भारतीय कृषि में सूक्ष्म सिंचाई प्रगति, प्रभावशीलता एवं संभावित क्षेत्रफल के आच्छादन हेतु सांकेतिक लागत का आंकलन

भारतीय कृषि में सूक्ष्म सिंचाई प्रगति ,Pc IWP
भारतीय कृषि में सूक्ष्म सिंचाई प्रगति ,Pc IWP
सारांश :

भारतीय कृषि क्षेत्र देश में कुल उपलब्ध जल का सर्वाधिक उपभोक्ता है। अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों की बढ़ती मांग, घटली आपूर्ति एवं बदलते मौसम के कारण खेती में पानी के उपयोग को 50 प्रतिशत से नीचे लाने का सुझाव दिया जा रहा है और इसके लिए नवीन कृषि प्रौद्योगिकियों (सिंचाई विधियों और कम पानी चाहने वाली किस्मों) के अपनाने पर बल भी दिया जा रहा है। वर्तमान समय में उपलब्ध सिंचाई विधियों में सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली को कृषि क्षेत्र में जल उपयोग दक्षता बढ़ाने की एक तकनीक के रूप में देखा जा रहा है। प्रस्तुत जालेख में सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली का महत्व, इसकी प्रगति एवं प्रभावशीलता तथा इसके अपनाने पर जाने चाली सांकेतिक लागत का आंकलन किया गया है।

Micro-irrigation in Indian Agriculture-progress, impact and estimation of indicative cost

Sant Kumar, Suresh Pal, Pramod Kumar, Mohamad Awais & Ajay Tanwar ICAR-National Institute of Agricultural Economics and Policy Research, Pusa, New Delhi 110 012 * Division of Agricultural Economics, ICAR-Indian Agricultural Research Institute, Pusa, New Delhi 110 012

Abstract

The agriculture sector is the largest consumer of total water resources available in India. In view of increasing demand from all sectors of economy, declining availability and changing climate necessitate bringing down the use of water in agriculture below 50 percent from its present level Hence, it is being emphasized to adopt innovative agricultural technologies (micro-irrigation methods), crops/cropping system requiring low water and development of drought tolerant varieties. In the present scenario, micro-irrigation methods are being seen as an alternative for increasing water use efficiency in agriculture. This article describes the significance of micro irrigation, progress made, farm-level impacts, and an estimate of the indicative cost to be required for the adoption of the potential area to be brought under this technology.

प्रस्तावना

भारत में भूमिगत जल का स्तर इसके प्राकृतिक पुनर्भरण की अपेक्षा तेजी से गिर रहा है और यह स्थिति देश के उत्तर-पश्चिम क्षेत्र में भयावह बनती जा रही है। देश की प्रमुख नीति निर्माण संस्था 'नीति आयोग' के एक हालिया प्रतिवेदन में भी जल उपलब्धता की भयावह स्थिति का वर्णन किया गया है और इसका मूल कारण खराब जल प्रबंधन बताया गया है। देश की बढ़ती आबादी, उसके पेट भरने के लिए विस्तार पा रही खेती और पशुपालन, औद्योगीकरण आदि के कारण साल-दर-साल पानी की उपलब्धता घटती जा रही है। पानी की वर्तमान स्थिति के सन्दर्भ में प्रसिद्ध अंतरिक्ष वैज्ञानिक डा. के. कस्तूरीरंगन ने भी जल के उचित प्रयोग एवं प्रबंधन पर जोर दिया है तथा कृषि क्षेत्र, जोकि देश में कुल उपलब्ध जल का सबसे बड़ा उपभोक्ता है, को घटाकर 50 प्रतिशत से नीचे लाने का सुझाव दिया है। पानी की भयावह स्थिति से पार पाने के लिए ऐसी सिंचाई विधियों कृषि पद्धतियों के अपनाने की आवश्यकता है जोकि कम पानी लेती हैं। और पानी की बचत भी करती हैं। कृषि में पानी का अधिक प्रयोग इसके वास्तविक महत्व को दर्शाता है।

