भारतीय चिंतन में पर्यावरण-संरक्षण

ऊर्जा की अंधाधुंध खपत व वनों की बेशुमार कटाई, अनायास बढ़ती हुई जनसंख्या, तेजी से फैलते हुआ प्रदूषण और उसके बीच संसाधनों का निर्मम शोषण यहीं बदला चुकाया मनुष्य ने प्रकृति की अनुकंपा का। फसलों की लालच ने पृथ्वी के गर्भ को चीरकर रासायनिक खाद से भरने को मजबूर किया, विलासिता के दृष्टिकोण ने मिलों, फैक्ट्रियों, कारखानों और संयंत्रों के माध्यम से चारों ओर प्रदूषण फैलाया। तेज रफ्तार की चाहत ने कारों, ट्रकों और स्कूटरों आदि की ताबड़तोड़ भाग-दौड़ से वातावरण में धुआं-ही-धुआं भर दिया।आज पूरा विश्व यदि किसी एक समस्या को लेकर चिंतित है, तो वह पर्यावरण की समस्या है। प्राचीन भारत में मानव का सर्वप्रथम ध्येय प्राकृतिक व्यवस्था के साथ तारतम्यता बनाए रखना था। मनु धर्मशास्त्रों व उपनिषदों के नियम इस तारतम्यता की इच्छा को प्रदर्शित करते हैं। टैगोर ने लिखा है- वन व प्राकृतिक वस्तुएं मानव-जीवन को एक निश्चित दिशा देते थे। मानव प्राकृतिक जीवन की वृद्धि के साथ निरंतर संपर्क में था, वह अपनी चेतना का विकास आस-पास की भूमि से करता था। उसने विश्व की आत्मा व मानव की आत्मा के बीच के संबंध को महसूस किया। मानव और प्रकृति के बीच इस तारतम्यता ने पर्यावरण को आत्मार्पित करने की शांतिपूर्ण व अपेक्षाकृत अच्छे परिस्थितियों अच्चे तरीकों को जन्म दिया पर्यावरण एक व्यापक शब्द है यह उस संपूर्ण शक्तियों परिस्थितियों एवं वस्तुओं का योग है, जो मानव को परावृत करती हैं तथा उसके क्रियाकलापों को अनुशासित करती हैं। मानव संपूर्ण जीव-जगत का केंद्र-बिंदु है। आनुवांशिकता उसकी अंतर्निहित क्षमताओं को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक स्थानांतरित करती है, जबकि पर्यावरण इन क्षमताओं को भू-स्तर पर लाता है। इस प्रकार मानव तथा अन्य जीव पृथ्वी तथा पर्यावरण के अविभाज्य अंग हैं और पृथ्वी को एक अविभाज्य पूर्ण इकाई का स्वरूप प्रदान करते हैं।

पर्यावरण दो शब्दों- ‘परि और आवरण’ से मिलकर बना है। जिसका अर्थ है- चारों ओर का घेरा। हमारे चारों ओर जो भी वस्तुएं, परिस्थितियां विद्यमान हैं, वे मानव-क्रियाकलापों को प्रभावित करती हैं और उसके लिए एक दायरा सुनिश्चित करती हैं। इसी दायरे को हम पर्यावरण कहते हैं। यह दायरा आवास, गांव, मुहल्ला, नगर, प्रदेश, देश, महाद्वीप ग्लोब अथवा संपूर्ण सौर मंडल का हो सकता है। पर्यावरण अनेक छोटे तंत्रों से लेकर अनेक विशालिविशाल तंत्रों का जटिल सम्मिश्रण है, इसीलिए वेदकालीन मनीषियों ने द्युलोक से लेकर व्यक्ति तक शांति की प्रार्थना की है-

ओम द्योः शांतिरंतरिक्षम् शांतिः पृथिवी शांतिरापः शांतिरोषधयः शांतिर्वनस्पतयः शांति विश्वे देवाः शांतिरेधि।
-शुक्ल, यजुर्वेद, 36/1711

