भारतीय पथ : अतिभोग नहीं, सदुपयोग से बचेगा जीवन


आज जलवायु परिवर्तन का भारतीय तकाजा यह है कि सरकार और समाज मिलकर एक ओर शिक्षा, कौशल, जैविक कृषि, कुटीर ग्रामोद्योग, सार्वजनिक वाहन, बिना ईंधन वाहन आदि की बेहतरी व संरक्षण में लगे, तो दूसरी ओर धन का अपव्यय रोकें, कचरा कम करें, पलायन व जनसंख्या नियंत्रित करें; फसल उत्पादन पश्चात उत्पाद की बर्बादी न्यूनतम करें। नदियाँ बचाएँ; भूजल भण्डार बढ़ाएँ।

कार्बन बजट एक मसला है और जान माल का नुकसान, दूसरा। उत्सर्जन कटौती तकनीकों को पेटेंट मुक्त और हस्तांतरण को मुनाफा मुक्त रखने की मांग, तीसरा मसला है। दुखद है कि तापमान वृद्धि रोकने के जैसे जीवन रक्षा कार्य में भी दुनिया, मसलों में बँट गई है। भारत, चीन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका ने भी ‘बेसिक’ नाम से अपना एक अलग मंच बना लिया है। तर्क है कि जिसने जितना ज्यादा कार्बन उत्सर्जन किया, उत्सर्जन रोकने का उसका लक्ष्य उतना ही अधिक होना चाहिए। दंड स्वरूप, उसे उतनी अधिक धनराशि कम उत्सर्जन करने वाले और गरीब देशों को उनके नुकसान की भरपाई देनी चाहिए। रियो डि जिनेरियो में हुए प्रथम पृथ्वी सम्मेलन (3 से 14 जून, 1992) से लेकर अब तक यही चल रहा है। इस रार का आधार, ‘प्रदूषण करो, दंड भरो’ का सिद्धांत है।

तकरार का अनुचित आधार


आर्थिक-सामाजिक न्याय की दृष्टि से आप इसे सही मानने को स्वतंत्र हैं, किंतु यह सही है नहीं। क्या पैसे पाकर आप, ओजोन परत के नुकसानदेह खुले छेदों को बंद कर सकते हैं? मूँगा भित्तियां (कोरल रीफ), कार्बन अवशोषित करने का प्रकृति प्रदत्त अत्यंत कारगर माध्यम है। हमारी पृथ्वी पर जीवन का संचार, सबसे पहले मूँगा भित्तियों में ही हुआ। इस नाते ये जीवन की नर्सरी हैं। समुद्र तापमान बढ़ाने के कारण दुनिया, मूँगा भित्तियों का कई लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल खो चुकी है। धरती पर जीवन की नर्सरी कहे जाने वाली मूँगा भत्तियाँ पूरी तरह नष्ट हो जाएँगी, तब जीवन बचेगा, क्या दुनिया की बड़ी से बड़ी अर्थव्यवस्था इसकी गारण्टी दे सकती है?

प्रदूषण जान लेता है। प्रश्न यह है कि आखिरकार कोई प्रदूषक, सिर्फ दंड भरकर किसी की हत्या के अपराध से कैसे मुक्त हो सकता है? यह दीवानी के बजाय, फौजदारी कानून का मामला है। ‘प्रदूषण करो और दंड भरो’ का यही सिद्धांत प्रदूषण रोकने की बजाए, भ्रष्टाचार बढ़ाने वाला सिद्ध हो रहा है। जब तक यह सिद्धांत रहेगा पैसे वाले प्रदूषक मौज करेंगे और गरीब मरेंगे ही मरेंगे। इस सिद्धांत के आधार पर जलवायु परिवर्तन के कारकों पर लगाम लगाना कभी संभव नहीं होगा। जरूरत, इस सिद्धांत को चुनौती देकर, प्रदूषकों की मुश्कें कसने की है। जरूरी है कि एक सीमा से अधिक प्रदूषण को, हत्या के जानबूझकर किए प्रयास की श्रेणी में रखने के राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय कानून बनें। कानून की पालना की पुख्ता व्यवस्था बने। आगे चलकर, धीरे-धीरे प्रदूषण सीमा को घटाकर शून्य पर लाने की समय सीमा तय हो। शून्य प्रदूषण पर पहुँचे उत्पादनकर्ता के लिये प्रोत्साहन प्रावधान भी अभी सुनिश्चित हो। किंतु चित्र यह है कि गरीब और विकासशील देश, आर्थिक आधार पर न्याय मांग रहे हैं। यह हर परिस्थिति, संसाधन और रिश्ते को आर्थिक नजरिए से तोलने के वर्तमान सामाजिक स्वभाव का दुष्परिणाम है। हमें इससे बचना चाहिए।

