भगीरथ का नाम हमारे देश के इतिहास के शिखर पुरुषों में इसलिए दर्ज है कि वे गंगा को इस धरती पर लाए थे। इस काम के लिए, यानी गंगा इस धारा पर आए, इसमें सफलता पाने के लिए भगीरथ ने सारा जीवन खपा दिया और इस हद तक खपा दिया कि सफलता मिल जाने के बाद उनके नाम के साथ दो चीजें (शायद हमेशा के लिए) जुड़ गई हैं।
एक, गंगा को उनके नाम पर भागीरथी नाम मिल गया और दो, दुनिया में हर उस प्रयास को, उस प्रयत्न को, उस कोशिश को भगीरथ प्रयास या भगीरथ प्रत्यन कहा जाने लग गया, जो प्रयास सचमुच में विपुल हो और जिसे किसी खास बड़े सार्वजनिक हित के लिए किया गया हो।
तो सवाल उठता है कि क्या अयोध्या के इक्ष्वाकुवंशी सम्राट भगीरथ से पहले गंगा इस धरती पर नहीं थी? इस सवाल के पीछे कई कारण हैं। पश्चिम के विद्वानों ने बेशक अफवाह फैला दी हो कि वेदों की रचना भारत के पश्चिमी इलाकों में शुरू हुई, पर हम देख आए हैं कि यह गलत है और मंत्रों के प्रारम्भिक रचयिता चाहे वे खुद विश्वामित्र हों, शुन:शेप हों, दीर्घतमा मामतेय हों या भारद्वाज हों, सभी भारत के पूर्वी इलाकों में, पूर्वांचल में ही हुए और पश्चिम में खासकर सरस्वती, सिन्धु और उनके आसपास की नदियों के और दक्षिण की नदियों के किनारे मंत्र रचना बाद में हुई।
पर ऋग्वेद के प्रारम्भिक मंत्रों में गंगा का नाम नहीं मिलता। गंगा और यमुना का नाम ऋग्वेद में सिर्फ एक मंत्र में आया है-इमं में गंगे यमुने सरस्वति (10.75) और यह सूक्त प्रियमेध के पुत्र सिंधुक्षुत् का बनाया हुआ है, जो काफी नया माना जाता है। इसके अलावा एक नदी सूक्त है, जिसमें गाथी के पुत्र विश्वामित्र ने नदियों के साथ एक शानदार संवाद मंत्रों के रूप में पेश किया है, उसमें गंगा का कोई संकेत तक नहीं है। कुछ विद्वान तो इसे भी बाद का सूक्त मानते हैं, पर इससे हमारी इस निष्कर्ष-आशंका पर कोई असर नहीं पड़ता कि क्या जब मंत्र रचना हुई, तब गंगा इस भारत धारा पर नहीं थी?
पता नहीं, पर भगीरथ के करीब साढ़े पांच-छह सौ वर्ष बाद लिखी गई वाल्मीकि रामायण को (भगीरथ आज से करीब छह हजार पांच-छह सौ वर्ष पूर्व और राम तथा वाल्मीकि रामायण करीब छह हजार वर्ष पूर्व) अगर प्रमाण मान लें, और प्रमाण न मानने का कोई कारण हमारे पास नहीं, तो कहना होगा कि गंगा इस धरती पर भगीरथ ही लाए थे और उनका यह प्रयास अयोध्या राजवंश की दस पीढ़ियों के सतत प्रयास का परिणाम था, जिनमें से भगीरथ के प्रयास सर्वाधिक विपुल, विराट और निर्णायक थे। गंगा के भारत धारा पर आने के बारे में जो विवरण वाल्मीकि रामायण में मिलता है, ठीक वैसा विवरण, थोड़ा संक्षेप में महाभारत में भी मिलता है। विष्णु पुराण में बेशक इस महती घटना की पूर्व भूमिका एक पूरे अध्याय (4.4) में कहने के बाद भागीरथ प्रयास के इतिहास को एक ही गद्य श्लोक (संख्या 35) में समेट दिया है-दिलीपस्य भगीरथ: सोसौ गंगां स्वार्गदिहानीय संज्ञां चकार।
