भारतीय संस्कृति में पर्यावरण और वनों की उपयोगिता


मनुष्य तथा उसके पर्यावरण दोनों परस्पर एक-दूसरे से इतने संबंधित हैं कि उन्हें अलग करना कठिन है। एक प्रकार से मनुष्य प्राकृतिक पर्यावरण का महत्वपूर्ण घटक है। ‘ऋग्वेद’ चारों वेदों में सबसे प्राचीन है, जिसमें सबसे अधिक मनुष्य तथा उसके पर्यावरण को महत्व दिया गया है। ‘ऋग्वेद’ में 10,427 सूक्त तथा ऋक हैं, जो पद्य के रूप में निहित हैं। इसमें जो ऋचाएं हैं, वे सभी ईश्वर की स्तुति के लिए हैं। इसमें देवताओं को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है। भारतीय संस्कृति मूलतः अरण्यक संस्कृति रही है, अरण्य अर्थात् वन्। जन्म से ही मनुष्य का नाता प्रकृति से जुड़ा जाता है। इसी कारण प्रकृति की आराधना तथा पर्यावरण का संरक्षण करना हमारा पुरातन भारतीय चिंतन है। प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व की भावना से युक्त जीवन व्यतीत करने वाले वैदिक ऋषियों ने प्राकृतिक शक्तियों-वसुंधरा, सूर्य, वायु, जल आदि की भावपूर्ण स्तुति की है।

अथर्ववेद के भूमिसूक्त के स्रष्टा वैदिक ऋषि ने सहस्त्रों वर्ष पूर्व उद्घोषित किया था, ‘माता भूमिः पुत्रोSहं पृथिव्याः’ अर्थात् वसुंधरा जननी है, हम सब उसके पुत्र हैं। विश्व में विद्यमान प्रत्येक प्राणी, प्रत्येक वनस्पति एवं प्रत्येक स्पंदनशील प्रजाति पर प्रकृति का बराबर स्नेह है। शायद यही प्रमुख कारण है कि वनों में निवास करने वाले वनवासी-आदिवासी लोगों का पर्यावरण के प्रति आदर व स्नेह सभ्यता की शुरुआत से रहा है।

मनुष्य तथा उसके पर्यावरण दोनों परस्पर एक-दूसरे से इतने संबंधित हैं कि उन्हें अलग करना कठिन है। एक प्रकार से मनुष्य प्राकृतिक पर्यावरण का महत्वपूर्ण घटक है। ‘ऋग्वेद’ चारों वेदों में सबसे प्राचीन है, जिसमें सबसे अधिक मनुष्य तथा उसके पर्यावरण को महत्व दिया गया है। ‘ऋग्वेद’ में 10,427 सूक्त तथा ऋक हैं, जो पद्य के रूप में निहित हैं। इसमें जो ऋचाएं हैं, वे सभी ईश्वर की स्तुति के लिए हैं। इसमें देवताओं को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है- जल, वायु और भूमि देवता। पृथ्वी का अर्थ होता है- पहाड़, पौधे, मरुस्थल, पर्वत, महासागर, नदियां, झीलें, वृक्ष, जीव-जंतु, चट्टानें, खनिज पदार्थ, जलवायु, मौसम और ऋतुएं आदि। स्थली-खंड को भूमि अर्थात् सर्वव्यापी मातृभूमि या मां कहते हैं। यह मनुष्य के कल्याण के लिए सभी प्रकार की चीजें हमें देती हैं। इसे मानव जीवन का अत्यंत महत्वपूर्ण पक्ष माना जाता है। एक प्रकार से मनुष्य पृथ्वी की देन है, परंतु वह उसके बिना जीवित भी नहीं रह सकता। एक ओर पृथ्वी मनुष्य की मां है तो दूसरी ओर वह उसका स्वामी भी है। वैदिक युग में मनुष्य कार्य और मनोरंजन पृथ्वी की शुभकामनाओं एवं आशीर्वाद प्राप्ति के लिए किया करता था, क्योंकि वह उसे अपना घर, परिवार तथा अपना शरीर मानता था।

पौधे और वन मनुष्य के जीवन के लिए अत्यंत उपयोगी हैं, जिनका उपयोग वह आदिकाल से करता आ रहा है। हमारे ऋषियों तथा मुनियों को वृक्षों और वनों के महत्व की अनुभूति थी, जिसके कारण उन्होंने उसे धर्म में सम्मिलित करके मनुष्य द्वारा उनके संरक्षण पर बल दिया। अनेक पौधे, वृक्ष तथा वन्य जीव मनुष्य-जीवन के लिए कितने उपयोगी एवं महत्वपूर्ण हैं, इसे ‘ऋग्वेद’ के ऋषियों ने ज्ञान के रूप में हमारे समक्ष रखा है। वे यह जानते थे कि प्राकृतिक स्रोतों का मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए अत्यंत महत्व है। यदि इन्हें कोई हानि पहुंचती है तो एक तरह से मानव समाज का ही अहित होगा। शायद यही कारण है कि हिंदू परिवारों में पौधे उनके जीवन के आवश्यक अंग के रूप में स्वीकार किए गए, जिसके अंतर्गत अनेक वृक्षों की पूजा के साथ-साथ उनको पूजा की सामग्री के रूप में भी प्रयुक्त किया गया।