संकट में साझेदारी का वक्त


जो अंग जितना अधिकतम यत्न कर सकता है, उसे उतनी क्षमता और पूरी ईमानदारी से अधिकतम उतना साझा करना चाहिए। संकट में साझे का सामाजिक सिद्धांत यही है। इसी के आकलन पर पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौता होना चाहिए।

हम याद करें कि योजनाएँ और अर्थव्यवस्थाएँ, उपलब्ध अर्थ के आधार पर चल सकती हैं, पर ‘अर्थ’ यानी पृथ्वी और इसकी जलवायु नहीं। जलवायु परिवर्तन का वर्तमान संकट, अर्थ संतुलन साधने से ज्यादा, जीवन संतुलन साधने का विषय है। स्वयं को एक अर्थव्यवस्था मानकर, यह हो नहीं सकता। हमें पृथ्वी को शरीर और स्वयं को पृथ्वी का एक शारीरिक अंग मानना होगा। प्राण बचाने के लिये अंग एक-दूसरे की प्रतीक्षा नहीं करते। यह प्राकृतिक संरक्षण का सिद्धांत है।

भारत को भी प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए कि दुनिया के दूसरे देश क्या करते हैं? हाँ उन पर नजर रखनी चाहिए। उचित करने को दबाव बनाना चाहिए। किंतु हम यह तभी कर सकते हैं जब पहले हमने खुद उचित कर लिया हो। प्रधानमंत्री ने भारत के उत्सर्जन की स्वैच्छिक कटौती के भारत प्रस्ताव की घोषणा के लिये गाँधी जयंती, 2015 के दिन को चुना। महात्मा गाँधी ने दूसरों से वही अपेक्षा की, जो पहले खुद कर लिया। भारत के पास प्रतीक्षा करने का विकल्प इसलिए भी शेष नहीं है, चूँकि भारत की सामाजिक, आर्थिक और भौगोलिक परिस्थितियाँ अन्य से बहुत भिन्न, विविध और जटिल हैं।

भारतीय परिस्थितियाँ व संकेत


भारत की प्रति वर्ष प्रजनन दर, 1.6 प्रतिशत है। इस दर से वर्ष 2050 तक भारत की आबादी, दुनिया में सबसे ज्यादा 162 करोड़ हो जाएगी। आबादी घनत्व के मामले में भारत, दुनिया के सर्वाधिक आबादी घनत्व वाले पहले 10 देशों में है। भारत में कुपोषितों की जनसंख्या, दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा है। दुनिया की 15 प्रतिशत आबादी विकलांग है, भारत की 20.6 प्रतिशत। आज भारत में विकलांगों की संख्या 2.63 करोड़ है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा तय विकास मानक, कितने समग्र हैं, कितने एकांगी… यह एक अलग बहस का विषय है। किंतु इस पर कोई बहस नहीं है कि विकास मानकों के पैमाने पर भारत, दुनिया के 177 में से 128वें स्थान का देश है।

आर्थिक विषमता का नमूना यह है कि एक ओर, भारत तेजी से बढ़ते खरबपतियों की संख्या वाला देश है, तो दूसरी ओर तेजी से बढ़ती गरीबों की संख्या वाला देश। भारत के एक प्रतिशत अमीरों का इसकी 53 प्रतिशत, पाँच प्रतिशत का 68.6 प्रतिशत और 10 प्रतिशत का 76.3 प्रतिशत दौलत पर कब्जा है। शेष 90 फीसदी के हिस्से में मात्र 23.7 प्रतिशत दौलत है। आर्थिक उदारवाद ने भारत में अपने 25 वर्ष पूरे कर लिये हैं। संकेत हैं कि आर्थिक उदारवाद के परिणामस्वरूप यह खाई पूरी दुनिया में बढ़ रही है, भारत में भी बढ़ेगी। महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी कानून के बावजूद, भारत में बेरोजगारी दर बढ़ी है। बेरोजगारों की संख्या चार करोड़, 47 लाख, 90 हजार जा पहुँची है। भारत के 65 प्रतिशत उद्योग आज पानी की कमी महसूस कर रहे हैं। रोजगार का उम्मीद भरा क्षेत्र यह भी नहीं रहा। उत्तर प्रदेश में चपरासी पद की नौकरी हेतु लाखों तक पहुँची आवेदकों संबंधी खबर और उनकी शिक्षा के स्तर की चर्चा आप तक पहुँची ही होगी। भारत के सकल घरेलू उत्पाद में सेवा क्षेत्र का योगदान बढ़ जरूर रहा है, किंतु भारत में तकनीकी शिक्षा और कुशलता की हालत यह है कि इंजीनियरिंग शिक्षा प्राप्त मात्र एक प्रतिशत स्नातक ही इंजीनियरिंग कर्मचारी के तौर पर नौकरी पा सके हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के मुताबिक, स्कूलों में व्यावसायिक प्रशिक्षण प्राप्त उत्तीर्ण महज 18 प्रतिशत युवाओं को संबंधित क्षेत्र में नौकरियाँ मिल पाईं। इन 18 में से भी मात्र 40 प्रतिशत के पास औपचारिक शर्तों पर नौकरी है। यह हालात तब है कि जब भारत में कुशल मजदूर और व्यावसायिक प्रशिक्षण स्कूल… दोनों की कमी है।