भारतीय कृषि में सिंचाई का बहुत महत्व है, क्योंकि यहाँ की जलवायु उपोष्णकटिबंधीय है। सिंचाई उत्पादन कारकों की प्रयोग क्षमता, फसल सघनता और उपज बढ़ाने में सहायक होती है। इसके अतिरिक्त, रोजगार सृजन तथा भूमिहीन किसानों की मजदूरी बढ़ाने में भी सिंचाई सहायक होती है। वर्तमान में पानी की बढ़ती माँग और तेजी से बढ़ रही भारतीय अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्र पानी के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं, इससे कृषि के लिए पानी की उपलब्धता में भारी कमी हो सकती है जोकि कृषि के सतत् विकास लिए समस्या खड़ी कर सकती है। उपलब्ध सतही जल में तेजी से आ रही गिरावट, अधिक जनसंख्या दवाब और आर्थिक गतिविधियों के निरंतर विस्तार विविधीकरण के कारण भूमिगत जल का अंधाधुंध दोहन हो रहा है जिसके कारण देश के अधिकांश भागों में भूमिगत जल का स्तर अधिक नीचे चला गया है और इसकी गिरती स्थिति एक गंभीर समस्या बनती जा रही है। केन्द्रीय भूजल बोर्ड के अनुसार पिछले एक दशक (2007-2016) की अवधि में देश के 61 प्रतिशत कुओं में जल स्तर 0-4 मीटर नीचे चला गया है।

यद्यपि भारत में विश्व के अन्य देशों की अपेक्षा सबसे अधिक शुद्ध सिंचित क्षेत्रफल (68.4 मिलियन हेक्टेयर) है फिर भी देश में कुल कृषित क्षेत्रफल का आधे से अधिक असिंचित है और इसके असिंचित रहने के कारणों में प्रवाह विधि से सिंचाई करना प्रमुख है प्रवाह सिंचाई विधि की जल उपयोग दक्षता (Water use

Efficiency) बहुत कम (35-40%) है, जबकि चीन में सिंचाई जल की उपयोग दक्षता 55 प्रतिशत तथा अन्य देशों में इससे भी अधिक है। भारत में सिंचाई जल उपयोग दक्षता की कम औसत विशेष रूप से पानी को खुली नालियों द्वारा खेतों तक पहुँचाने एवं वितरण घाटे के कारण है।

भारत सरकार ने भविष्य में पानी की घटती उपलब्धता एवं अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों की बढ़ती मांग और आपूर्ति को ध्यान में रखते हुए सत्तर के दशक (1970) में जल प्रबंधन रणनीतियों एवं कार्यक्रमों (जल मूल्य निर्धारण, जल प्रयोक्ता संघ, सिंचाई क्षेत्रफल विकास कार्यक्रम (Command Area Development Programme), आदि) की शुरुआत की। हालांकि उपरोक्त वर्णित रणनीतियों के परिणाम बहुत उत्साहवर्धक नहीं रहे हैं। इसलिए कृषि में जल की खपत को नियंत्रित करने और जल उपयोग दक्षता को सुधारने के लिए सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली को अपनाने पर बल दिया जा रहा है। इस सिंचाई प्रणाली में प्रमुख रूप से- फव्वारा एवं बूंद-बूँद विधियाँ शामिल हैं। सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली, जल की बचत करने के साथ-साथ अतिरिक्त क्षेत्रफल में सिंचाई सुनिश्चित करती है और प्रति इकाई उर्वरक उपयोग दक्षता बढ़ाती है। सूक्ष्म सिंचाई विधि के अनेक लाभों (जैसेकि अधिक क्षेत्रफल की सिंचाई क्षमता, अधिक उपज, शुद्ध आय में बढ़ोतरी, गुणवत्ता उत्पाद, आदि) के बावजूद, वर्ष 2016-17 तक इसके अन्तर्गत कुल 8.6 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल ही लाया जा सका है, इसमें भी अधिकतर हिस्सा बागवानी फसलों के अन्तर्गत शामिल है।

देश में जल संसाधन प्रबंधन एवं आपूर्ति में सुधार, सिंचाई क्षेत्रफल में विस्तार और सूक्ष्म सिंचाई योजना को गति देने के लिए अप्रैल 2015-16 से प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMSKY) की शुरुआत की गयी इस योजना में विभिन्न मंत्रालयों/विभागों द्वारा पहले से संचालित सिंचाई कार्यक्रमों परियोजनाओं को समाहित कर दिया गया है और समयावधि 2015-16 से 2019-20 के लिए 50,000 करोड़ रुपये की धनराशि आंवटित की गयी है। व्यापक दृष्टि में इस योजना का उद्देश्य सभी खेतों तक सिंचाई के साधनों की पहुँच सुनिश्चित करना है जिससे कि प्रति बूँद अधिक उपज प्राप्त की जा सके तथा गाँवों में समृद्धि लायी जा सके।