 

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कुछ पौधों को औषधि कहकर उन्हें बीमारियों के उपचार हेतु काम में लिया गया। ‘ऋग्वेद’ में पौधों को लगाना एक नियमित कार्य बताया गया है, जिससे पृथ्वी पर स्वर्ग बनता है। पौधों को देवी-देवताओं से भी संबंधित किया गया, जिससे उपयोगी पौधों तथा वृक्षों का संरक्षण हो सके। ‘तुलसी’ को भगवान राम, शिव, विष्णु, कृष्ण, लक्ष्मी तथा जगन्नाथ से जोड़कर उसे महाऔषधि बताया गया। ‘वत्ता’ को ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा काल के रूप में माना गया। ‘अशोक वृक्ष’ को बुध, इंद्र, आदित्य और विष्णु के रूप में अभिहित किया गया। ‘पीपल’ को विष्णु, लक्ष्मी, दुर्गा आदि के रूप में मानकर औषधि के रूप में उसको प्रयुक्त किया गया। इसी तरह ‘आम’ को गोवर्धन, लक्ष्मी तथा बुध के रूप स्वीकार करके इसके पत्तों को पूजा में रखने का प्रावधान और हवन में समिधा के रूप में इसका प्रयोग किया गया। ‘कदंब’ वृक्ष को कृष्ण से और ‘बेल’ को शिव, महेश्वर, दुर्गा, सूर्य और लक्ष्मी से जोड़ा गया। इस औषधि के रूप में भी प्रयुक्त किया गया। पौधों और वृक्षों की धार्मिक रूप से पवित्रता और उसकी उपयोगिता को देखकर उसके संरक्षण पर भी महत्व दिया गया।

प्राचीन काल में हरे वृक्षों को काटना वर्जित था। उस समय का समाज यह भलीभांति जानता था कि पौधों को काटना और वनों को नष्ट करना, मनुष्य के जीवन के लिए अत्यंत हानिकारक है, क्योंकि इनके अभाव में बीमारियां फैलती हैं और पर्यावरण प्रदूषित होता है।

 

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पर्यावरण संरक्षित रह सके, शायद इसीलिये विश्व पृथ्वी दिवस (22 अप्रैल), विश्व ओजोन दिवस (16 सितंबर), वन-महोत्सव दिवस (28 जुलाई) और विश्व पर्यावरण दिवस (5 जून) आदि जैसे महत्वपूर्ण आयोजन निर्धारित कर उनके उद्देश्यों को आम जनता तक पहुंचाकर विश्व स्तर पर पर्यावरण संतुलन एवं संरक्षण के प्रति चेतना/जागृति पैदा करना और विभिन्न उपायों की खोज करना है। विश्व में पर्यावरणीय समस्याओं और प्रदूषण से संबंधित समस्याओं के निराकरण के लिए 5 जून, 1972 को स्वीडन के स्टॉकहोम नगर में एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन द्वारा एक पांच स्तरीय मॉडल तैयार किया गया, जिसके अंतर्गत-

1. ‘भूमंडलीय’ में पृथ्वी (ओजोन परत) के उपायों पर विचार करना
2. ‘महाद्विपीय’ स्तर पर अम्ल वर्षा, विशेष प्रकार के कीटनाशक, हाइड्रोकार्बन का निष्कासन निहित है।
3. ‘आंचलिक’ (नदीय) भूजल स्रोतों का संरक्षण पर विचार
4. ‘धरातलीय’ (क्षेत्रीय) औद्योगिक प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, जनसंख्या वृद्धि तथा अन्य प्रदूषणों पर विचार करना एवं
5. मॉडल में गरीबी व अविकास, आवास, स्वच्छता व स्वास्थ्य संबंधित समस्याओं पर विचार करना।

इस तरह ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ को हम तभी सार्थकता दे सकेंगे जब विश्व स्तर पर आम जनता भी इसके निर्धारित उद्देश्यों को समझकर पर्यावरण संतुलन-संरक्षण करने की चेतना को अपने भीतर जागृत कर सके।

आज प्राकृतिक संसाधनों का दोहन जिस तरह से और जिस स्तर पर किया जा रहा है, उससे पर्यावरण को निरंतर खतरा बढ़ता जा रहा है। देखा जाए तो हमें सब कुछ प्रकृति द्वारा ही दिया गया है। इसीलिये मानव के लिए बेहद उपयोगी तथा प्रकृति द्वारा प्रदत्त संसाधनों को ‘प्राकृतिक संसाधन’ कहा गया है। इनमें से कुछ प्रमुख हैं- जल, वायु, मृदा, खनिज, खाद्य संसाधन और वन संसाधन आदि। प्राकृतिक संसाधन प्रकृति द्वारा निर्मित और प्रकृति से ही हमें प्राप्य हैं। इन्हें ‘नवीनीकरण संसाधन’ और ‘अनवीनीकरण संसाधन’ का नाम भी दिया गया है।