अब थोड़ा घटनाक्रम को जान लिया जाए, पूरी तरह से जान लिया जाए ताकि खरपतवारों को हटाकर फिर साफ सतह तक पहुंचा जा सके। भगीरथ और इनके पूर्वजों द्वारा गंगा जमीन पर लाए जाने के प्रयासों का सबसे पुराना विवरण वाल्मीकि की रामायण में मिलता है। मंत्र लिखने वालों ने इस घटना के बारे में क्यों कुछ नहीं लिखा, कहना कठिन है हालांकि वेदों के मंत्र भगीरथ द्वारा किए गए गंगावतरण के करीब पन्द्रह सौ वर्ष बाद तक भी लगातार लिखे जाते रहे। दो संभावनाएं हो सकती हैं।
एक, कि अधिकतर मंत्रकारों ने जिस कदर अपने को कल्पित देवताओं से, वास्तविक चीजों को भी देवता बनाकर उनकी स्तुति और वर्णन में मंत्र लिखने की कला से बांध लिया था, उसके दबाव में वे इन ऐतिहासिक घटनाओं को अपनी कविता के फ्रेम में प्राय: फिट नहीं कर पाए। दूसरा कारण यह हो सकता है कि अतियथार्थवादी किसी दीर्घतमा मामतेय या कवष ऐलूष ने इस घटना का वर्णन अपने मंत्रकाल में किया भी हो, पर वेदव्यास ने इसे सूक्त (सु+उक्त) यानी शोभन काव्य के दर्जे से नीचे का आंककर संहिता यानी संकलन करते वक्त ऋग्वेद संहिता से बाहर कर दिया हो। कौन कह सकता है?
खैर, वाल्मीकि द्वारा कही गई गाथा की ओर अब आ जाएं, जिसमें से इतिहास की कोई पतली-सी धारा फूटने के संकेत हो सकते हैं। गाथा इस तरह से है। विश्वामित्र के यज्ञ में विघ्न पैदा करने वाले मारीच और सुबाहु का ध्वंस करने के बाद राम और लक्ष्मण ने गुरु से ‘अब आगे क्या करना है’ का दिशानिर्देश मांगा तो विश्वामित्र ने कहा कि मिथिला के राजा जनक के यहां धार्ममय यज्ञ होने वाला है, वहां चलेंगे-मैथिलस्य नरश्रेष्ठ जनकस्य भविष्यति, यज्ञ: परमधार्मिष्ठ: तत्रा यास्यामहे वयम् (वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड, 31.6)। जब वे जनकपुर की ओर चले (जो आजकल बिहार के सीमापार करते ही नेपाल में है) तो पहले सोन नदी पार की, फिर गंगा के किनारे आ गए। वहां विश्वामित्र ने गंगा की प्रशंसा की तो राम ने गंगा का उद्भव पूछा।
वाल्मीकि द्वारा विश्वामित्र के मुंह से कहलवाई कथा के अनुसार राम के ही एक पूर्वज राजा सगर के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा इन्द्र ने चुराकर पाताल में कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया। यादवराज अरिष्टनेमि की पुत्री प्रभा नामक अपनी पत्नी से प्राप्त अपने साठ हजार पुत्रों को सगर ने धरती छानकर घोड़ा ढूंढने का आदेश दिया। वे साठ हजार भाई चारों कोनों में गए। समुद्र के पास जाकर जमीन खोदी, उसे बड़ा कर दिया तो तब से समुद्र का नाम सागर पड़ गया। (याद कराएं कि हम गाथा दोहरा भर रहे हैं)। फिर वे चारों दिशाओं में जाकर जमीन खोदने लगे तो वाल्मीकि रामायण के मुताबिक जब वे पूर्वोत्तर दिशा खोदने लगे (तत: प्रागुत्तारां गत्वा, बालकांड 40.24) और महाभारत के मुताबिक भी पूर्वोत्तर इलाके में (तत: पूर्वोत्तारे देशे, वनपर्व 107.28) पहुंचे तो उन्हें कपिल के आश्रम में घोड़ा बंधा नजर आया। क्रुद्ध राजकुमार कपिल से गाली-गलौज करने लगे तो कपिल ने उन सभी को अपनी योगाग्नि से भस्म कर राख कर दिया।
