भारतवर्ष में जल क्षेत्र में संवैधानिक प्राविधान तथा अन्तर्राष्ट्रीय एवं अन्तर्राज्यीय जल मतभेद


भारतवर्ष में जल का उपयोग राज्यों के कार्यक्षेत्र के अन्तर्गत आता है। यह सम्भव है, कि किसी राज्य में पूर्णतः प्रवाहित होने वाली नदी के पर्यावरणीय, एवं सामाजिक प्रभाव उदाहरणतः जल संभरण, जल ग्रसनता इत्यादि दूसरे राज्य पर पड़ें। इसके अतिरिक्त किसी राज्य में होने वाली भू-जल निकासी का प्रभाव निकटवर्ती राज्य पर पड़ सकता है। किसी राज्य में प्रवाहित होने वाली नदी पर बनने वाले बाँध के जल प्लावन क्षेत्र की सीमा किसी अन्य राज्य या देश में हो सकती है। जल के क्षेत्र में उपरोक्त समस्त पहलू देश में जल संसाधनों के प्रयोग के लिए परस्पर सहयोग को महत्व प्रदान करते हैं।

भारतीय संविधान के अनुसार राज्य के जल संसाधनों से संबंधित नियम/कानून निर्मित करने का कार्य राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में निहित है। संसद अन्तर्राज्यीय नदियों के नियमन एवं विकास से संबंधित नियमों/कानून निर्मित करने का कार्य करती है। अतः जल के क्षेत्र में संविधानिक प्राविधान राज्य सूची की प्रविष्टि 17, केन्द्र सूची की प्रविष्टि 56 एवं संविधान के अनुच्छेद 262 में निहित हैं। इन प्रावधानों के अनुसार वृहत्त एवं मध्यम सिंचाई, जलशक्ति, बाढ़ नियंत्रण एवं बहुउद्देशीय परियोजनाओं के लिए केन्द्र सरकार की अनुमति लेना अत्यन्तावश्यक है।

जल सम्बन्धी अधिकारों में जल के उपयोग का अधिकार निहित है। भारतीय उपयोगाधिकार अधिनियम (1882) के अनुसार प्राकृतिक वाहिकाओं में प्रवाहित होने वाली नदियों/सरिताओं के जल के एकत्रीकरण, नियमन एवं वितरण का पूर्णाधिकार सरकार के पास है।

अन्तर्राज्यीय नदियों के सम्बन्ध में केन्द्र सरकार की भूमिका एवं शक्तियाँ अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। अन्तर्राज्यीय नदियों के जल के समाकलित विकास के उद्देश्य से भारतवर्ष में संसद द्वारा केन्द्रीय सारणी-1 की प्रविष्टि 56 के अन्तर्गत नदी परिषद अधिनियम (1956) को गठित किया गया है। इस अधिनियम के अनुसार भारत सरकार द्वारा राज्य सरकारों के परामर्श से नदी परिषदों का गठन किया गया है। नदी परिषद अधिनियम के अन्तर्गत गठित नदी परिषदों में बेतवा नदी बोर्ड, ब्रहमपुत्र बोर्ड, बानसागर नियंत्रण बोर्ड, नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण, गंगा बाढ़ नियंत्रण कमीशन सम्मिलित हैं।

भारतवर्ष की अधिकांश वृहत्त नदियाँ अन्तर्राज्यीय हैं। इन अंतर्राज्यीय नदियों के जल के उपयोग, वितरण एवं नियंत्रण हेतु नदी आवाह क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाले राज्यों के मध्य परस्पर मतभेद पाये जाते हैं। अन्तर्राज्यीय जल मतभेदों के समाधान हेतु केन्द्र सरकार द्वारा अन्तर्राज्यीय जल मतभेद अधिनियम 1956 की धारा 3 के तहत राज्य सरकार के अनुरोध पर जल मतभेद के समाधान हेतु जल विवाद प्राधिकरण का गठन किया जाता है। भारत वर्ष में अभी तक गोदावरी, कृष्णा, नर्मदा,कावेरी, रावी एवं व्यास नदियों पर जल विवाद प्राधिकरणों का गठन किया गया है।

भारतवर्ष में प्रवाहित होने वाली कुछ प्रमुख नदियाँ जैसे सिन्धु, गंगा, महाकाली, ब्रह्मपुत्र इत्यादि अन्तर्राष्ट्रीय है। ये नदियाँ भारतवर्ष के अतिरिक्त इसके अन्य पड़ोसी देशों जैसे पाकिस्तान, बंगलादेश, नेपाल, चीन में भी प्रवाहित होती हैं। जिसके परिणाम स्वरूप भारतवर्ष तथा पड़ोसी देशों में परस्पर विवाद पाये जाते है। जिनके समाधान हेतु भारतवर्ष तथा पड़ोसी देशों के मध्य विभिन्न जल संधियाँ जैसे सिन्धु जल संधि, महाकाली जल संधि एवं गंगा जल विभाजन किया गया है।