(इस प्रकार द्युलोक से लेकर पृथ्वी के सभी जैविक और अजैविक घटक संतुलन की अवस्था में रहे। अदृश्य आकाश (द्युलोक) नक्षत्र युक्त दृश्य आकाश (अंतरिक्ष), पृथ्वी एवं उसके सभी घटक जल, औषधियां, वनस्पतियां, संपूर्ण संसाधन (देव) एवं ज्ञान संतुलन की अवस्था में रहे, तभी व्यक्ति शांत एवं संतुलित रह सकता है)। संभवतः पर्यावरण एवं पर्यावरण संतुलन की इतनी वैज्ञानिक परिभाषा विश्व के किसी अन्य मनीषी ने नहीं की।

प्रारंभिक काल में पर्यावरण का अर्थ वातावरण माना जाता रहा है, पर आज पर्यावरण का अर्थ इतना व्यापक हो चुका है कि इसमें संपूर्ण पृथ्वी, उसका वातावरण और इस धरती पर विद्यमान हर वस्तु को पर्यावरण का हिस्सा मान लिया गया है। ‘पर्यावरण’ वह महाविज्ञान है, जिसके अंतर्गत प्राणी-विज्ञान, वनस्पति-विज्ञान, स्वास्थ्य-विज्ञान, भौतिक-विज्ञान, रसायन-विज्ञान तथा खगोल विज्ञान जैसे अनेक विज्ञान एक शाखा के रूप में विद्यमान हैं। आज ‘पर्यावरण’ शब्द आम बोलचाल की भाषा बन गया है। इसे घर-घर में पहचाना जाने लगा है- ‘सत्यम्, शिवम्, सुंदरम्’ के सत्मार्ग पर चलते हुए ‘सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया’ की जीवनचर्या अपनाते हुए संपूर्ण जीवन जीने के बाह्य संसाधनों तथा शारीरिक, मानसिक विकास के आवश्यक अंगों (आंतरिक संसाधनों) का सामंजस्यात्मक आच्छादन ही पर्यावरण है।

आज के अर्थों में पर्यावरण के वास्तविक स्वरूप का वर्ण न हम इस रूप में कर सकते हैं, ‘मानव जीवन को प्राकृतिक रूप से अपने निश्चित समय चक्र में जीने के लिए उनकी आधारभूत व हानिरहति आंतरिक एवं बाह्य आवश्यकताएं, जो उसके आस-पास-अन्न, भूमि, वायु, जीव तथा संसाधन आदि के रूप में विद्यमान हो, पर्यावरण है।’

पर्यावरण उन सभी प्राकृतिक संसाधनों की समग्रता का नाम है, जो धरती माता ने मानव-जाति के लिए वरदान के रूप में दिए हैं। ये संसाधन हैं- भूमि, जल, वायु, वनस्पति, वन और वन्यजीव जो हमें घेरे हुए हैं और जो प्रतिदिन हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं-

क्षिति, जल, पावक, गगन, पवन मिल पर्यावरण सजाते,
सफल सृष्टि के संचालन को, ये संतुलित बनाते।


पर्यावरण जीवन का एक अभिन्न अंग है, जिस तरह मनुष्य को जीने के लिए रोटी, कपड़ा और मकान आवश्यक है, उसी प्रकार पर्यावरण भी इन सबसे ऊपर एवं अतिआवश्यक है। मनुष्य प्रकृति का पुत्र माना जाता है, प्रकृति के आंगन में वह बड़ा होता है। पर्वत, नदी, तालाब, शस्य श्यामला भूमि और सुवासित वायु हमारे जीवन को स्वच्छ और सुखद बनाते हैं।

धरती, अंबर, जल और जंगल, इनकी रक्षा सबका मंगल।

प्रकृति, समय और परिस्थितियों के असमय सुरक्षा प्रदान करती है, लेकिन उलझने पर पिता के समान क्रोध भी करती है।