गंगा का हमारी धरती पर आना इसी राख को पवित्र कर पूर्वजों का उद्धार करने के उस वृहत् संकल्प से जुड़ा है, जो सगर के पौत्र अंशुमान से लेकर भागीरथ ने लगातार संजोया और आखिरकार भगीरथ के भागीरथ प्रयत्नों से पा लिया गया। कुल मिलाकर मामला नौ या दस पीढ़ियों का बन जाता है और जाहिर है कि गंगा को भारतभूमि पर बहाने का प्रयास दो-ढाई या तीन सदियों तक अनवरत चलता रहा होगा। अगर वाल्मीकि रामायण, महाभारत और भागवत महापुराण की कथाओं को मिलाकर पढ़ें तो इन तमाम पीढ़ियों के कुछ राजाओं की तपस्या का लोमहर्षक विवरण मिलता है। इस बात के स्पष्ट हो जाने पर कि सिर्फ गंगा जल के पवित्र स्पर्श से ही ऋषि की योगाग्नि से भस्म सगरपुत्रों का उद्धार हो सकता है, पहले अंशुमान ने, फिर दिलीप ने, और फिर भागीरथ ने गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के लिए भारी तप किया। कुछ मामलों में यह तप हजारों वर्षों तक जा पहुंचता है।
भागीरथ बेचारे पर बहुत बीती। पहले गंगा को पृथ्वी पर आने को मनाने के लिए तप किया, फिर शिव को मनाने को तप किया कि वे गंगा को अपने जटाजूट में समेट लें और फिर उस गंगा को बाहर आने के लिए तप किया, जो शिव की जटाओं में कहीं जाकर छिप गई थीं। जब सब बाधाएं दूर हो गईं तो आगे-आगे भगीरथ का रथ दौड़ा और उसके पीछे-पीछे गंगा का मच्छ-मगर-कच्छपों से भरा पवित्र जल का तेज प्रवाह बह उठा। रथ जाकर वहां रुका जहां आज पूर्वोतर में यानी बंगाल में गंगासागर है और वहां जाकर गंगा समुद्र में मिल गई। सगर के पुत्रों का उद्धार हुआ और भारतवासियों को एक अपूर्व नदी मिल गई-गंगा।
जाहिर है कि गंगावतरण की इस महती ऐतिहासिक घटना को हमारे गाथाकारों ने अपनी खास शैली में हम भारतीयों के दिमाग में दर्ज कर दिया है। आइए, अब कुछ खरपतवार हटाने की कोशिश करें। सगर के साठ हजार पुत्रों को कहा जा सकता है, अनेक पुत्र। यकीनन काफी रहे होंगे, जितने भी रहे हों, काफी पराक्रमी रहे होंगे। जिस तरह उन्होंने विपुल साधना से घोड़ा ढूंढा, उससे लगता है कि वे दुर्दम्य और परम तेजस्वी ही रहे होंगे, जिनके भस्म हो जाने पर उन्हें गंगाजल से छुआने का संकल्प सगर के उत्तराधिकारियों ने धार लिया।
तप का अर्थ है भारी परिश्रम। हजारों वर्षों का अर्थ है लम्बा समय। सगर के सभी उत्तराधिकारियों ने गंगा का प्रवाह मार्ग, यानि हिमालय की उपत्यका से लेकर गंगासागर तक बनाया होगा और इसमें लगी मेहनत का अंदाजा राजस्थान की बीकानेर नहर बनाने वाले जान सकते हैं। काम अब पूरा करना ही है, यह संकल्प सगर से दसवीं पीढ़ी के भागीरथ ने कर लिया और अपना जीवन उसमें खपा दिया। शिव और उनकी जटाओं में गंगा का अवतरण या तो भागीरथ के प्रयासों को दैवीय विराटता देने के इरादे से उनके प्रयासों के साथ जोड़ दिया गया या मनुपूर्व इतिहास के यानी देव-असुर-यक्ष-किन्नर-गंधर्व काल की किसी ज्ञात-अज्ञात-अर्धाज्ञात गाथा के साथ जोड़कर इसे पूरी तरह से पौराणिक जामा पहना दिया गया।