प्रस्तुत प्रपत्र में जल क्षेत्र में संवैधानिक प्रतिबन्धों एवं जनमानस के जल सम्बन्धी अधिकारों को वर्णित किया गया हैं। इसके अतिरिक्त जल के क्षेत्र में विभिन्न अन्र्राज्यीय मतभेदों एवं उनके समाधानों हेतु गठित प्राधिकरणों उदाहरणतः नर्मदा जल मतभेद प्राधिकरण, यमुना जल प्राधिकरण, कावेरी जल प्राधिकरण इत्यादि के साथ-साथ विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय जल संधियों पर भी प्रकाश डाला गया है।

भारत के जल क्षेत्र में संवैधानिक प्राविधान तथा अन्तरराष्ट्रीय एवं अन्तरराज्यीय जल मतभेद (Constitutional provisions and international & interstate water dispute in India)


सारांश:


भारत में जल का उपयोग राज्यों के कार्यक्षेत्र के अंतर्गत आता है। यह संभव है कि किसी राज्य में पूर्णतः प्रवाहित होने वाली नदी के पर्यावरणीय एवं सामाजिक प्रभाव उदाहरणतः जल संभरण जल ग्रसनता इत्यादि दूसरे राज्य पर पड़ें। इसके अतिरिक्त किसी राज्य में होने वाली भूजल निकासी का प्रभाव निकटवर्ती राज्य पर पड़ सकता है। किसी राज्य में प्रवाहित होने वाली। नदी पर बनने वाले बाँध के जल प्लावन क्षेत्र की सीमा किसी अन्य राज्य या देश में हो सकती है। जल के क्षेत्र में उपरोक्त समस्त पहलू देश में जल संसाधनों के प्रयोग के लिये परस्पर सहयोग को महत्व प्रदान करते हैं। जल के क्षेत्र में संवैधानिक प्राविधान राज्य सूची की प्रविष्टि 17, केन्द्र सूची की प्रविष्टि 56 एवं संविधान के अनुच्छेद 262 में निहित हैं। इन प्रावधानों के अनुसार वृहत एवं मध्यम सिंचाई, जल शक्ति, बाढ़ नियंत्रण एवं बहुउद्देशीय परियोजनाओं के लिये केंद्र सरकार की अनुमति लेना अत्यन्त आवश्यक है। जल संबंधी अधिकारों में जल के उपयोग का अधिकार निहित है। भारतीय उपयोगाधिकार अधिनियम (1882) के अनुसार प्राकृतिक वाहिकाओं में प्रवाहित होने वाली नदियों/सरिताओं के जल के एकत्रीकरण, नियमन एवं वितरण का पूर्णाधिकार सरकार के पास है।

अन्तरराज्यीय नदियों के जल के समाकलित विकास के उद्देश्य से भारत में संसद द्वारा केंद्रीय सारणी 1 की प्रविष्टि 56 के अंतर्गत नदी परिषद अधिनियम (1956) को गठित किया गया है। इस अधिनियम के अनुसार भारत सरकार द्वारा राज्य सरकारों के परामर्श से नदी परिषदों का गठन किया गया है। नदी परिषद अधिनियम के अंतर्गत गठित नदी परिषदों में बेतवा नदी बोर्ड, ब्रह्मपुत्र बोर्ड, बानसागर नियंत्रण बोर्ड, नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण, गंगा बाढ नियंत्रण कमीशन सम्मिलित हैं। भारत की अधिकांश वृहत नदियाँ अन्तरराज्यीय हैं। इन अन्तरराज्यीय नदियों के जल उपयोग, वितरण एवं नियंत्रण हेतु नदी आवाह क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले राज्यों के मध्य परस्पर मतभेद पाये जाते हैं। अन्तरराज्यीय जल मतभेदों के समाधान हेतु केंद्र सरकार द्वारा अन्तरराज्यीय जल मतभेद अधिनियम 1956 की धारा 3 के तहत राज्य सरकार के अनुरोध पर जल मतभेद के समाधान हेतु जल विवाद प्राधिकरण का गठन किया जाता है।