प्रकृति ने मनुष्य को अनूठी प्रतिभा, क्षमता, सृजनशीलता, तर्कशक्ति देकर विवेकशील, चिंतनशील एवं बुद्धिमान प्राणी बनाया है। अतः मनुष्य का दायित्व है कि वह प्राकृतिक संसाधनों में संतुलित चक्र को बनाए रखते हुए स्वस्थ वातावरण का निर्माण कर अपना पुनीत कर्तव्य समझे। आज का मानव अपने उत्तरदायित्वों से मुंह मोड़ रहा है, क्योंकि भौतिकवाद व औद्योगीकरण ने उसे स्वार्थी बना दिया है। भारत में पर्यावरण की समस्या अत्यधिक औद्योगीकरण का परिणाम नहीं, बल्कि विकास का अपूर्णता का द्योतक है।

मनुष्य में कई तत्व माने गए हैं। जैसे- अन्नतत्व, प्राणतत्व, बुद्धितत्व और आत्मतत्व। प्राणतत्व के लिए प्राणवायु की आवश्यकता की आवश्यकता होती है। मनुष्य ने पशुओं का उपयोग विभिन्न प्रकार से किया है। अतः पर्यावरण का आशय है- पुश-जगत्, वनस्पति-जगत्, जल-जगत् एवं वायु, नदी, पहाड़, खनिज संपदा- जो प्रकृति की देन हैं। पर्यावरण उन जैविक तथा अजैविक घटकों का समूह है, जो परस्पर प्रक्रिया द्वारा मानव तथा जीव-जंतुओं के जीवन को प्रभावित करता है। इतना सब होने पर भी विभिन्न प्राकृतिक घटकों का संतुलन बिगड़ जाने से संपूर्ण पर्यावरण-तंत्र अस्थिर हो जाता है। इस अस्थिरता को पर्यावरण प्रदूषण कहते हैं। इसके विपरीत जब प्रकृति के सभी घटकों में संतुलन बना रहता है तो उसे पर्यावरण संरक्षण कहते हैं।

प्रकृति का महत्व हमारे जीवन में सौंदर्य की दृष्टि से ही नहीं, बल्कि हमने सदैव उसे अपने प्राण से भी ज्यादा प्यारा समझा है। प्राण की सुरक्षा किसी व्यक्ति के लिए जितनी अहमियत रखती है, उतनी ही महत्ता प्रकृति को प्रदान करते हुए पूजनीय समझा है। ये सभी संस्कारों एवं त्यौहारों में कभी शमी के रूप में तो कभी पीपल, बड़, तुलसी के रूप में विराजते हैं। आम, पल्लव, कुंद, पाटल, अशोक, तुलसी दल, आदि हमारे जीवन-प्रक्रिया के अभिन्न अंग बन चुके हैं। भगवान कृष्ण ने गीता में विभूतियोग में वृक्षों की महिमा का बखान किया है। हमारी संस्कृति वनों-तपोवनों में फली-फूली है, हम वृक्षों को देने वले अर्थात् देवता समझकर कृतज्ञ भावना के उज्जवल आदर्श को प्रस्तुत करते हैं। हमारे देश में कन्याएं पेड़ों की थालों को सींचती हैं। उनका विश्वास है कि उनके इस कृत्य से आशीर्वाद प्राप्त होगा और उन्हें अच्छा वर प्राप्त होगा।

उदाहरण के लिए, दुष्यंत राजा पेड़ों को पानी डालती शकुंतला पर मुग्ध हो गए थे। वह पेड़-पौधों को अपने सगे-संबंधियों जैसा प्यार करती थी। भगवती पार्वती को देवदार से अगाध प्रेम था, यह जाहिर है, क्योंकि स्वयं पार्वती ने अपने सोने के घट रूप स्तनों के रस से सींच-सींचकर उसे उतना बड़ा पेड़ बनाया था। पेड़ हमारे उपदेशक हैं, जो हमें निरंतर भेदभाव के बिना निःस्वार्थ भाव से देने में विश्वास करते हैं। बड़े होकर फल-फूलों के भार से झुके हुए पेड़ विनम्र होने का उपदेश देते हैं, जो हमारे सभ्यता व संस्कृति का मूलभूत आधार हैं। महाकवि रसखान, तुलसीदासजी ने भी अपने काव्य में पेड़ों का वर्णन किया है। अशोक महान ने लोकहितार्थ पेड़ लगवाए। ऐसे अनेक उदाहरण भारतीय इतिहास में उपलब्ध हैं। जिन पेड़ों ने आदर्श व उत्प्रेरणा प्रदान की है, उनके प्रति संवेदनशील होकर उनका संरक्षण करना हमारा कर्तव्य स्वतः ही बन जाता है।