पर इतना तय है कि गंगा के प्रवाह मार्ग का अधिकांश हिस्सा भागीरथ ने ही बनवाया, गंगा को उस मार्ग पर प्रवाहित होने की तमाम बाधाएं भागीरथ ने ही दूर कीं और जब सब सम्पन्न हो गया और हर अवरोध हटाकर गंगा के बहने का काउंटडाउन पूरा हो गया तो क्या ताज्जुब, बल्कि ऐसा हुआ ही कि आगे-आगे आप्तकाम और प्रसन्नवदन भागीरथ का रथ भागा और पीछे-पीछे गंगा का प्रवाह। हिमालय की किसी तराई से लेकर बंगाल के गंगासागर तक का लम्बा रास्ता भगीरथ के लगातार दौड़ते (रुकने का सवाल ही कहां था?) रथ ने कितने दिनों में पूरा किया होगा, इसकी कल्पना कोई भी कर सकता है। इस घटना के बाद हमारे साहित्य में गंगा का खूब वर्णन मिलना शुरू हो जाता है-वेद में भी, रामायण में भी, रामायण के एक हजार साल बाद लिखी महाभारत में भी।
बेशक, वैदिक ऋषियों की तवज्जो इस महती ऐतिहासिक घटना की तरफ न गई हो, पर जिस तरह घटना में भागीरथ की तपस्या को हजारों वर्षों और शिव के जटाजूट में हुए गंगावतरण के साथ जोड़ा गया है, उससे स्पष्ट है कि कृतज्ञ देश ने भगीरथ को, उनके विपुल प्रयासों को, किस कदर सिर माथे पर बिठाया है। इसके बाद तो गंगा हमारा जीवन रस बन गई, गंगा-यमुना संगम प्रकृति का चमत्कार, वरदान सरीखा बन गया।
गंगा किनारे तीर्थों और मन्दिरों का उद्भव होने लग गया और इन सबके ऊपर विराजमान हुई वाराणसी नगरी, जिसे बाबा विश्वनाथ के नाम से ख्यात शिव की नगरी माना गया और हरद्वार (हरिद्वार नहीं) जिसे हर यानी शिव की प्राप्ति का द्वार मानकर तमाम भारत के लोग मृतकों की अस्थियों को जिसमें प्रवाहित करते हैं, करना चाहते हैं।ऐसी गंगा के जल को हर जीवित भारतीय अपने पास रखना चाहता है और मरणोन्मुख भारतीय आखिरी सांस लेने से पहले अपने गले में उतार लेना चाहता है तो भगीरथ के प्रयास को इससे बड़ी और सतत राष्ट्रीय श्रद्धांजलि भला दूसरी कोई हो सकती है?
एक, गंगा को उनके नाम पर भागीरथी नाम मिल गया और दो, दुनिया में हर उस प्रयास को, उस प्रयत्न को, उस कोशिश को भगीरथ प्रयास या भगीरथ प्रत्यन कहा जाने लग गया, जो प्रयास सचमुच में विपुल हो और जिसे किसी खास बड़े सार्वजनिक हित के लिए किया गया हो।
तो सवाल उठता है कि क्या अयोध्या के इक्ष्वाकुवंशी सम्राट भगीरथ से पहले गंगा इस धरती पर नहीं थी? इस सवाल के पीछे कई कारण हैं। पश्चिम के विद्वानों ने बेशक अफवाह फैला दी हो कि वेदों की रचना भारत के पश्चिमी इलाकों में शुरू हुई, पर हम देख आए हैं कि यह गलत है और मंत्रों के प्रारम्भिक रचयिता चाहे वे खुद विश्वामित्र हों, शुन:शेप हों, दीर्घतमा मामतेय हों या भारद्वाज हों, सभी भारत के पूर्वी इलाकों में, पूर्वांचल में ही हुए और पश्चिम में खासकर सरस्वती, सिन्धु और उनके आसपास की नदियों के और दक्षिण की नदियों के किनारे मंत्र रचना बाद में हुई।
पर ऋग्वेद के प्रारम्भिक मंत्रों में गंगा का नाम नहीं मिलता। गंगा और यमुना का नाम ऋग्वेद में सिर्फ एक मंत्र में आया है-इमं में गंगे यमुने सरस्वति (10.75) और यह सूक्त प्रियमेध के पुत्र सिंधुक्षुत् का बनाया हुआ है, जो काफी नया माना जाता है। इसके अलावा एक नदी सूक्त है, जिसमें गाथी के पुत्र विश्वामित्र ने नदियों के साथ एक शानदार संवाद मंत्रों के रूप में पेश किया है, उसमें गंगा का कोई संकेत तक नहीं है। कुछ विद्वान तो इसे भी बाद का सूक्त मानते हैं, पर इससे हमारी इस निष्कर्ष-आशंका पर कोई असर नहीं पड़ता कि क्या जब मंत्र रचना हुई, तब गंगा इस भारत धारा पर नहीं थी?