भारत में अभी तक गोदावारी, कृष्णा, नर्मदा, कावेरी, रावी एवं व्यास नदियों पर जल विवाद प्राधिकरणों का गठन किया गया है। भारत में प्रवाहित होने वाली कुछ प्रमुख नदियाँ जैसे सिन्धु, गंगा, महाकाली, ब्रह्मपुत्र इत्यादि अन्तरराष्ट्रीय हैं। ये नदियाँ भारत के अतिरिक्त इसके अन्य पड़ोसी देशों जैसे पाकिस्तान बांग्लादेश नेपाल चीन में भी प्रवाहित होती हैं। जिसके फलस्वरूप भारत तथा पड़ोसी देशों में परस्पर विवाद पाये जाते हैं। जिनके समाधान हेतु भारत तथा पड़ोसी देशों के मध्य विभिन्न जल संधियाँ जैसे सिन्धु जल संधि, महाकाली जल संधि एवं गंगा जल विभाजन किया गया है। प्रस्तुत प्रपत्र में जल क्षेत्र में संवैधानिक प्रतिबंधों एवं जनमानस के जल संबंधी अधिकारों को वर्णित किया गया है। इसके अतिरिक्त जल के क्षेत्र में विभिन्न अन्तरराज्यीय मतभेदों एवं उनके समाधानों हेतु गठित प्राधिकरणों उदाहरणतः नर्मदा जल मतभेद प्राधिकरण, यमुना जल प्राधिकरण, कावेरी जल प्राधिकरण इत्यादि के साथ-साथ विभिन्न अन्तरराष्ट्रीय जल संधियों पर भी प्रकाश डाला गया है।

Abstract


The utilization of water in India comes under the jurisdiction of states. It is possible that environment or social consequences e.g. submergence, waterlogging etc. for a river which flows entirely in one state, may impact to another state. In addition, water withdrawal in a state may also have an impact on groundwater aquifers in the adjacent state. Moreover, operation of a dam may cause inundation in areas beyond the boundaries of the state or nation. All these aspects emphasize the need for co-ordinated approach towards water resources utilization in the country. Under the Indian Constitution, a state government has the power to make laws in respect of water resources of that state. The parliament has the power to legislate the regulation and development of interstate rivers. Thus, the legislative framework of the constitution related to water is based on Entry 17 of the State list, Entry 56 in the Union list, and Article 262 of the Constitution. By virtue of these provision, the major and medium irrigation, hydropower, flood control and multi-purpose projects are required to seek clearance of the central government for inclusion in the national plan. The term “water rights” refers to the right to use water. According to the Indian Easements Act (1882) the government has the sole right to regulate the collection, retention and distribution of water of rivers and streams flowing in natural channels. For inter-state rivers, the power and role of the Government of India is most important. With the objective of promoting integrated development of the water of inter-state rivers, the Parliament of India had enacted the River Boards Act (RBA) 1956, under Entry 56 of List I. This act contemplates the constitution of river boards by the Government of India in consultation with the State Governments. Betwa River Board, Brahmaputra Board, Bansagar Control Board, Narmada Control Authority, Ganga Flood Control Commissions are the example of the River Boards, constituted under River Board Act. Most big rivers in India are inter-state in character. Dispute do arise amongst the basin states regarding utilization, distribution or control of water in these inter-state river. To resolve these disputes, under the provisions of Interstate water dispute act 1956, state government may request the Government of India to refer the dispute to a tribunal for adjudication. So far in India, five tribunals have been set up to adjudicate water dispute namely. Godavari, Krishna, Narmada, Ravi and Beas and Cauvery water dispute tribunals.

जल संबंधी संवैधानिक प्राविधान


भारतीय संविधान के अनुसार राज्य के जल संसाधनों से संबंधित नियम/कानून निर्मित करने का कार्य राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में निहित है। संसद अन्तरराज्यीय नदियों के नियमन एवं विकास से संबंधित नियमों/कानून निर्मित करने का कार्य करती है। अतः राज्य सरकार जल के क्षेत्र में अपने अधिकारों का निष्पादन, संसद द्वारा लागू की गई कुछ सीमाओं के अंतर्गत कर सकती हैं। जल के क्षेत्र में संवैधानिक प्राविधान राज्य सूची की प्रविष्टि 17, केंद्र सूची की प्रविष्टि 56 एवं संविधान के अनुच्छेद 262 में निहित हैं। जिनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है:-

1. राज्य सूची की प्रविष्टि 17 के अनुसार जल जिसके अंतर्गत जल आपूर्ति, सिंचाई एवं नहरें, जल निकासी एवं तटबन्ध, जल संचयन इत्यादि आते हैं वह सूची-1 की प्रविष्टि 56 के प्रावधानों के अंतर्गत आता है।

2. सूची 1 (केन्द्रीय सूची) की प्रविष्टि 56 के प्रावधानों के अनुसार लोकहित में संसद/केंद्र सरकार अन्तरराज्यीय नदियों एवं नदियों के नियमन एवं विकास पर नियंत्रण रखने से सम्बद्ध नियम/कानून को निर्मित करने का कार्य करती हैं।

3. अनुच्छेद 262 के प्रावधानों के अनुसार अन्तरराज्यीय नदियों या नदी घाटियों में उपलब्ध जल के उपयोग, नियंत्रण एवं वितरण संबंधी मतभेदों को दूर करने के लिये नियमों को प्रदान करने का कार्य संसद द्वारा किया जाता है।