प्रस्तुत आलेख में भारतीय कृषि में सूक्ष्म सिंचाई की प्रगति, प्रभाव और सांकेतिक लागत का आकलन किया गया है। अध्ययन की विषय-वस्तु तथा इसके महत्व को प्रथम भाग प्रस्तावना में, जबकि दूसरे भाग सामग्री एवं विधि में प्रयुक्त आंकड़ों के खोत तथा विश्लेषण तकनीक का वर्णन किया गया है। लेख के तीसरे भाग परिणाम एवं विवेचना में कृषि क्षेत्र में सिंचाई की प्रगति तथा प्रमुख फसल - समूहों के अन्तर्गत सिंचाई स्थिति का ब्यौरा दिया गया है। इसके अतिरिक्त सूक्ष्म सिंचाई का विकास एवं प्रगति तथा राज्यवार और फसलवार प्रगति को दर्शाया गया है। सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली का प्रक्षेत्र स्तर पर प्रभाव विश्लेष्ण का भी अध्ययन किया गया है। आलेख के अंतिम भाग में सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली के अंगीकरण हेतु सांकेतिक लागत का अनुमान लगाया गया है ।

सामग्री एवं विधि

सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली के अनेक लाभों के बावजूद इसके विस्तार में अपेक्षित प्रगति नहीं हुई है एवं इसके समक्ष अनेक सामाजिक-आर्थिक बाधाएं हैं। इस आलेख के प्रस्तुतीकरण में द्वितीयक एवं प्राथमिक आंकड़ों का प्रयोग किया गया है। द्वितीयक / प्रकाशित आंकड़े सरकारी प्रकाशन तथा वेबसाइट (पीएमकेएसवाई) से एकत्रित किये गये हैं जबकि प्राथमिक आंकड़े प्रतिदर्श सर्वेक्षण द्वारा चयनित किसानों (अंगीकृत एवं गैर अंगीकृत) से एकत्रित किये गये हैं जोकि कृषि वर्ष 2017-18 से संबंधित हैं। प्रस्तुत आलेख में प्रयुक्त प्राथमिक आंकड़े राष्ट्रीय कृषि आर्थिकी एवं नीति अनुसंधान संस्थान द्वारा परिचालित परियोजना 'भारत में मृदा एवं जल संरक्षण तथा नवोन्मेषी कृषि प्रोद्योगिकियों के प्रभाव का विश्लेषण' के अन्तर्गत एकत्रित किये गये हैं । इसआलेख में प्रयुक्त आंकड़ों के विश्लेषण हेतु विवरणात्मक सांख्यिकीय मापकों का प्रयोग किया गया है।

परिणाम एवं विवेचना

कृषि क्षेत्र में सिंचाई की प्रगतिः अखिल भारतीय स्तर पर वर्ष 2005-06 में कुल सिंचित क्षेत्रफल 84.28 मिलियन हेक्टेयर था जोकि पिछले दशक में (2005-06 से 2015-16 ) लगभग 13 मिलयन हेक्टेयर की बढ़ोतरी के साथ 2015-16 में 97.50 मिलियन हेक्टेयर हो गया (सारणी 1)। पिछले दशक में सिंचाई क्षेत्रफल में बढ़ोतरी होने से कुल कृषित क्षेत्रफल में लगभग 8 मिलियन हेक्टेयर की बढ़ोतरी हुई है। सिंचाई क्षेत्र में काफी प्रयास के बावजूद आज भी देश में आधे से अधिक कृषित क्षेत्रफल असिंचित है तथा वर्षा जल पर निर्भर है। विभिन्न सिंचाई कार्यक्रमों के अपनाये जाने तथा सिंचाई विधियों में निरन्तर सुधार के बावजूद सिंचाई क्षेत्रफल में वांछित प्रगति नहीं हुई है। सिंचाई की उन्नत प्रणाली सूक्ष्म सिंचाई के अन्तर्गत कुल सिंचित क्षेत्रफल का लगभग 6 प्रतिशत हिस्सा ही सृजित किया जा सका है, हालांकि पिछले तीन वर्षों में सूक्ष्म सिंचाई के तहत क्षेत्रफल विस्तार में तेजी आयी है। कुल सिंचित क्षेत्रफल में सूक्ष्म सिंचाई के तहत कुल सृजित क्षेत्रफल (8.6 मिलियन हेक्टेयर) की हिस्सेदारी 8.8 प्रतिशत है और कुल संभावित क्षेत्रफल ( 69.5 मिलियन हेक्टेयर) में लगभग 12 प्रतिशत है। भारतीय अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों की बढ़ती जल माँग तथा इसकी घटती आपूर्ति के बीच सामंजस्य बनाये रखने के लिए सिंचाई विधियों में निरंतर सुधार, वर्षा जल संचयन तथा सूखा रोधी फसल किस्मों के विकास पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।