ऐसे संसाधन जिन्हें उपयोग के उपरांत पुनः उत्पादित किया जा सके या जो पुनःप्रयोग में लाए जा सकें, उन्हें ‘नवीनीकरण संसाधन’ कहा जाता है, जैसे- वन, कृषि क्षेत्र, मृदा, जीव-जंतु, सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा आदि। ‘अनवीनीकरण संसाधन’ के अंतर्गत उन संसाधनों को माना जाता है, जो एक बार दोहन करने पर उनकी पुनः पूर्ति या पुनःनिर्माण संभव नहीं हो पाता, क्योंकि उनका निर्माण पृथ्वी की भीतरी सतहों में करोड़ों वर्षों में होता है। ऐसे ‘अनवीनीकरण संसाधनों’ में कोयला, पेट्रोलियम, धातुएं आदि माने जाते हैं। इनके अतिरिक्त ‘मानव संसाधन’ वे हैं, जिन्हें मानव स्वयं प्राकृतिक तत्वों को अपने ज्ञान, श्रम व तकनीकी आधार पर संसाधन के रूप में प्रयुक्त करता है।

 

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पृथ्वी पर प्राकृतिक संसाधनों का वितरण असतत् एवं अनियमित है, जिसका आकलन प्राप्त करने की क्षमता और तकनीकी योग्यता पर निर्भर करता है। बढ़ती जनसंख्या के कारण प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन से प्राकृतिक संसाधनों के भंडार तीव्र गति से कम होते जा रहे हैं, जिसके कारण पर्यावरण न केवल विकृत हो रहा है, बल्कि मानव जाति का अस्तित्व ही खतरे में पड़ता जा रहा है।

एक अनुमान के अनुसार सन् 1990 के दशक में प्रति मिनट लगभग 70 एकड़ वनों का विनाश हो रहा था तथा पिछले तीन दशकों में विश्व के लगभग 20 प्रतिशत वनों का विनाश हमें चिंतातुर बनाए हुए है। वनों के विनाश से एक ओर कई जीव-जातियां न केवल विलुप्त हो गईं और हो रही हैं, उससे कई तरह की समस्याएं भी सामने आने लगी हैं। सुदूर संवेदी उपग्रहों से लिए गए चित्रों से ज्ञात हुआ है कि भारत में प्रतिवर्ष 13 लाख हेक्टेयर भूमि से वन नष्ट हो रहे हैं। वन विभाग की ओर से प्रकाशित वार्षिक रिपोर्ट की अपेक्षा यह दर आठ गुना अधिक है। राष्ट्रीय सुदूर संवेदी अभिकरण ने 10.96 प्रतिशत बंद वन, 3.06 प्रतिशत खराब जंगल तथा 0.081 प्रतिशत समुद्र तटीय वन बताए हैं।आज विकास और पर्यावरण की दृष्टि से ‘वन’ मानव जाति के लिए न केवल उपयोगी हैं, बल्कि वनों का उपयोग मनुष्य अपने हित के लिए सदियों से करता आया है और वर्तमान में उसकी उपयोगिता और बढ़ती जा रही है। प्राचीन समय में मानव अपनी समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति वनों से ही किया करता था, पर सीमा से अधिक उपयोग करने के कारण आज का मानव उनका दुरुपयोग अधिक कर रहा है। कृषि-क्रिया के विकास से वनों के ह्रास में कुछ मात्रा में अंतर तो अवश्य आया है, पर चूंकि वृक्षों का उगना स्वाभाविक क्रिया है, अतः कम या सीमित मात्रा में कटाई होने पर वनों का विनाश नहीं होता। पर जनसंख्या में निरंतर वृद्धि होने से आधुनिक समय में मानव द्वारा उपयोगी वस्तुओं की आवश्यकताएं भी बढ़ गई हैं।

अतः वनों का अत्यधिक तीव्र गति से दोहन व विनाश हो रहा है। एक और तथ्य यह भी है कि यदि हम वनों का सीमित मात्रा में तथा सोच-समझकर उपयोग करें तो हमें वनों से दीर्घकाल तक लाभ व उपयोगिता में संवृद्धि हो सकती है।