यहाँ यह ध्यान रखने योग्य विषय है कि केंद्रीय सूची की प्रविष्टि 56 में प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग संसद द्वारा अधिकांशतः नहीं किया गया है। संसद की सर्वोच्चता को ध्यान में रखते हुए जल को पूर्णतः राज्यों से सम्बद्ध विषय स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसके अतिरिक्त भारत की अधिकांश महत्त्वपूर्ण नदियाँ अन्तरराज्यीय हैं। अतः जल के राज्यीय विषय होने पर भी केंद्र की महत्ता कम नहीं हो पाती। इसके अतिरिक्त प्रविष्टि 17 के प्रावधानों का प्रयोग इस प्रकार किया जाना चाहिए कि अन्य राज्यों के हितों पर कुप्रभाव न पड़े। अन्तरराज्यीय नदियों के संबंध में केंद्र सरकार की भूमिका एवं शक्तियाँ अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। इस संबंध में आर्थिक एवं सामाजिक योजना से संबंधित सूची में प्रविष्टि 20 के प्रावधान भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। इन प्रावधानों के अनुसार वृहत एवं मध्यम सिंचाई, जलशक्ति, बाढ़ नियंत्रण एवं बहुउद्देशीय परियोजनाओं के लिये केंद्र सरकार की अनुमति लेना अत्यन्तावश्यक है।

जल से सम्बद्ध अधिकार


‘जल ही जीवन है’ को ध्यान में रखते हुए जल को जीवन की मूलभूत आवश्यकता के रूप में स्वीकार किया गया है। जल संबंधी अधिकारों में जल के उपयोग का अधिकार निहित है। नदी तटीय तंत्र के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति जिसके पास किसी सरिता के तट पर भूमि है उसे आवश्यकतानुसार जल के उपयोग का पूर्णाधिकार है। इसके साथ-साथ उसका कर्तव्य है कि उसके खेतों से होकर प्रवाहित होने वाले जल की गुणवत्ता एवं मात्रा की हानि न हो।

जल के अधिकारों पर विचार करने की आवश्यकता उस अवस्था में अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है जब जल संसाधनों की उपलब्धता में कमी हो तथा अपने अधिकारों के प्रति उपयोगकर्ता अधिक सजग हों। भारतीय उपयोगाधिकार अधिनियम (1882) के अनुसार प्राकृतिक वाहिकाओं में प्रवाहित होने वाली नदियों/सरिताओं के जल के एकत्रीकरण, नियमन एवं वितरण का पूर्णाधिकार सरकार के पास है। इस अधिनियम के अनुसार कोई कृषक अपने खेतों के लिये आवश्यकतानुसार किसी वाहिका में से उपयुक्त जल की निकासी का अधिकार रखता है। तथापि कुछ समृद्ध कृषक गहरे जलकूप के खनन द्वारा अत्यधिक भूजल की निकासी करते हैं जिसके परिणामस्वरूप उनके निकटवर्ती भू-मालिकों के अधिकारों का हनन होता है। भूजल की अनाधिकृत निकासी को रोकने के लिये केन्द्रीय भूजल परिषद का गठन किया गया है जिससे देश में भूजल की गुणवत्ता एवं अनाधिकृत जल निकासी को नियंत्रित किया जा सके।

 

सारणी 1- अन्तरराज्यीय जल विवरण अधिनियम के अन्तर्गत जल विवाद

नदी

राज्य

प्राधिकरण के गठन की तिथि

निर्णय की तिथि

गोदावरी

महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, उड़ीसा

अप्रैल 1969

जुलाई 1980

कृष्णा

तथैव

तथैव-

मई 1976

नर्मदा

राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र

अक्तूबर 1969

दिसम्बर 1979

कावेरी

केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु एवं केन्द्र शासित प्रदेश पुदुच्चेरी

जून 1990

धारा 5 (2) के अंतर्गत रिपोर्ट प्राप्त। धारा 5 (3) के अंतर्गत राज्य एवं केद्र सरकार द्वारा याचिकाएं प्रस्तुत। रिपोर्ट लंबित

रावी एवं व्यास

पंजाब, हरियाणा

अप्रैल 1986

रिपोर्ट लंबित

कृष्णा (द्वितीय)

महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक

अप्रैल 2004

धारा 5 (2) के अंतर्गत रिपोर्ट लंबित

 