फसल समूहवार सिंचित क्षेत्रफलः देश स्तर पर फसल समूहवार सिंचित क्षेत्रफल को सारणी 2 में दर्शाया गया है। आंकड़े बताते हैं कि पिछले एक दशक ( 2005-06 से 2014-15 ) में सिंचाई क्षेत्रफल में सबसे अधिक बढ़ोतरी धान्यों एवं मोटे अनाजों के तहत हुई है जिसमें लगभग 8 मिलियन हेक्टेयर अतिरिक्त क्षेत्रफल में सिंचाई सुविधा बढ़ी है, जबकि दलहनों के क्षेत्रफल में इसी समयावधि में लगभग एक मिलियन हेक्टेयर सिंचित क्षेत्रफल बढ़ा है। इस प्रकार खाद्यान्नों (अनाजों तथा दलहनों) के अन्तर्गत कुल 9 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल में सिंचाई क्षमता बढ़ी है। आंकड़े प्रदर्शित करते हैं कि तिलहनों तथा बागवानी फसलों (सब्जी एवं (फल) के सिंचित क्षेत्रफल में बहुत कम बढ़ोतरी हुई है जबकि गन्ने के सिंचित क्षेत्रफल में लगभग 0.75 मिलियन हेक्टेयर की वृद्धि हुई है। अध्ययन दर्शाता है कि दलहन तथा तिलहन फसले शुरू से ही सिंचाई सुविधाओं से प्रभावित रही है जोकि इनके प्रति हेक्टेयर कम उपज के प्रमुख कारणों में से एक है। यदि इन फसलों के उत्पादन में आत्मनिर्भरता हासिल करनी है तो इनके सिंचाई क्षेत्रफल में बढ़ोतरी, उन्नत फसल क्रियाओं के अंगीकरण, गुणवत्ता परक बीजों की बुवाई और सूखारोधी किस्मों के विकास पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

भारत में सूक्ष्म सिंचाई विकास एवं प्रगति: देश में सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली विशेषतः सरकारी सहायता द्वारा पोषित परियोजनाओं कार्यक्रमों -

के अन्तर्गत सृजित की जा रही है और इसमें फव्वारा तथा बूँद-बूँद विधियों को अपनाकर कृषि में जल उपयोग दक्षता में सुधार किया जा रहा है। केन्द्रीय सरकार ने सूक्ष्म सिंचाई परियोजना को एक केन्द्रीय योजना के रूप में वर्ष 2005-06 में शुरू किया था । वर्ष 2010-11 में इसे प्रोन्नत कर सूक्ष्म सिंचाई पर राष्ट्रीय मिशन बनाया गया, और अप्रैल 2014 से इस मिशन को टिकाऊ कृषि पर राष्ट्रीय मिशन के तहत समाहित कर दिया गया। हालांकि अप्रैल 2015-16 से पूर्व में जारी सभी सिंचाई परियोजनाओं को प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के अन्तर्गत शामिल कर लिया गया है।