आइए, वनों के विनाश और प्रकृति से निर्वनीकरण पर कुछ दृष्टि डालें। एक अनुमान के अनुसार सन् 1990 के दशक में प्रति मिनट लगभग 70 एकड़ वनों का विनाश हो रहा था तथा पिछले तीन दशकों में विश्व के लगभग 20 प्रतिशत वनों का विनाश हमें चिंतातुर बनाए हुए है। वनों के विनाश से एक ओर कई जीव-जातियां न केवल विलुप्त हो गईं और हो रही हैं, उससे कई तरह की समस्याएं भी सामने आने लगी हैं। सुदूर संवेदी उपग्रहों से लिए गए चित्रों से ज्ञात हुआ है कि भारत में प्रतिवर्ष 13 लाख हेक्टेयर भूमि से वन नष्ट हो रहे हैं। वन विभाग की ओर से प्रकाशित वार्षिक रिपोर्ट की अपेक्षा यह दर आठ गुना अधिक है। राष्ट्रीय सुदूर संवेदी अभिकरण ने 10.96 प्रतिशत बंद वन, 3.06 प्रतिशत खराब जंगल तथा 0.081 प्रतिशत समुद्र तटीय वन बताए हैं। ‘बंद वन’ उन्हें माना गया है, जिनमें वन क्षेत्र 30 प्रतिशत भूमि को ढंकता है, परंतु अंतरराष्ट्रीय मापक में ‘बंद वन’ 40 प्रतिशत भूमि ढंकता है। देश में सन् 1952 की राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार पर्वतीय क्षेत्रों की 60 प्रतिशत भूमि तथा देश का कुल 33 प्रतिशत भाग वनों से ढका होना चाहिए। इस तथ्य को केवल अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर तथा अंडमान निकोबार द्वीप समूह ही पूरा करते हैं। वन-विनाश में मध्य प्रदेश सबसे अग्रणी प्रदेश है। यहां 20 लाख हेक्टेयर क्षेत्र के जंगल नष्ट हो चुके हैं। महाराष्ट्र में 10 लाख हेक्टेयर, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश एवं जम्मू-कश्मीर में 10-10 लाख हेक्टेयर और हिमाचल प्रदेश व राजस्थान में 5-5 लाख हेक्टेयर क्षेत्र के जंगल नष्ट हो चुके हैं। इन सबका प्रमुख कारण है- खनन क्रिया के दौरान वनों को काटना, औद्योगिक क्षेत्रों की वृद्धि, इमारती व जलाऊ लकड़ी की आवश्यकता, कृषि कार्यों के लिए भूमि की आवश्यकता, परिवहन साधनों के लिए सड़क व रेल मार्ग आदि का निर्माण, बांध व पुल आदि के विभिन्न निर्माण कार्य, कागज उद्योग की वृद्धि, वनों से कच्चे माल का दोहन और वनों को निजी स्वार्थों के लिए काटना आदि-ये सब ऐसे तथ्य हैं, जिनके कारण मनुष्य और जीव-जंतुओं पर इसके दुष्प्रभाव दिखाई देने लगे हैं। इनमें कुछ प्रमुख हैं-वन्य जीव-जंतुओं के आवासों का नष्ट होना, तीव्र गति से मृदा अपरदन का होना, कृषि-योग्य भूमि का विनाश, पशुओं के चारे का अभाव, घास के मैदानों की कमी, उद्योगों के लिए कच्चे माल का अभाव, विभिन्न औषधियों के अतिरिक्त गोंद, रेजिन, रबड़ आदि की मात्रात्मक कमी, वर्षा के स्तर में घटत और पर्यावरण में असंतुलन की स्थिति का सामना।

 

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वन-ह्रास को रोका जाना चाहिए। इसके लिए हर तरफ से पहल जरूरी है। इसे रोकने के लिए कुछ प्रमुख उपाय निम्न प्रकार हैं-