पता नहीं, पर भगीरथ के करीब साढ़े पांच-छह सौ वर्ष बाद लिखी गई वाल्मीकि रामायण को (भगीरथ आज से करीब छह हजार पांच-छह सौ वर्ष पूर्व और राम तथा वाल्मीकि रामायण करीब छह हजार वर्ष पूर्व) अगर प्रमाण मान लें, और प्रमाण न मानने का कोई कारण हमारे पास नहीं, तो कहना होगा कि गंगा इस धरती पर भगीरथ ही लाए थे और उनका यह प्रयास अयोध्या राजवंश की दस पीढ़ियों के सतत प्रयास का परिणाम था, जिनमें से भगीरथ के प्रयास सर्वाधिक विपुल, विराट और निर्णायक थे। गंगा के भारत धारा पर आने के बारे में जो विवरण वाल्मीकि रामायण में मिलता है, ठीक वैसा विवरण, थोड़ा संक्षेप में महाभारत में भी मिलता है। विष्णु पुराण में बेशक इस महती घटना की पूर्व भूमिका एक पूरे अध्याय (4.4) में कहने के बाद भागीरथ प्रयास के इतिहास को एक ही गद्य श्लोक (संख्या 35) में समेट दिया है-दिलीपस्य भगीरथ: सोसौ गंगां स्वार्गदिहानीय संज्ञां चकार।
अब थोड़ा घटनाक्रम को जान लिया जाए, पूरी तरह से जान लिया जाए ताकि खरपतवारों को हटाकर फिर साफ सतह तक पहुंचा जा सके। भगीरथ और इनके पूर्वजों द्वारा गंगा जमीन पर लाए जाने के प्रयासों का सबसे पुराना विवरण वाल्मीकि की रामायण में मिलता है। मंत्र लिखने वालों ने इस घटना के बारे में क्यों कुछ नहीं लिखा, कहना कठिन है हालांकि वेदों के मंत्र भगीरथ द्वारा किए गए गंगावतरण के करीब पन्द्रह सौ वर्ष बाद तक भी लगातार लिखे जाते रहे। दो संभावनाएं हो सकती हैं।
एक, कि अधिकतर मंत्रकारों ने जिस कदर अपने को कल्पित देवताओं से, वास्तविक चीजों को भी देवता बनाकर उनकी स्तुति और वर्णन में मंत्र लिखने की कला से बांध लिया था, उसके दबाव में वे इन ऐतिहासिक घटनाओं को अपनी कविता के फ्रेम में प्राय: फिट नहीं कर पाए। दूसरा कारण यह हो सकता है कि अतियथार्थवादी किसी दीर्घतमा मामतेय या कवष ऐलूष ने इस घटना का वर्णन अपने मंत्रकाल में किया भी हो, पर वेदव्यास ने इसे सूक्त (सु+उक्त) यानी शोभन काव्य के दर्जे से नीचे का आंककर संहिता यानी संकलन करते वक्त ऋग्वेद संहिता से बाहर कर दिया हो। कौन कह सकता है?