कृषि क्षेत्र में सतत् विकास तथा बागवानी फसलों के उत्पादन एवं उत्पादकता को बनाये रखने हेतु भूमि एवं जल संसाधनों में निकट का संबंध है। सूक्ष्म सिंचाई पर गठित कार्यबल (Task Force) ने अपने प्रतिवेदन (2004) में इस सिंचाई प्रणाली के तहत लगभग 69.5 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल (27 मिलियन हेक्टेयर बूंद-बूँद विधि और 42.5 मिलियन हेक्टेयर फव्वारा विधि) लाने का अनुमान लगाया है। सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली जल संसाधनों के विकास, प्रबंधन और उसके सतत् प्रयोग पर बल देती है, जोकि समय की माँग है। सूक्ष्म सिंचाई योजना को प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के तहत कार्यान्वित किया जा रहा है। प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के चार घटक हैं- त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम (AIBP), जलाशय विकास (Watershed Development) हर खेत को पानी (Har khet ko pani) तथा प्रति बूंद अधिक उपज (Per drop more crop ) प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना हेतु समयावधि 2015-16 से 2019-20 के लिए 50,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है ( सारणी 3 ) सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली की प्रगतिः प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना का मुख्य उद्देश्य अधिक से अधिक कृषि क्षेत्रफल की सिंचाई के दायरे में लाना है तथा पानी की उपयोग दक्षता में सुधार करना है। राष्ट्रीय स्तर पर सूक्ष्म सिंचाई के अर्न्तगत वर्ष 2016-17 तक कुल 8.63 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल लाया गया है, जिसमें बूंद-बूँद विधि के अर्न्तर्गत लगभग 45.3 प्रतिशत (3.9 मिलियन हेक्टेयर) तथा फव्वारा विधि के अन्तर्गत लगभग 54.7 प्रतिशत ( 4.71 मिलियन हेक्टेयर) क्षेत्रफल सृजित किया गया है। बागवानी फसलों तथा अधिक पानी चाहने वाली फसलों जैसे कि गन्ना आदि के लिए बूंद-बूँद विधि तथा अनाज फसलों के लिए फव्वारा विधि को प्राथमिकता दी जा रही हैं।
सूक्ष्म सिंचाई के अन्तर्गत राज्यवार प्रगति सूक्ष्म सिंचाई के तहत कुल सिंचित क्षेत्रफल (8.6 मिलियन हेक्टेयर) का सबसे बड़ा हिस्सा राजस्थान प्रान्त (20.3% ) में सृजित किया गया है, इसके बाद आन्ध्र प्रदेष (15.3%), महाराष्ट्र (15.2%), गुजरात (12.4%) तथा कर्नाटक (11.0%) आते हैं। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य प्रान्तों हरियाणा (6.7%), मध्यप्रदेश (5.0%), तमिलनाडु (4.29%) तथा छत्तीसगढ़ (3.1%) ने भी सूक्ष्म सिंचाई में सफलता अर्जित की है। उपरोक्त नौ प्रान्तों में सूक्ष्म सिंचाई के अन्तर्गत कुल क्षेत्रफल का 98 प्रतिशत से अधिक हिस्सा सृजित किया गया है। राज्यों के बीच सूक्ष्म सिंचाई के सन्दर्भ में राजस्थान को नेतृत्व करने का गौरव हासिल है, साथ ही फव्वारा विधि के अन्तर्गत लगभग एक तिहाई हिस्सा ( 33% ) राजस्थान में ही सृजित किया गया है (चित्र 1)। विश्लेषण दर्शाता है कि हरियाणा, गुजरात तथा कर्नाटक आदि राज्य फव्वारा प्रणाली में अधिक रुचि दिखा रहे हैं जबकि आन्ध्रप्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु बूंद-बूंद सिंचाई प्रणाली के अपनाने में अधिक

इच्छुक हैं।

सूक्ष्म सिंचाई के अन्तर्गत फसलवार प्रगति: देश में सूक्ष्म सिंचाई के तहत वर्ष 2016-17 के दौरान करीब 8 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में सिंचाई सुविधा सृजित की गयी सरकार द्वारा प्रायोजित सूक्ष्म सिंचाई के अन्तर्गत अधिक पानी चाहने वाली तथा अधिक मूल्य वाली फसलों को वरीयता दी जा रही है। विश्लेषण से पता चलता है कि सूक्ष्म सिंचाई के तहत सबसे अधिक क्षेत्रफल बागवानी फसलों के अर्न्तगत (1.8 लाख हेक्टेयर) सृजित किया गया, इसके बाद वाणिज्यिक फसलें (यथा तिलहन, विशेष रूप में गुजरात प्रान्त में मूँगफली) तथा कपास को वरीयता मिली ( सारणी 4 ) । खाद्यान्न फसलों के अन्तर्गत 0.48 लाख हेक्टेयर सिंचित क्षेत्रफल सृजित किया गया जिनमें से 0.36 लाख हेक्टेयर धान्य फसलों तथा शेष 0.12 लाख हेक्टेयर दलहन फसलों के तहत सृजित किया गया। परिणाम दर्शाता है कि वर्ष 2016-17 के दौरान सूक्ष्म सिंचाई क्षेत्रफल के आधे से अधिक हिस्से, 'अन्य फसलों' के अर्न्तगत सृजित किये गये।