1. ईंधन की लकड़ी के स्थान पर रसोई घरों में वैकल्पिक ऊर्जा का प्रबंधन हो।
2. इमारती लकड़ी के फर्नीचर के स्थान पर लोहे या अन्य धातुओं से फर्नीचर सामग्री का निर्माण किया जाए।
3. पर्यावरण की सुरक्षा की दृष्टि से दुर्लभ किस्म के वृक्षों की कटाई पर प्रतिबंध हो?
4. वनों पर आधारित उद्योग-धंधों में कच्चे माल की पूर्ति के लिए सामाजिक वानिकी योजनाओं को क्रियान्वित करना।
5. सामाजिक-वानिकी, कृषि वानिकी तथा वन खेती से वनों के क्षेत्रफल की आपूर्ति की जाए।
6. स्थानांतरणशील कृषि (झूमिंग कृषि) पर प्रतिबंध लगाया जाए।
7. चरागाहों के क्षेत्र संकुचन पर रोक लगाई जाए।
8. शवों की दाह-क्रिया में प्रयोग की जाने वाली लकड़ी के विकल्प के रूप में विद्युत या सी.एन.जी. शवदाह गृहों का निर्माण करके लोगों में आधुनिक चेतना की संवृद्धि की जाए।
9. होली, लोहड़ी, तथा अन्य त्योहारों के समय लकड़ी को व्यर्थ न जलाया जाए। इसके लिए लोगों की धार्मिक भावनाओं व सांस्कृतिक मान्यताओं को बदलने के लिये पहल की जाए।
10. पशु संख्या नियंत्रित की जाए और वन्य जीवों के संरक्षण के लिए अभ्यारण्यों का विकास कर दोहरा लाभ प्राप्त किया जाए।
11. ढालू भूमि पर वृक्षों की कटाई को रोका जाए।
12. कृषि-योग्य भूमि के विस्तार के लिए अनावश्यक तौर पर वनों के ह्रास को रोका जाए। इसके लिए कड़े कानून बनाकर उनका सख्ती से पालन भी किया जाए।
13. ऐसी नदी घाटी परियोजनाओं तथा बांध-पुलों आदि की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए जिनके कारण वन क्षेत्र डूब जाता है। ।
14. वृक्षों की चयनात्मक कटाई तथा शेष रहे जंगलों की रक्षार्थ वनों के ह्रास को रोका जाए।
15. प्राकृतिक वन क्षेत्रों के स्थान पर वृक्ष तथा फलों के उद्यान लगाने से भी वन-विनाश पर अंकुश लगाया जा सकेगा और मानव को रसीले व स्वास्थ्यवर्धक फलों की प्राप्ति भी होगी। हिमाचल प्रदेश में सेब की खेती से वनों के ह्रास में वृद्धि और सेबों की पैकिंग करने के लिए वृक्षों की कटाई की जाती है, जिस पर रोक लगे तथा उसके अन्य विकल्प ढूंढे जाएं।
16. वनों की रक्षा के लिए सामाजिक आंदोलनों को संगठित रूप से चलाया जाए। गढ़वाल, हिमाचल में श्री सुंदरलाल बहुगुणा द्वारा चलाया गया ‘चिपको आंदोलन’ एक ऐसा ही जन-आंदोलन है, जिसकी महत्ता को हर कोण से समझा जाना चाहिए।
17. वनों के महत्व और उसकी उपयोगिता बताने के लिए जनसाधारण में विज्ञापनों एवं जन-संचार माध्यमों द्वारा जागृति और चेतना का प्रादुर्भाव किया जाए। ‘तरु देवो भव’ जैसी उक्तियों का सहारा लेकर हम निश्चित ही वन ह्रास को रोकने में कुछ सफलता अवश्य ही प्राप्त कर सकेंगे।

 

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वनों के विनास से यूं तो सभी प्रभावित होते हैं, पर इसका दुष्प्रभाव आदिवासियों पर सर्वाधिक होता है. बांधों के निर्माण तथा वन-विनाश से आदिवासी जनसंख्या न केवल प्रभावित होती है, बल्कि उनको मानसिक यंत्रणा भी झेलनी पड़ती है। प्रायः सघन वन, घास के मैदान अथवा दुर्गम प्राकृतिक परिवेश में आदिवासी निवास करते हैं, जिनका वनों से अटूट संबंध होता है। इनकी दैनिक जीवन की अधिकांश आवश्यकताएं भी वनों से ही पूरी होती हैं। वन्य-प्राणियों का आखेट तथा वनों से एकत्रित फल व कंदमूल इनका भोजन होता है। इनके आवास, वृक्षों की शाखाओं की टहनियों से तैयार किए जाते हैं। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि आदिवासियों का जीवन पूर्णतः प्राकृतिक वनों पर निर्भर होता है और वनों के कटाव से निश्चित ही उनका जीवनयापन कठिन हो जाता है।

मनुष्य अपनी दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए वनों को काटता जा रहा है। वनों के कटाव से कृषि क्षेत्र की मिट्टी ढीली हो जाती है। मूसलाधार वर्षा बाढ़ का सबब बनती है और भूस्खलन भी होता है। वनों के कटते जाने से वर्षा भी समय पर नहीं होती। अतः इनके कटाव पर प्रतिबंध होना ही चाहिए। इसका एक उपाय और भी है कि वनों के काटने से पहले नए वनों की स्थापना की जाए। खाली स्थानों पर वृक्ष लगाए जाएं और जन सहयोग के आधार पर समय-समय पर वन महोत्सव मनाए जाएं।वन एवं वन्य जीवन की दयनीय दशा में सुधार और विकास के लिए भारत में अब पुनः जागृति उत्पन्न हुई है। सरकार एवं स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा देश में वन एवं वन्य जीवों के प्रबंधन हेतु अनेक योजनाएं और कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। वास्तव में वन एवं वन्य जीवों का बहुत गहरा संबंध है। क्योंकि वन ही वन्य जीवों के शरण स्थल हैं। यहीं वन्य जीव सुरक्षा और अपना भोजन प्राप्त करते हैं। भारत सरकार ने इस महान कार्य के लिए ही पर्यावरण मंत्रालय की स्थापना की है, जिसके द्वारा अनेक कानून बनाए गए हैं। इस पुनीत कार्य के लिए राज्य सरकारों को भी सलाह, वित्त सहयोग और प्रोत्साहन दिया जाता है।