नदी परिषद अधिनियम


अन्तरराज्यीय नदियों के जल के समाकलित विकास के उद्देश्य से भारत में संसद द्वारा केन्द्रीय सारणी 1 की प्रविष्टि 56 के अंतर्गत नदी परिषद अधिनियम (1956) को गठित किया गया है। इस अधिनियम के अनुसार भारत सरकार द्वारा राज्य सरकारों के परामर्श से नदी परिषदों का गठन किया गया है। इन नदी परिषदों के कार्यक्षेत्र के अंतर्गत अन्तरराज्यीय नदी के जल संसाधनों का संरक्षण, सिंचाई एवं निकासी योजनाएँ जल विद्युत शक्ति का विकास, बाढ़ नियंत्रण योजनाएँ, नौकायन का विकास, मृदा कटान एवं प्रदूषण नियंत्रण सम्मिलित हैं। नदी परिषद अधिनियम के अंतर्गत गठित नदी परिषदों में बेतवा नदी बोर्ड, ब्रह्मपुत्र बोर्ड, बानसागर नियंत्रण बोर्ड, नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण, गंगा बाढ़ नियंत्रण कमीशन सम्मिलित हैं।

अन्तरराज्यीय जल मतभेद


भारत की अधिकांश वृहत्त नदियाँ अन्तरराज्यीय हैं तथा उनका आवाह क्षेत्र एक से अधिक राज्यों के अंतर्गत आता है। इन अन्तरराज्यीय नदियों के जल के उपयोग, वितरण एवं नियंत्रण कार्य हेतु नदी आवाह क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले राज्यों के मध्य परस्पर मतभेद उत्पन्न हो जाते हैं। इन मतभेदों में सामान्यतः यह भी देखा जाता है कि जल संसाधनों के नियंत्रण या उपयोग हेतु राज्यों के मध्य परस्पर होने वाले अनुबंधों के कार्यान्वयन हेतु अलग-अलग राज्य द्वारा अनुबंध की अलग-अलग व्याख्या किये जाने के कारण भी मतभेद उत्पन्न होते हैं। वर्तमान में अन्तरराज्यीय नदियों के जल आवंटन के लिये कोई उपयुक्त पद्धति नहीं है तथा राज्यों के मतभेद उत्पन्न होने पर इस कार्य को प्राधिकरणों द्वारा किया जाता है। अन्तरराज्यीय जल मतभेदों के समाधान के लिये ‘हेलसिन्की नियमों’ को निर्मित किया गया है तथा प्राधिकरण जल मतभेदों के समाधान हेतु इन्हीं नियमों का प्रयोग करते हैं।

अन्तरराज्यीय जल मतभेद अधिनियम 1956 के अनुसार राज्यों के मध्य जल मतभेद होने पर केंद्र सरकार द्वारा अधिनियम की धारा 3 के तहत राज्य सरकार के अनुरोध पर जल मतभेद के समाधान हेतु प्राधिकरण का गठन किया जाता है। अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार प्राधिकरण के निर्णय को केंद्र सरकार द्वारा सरकारी राजपत्र में प्रकाशित किया जाता है। प्राधिकरण का नियम अंतिम होता है तथा संबंधित पक्षकारों को इसे स्वीकार करना तथा कार्यान्वित करना चाहिए तथापि यदि राज्य सरकार प्राधिकरण के निर्णय को कार्यान्वयन को स्वीकार नहीं करता तो केंद्र सरकार द्वारा उसे इसके लिये बाध्य नहीं किया जा सकता तथा राज्य सरकार प्राधिकरण के निर्णय को माननीय उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है। अन्तरराज्यीय नदी जल विवाद अधिनियम 1956 के तहत वर्तमान में जल विवादों की स्थिति निम्न है : उपरोक्त जल विवादों में प्रथम तीन जल विवाद प्राधिकरणों (गोदावरी, कृष्णा एवं नर्मदा) द्वारा अपने निर्णय क्रमशः वर्ष 1980, 1976 एवं 1979 में दे दिये गये थे। कावेरी, कृष्णा (द्वितीय) एवं रावी-व्यास जल विवाद प्राधिकरणों के निर्णय अभी लंबित हैं। इन प्राधिकरणों के निर्णय की स्थिति का संक्षिप्त वर्णन निम्न खण्डों में किया गया है।

कावेरी जल विवाद प्राधिकरण: कावेरी जल विवाद पंचाट ने 25 जून 1991 को अंतरिम आदेश पारित किया और फिर अप्रैल 1992 और दिसम्बर 1995 में स्पष्टीकरण आदेश जारी किए। बाद में 5 फरवरी 2007 को पंचाट ने अन्तरराज्यीय नदी विवाद अधिनियम 1956 की धारा 5(2) के अंतर्गत अपनी रिपोर्ट और फैसला दिया। इस रिपोर्ट और निर्णय को सुनाए जाने के पश्चात केंद्र और राज्य सरकारों ने अधिनियम की धारा 5(3) के तहत पंचाट से स्पष्टीकरण और निर्देश के लिये अनुरोध किया है। मामला पंचाट के विचाराधीन है। मामले से संबंद्ध राज्यों ने पंचाट के 5 फरवरी 2007 के निर्णय के विरुद्ध माननीय सर्वोच्च न्यायालय में विशेष अनुमति याचिका दायर की है और अब यह मामला न्यायालयाधीन है।