बागवानी फसलों के अन्तर्गत सूक्ष्म सिंचाई की प्रगतिः बगवानी फसलें कम पानी चाहती है लेकिन इनकी महत्वपूर्ण विकास अवस्थाओं में नियमित अंतराल पर सिंचाई करनी पड़ती है। वर्ष 2016-17 में लगभग 1.78 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल बागवानी फसलों के तहत लाया गया, इसमें से 0.65 लाख हेक्टेयर फलों तथा 0.59 लाख हेक्टेयर सब्जियों के अन्तर्गत सृजित किया गया ( सारणी 5)। फलों में प्रमुख रूप से आम (50.8%), नींबू वर्गीय (21.1%), केला ( 17.4%) तथा पपीता ( 13.1% ) शामिल थे, जबकि सब्जियों में प्रमुख रूप से टमाटर (41.9%), आलू (27.8%), प्याज ( 14.6% ), गोभी वर्गीय फसलें ( 12.6% ) तथा अन्य सब्जियाँ (13.2%) सम्मिलित थीं।

सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली की प्रभावशीलता प्रक्षेत्र स्तर पर सूक्ष्म सिंचाई प्रभाव के आकलन हेतु किसानों से एकत्रित प्राथमिक आकड़ों का प्रयोग किया गया है जिन्हें एक सर्वेक्षण द्वारा राजस्थान प्रान्त के बीकानेर जिला से एकत्रित किया गया है। इस सर्वेक्षण में सूक्ष्म सिंचाई अंगीकरण करने वाले और गैर-अगीकरण करने वाले दोनों प्रकार के किसानों को सम्मिलित किया गया है।

बीकानेर जिले में फव्वारा विधि किसानों में प्रमुखता से प्रचलित है।

आंकड़ा दर्शाता है कि चयनित किसानों ने फव्वारा विधि को अपनाकर अधिक क्षेत्रफल में प्रमुख फसलों की बुवाई की एवं अधिक उपज प्राप्त की। आंकड़ों से पता चलता है कि रबी फसलों के कृषित क्षेत्रफल में बढ़ोतरी तोरिया एवं सरसों में 21 प्रतिशत तथा चना में 254 प्रतिशत हुई ( सारणी 6)। चना के क्षेत्रफल में अतिरिक्त वृद्धि सुनिश्चित सिंचाई के कारण हुई जोकि फसल के विकास एवं अधिक उपज के लिए आवश्यक है। वास्तव में चना की फसल में, अन्य रबी फसलों जैसेकि गेहूँ एवं सरसों की अपेक्षा कम पानी की आवश्यकता होती है। रबी मौसम की अन्य प्रमुख फसल गेहू के क्षेत्रफल में 56 प्रतिशत की वृद्धि मिली। खरीफ मौसम की फसलों में भी कृषित क्षेत्रफल में वृद्धि - स्वार में 42 प्रतिशत से लेकर, बाजरा में 149 प्रतिशत मिली। मूँगफली फसल की खेती को केवल फव्वारा सिंचाई अपनाने वाले किसानो ने की क्योंकि इस फसल में नियमित अंतराल पर सिंचाई करनी पड़ती है। फव्वारा सिंचाई अपनाने वाले किसानों ने अधिक मूल्य वाली फसलों जैसे कि मेथी और ईसबगोल को अपनाकर अधिक आय प्राप्त की। कृषित क्षेत्रफल में वृद्धि की भांति फसलों के उपज में भी बढ़ोतरी मिली। सांख्यिकीय सार्थकता की जांच नहीं इंगित है।

सूक्ष्म सिंचाई विधि के अन्य लाभों में फसलोत्पाद गुणवत्ता में वृद्धि तथा कम लागत प्रमुख हैं। खेती की लागत में कमी प्रमुख रूप से उर्वरक उपयोग दक्षता में वृद्धि तथा कम श्रमिक लागत के कारण आती है। इसके अतिरिक्त इस सिंचाई विधि के प्रयोग से मृदा संरक्षण खेत के ढलान के अनुरूप की जा सकती है।