वनों से हमें असंख्य उत्पाद प्राप्त होते हैं, जिन्हें उन्हें बनाने और उनके निरंतर रूप में उपलब्ध होने की सुनिश्चित करना ही वन क्षेत्रों के प्रबंधन के अंतर्गत आता है। पर्यावरण के सिद्धांतों के अनुसार औद्योगिक काष्ठ तथा इमारती काष्ठ वाले वृक्षों का स्थायीकरण, उनकी वृद्धि और विकास आदि का अध्ययन ‘वन वर्धन’ के अंतर्गत किया जाता है। भारत में टीक, चीड़, साल, शीशम आदि के कृत्रिम वन भी लगाए जाते हैं। वन-प्रबंधन के अंतर्गत कुछ महत्वपूर्ण उद्देश्यों को सम्मिलित कर उसे पुख्ता बनाने के प्रयास किए जाते हैं। इसके अंतर्गत वनों में उपयोगी काष्ठ तथा आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण वृक्षों को उन्नत करना एवं उनकी संख्या में वृद्धि करना सम्मिलित है। वन में जल-चक्र को सुचारू रूप से बनाए रखने के साथ-साथ वन क्षेत्रों में खुले चरागाहों को विकसित कर उन पर नियंत्रित चराई का प्रबंधन किया जाता है। वन्य पादपों तथा जंतुओं का संरक्षण करना तथा उनकी संख्या बढ़ाने के समुचित उपाय करने के साथ इस बात का विशेष प्रबंधन करना कि कोई भी वन्यजीव संकटग्रस्त न होने पाए। वनों के प्राकृतिक सौंदर्य को बनाना तथा वनों में मानव के हस्तक्षेप को नियंत्रित करना भी वन प्रबंधन का मुख्य उद्देश्य है।

वन्य जंतुओं के विनाश से पारितंत्र का प्राकृतिक संतुलन बिगड़ जाता है तथा उत्पादक-उपभोक्ता आदि में उचित संतुलन भी नहीं रह पाता, जो पर्यावरण के लिए हानिकारक है। वन्य-जंतुओं का वाणिज्यिक महत्व सर्वविदित है।

विश्वभर में प्रतिवर्ष असंख्य मिलियन टन मछलियों का भोजन के रूप में उपयोग किया जाता है, जिसका मूल्य करोड़ों रुपए हैं। मृत-जंतुओं के व्यापार से भी करोड़ों रुपए की विदेशी मुद्रा कमाई जाती है। वन्य-जंतुओं पर अनेक प्रकार के अनुसंधान किए जाते हैं। इन पर ही विभिन्न प्रकार की औषधियों का सर्वप्रथम परीक्षण किया जाता है। नए-नए प्रतिरक्षी टीकों का प्रभाव ज्ञात करने के लिए सर्वप्रथम जंतुओं पर ही परीक्षण करते हैं, तत्पश्चात् उनका उपयोग मानव के लिए किया जाता है। वन्य जीवन का प्राकृतिक सौंदर्य मनमोहक तो होता ही है, जो सभी को अपनी ओर आकर्षित करता है। विदेशी पर्यटक तथा हमारे देशवासी प्रकृति का आनंद लेने एवं वन्य जीवों को देखने के लिए अक्सर यात्राएं करते हैं। इससे हमें विदेशी मुद्रा भी प्राप्त होती है।

 

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मनुष्य अपनी दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए वनों को काटता जा रहा है। वनों के कटाव से कृषि क्षेत्र की मिट्टी ढीली हो जाती है। मूसलाधार वर्षा बाढ़ का सबब बनती है और भूस्खलन भी होता है। वनों के कटते जाने से वर्षा भी समय पर नहीं होती। अतः इनके कटाव पर प्रतिबंध होना ही चाहिए। इसका एक उपाय और भी है कि वनों के काटने से पहले नए वनों की स्थापना की जाए। खाली स्थानों पर वृक्ष लगाए जाएं और जन सहयोग के आधार पर समय-समय पर वन महोत्सव मनाए जाएं।

पर्यावरण को बनाए रखने के लिए वन संरक्षण की अनेक विधियां निर्धारित की गई हैं। इनमें से कुछ निम्न प्रकार हैं- भारतवर्ष में कुल वन क्षेत्रफल के एक-तिहाई भाग में ऊंचे तथा विशालकाय वृक्ष नहीं है। अतः इन क्षेत्रों में इनका अधिक संख्या में रोपण करके वन आवरण की सघनता को बढ़ाया जा सकता है। साथ ही अयोग्य भूमि में वृक्ष लगाकर वन आवरण में वृद्धि की जा सकती है। अम्लीय, क्षारीय, जलाक्रांत मृदा में सुधार करके वृक्षारोपण में पहल की जा सकती है और मृदा के वनस्पति आवरण में वृद्धि करने के लिए उपयुक्त वर्षों व पादपों की उगाना चाहिए।