हम भूल गए कि सभ्य होना, सलीकेदार और तमीजदार होना है। इन्हीं कम याद्दाशत वालों के कारण, महात्मा गाँधी ने सभ्यता को असाध्य रोग कहा। मशीनों को जहर मिटाने की जहरीली दवा जैसा माना। बड़े-बड़े ढाँचों की बजाय, छोटे-छोटे ढाँचे और बड़ी-बड़ी मशीनों की बजाय, छोटे से चरखे और कुटीर ग्रामोद्योगों को बेहतर माना। अपने लिये छोटे-छोटे काम चुने।

अकुशल श्रम के लिये कृषि सर्वश्रेष्ठ कार्य क्षेत्र है। भारत की 64 प्रतिशत आबादी अपनी आजीविका के लिये सीधे-सीधे खेती पर निर्भर भी है। किंतु जलवायु परिवर्तन का नतीजा, भारत में बड़ी तेजी के साथ भूगोल परिवर्तन के रूप में आ रहा है। पिछले कुछ सालों में भारत की 90 लाख 45 हजार हेक्टेयर जमीन बंजर हो चुकी है। भारत के 32 फीसदी भूभाग की उर्वरा शक्ति लगातार क्षीण हो रही है। थार रेगिस्तान, पिछले 50 वर्षों में औसतन आठ किलोमीटर प्रति वर्ष की रफ्तार से बढ़ रहा है। थार की रेतीली आंधियाँ, हिमालय से टकराकर उसे भी प्रभावित कर रही है। ग्लेशियर पिघलने की तेज होती रफ्तार वाले हिमालयी इलाकों की बर्फ में रेतीले कण पाए गए हैं। हिमाचल के लाहोल-स्पीति की तर्ज पर कल को हिमालय में कई ठण्डे मरुस्थल और बन जाएँ, तो ताज्जुब नहीं। 2010 के वैश्विक जलवायु संकट सूचकांक में भारत का स्थान, पहले दस देशों में है। वर्ल्ड इकोनॉमी फोरम की पहल पर येल और कोलंबिया विश्वविद्यालय के विशेषज्ञों द्वारा तैयार पर्यावरणीय प्रदर्शन सूचकांक में शामिल कुल 178 देशों की सूची में भारत को 155वें पायदान पर रखकर फिसड्‌डी करार दिया गया। पड़ोसी पाकिस्तान (148) और नेपाल (139) से भी पीछे। चेतावनी देने के लिये ये आँकड़े हैं ही।

हिंसक भविष्य और समाधान


यह स्पष्ट है कि जैसे-जैसे जीवन और आजीविका के साधन घटते जाएँगे, रार बढ़ती जाएगी। आज, महँगाई पर रार है, कल को भूमि, पानी, बिजली जैसे संसाधनों से लेकर अस्पताल में इलाज व रोजगार को लेकर रार बढ़ेगी। अमीर-गरीब, किसान-उद्योगपति, किसान-व्यापारी, सरकार-समाज के वर्ग संघर्ष बढ़ेंगे। रोजगार में आरक्षण के कारण जाति संघर्ष बढ़ेंगे। जलवायु परिवर्तन का यह दौर भारत में भी छीना-झपटी, वैमनस्य, हिंसा और अपराध का नया दौर लाने वाला साबित होगा।