सूक्ष्म सिंचाई हेतु सांकेतिक लागत का आंकलन सरकारी तथा गैर-सरकारी स्तरों पर अथक प्रयास के बावजूद देश के कुल कृषित क्षेत्रफल का लगभग 51 प्रतिशत हिस्सा असिंचित है और खेती के लिए वर्षा जल पर निर्भर है। सरकारी स्तर पर इस अंतर को कम करने के लिए प्रयास जारी हैं। इसी सन्दर्भ में भारत सरकार ने सभी जारी सिंचाई परियोजनाओं को संयोजित करके प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना की शुरुआत वर्ष 2015-16 में की। इस सिंचाई योजना में सभी श्रेणी के किसान अनुदान के पात्र हैं लेकिन कम से कम 50 प्रतिशत किसान लघु तथा सीमांत और महिला श्रेणी के तहत होने चाहिए, जिससेकि 30 प्रतिशत महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित हो सके। जैसाकि पहले वर्णित किया जा चुका है कि सूक्ष्म सिंचाई के तहत वर्ष 2016-17 तक कुल 8.6 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल लाया जा सका है, जिसमें बूंद-बूंद विधि के तहत 3.9 मिलियन हेक्टेयर तथा फव्वारा विधि के तहत 4.7 मिलियन हेक्टेयर सम्मिलित है। इस प्रकार सूक्ष्म सिंचाई के तहत कुल अप्राप्य क्षेत्रफल 60.9 मिलियन हेक्टेयर (23.1 मिलियन हेक्टेयर बूंद-बूँद विधि तथा शेष 37.8 मिलियन हेक्टेयर फव्वारा विधि) की आच्छादन हेतु सांकेतिक लागत का अनुमान, प्रस्तावित समयावधि तथा राजस्थान सरकार द्वारा सूक्ष्म सिंचाई के स्थापन हेतु जारी परिचालन दिशा-निर्देशिका को आधार मानकर सुझाया गया है। सांकेतिक लागत के आकलन में अप्राप्य क्षेत्रफल की प्राप्ति हेतु फव्वारा तथा बूँद-बूँद विधि के तहत उपविधियों की बराबर हिस्सेदारी (पचास-पचास प्रतिशत) तथा औसत लागत को ध्यान में रखकर किया गया है।

अध्ययन का अनुमान है कि सूक्ष्म सिंचाई के तहत अप्राप्य क्षेत्रफल की आच्छादन हेतु 427.6 अरब रुपये की आवश्यकता होगी, जिसमें फव्वारा पद्धति के लिए 290.1 अरब रुपये तथा बूँद-बूँद पद्धति के लिए 137.5 अरब रूपये की हिस्सेदारी होगी ( सारणी 7 ) अध्ययन के अनुसार यदि अप्राप्य क्षेत्रफल को 5 वर्षों में पूरा करने का प्रस्ताव है तो प्रत्येक वर्ष 86.5 अरब रुपये (58.02 अरब रुपये फव्वारा विधि तथा 27.5 अरब रुपये बूंद-बूंद विधि के लिए) के खर्च का अनुमान लगाय गया है। अध्ययन में अप्राप्य क्षेत्रफल की 10 वर्षों तथा 15 वर्षों में आच्छादन हेतु सांकेतिक लागत का अनुमान भी लगाया गया है।

निष्कर्ष

भारतीय अर्थव्यवस्था के बदलते परिदृश्य ( पानी की बढ़ती माँग एवं घटती आपूर्ति) और जलवायु परिवर्तन के कारण सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली को कृषि क्षेत्र में जल उपयोग दक्षता बढ़ाने वाली एक तकनीक के रूप में देखा जा रहा है। सिंचाई की इस उन्नत प्रणाली में फव्वारा तथा बूँद-बूँद विधियों अधिक प्रचलित हैं। इनके प्रयोग से जल की पर्याप्त बचत होती है, जिससे अधिक क्षेत्रफल में सिंचाई की जा सकती है तथा उत्पादन एवं उत्पादकता में वृद्धि होती है। सरकारी तथा गैर सरकारी स्तरों पर प्रयास के बावजूद देश के कुल कृषित क्षेत्रफल के लगभग 49 प्रतिशत हिस्से में सिंचाई की सुविधा सृजित की जा सकी है तथा सूक्ष्म सिंचाई के अन्तर्गत कुल 8.6 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल लाया गया है। जोकि कुल सिंचित कृषि क्षेत्रफल का मात्र 12 प्रतिशत है। फसल समूहवार सिंचाई का परिणाम दर्शाता है कि दलहन तथा तिलहन फसलें शुरू से ही सिंचाई सुविधाओं से वंचित रही हैं जोकि इनके प्रति हेक्टेयर कम उपज के प्रमुख कारणों में से