खैर, वाल्मीकि द्वारा कही गई गाथा की ओर अब आ जाएं, जिसमें से इतिहास की कोई पतली-सी धारा फूटने के संकेत हो सकते हैं। गाथा इस तरह से है। विश्वामित्र के यज्ञ में विघ्न पैदा करने वाले मारीच और सुबाहु का ध्वंस करने के बाद राम और लक्ष्मण ने गुरु से ‘अब आगे क्या करना है’ का दिशानिर्देश मांगा तो विश्वामित्र ने कहा कि मिथिला के राजा जनक के यहां धार्ममय यज्ञ होने वाला है, वहां चलेंगे-मैथिलस्य नरश्रेष्ठ जनकस्य भविष्यति, यज्ञ: परमधार्मिष्ठ: तत्रा यास्यामहे वयम् (वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड, 31.6)। जब वे जनकपुर की ओर चले (जो आजकल बिहार के सीमापार करते ही नेपाल में है) तो पहले सोन नदी पार की, फिर गंगा के किनारे आ गए। वहां विश्वामित्र ने गंगा की प्रशंसा की तो राम ने गंगा का उद्भव पूछा।
वाल्मीकि द्वारा विश्वामित्र के मुंह से कहलवाई कथा के अनुसार राम के ही एक पूर्वज राजा सगर के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा इन्द्र ने चुराकर पाताल में कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया। यादवराज अरिष्टनेमि की पुत्री प्रभा नामक अपनी पत्नी से प्राप्त अपने साठ हजार पुत्रों को सगर ने धरती छानकर घोड़ा ढूंढने का आदेश दिया। वे साठ हजार भाई चारों कोनों में गए। समुद्र के पास जाकर जमीन खोदी, उसे बड़ा कर दिया तो तब से समुद्र का नाम सागर पड़ गया। (याद कराएं कि हम गाथा दोहरा भर रहे हैं)। फिर वे चारों दिशाओं में जाकर जमीन खोदने लगे तो वाल्मीकि रामायण के मुताबिक जब वे पूर्वोत्तर दिशा खोदने लगे (तत: प्रागुत्तारां गत्वा, बालकांड 40.24) और महाभारत के मुताबिक भी पूर्वोत्तर इलाके में (तत: पूर्वोत्तारे देशे, वनपर्व 107.28) पहुंचे तो उन्हें कपिल के आश्रम में घोड़ा बंधा नजर आया। क्रुद्ध राजकुमार कपिल से गाली-गलौज करने लगे तो कपिल ने उन सभी को अपनी योगाग्नि से भस्म कर राख कर दिया।
गंगा का हमारी धरती पर आना इसी राख को पवित्र कर पूर्वजों का उद्धार करने के उस वृहत् संकल्प से जुड़ा है, जो सगर के पौत्र अंशुमान से लेकर भागीरथ ने लगातार संजोया और आखिरकार भगीरथ के भागीरथ प्रयत्नों से पा लिया गया। कुल मिलाकर मामला नौ या दस पीढ़ियों का बन जाता है और जाहिर है कि गंगा को भारतभूमि पर बहाने का प्रयास दो-ढाई या तीन सदियों तक अनवरत चलता रहा होगा। अगर वाल्मीकि रामायण, महाभारत और भागवत महापुराण की कथाओं को मिलाकर पढ़ें तो इन तमाम पीढ़ियों के कुछ राजाओं की तपस्या का लोमहर्षक विवरण मिलता है। इस बात के स्पष्ट हो जाने पर कि सिर्फ गंगा जल के पवित्र स्पर्श से ही ऋषि की योगाग्नि से भस्म सगरपुत्रों का उद्धार हो सकता है, पहले अंशुमान ने, फिर दिलीप ने, और फिर भागीरथ ने गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के लिए भारी तप किया। कुछ मामलों में यह तप हजारों वर्षों तक जा पहुंचता है।
भागीरथ बेचारे पर बहुत बीती। पहले गंगा को पृथ्वी पर आने को मनाने के लिए तप किया, फिर शिव को मनाने को तप किया कि वे गंगा को अपने जटाजूट में समेट लें और फिर उस गंगा को बाहर आने के लिए तप किया, जो शिव की जटाओं में कहीं जाकर छिप गई थीं। जब सब बाधाएं दूर हो गईं तो आगे-आगे भगीरथ का रथ दौड़ा और उसके पीछे-पीछे गंगा का मच्छ-मगर-कच्छपों से भरा पवित्र जल का तेज प्रवाह बह उठा। रथ जाकर वहां रुका जहां आज पूर्वोतर में यानी बंगाल में गंगासागर है और वहां जाकर गंगा समुद्र में मिल गई। सगर के पुत्रों का उद्धार हुआ और भारतवासियों को एक अपूर्व नदी मिल गई-गंगा।