जिस स्थान पर लकड़ी का उपयोग ईंधन के रूप में किया जाता है, वहां ईंधन की मितव्ययिता के साथ उपयोग करना चाहिए और वहां इस प्रकार के वृक्ष लगाए जाएं, जिनकी लकड़ी को ईंधन के रूप में प्रयोग किया जा सके। सड़क तथा रेल मार्गों के दोनों ओर, पार्क व कृषि फार्मों के चारों ओर छायादार वृक्ष लगाने चाहिए। इसके अतिरिक्त कॉलेज प्रांगण, प्रशासकीय इमारतों में खाली स्थानों पर छायादार वृक्ष लगाकर उन्हें सौदर्यवर्धक आकार देना चाहिए। ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों जैसे-सौर ऊर्जा, बायोगैस आदि का उपयोग भी किया जाना चाहिए। तथा जल संभ्रमण वाले क्षेत्रों में लगे वृक्षों के काटने पर कड़ा प्रतिबंध होना चाहिए। वनों में आधुनिक विधियों के उपयोग से वृक्षों को रोक आदि पर नियंत्रण किया जाना संभव है। इससे वृक्षों की उन्नत किस्मों, ऊतक संवर्धन आदि से वृक्षों को अधिक स्वस्थ्य व उपयोगी बनाने में सहायाता मिलेगी। वृक्षों की कटाई में कमी तथा नए पौधों की रोपण दर बढ़ाने से भी वृक्षों की संख्या में वृद्धि संभव है। साथ ही उद्योग में काम आने वाले काष्ठ वृक्षों का अधिक-से-अधिक संख्या में रोपण किया जाना चाहिए। इससे हमें निश्चित ही बेहतर परिणाम मिलेंगे।

भारत में यूं तो प्रकृति का साम्राज्य चारों तरफ बिखरा है। यहां अनेक वन्य जीव अभ्यारण्य, राष्ट्रीय उद्यान और पक्षी विहार आदि हैं, जिनके कारण यहां का पर्यावरण अभी भी नियंत्रण में लगता है, पर यह सब संतोषप्रद नहीं है। भारत के कुछ प्रमुख वन्य जीव अभ्यारण्य निम्न प्रकार हैं- बांदीपुर (कर्नाटक), भद्रा (चिकमंगलूर), बोरी (चिकमंगलूर), बोरी (होशंगाबाद, मध्य प्रदेश) चंद्रप्रभा (वाराणसी), दचीगाम (जम्मू-कश्मीर), डामा (सिंहभूम, झारखंड), डांप (आईजोल, मिजोरम, डंडेली (धारवाड़, कर्नाटक), गांधीसागर (मंदसौर, मध्य प्रदेश), गौतमबुद्ध (गया, बिहार), इंटाग्की (कोहिमा, नागालैंड), जलदापारा (जलपाईगुड़ी, पश्चिम बंगाल), कावल (आदिलाबाद, आंध्र प्रदेश), किन्नरसानी (खम्माम, आंध्र प्रदेश, मानस (बरपेटा, असम), मदुमलाई (नीलगिरी, तमिलनाडु), सोमेश्वर (दक्षिण कनारा, कर्नाटक), पंचमढ़ी (होशंगाबाद, मध्य प्रदेश), परवाल (वारंगल, आंध्र प्रदेश), पालामद (पालामद, बिहार), पेरियार (इडुक्की, केरल), रणथंभौर (सवाई माधोपुर, राजस्थान), शिकारी देवी (मंडी, हिमाचल प्रदेश), सोनाईरूपा (तेजपुर, असम) सिंपलीपाल (मयूरभंज, उड़ीसा), तमसा (थाना, महाराष्ट्र), तुंगभद्रा (बेल्लारी, कर्नाटक) आदि भारत के महत्वपूर्ण वन्यजीव अभ्यारण्य हैं।

 

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भारत में राष्ट्रीय उद्यान और पक्षी विहार भी अनेक हैं। उनमें से प्रमुख इस प्रकार हैं- राष्ट्रीय उद्यानों में बांधवगढ़ (मध्य प्रदेश), बांदीपुर (कर्नाटक), बनरेधट्टा (बंगलौर), जिम कार्बेट (नैनीताल), दुधवा (खीरी, उत्तर प्रदेश), गिर फॉरेस्ट (जूनागढ़, गुजरात), कान्हा (मंडला, मध्य प्रदेश), काजीरंगा (असम), नागरहोल (कुर्ग, कर्नाटक), रॉसद्वीप (अंडमान-निकोबार), शिवपुरी (मध्य प्रदेश), वेल्वाडर (भावनगर, गुजरात), हजारीबाग (झारखंड) मुख्य हैं। पक्षी विहारों मे घाना (भरतपुर, राजस्थान), रंगाथिट्टू (मैसूर, कर्नाटक), वेदा-तंगल (चिंगलपेट, तमिलनाडु), मालापट्टी (नेल्लौर), पुष्पावती (चमोली, उत्तराखंड), राजाजी (शिवालिक हिमालय, उत्तराखंड), नंदा-केदार, गोविंद तथा मालन पशु विहार (उत्तराखंड) मुख्य हैं।

