड़ों से ताड़ी निकाली जाती है। गर्मी में ठंडा के रूप में ताड़ी पी जाती है।
खेतों में मूंग, उड़द, मूंगफली और बाजरा की फसल लहलहा रही थी तो कुछ खेतों में कपास भी था। पानी की कमी है, कुछ किसानों ने बताया कि मूंगफली में जब पानी की कमी होती है तो टैंकर से पानी मंगाते हैं। यह जानकारी नई थी।
जब हम गांवों में पहुंचते तो चरवाहे हमें देखकर दौड़ लगा देते थे या पेड़ों के पीछे छिप जाते। जब हम उनसे किसी का पता-ठिकाना पूछते तो जवाब नहीं देते। फिर रेमू अपनी भीली जुबान में पूछता तो बता देते। गांवों में अधिकांश बुजुर्ग लंगोटी में मिले और कुछ जगह हुक्का वाले भी दिखाई दिए।
यहां खेती -किसानी पर ही लोगों की आजीविका निर्भर है, लेकिन खेती में ज्यादा लागत और कम उपज होती है। किसानों पर कर्ज बढ़ता जा रहा है। उसी कर्ज के दुष्चक्र में हमेशा के लिए फंस जाते हैं।
महिलाएं और पुरूष मिलकर खेती का काम करते हैं। वे खेतों में उड़द और मूंगफली की निंदाई करते हुए दिखे। इसके अलावा, महिलाओं पर घर के काम की पूरी जिम्मेदारी होती है। भोजन पकाना, पानी लाना, ईंधन लाना, साफ-सफाई करना, गाय-बैल, बकरी चराना इत्यादि। बच्चों संभालने का काम तो रहता ही है।
आदिवासियों की जिंदगी उधार के पैसे से चलती है। वे साहूकार व महाजनों से कर्ज लेते हैं। लेकिन अक्सर गरीबी और तंगी के कारण समय पर अदा नहीं कर पाते। कर्ज के बदले गिरवी रखी वस्तु वे वापस नहीं ले पाते।
बारिश नहीं हुई तो फसल भी नहीं। मजबूर होकर लोग काम की तलाश में गुजरात चले जाते हैं। भोपाल और दिल्ली भी जाते हैं जो खेती और निर्माण कार्य में मजदूरी करते हैं, उन्हें न उचित मजदूरी मिलती है, न वहां जीने के लिए बुनियादी सुविधाएं।
पलायन करने वालों में जवान स्त्री-पुरूष सभी हैं। ज्यादातर परिवारों में घर के छोटे खाने-कमाने जाते हैं और बड़े-बूढ़े घर की जिम्मेदारी संभालते हैं।
खेतों में मूंग, उड़द, मूंगफली और बाजरा की फसल लहलहा रही थी तो कुछ खेतों में कपास भी था। पानी की कमी है, कुछ किसानों ने बताया कि मूंगफली में जब पानी की कमी होती है तो टैंकर से पानी मंगाते हैं। यह जानकारी नई थी। यहां खेती -किसानी पर ही लोगों की आजीविका निर्भर है, लेकिन खेती में ज्यादा लागत और कम उपज होती है। किसानों पर कर्ज बढ़ता जा रहा है। उसी कर्ज के दुष्चक्र में हमेशा के लिए फंस जाते हैं। पहले यहां बहुत अच्छा जंगल हुआ करता था जो इनके जीने का बड़ा आधार था। जंगल से उनका मां-बेटे जैसा संबंध था। वे उससे उतना ही लेते थे जितनी उनको जरूरत होती थी। आदिवासी समाज संग्रह नहीं करते हैं। लेकिन जंगल अब साफ हो चुका है। यहां के पहाड़ नंगे हो गए हैं। आदिवासियों की हालत के बारे में सामाजिक कार्यकर्ता शंकर तलवड़ा बताते हैं कि हमारे सामाजिक ताने-बाने को छिन्न भिन्न कर दिया गया है। बाजार ने हमारी सामूहिकता को तोड़ दिया है। लालच ने एक-दूसरे को सहयोग करने की भावना को खत्म कर दिया।
वे बताते हैं कि फसल चक्र के बदलाव ने हमारे देसी अनाजों को खत्म कर दिया। अब आदिवासी पूरी तरह बाजार के हवाले हो गया, जहां उसे शोषण का शिकार होने पड़ रहा है। वहीं जीने के लिए उसे बुनियादी सुविधाएं और रोजगार भी नहीं मिल पा रहा है।
भीलों की अस्मिता और संस्कृति खतरे में है। वे बताते हैं कि भीलों का रामायण और महाभारत में भी जिक्र मिलता है। भील बालक एकलव्य धर्नुविद्या में महाभारत के क्षत्रिय नायकों में एक अर्जुन से भी ज्यादा निपुण था। लेकिन द्रोणाचार्य ने उसका अंगूठा गुरूदक्षिणा के बतौर मांग लिया था। भीलों से लेने का सिलसिला आज भी चल रहा है। बडे़ बांध बनाने के लिए आदिवासियों को ही उजाड़ा जा रहा है।
आदिवासियों के लिए संविधान में कई प्रावधान किए गए हैं। उनके लिए कई योजनाएं और आयोग बनाए जा चुके हैं। उनकी हालत को लेकर कई रिपोर्टें तैयार की जा चुकी हैं। कानून भी बने। लेकिन आदिवासियों का जीवन दिन प्रतिदिन कठिन होता जा रहा है। सवाल उनकी अस्मिता और संस्कृति का है। खेती-किसानी का है। शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति कैसे सुधरेगी। उनकी बेहतरी का सवाल भी मौजूं है।
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Post By: Shivendra