कृष्णा जल विवाद प्राधिकरण: कृष्णा जल विवाद पंचाट ने संबद्ध राज्यों महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश द्वारा अंतरिम राहत के लिये दायर आवेदन पर 9 जून 2006 का निर्णय सुनाया और अंतरिम राहत प्रदान करने से इंकार करते हुए पंचाट से विवाद का हल प्राप्त करने के लिये कुछ नियमों की ओर इंगित किया। इसके पश्चात आंध्र प्रदेश ने अन्तरराज्यीय नदी जल विवाद अधिनियम 1956 की धारा 5(3) के अंतर्गत संवादात्मक आवेदन दायर किया जिसमें 9 जून 2006 के पंचाट के आदेश के अंतर्गत स्पष्टीकरण/मार्ग निर्देश मांगे गए हैं, यह आवेदन अभी लंबित है। पंचाट ने सितम्बर और अक्तूबर 2006 को हुई सुनवाई में अपने सम्मुख विवाद के हल के लिये 29 मुद्दों की पहचान की है। पंचाट की सुनवाईयाँ अभी जारी हैं।

रावी एवं व्यास जल विवाद प्राधिकरण: रावी और व्यास नदियों के जल पर पंजाब और हरियाणा के दावों पर फैसला देने के लिये पंजाब समझौते (राजीव-लोंगोवाल सहमति-1985) के अनुच्छेद 9.1 और 9.2 के अनुसरण में 1986 में गठित रावी व्यास जल पंचाट ने 30 जनवरी 1987 को अपनी रिपोर्ट पर केंद्र सरकार द्वारा मांगे गये स्पष्टीकरण/मार्ग निर्देशों पर अभी पंचाट को अपनी सरकार को सौंपनी है। पंचाट की कार्यवाही माननीय सर्वोच्च न्यायालय में पंजाब समझौतों के समापन अधिनियम 2004 पर राष्ट्रपति के संदर्भ पर आने वाले निर्णय पर निर्भर हो गई है। सतलज यमुना संपर्क नहर के जरिए रावी-व्यास नदी जल में से हरियाणा का हिस्सा दिया जाना है। पंजाब के क्षेत्र में इस नहर का कार्य पूरा होने के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने 4 जून 2004 को एक निर्णय में केंद्र सरकार को नहर का काम पूरा करने की अपनी कार्ययोजना पर काम करने का निर्देश दिया था। केंद्र सरकार ने आवश्यक कार्यवाही की। किंतु पंजाब विधान सभा ने 12 जुलाई 2004 को रावी नदी जल से संबंधित सभी समझौतों और उनके अंतर्गत सभी जिम्मेदारियों को निरस्त करते हुए पंजाब समझौता निरस्तीकरण अधिनियम 2004 लागू कर दिया। इस अधिनियम के बारे में माननीय सर्वोच्च न्यायालय में राष्ट्रपति की ओर से एक संदर्भ दायर किया गया, जिस पर निर्णय अभी लंबित है।

माण्डवी/महादायी जल विवाद तथा वन्सधारा जल विवाद: माण्डवी/महादायी जल विवादों तथा वन्सधारा जल विवाद के संबंध में गोवा तथा उड़ीसा राज्यों द्वारा जुलाई 2004 एवं फरवरी 2006 में केंद्र सरकार से निवेदन किया गया था। इस संबंध में केंद्र सरकार द्वारा यह निर्णय लिया गया है कि इन समस्याओं का समाधान बातचीत द्वारा संभव नहीं है। अतः अन्तरराज्यीय जल विवाद अधिनियम की धारा 5(3) के अनुसार अग्रिम कार्यवाही की जा रही है।

अन्तरराष्ट्रीय सहयोग/संधियाँ:


अन्तरराष्ट्रीय विवादों के समाधान का अत्यधिक प्रभावी मार्ग अन्तरराष्ट्रीय संधियाँ हैं। विभिन्न अन्तरराष्ट्रीय नदियों के विवाद के समाधान हेतु भारत की अपने पड़ोसी देशों के साथ अनेक संधियाँ की गई हैं। जिनका वर्णन निम्न खण्डों में किया गया है।