मनुष्य जन्म से ही प्रकृति की गोद में अपना विकास व जीवन व्यतीत करता रहा है। वन और धरती पर चारों तरफ फैली हरियाली मानव के जीवन को न केवल प्रफुल्लित करती है, अपितु उसे सुख-समद्धि से संपन्न करके उसे स्वास्थ्य भी प्रदान करती है। वनों का संरक्षण किया ही जाना चाहिए, इसी में पूरी मानव जाति का हित निहित है। वन संरक्षण के लिए सरकारी स्तर पर किए जा रहे कार्यों एवं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जरूरी है कि देश के आम नागरिक भी आगे बढ़कर इसमें अपनी अहम् भूमिका का निर्वहन करें, जिससे हमारी आने वाली संततियां शुद्ध वातावरण में खुशहाल जीवन व्यतीत कर सकें।मानव-जीवन में वनों की महत्ता और उनकी उपयोगिता को स्वीकारते हुए भारत सरकार ने वनों के संरक्षण एवं विकास के लिए राष्ट्रीय वन नीति-1952 की बनाई। इस नीति के अंतर्गत देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के एक-तिहाई भाग पर वन क्षेत्र होना चाहिए, लेकिन देश में अतिशय जनसंख्या की वृद्धि एवं वनों के कटान के कारण वन क्षेत्रों का निरंतर ह्रास होता जा रहा है। सरकारी आंकड़ों को ही यदि आधार माना जाए तो 1951-52 से 1979-80 के मध्य 4238 मिलियन हेक्टेयर वन भूमि आधिकारिक तौर पर गैर वन्य कार्यों (कृषि, उद्योग, परिवहन, सिंचाई, बस्तियों आदि) के लिए स्थानांतरित कर दी गई। फलतः वन संरक्षण के लिए भारत सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम 1980 को लागू किया। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य वनों के कटान अर्थात् वन-भूमि ह्रास को रोकना है। आरक्षित वन क्षेत्र को अनारक्षित या किसी वन क्षेत्र की भूमि को अन्य किसी दूसरे कार्यों में उपयोग हेतु केंद्रीय सरकार की लिखित अनुमति आवश्यक है। इस अधिनियम में ऐसी व्यवस्था भी है कि यदि किन्हीं सार्थक कारणों से वन क्षेत्र की भूमि को दूसरे प्रयोजनार्थ स्थानांतरित करना आवश्यक ही है तो जितने वृक्षों की संख्या में कटाई की गई है, उनसे दुगनी संख्या में वृक्षों का रोपड़ किया जाए।

देखने में आया है कि वनों का लगातार का विदोहन जारी है। फलस्वरूप ‘वन संरक्षण अधिनियम, 1980’ को पुनः 1988 में संशोधित किया गया, जिसके अंतर्गत वन अधिनियम का उल्लंघन करने वालों के विरुद्ध दंडात्मक प्रावधानों को और कड़ा करने के लिए संशोधन किया गया। साथ ही गैरवानिकी उद्देश्य का विस्तार करते हुए चाय व कॉफी बागानों, रबड़, पाम, औषधीय पौधों व गरम मसालों की कृषि को इसमें सम्मिलित किया गया। अधिनियम के अनुसार किसी भी आरक्षित वन या वन भूमि के गैरवानिकी उपयोग की घोषणा से पूर्व केंद्र सरकार का अनुमोदन राज्यों के लिए अनिवार्य कर दिया गया है। इस नियम का सख्ती से पालन किया ही जाना चाहिए। केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं वन्य जीव विभाग द्वारा वनों की सुरक्षा एवं संरक्षण की निगरानी के लिए छह प्रादेशिक कार्यालय स्थापित करने और केंद्र सरकार के सुझाव पर विभिन्न राज्यों एवं संघ शासित क्षेत्रों में पर्यावरण संरक्षण परिषदें स्थापित करने का भी प्रावधान किया गया है।

 

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मनुष्य जन्म से ही प्रकृति की गोद में अपना विकास व जीवन व्यतीत करता रहा है। वन और धरती पर चारों तरफ फैली हरियाली मानव के जीवन को न केवल प्रफुल्लित करती है, अपितु उसे सुख-समद्धि से संपन्न करके उसे स्वास्थ्य भी प्रदान करती है। वनों का संरक्षण किया ही जाना चाहिए, इसी में पूरी मानव जाति का हित निहित है। वन संरक्षण के लिए सरकारी स्तर पर किए जा रहे कार्यों एवं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जरूरी है कि देश के आम नागरिक भी आगे बढ़कर इसमें अपनी अहम् भूमिका का निर्वहन करें, जिससे हमारी आने वाली संततियां शुद्ध वातावरण में खुशहाल जीवन व्यतीत कर सकें।

ई-28, लाजपतनगर, साहिबाबाद, 201005, गाजियाबाद (उ.प्र.)

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Post By: Shivendra
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