आप फिर सवाल कर सकते हैं कि दुनिया दस अरब मीट्रिक टन कार्बन वायुमंडल में छोड़ती है। भारत, मात्र 54 मीट्रिक टन कार्बन उत्सर्जित करता है। अमीर देश इतना खाना बर्बाद करते हैं कि उससे पूरा उपसंहार अफ्रीका की जरूरत की पूर्ति हो जाए। भारत में खाद्य सुरक्षा के लिये हमें कानून बनाना पड़ा है। अमेरिका वातानुकूलन में इतनी बिजली उपभोग करता है, जितने से पूरे अफ्रीका के एक अरब लोगों के घरेलू विद्युत जरूरतें पूरी की जा सकें। भारत में प्रति व्यक्ति खपत, अमेरिकियों की एक-चौथाई है। भारत की 25 से 28 प्रतिशत आबादी अंधेरे में रही है और क्या करें? खाना छोड़ दें या खनन करना बंद कर दें? बिजली बनाना-जलाना बंद कर दें? रासायनिक खाद को छोड़कर, सिर्फ जैविक खाद के भरोसे बैठ जाएँ? जीवाश्म ईंधन का उपयोग शून्य कर दें अथवा साइकिल व बैलगाड़ी से दफ्तर जाएँ?

दृष्टि बदलने की जरूरत


मेरा कहना है कि आप सिर्फ दृष्टि बदलें। बुखार होने पर हम क्या करते हैं? तीन तरीके अपनाते हैं – पहला पट्‌टी करते हैं, ताकि बुखार इस सीमा तक न पहुँच पाए कि शरीर का कोई अंग ही क्षतिग्रस्त हो जाए। दूसरा तरीका है जाँच कराएँ, दवा खरीदें, इंजेक्शन लगवाएँ आदि। तीसरा तरीका है कि शरीर का शोधन करें। शोधन करने के लिये आधा उपवास करें यानी जो अति इस शरीर के साथ ही है उसका त्याग करें। जितना शरीर को जिंदा रखने के लिये जरूरी है, उतना और वैसा भोजन लें। वैश्विक तापमान वृद्धि भी धरती को एक तरह का बुखार ही है। जलवायु परिवर्तन, इसका एक लक्षण मात्र है। कार्बन उत्सर्जन रोकने की बात करना, पट्टी करने जैसा काम है। जैसे ही पट्‌टी हटेगी, फिर तापमान बढ़ेगा। वैकल्पिक तकनीकों और मशीनों को भर लेना, दवाई व डॉक्टर में पैसा खर्च कर लेने जैसा महँगा, परावलंबी तथा सुविधा जुटा लेने का काम है। क्या अधिक विद्यालय, अधिक अस्पताल, अधिक पुलिस, अधिक कचहरी जुटा लेने से क्रमश: अधिक शिक्षित, अधिक सेहतमंद, अधिक सुरक्षित और अधिक विवादमुक्त हुआ जा सकता है? स्पष्ट है कि यह ऐसा इलाज नहीं है कि फिर कभी बुखार हो ही नहीं। उपभोग की अति की जगह, सदुपयोग को हमेशा की आदत बना लेना, हमेशा आधे उपवास पर रहने जैसा काम है। तब तक यह शोधन कार्य चलता रहेगा, शरीर शोधित होता रहेगा। इसी से गारण्टी है कि फिर धरती और हमारे दोनों के शरीर को फिर कभी बुखार नहीं होगा। यही सर्वश्रेष्ठ है।

शहरों के बसने का आधार, हमेशा से सुविधा होता है। शहरी संस्कृति ने सभ्यता को भी सुविधा का पर्याय मान लिया। भारत में जितनी सुविधा आई, उतना कचरा बढ़ा। भारत में हर रोज करीब 1.60 लाख मीट्रिक टन कचरा होता है। हर भारतीय, एक वर्ष में पॉलीथीन झिल्ली के रूप में औसतन आधा किलोग्राम कचरा बढ़ाता है। ई-बाजार जल्द ही हमारे खुदरा व्यापार को जोर से हिलायेगा, कोरियर सेवा और पैकिंग इंडस्ट्री और पैकिंग कचरे को बढ़ाएगा। जो छूट पर मिले… खरीद लेने की भारतीय उपभोक्ता की आदत, घर में अतिरिक्त उपभोग और सामान की भीड़ बढ़ाएगी और जाहिर है कि बाद में कचरा। सोचिए! क्या हमारी नई जीवनशैली के कारण पेट्रोल, गैस व बिजली की खपत बढ़ी नहीं है? जब हमारे जीवन के सारे रास्ते बाजार ही तय करेगा, तो उपभोग बढ़ेगा ही। उपभोग बढ़ाने वाले रास्ते पर चलकर हम कार्बन उत्सर्जन घटा सकते हैं?