भारत एवं पाकिस्तान के मध्य सिन्धु जल संधि (1960): वर्ष 1947 में भारत एवं पाकिस्तान के विभाजन के बाद सिंधु नदी बेसिन के उपलब्ध जल संसाधनों के विकास हेतु सिंधु नदी के जल के बँटवारे की आवश्यकता स्वीकार की गई। इस संबंध में दोनों देशों के मध्य दीर्घावधि तक हुई वार्ताओं के पश्चात सितम्बर 1960 में सिंधु नदी समझौते पर हस्ताक्षर किये गये। इस समझौते के अनुसार सिंधु बेसिन के अंतर्गत पश्चिम की ओर प्रवाहित होने वाली तीन नदियों (झेलम, चेनाब एवं सिंधु स्वयं) के जल प्रयोग का अधिकार पाकिस्तान को तथा पूर्व की ओर प्रवाहित होने वाली तीन नदियों (रावी, व्यास एवं सतलुज) के जल प्रयोग का अधिकार भारत को प्राप्त हुआ। इस संधि के अनुसार भारत के ऊपर जल उपयोग के संबंध में कुछ प्रतिबंध लगाये गये। संधि के मुख्य बिंदु निम्न हैं: पाकिस्तान को आवंटित नदियों पर भारत को संचयन जलाशय निर्मित करने की अनुमति प्रदान नहीं की गई, भारत में सिंचाई विकास को विकसित करने पर प्रतिबंध लगाया गया है, संधि के अंतर्गत परियोजना प्रचालन, सिंचित कृषि इत्यादि के विस्तार से संबंधित आंकड़े हस्तांतरित करने का प्रावधान किया गया है।

सिन्धु जल संधि मतभेद समाधान का एक सफल उदाहरण है। यह संधि भारत एवं पाकिस्तान के मध्य राजनीतिक संबंधों के तनावपूर्ण होने के बावजूद भी सफलतापूर्वक कार्यरत है। इसमें संदेह नहीं कि समय-समय पर भारत एवं पाकिस्तान के मध्य कुछ मतभेद उत्पन्न हुए जिनमें मुख्यतः सलाल जल विद्युत परियोजना, तुलबुल नौकायन परियोजनाएँ महत्त्वपूर्ण हैं। जिनका समाधान परस्पर दोनों देशों की सरकारों द्वारा किया गया। दोनों देशों के मध्य एक अन्य मतभेद बगलिहार परियोजना को लेकर उठा था जिसमें पाकिस्तान द्वारा विश्व बैंक द्वारा स्विस विशेषज्ञ प्रोफेसर रेमन्ड लैफिट को मध्यस्थता करने हेतु विशेषज्ञ बनाया गया तथा अन्ततः भारत के पक्ष में इस मतभेद को दूर किया गया। राष्ट्रीय महत्व को देखते हुए वर्ष 2008 में प्रस्तावित बरसर जल विद्युत परियोजना, जिपसा जल विद्युत परियोजना, ऊभ बहुउद्देशीय परियोजना तथा शाहपुर कंडी बाँध परियोजना को राष्ट्रीय परियोजनाओं की सूची में शामिल किया गया है ताकि संधि के अंतर्गत जल संसाधन क्षमता का अधिक प्रयोग किया जा सके। सदभावना के रूप में अग्रिम बाढ़ चेतावनी उपाय हेतु 1 जुलाई 2009 से चिनाब, सतलुज, तवी और रावी नदियों के बाढ़ संबंधी आंकड़े पाकिस्तान को सम्प्रेषित किये जा रहे हैं। ताकि पाकिस्तान समय रहते बाढ़ राहत के प्रयास कर सकें।

महाकाली जल संधि: महाकाली संधि भारत एवं नेपाल के मध्य महाकाली नदी के जल के बंटवारे के लिये वर्ष 1996 में की गई। जल संसाधन विकास के क्षेत्र में सहयोग के लिये केंद्र सरकार विभिन्न स्तरों पर नेपाल सरकार के संपर्क में है। इस संधि का केंद्र बिन्दु पंचेश्वर बहुउद्देशीय परियोजना है जो महाकाली नदी (भारत में शारदा नदी) पर स्थित है। भारत एवं नेपाल संयुक्त विशेषज्ञ समूह इस परियोजना की विस्तृत रिपोर्ट को अंतिम रूप देने के लिये भौतिक और वित्तीय प्रगति पर नजर रख रहा है। इस परियोजना से बाढ़ नियंत्रण सहित विद्युत एवं सिंचाई लाभ भी प्राप्त होंगे।