एक है। सूक्ष्म सिंचाई परियोजना जोकि भारत सरकार द्वारा 2005-06 में शुरू की गयी थी जिसे वर्ष 2015-16 से प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना में सम्मिलित कर दिया गया है, और इसके अन्तर्गत कुल 8.63 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल वर्ष 2016-17 तक लाया गया है तथा अधिक पानी चाहने वाली और अधिक मूल्य वाली फसलों को प्राथमिकता दी जा रही है। राज्यों के बीच सूक्ष्म सिंचाई के संदर्भ में राजस्थान को नेतृत्व करने का गौरव हासिल है साथ ही में फव्वारा विधि के अन्तर्गत लगभग एक तिहाई (335) हिस्सा राजस्थान में ही सृजित किया गया है। देश स्तर पर सूक्ष्म सिंचाई के तहत वर्ष 2016-17 में लगभग 1.78 लाख हेक्टेयर में बागवानी फसलें लायी गयी, इनमें से 0.65 लाख हेक्टेयर फलों के अन्तर्गत तथा 0.59 लाख हेक्टेयर सब्जियों के अन्तर्गत शामिल हैं। सूक्ष्म सिंचाई का प्रक्षेत्र स्तर पर प्रभाव विश्लेषण दर्शाता है कि फव्वारा विधि के प्रयोग करने वाले किसानों ने गैर अंगीकरण करने वाले किसानों की अपेक्षा दोनों कृषि मौसमों (खरीफ एवं रबी) में अधिक क्षेत्रफल में फसलों की बुवाई की और अधिक उपज प्राप्त की।

सूक्ष्म सिंचाई पर गठित एक कार्यबल के अनुमान के अनुसार सूक्ष्म सिंचाई के अंतर्गत इस देश में 69.5 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल लाया जा सकता है। सूक्ष्म सिंचाई की औसत सांकेतिक लागत को ध्यान में रखकर अप्राप्य क्षेत्रफल की प्राप्ति हेतु संभावित लागत का आकलन किया गया है। इसके 5, 10 एवं 15 वर्षों में प्राप्ति हेतु वार्षिक लागत का भी अनुमान लगाया गया है।

सूक्ष्म सिंचाई विधियों को अपनाया जाना समय की मांग है। यदि सूक्ष्म सिंचाई योजना को इसके वास्तविक परिप्रेक्ष्य में पूरा नहीं किया गया और इसके तहत अधिक क्षेत्रफल नहीं लाया जाता है तो आगामी दिनों में बदलते मौसम (मानसूनी वर्षा में कमी तथा इसके वितरण में भारी विषमता) तथा बढ़ते औद्योगीकरण के कारण खेती की बढ़ती जल माँग पूरा नहीं किया जा सकेगा तथा बढ़ती आबादी के लिए खाद्य समस्या एक गंभीर चुनौती हो सकती है।

आभार

प्रस्तुत लेख राष्ट्रीय कृषि आर्थिकी एवं नीति अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा पोषित परियोजना 'मृदा एवं जल संरक्षण तथा नवोन्मेषी कृषि प्रौद्योगिकियों के प्रभाव का विश्लेषण' के अन्तर्गत एकत्रित आकड़ो पर आधारित है । लेखकगण संस्थान के आभारी हैं।

 

सन्त कुमार, सुरेश पाल, प्रमोद कुमार, मौहम्मद अवैस एवं अजय तंवर

भा.कृ.अ.नु.प.- राष्ट्रीय कृषि आर्थिकी एवं नीति अनुसंधान संस्थान, डीपीएस मार्ग, पूसा, नई दिल्ली 110 012

कृषि अर्थशास्त्र संभाग, भा.कृ.अ.नु.प.- भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा, नई दिल्ली 110 012

भारतीय वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान पत्रिका 27 अंक (182) जून एवं दिसम्बर 2019 पृ. 70-78

 

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7. NITI Aayog, Roadmap of Pradhan Mantri Krishi Sinchyai Yojna, Government of India, New Delhi, (2017). 

8. The Guidelines for Pradhan Mantri Krishi Sinchyai Yojna (Micro-irrigation) programme implementation unit, Directorate of Horticulture, Government of Rajasthan, Jaipur, (2017).

 

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Post By: Shivendra
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