जाहिर है कि गंगावतरण की इस महती ऐतिहासिक घटना को हमारे गाथाकारों ने अपनी खास शैली में हम भारतीयों के दिमाग में दर्ज कर दिया है। आइए, अब कुछ खरपतवार हटाने की कोशिश करें। सगर के साठ हजार पुत्रों को कहा जा सकता है, अनेक पुत्र। यकीनन काफी रहे होंगे, जितने भी रहे हों, काफी पराक्रमी रहे होंगे। जिस तरह उन्होंने विपुल साधना से घोड़ा ढूंढा, उससे लगता है कि वे दुर्दम्य और परम तेजस्वी ही रहे होंगे, जिनके भस्म हो जाने पर उन्हें गंगाजल से छुआने का संकल्प सगर के उत्तराधिकारियों ने धार लिया।
तप का अर्थ है भारी परिश्रम। हजारों वर्षों का अर्थ है लम्बा समय। सगर के सभी उत्तराधिकारियों ने गंगा का प्रवाह मार्ग, यानि हिमालय की उपत्यका से लेकर गंगासागर तक बनाया होगा और इसमें लगी मेहनत का अंदाजा राजस्थान की बीकानेर नहर बनाने वाले जान सकते हैं। काम अब पूरा करना ही है, यह संकल्प सगर से दसवीं पीढ़ी के भागीरथ ने कर लिया और अपना जीवन उसमें खपा दिया। शिव और उनकी जटाओं में गंगा का अवतरण या तो भागीरथ के प्रयासों को दैवीय विराटता देने के इरादे से उनके प्रयासों के साथ जोड़ दिया गया या मनुपूर्व इतिहास के यानी देव-असुर-यक्ष-किन्नर-गंधर्व काल की किसी ज्ञात-अज्ञात-अर्धाज्ञात गाथा के साथ जोड़कर इसे पूरी तरह से पौराणिक जामा पहना दिया गया।
पर इतना तय है कि गंगा के प्रवाह मार्ग का अधिकांश हिस्सा भागीरथ ने ही बनवाया, गंगा को उस मार्ग पर प्रवाहित होने की तमाम बाधाएं भागीरथ ने ही दूर कीं और जब सब सम्पन्न हो गया और हर अवरोध हटाकर गंगा के बहने का काउंटडाउन पूरा हो गया तो क्या ताज्जुब, बल्कि ऐसा हुआ ही कि आगे-आगे आप्तकाम और प्रसन्नवदन भागीरथ का रथ भागा और पीछे-पीछे गंगा का प्रवाह। हिमालय की किसी तराई से लेकर बंगाल के गंगासागर तक का लम्बा रास्ता भगीरथ के लगातार दौड़ते (रुकने का सवाल ही कहां था?) रथ ने कितने दिनों में पूरा किया होगा, इसकी कल्पना कोई भी कर सकता है। इस घटना के बाद हमारे साहित्य में गंगा का खूब वर्णन मिलना शुरू हो जाता है-वेद में भी, रामायण में भी, रामायण के एक हजार साल बाद लिखी महाभारत में भी।
बेशक, वैदिक ऋषियों की तवज्जो इस महती ऐतिहासिक घटना की तरफ न गई हो, पर जिस तरह घटना में भागीरथ की तपस्या को हजारों वर्षों और शिव के जटाजूट में हुए गंगावतरण के साथ जोड़ा गया है, उससे स्पष्ट है कि कृतज्ञ देश ने भगीरथ को, उनके विपुल प्रयासों को, किस कदर सिर माथे पर बिठाया है। इसके बाद तो गंगा हमारा जीवन रस बन गई, गंगा-यमुना संगम प्रकृति का चमत्कार, वरदान सरीखा बन गया।
गंगा किनारे तीर्थों और मन्दिरों का उद्भव होने लग गया और इन सबके ऊपर विराजमान हुई वाराणसी नगरी, जिसे बाबा विश्वनाथ के नाम से ख्यात शिव की नगरी माना गया और हरद्वार (हरिद्वार नहीं) जिसे हर यानी शिव की प्राप्ति का द्वार मानकर तमाम भारत के लोग मृतकों की अस्थियों को जिसमें प्रवाहित करते हैं, करना चाहते हैं।ऐसी गंगा के जल को हर जीवित भारतीय अपने पास रखना चाहता है और मरणोन्मुख भारतीय आखिरी सांस लेने से पहले अपने गले में उतार लेना चाहता है तो भगीरथ के प्रयास को इससे बड़ी और सतत राष्ट्रीय श्रद्धांजलि भला दूसरी कोई हो सकती है?
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