गंगा जल बंटवारा: भारत एवं बांग्लादेश (1971 तक पूर्वी पाकिस्तान) के मध्य जल विवाद 1960 में उत्पन्न हुआ जब भारत सरकार द्वारा भारत-बांग्लादेश सीमा पर फरक्का बैराज निर्मित करने का निर्णय किया गया। इस बैराज का उद्देश्य शुष्क अवधि में गंगा नदी की भागीरथी-हुगली शाखा में कोलकाता में जल की गहराई में वृद्धि करना था। इसके परिणामस्वरूप दोनों देशों में मतभेद प्रारम्भ हुए। जिसे समाप्त करने के लिये लघु अवधि समझौते हुए पर दोनों देशों के मध्य अंतिम समझौता 12 दिसम्बर 1996 को हुआ। इस समझौते के अनुसार दोनों देशों के मध्य जल का समान बँटवारा किया गया तथा समझौते के अनुसार शुष्क अवधि में 2123.74 क्यूमेक (75000 क्यूसेक) फरक्का नहर जल में से 1132.66 क्यूमेक (40000 क्यूसेक) जल भारत के हिस्से में तथा शेष जल बांग्लादेश के भाग में मिला। कुछ व्यक्ति इस समझौते को तकनीकी समझौते की अपेक्षा राजनीतिक समझौता मानते हैं। यद्यपि दोनों देशों के मध्य मतभेद का समाधान हो चुका है। परंतु कुछ लोगों का विचार है कि यह समझौता सदैव के लिये नहीं है। यह समझौता 30 वर्षों के लिये किया गया है तथा पाँच वर्षों के अंत में इसकी पुनर्वीक्षा की जा सकती है।

भारत चीन संबंध


वर्ष 2002 में भारत सरकार ने बाढ़ के मौसम में चीन द्वारा भारत को यालूजांगबू/ब्रह्मपुत्र नदी के बारे में जल वैज्ञानिक जानकारी उपलब्ध कराने के लिये चीन के साथ एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए। इसके प्रावधानों के अनुसार चीनी पक्ष तीन केंद्रों - नुगेशा, यांग्कुन और नुक्सिया के संबंध में हर वर्ष पहली जून से 15 अक्तूबर तक जल वैज्ञानिक सूचनाएँ उपलब्ध करा रहा है, जिसका उपयोग केंद्रीय जल आयोग बाढ़ पूर्व सूचना के लिये कर रहा है। इस समझौते की अवधि 2007 में समाप्त हो गई। 4-7 जून, 2008 के माननीय भारतीय विदेश मंत्री के बीजिंग के दौरे पर मानसून के दौरान यालूजांग्बू/ब्रह्मपुत्र की जलस्थिति के बारे में भारत को चीनी पक्ष द्वारा सूचना उपलब्ध कराने के संबंध में एक समझौते पर हस्ताक्षर 5 जून को किए गए। इस समझौते की वैधता पाँच वर्ष तक रहेगी। अप्रैल, 2005 में चीनी शासन प्रमुख की भारत यात्रा के दौरान एक अन्य समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये गये जिसमें बाढ़ के मौसम में सतलुज (लांग्क्विन जांग्बू) के संबंध में जल वैज्ञानिक सूचनाओं की आपूर्ति का प्रावधान है। चीनी पक्ष वर्ष 2007 के मानसून से सतलुज नदी (लांगक्विन जांग्बू) पर साडा केंद्र से नदी से संबंधित जल विज्ञान सूचना उपलब्ध करा रहा है। चीन के राष्ट्रपति ने 20 से 23 नवंबर 2006 के दौरान भारत का राजकीय दौरा किया। इस दौरान बाढ़ के मौसम में जल वैज्ञानिक आँकड़ों, आपातकालीन प्रबंधन और सीमाओं के आर-पार की नदियों संबंधी अन्य मसलों पर बातचीत और सहयोग की विशेषज्ञ स्तरीय मशीनरी स्थापित करने की सहमति हुई। तदानुसार दोनों पक्षों ने संयुक्त विशेषज्ञ स्तरीय मशीनरी स्थापित की है। भारतीय पक्ष की ओर से विशेषज्ञ समूह का नेतृत्व जल संसाधन मंत्रालय में आयुक्त कर रहे हैं। चीनी पक्ष का नेतृत्व वहाँ के जल संसाधन मंत्रालय के अंतर्गत अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक एवं तकनीकी सहयोग व विनिमय केंद्र के निदेशक कर रहे हैं।

संदर्भ


1. शरद कुमार जैन, पुष्पेन्द्र कुमार अग्रवाल एवं विजयपाल सिंह, ‘हाइड्रोलॉजी एण्ड वाटर रिसोर्सेज ऑफ इन्डिया’, स्प्रिंगलर प्रकाशन, नीदरलैण्ड (2007).

2. वेबसाइट - htpp://bharti gov.in/sectors/waterresources/international_corp.php

सम्पर्क


पी के अग्रवाल एवं एस के जैन, PK Aggarwal & S K Jain
राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की 247667 (उत्तराखण्ड), जल संसाधन विकास एवं प्रबंधन विभाग, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, रुड़की (उत्तराखण्ड), National Institute of Hydrology, Roorkee 247667 (Uttarakhand)Deptt. of Water Resource Development & Management, Indian Institute of Technology, Roorkee (Uttarakhand)

भारतीय वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान पत्रिका, 01 जून, 2012


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