क्या है गाँधी मार्ग?


हम भूल गए कि सभ्य होना, सलीकेदार और तमीजदार होना है। इन्हीं कम याद्दाशत वालों के कारण, महात्मा गाँधी ने सभ्यता को असाध्य रोग कहा। मशीनों को जहर मिटाने की जहरीली दवा जैसा माना। बड़े-बड़े ढाँचों की बजाय, छोटे-छोटे ढाँचे और बड़ी-बड़ी मशीनों की बजाय, छोटे से चरखे और कुटीर ग्रामोद्योगों को बेहतर माना। अपने लिये छोटे-छोटे काम चुने। एकादश व्रत तय किए, गाँव को अपने आप में एक गणतंत्र और संयम, सादगी और स्वावलंबन को स्वतंत्रता और प्रकृति… दोनों के संरक्षण का औजार माना।

आज जलवायु परिवर्तन का भारतीय तकाजा यह है कि सरकार और समाज मिलकर एक ओर शिक्षा, कौशल, जैविक कृषि, कुटीर ग्रामोद्योग, सार्वजनिक वाहन, बिना ईंधन वाहन आदि की बेहतरी व संरक्षण में लगे, तो दूसरी ओर धन का अपव्यय रोकें, कचरा कम करें, पलायन व जनसंख्या नियंत्रित करें; फसल उत्पादन पश्चात उत्पाद की बर्बादी न्यूनतम करें। नदियाँ बचाएँ; भूजल भण्डार बढ़ाएँ।

अपव्यय और कंजूसी में फर्क होता है। जूठन न छोड़ना कंजूसी नहीं, अपव्यय रोकना है। गाँव में तो यह जूठन मवेशियों के काम आ जाता है अथवा खाद गड्‌ढे में चला जाता है। शहरों में ऐसा भोजन कचरा बढ़ाता है। हमें चाहिए कि जिस चीज का ज्यादा इस्तेमाल करते हों, उसके अनुशासित उपयोग का संकल्प लें। यदि हम बाजार से घर आकर कचरे के डिब्बे में जाने वाली पॉलीथीन झिल्लियों को घर में आने से रोक दें, तो गणित लगाएं कि एक अकेला परिवार ही अपनी जिंदगी में कई सौ किलो कचरा कम कर देगा। खुले सामान में गुणवत्ता सुनिश्चित कर पाएँ, तो गुणवत्ता के नाम पर पैकिंग को बढ़ावा मिलना स्वत: ही बंद हो जाएगा।

जलवायु परिवर्तन : प्रकृति का नियामक


यदि हम यह सब नहीं करेंगे, तो मजबूर प्रकृति तो मानव कृत्यों का नियमन करेगी ही। उसने करना शुरू कर ही दिया है। जलवायु परिवर्तन के इस दौर को हमें प्रकृति द्वारा मानव कृत्यों के नियम के कदम के तौर पर ही लेना चाहिए। हम नमामि गंगे में योगदान दें, न दें, हम एकादश के आत्म नियमन सिद्धांतों को मानें न मानें, किंतु यह कभी नहीं भूलें कि प्राकृतिक अपने सिद्धांतों को मानती भी है और दुनिया के हर जीव से उनका नियमन कराने की क्षमता भी रखती है। मनुस्मृति के प्रलय खंड, इसका गवाह है। जिन जीवों को यह जलवायु परिवर्तन मुफीद होगा, उनकी जीवन क्षमता बढ़ेगी। ‘फिटेस्स अमंग द फिट’ के मानदंड पर खरा उतरने वाले बचेंगे, शेष चार्ल्स डार्विन के सिद्धांत की राह चले जाएँगे। पुन: मूषकः भव:! आइए, मोहनदास कर्मचंद गाँधी नामक उस महान दूरदर्शी की इस पंक्ति को बार-बार दोहराएँ – ‘पृथ्वी हरेक की जरूरत पूरी कर सकती है, लालच एक व्यक्ति का भी नहीं।’ यही रास्ता है।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। जल प्रबंधन, पर्यावरण संरक्षण, वन संरक्षण आदि विषयों पर नियमित तौर पर लिखते रहते हैं। ईमेल : amethiarun@gmail.com

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