इसी प्रकार हमारी पवित्र नदियां हमारे लिए पूजनीय रही हैं। उनके पास बैठकर स्नान करने मात्र से हम अपने जीवन को सफल मानते हैं। हरिद्वार में हर की पौड़ी सारे भारतीयों के लिए श्रद्धेय है। हमारी पवित्र नदियों पर ही देश की संस्कृति व आर्थिक ढांचा टिका हुआ है। वन जीवों की उपयोगिता के कारण उनका संरक्षण भारतीय संस्कृति का विशिष्ट और अभिन्न अंग रहा है। मोर सरस्वति के साथ सिंह महाकाली के साथ, इंद्र हाथी के साथ, चूहा गणेश के साथ पूजा जाता है। ज्योतिष में राशियों के नाम पशुओं के नाम पर हैं। अशोक स्तंभ पर वन-जीवों की सुरक्षा का निर्देश भी उपलब्ध है। भारतीय मां जिस प्रकार विभिन्न प्रकार के कष्ट सहन कर भी बच्चों का संरक्षण करते हुए उनके विकास व संरक्षण के प्रति सचेष्ट रहती है, उनकी आवश्यकता की पूर्ति हेतु समर्पित रहती है, ठीक इसी प्रकार प्रकृति हमारी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं। दोहन और पोषण में विश्वास करना हमारी संस्कृति का आधार रहा है, हम किसी भी प्रकार के शोषण को स्वीकृति नहीं देते। आज प्रकृति का अत्यधिक ‘दोहन’ शोषण की श्रेणी में आता है। शोषण सदैव दोनों पक्षों के लिए हानिकारक है। एक उदाहरण से मैं अपनी बात स्पष्ट करना चाहूंगी, “हम गाय का दोहन करते हैं, वह हमें दूध देती है, परंतु दोहन से पूर्व तथा पश्चात् हम उसका पोषण भी करते हैं।”

प्राचीनकाल से प्रकृति हमारे लिए पूजनीय रही है, लेकिन आज हम पेड़ों को निर्दयता से काट रहे हैं तथा प्रकृति का निजी स्वार्थ के लिए विध्वंस कर रहे हैं, जबकि हमारे देश के पौराणिक ग्रंथों ने प्रकृति को देवी रूप में प्रतिष्ठित किया है। हमारे वेद, पुराण, उपनिषद् इस तथ्य के ज्वलंत प्रमाण हैं कि हमने सदैव प्रकृति देवी की पूजा की है। पीपल, तुलसी, नीम, बड़, खेजड़ी की पूजा आज भी कतिपय अनेक जन-समुदायों में की जाती है।, जिसका धार्मिक एवं सांस्कृतिक ही नहीं, अपितु वेदांतिक महत्व भी है। आयुर्वेद के अधिष्ठाता धनवंतरि ने तो प्रकृति से प्राप्त जड़ी-बूटियों को समस्त असाध्य रोगों के निदान के लिए रामबाण औषधि समझा था। आंग्ल कवि ‘वर्ड्सवर्थ’ ने प्रकृति की गोद में ही जीवन का परमसुख समझा था। रूसो ने ‘बैक टू दि नेचर’ का शंखनाद किया था। वस्तुतः प्रकृति के समस्त उपादान हमारे लिए श्रद्धेय ही नहीं, अपितु परम पूजनीय हैं।

भारतीय चिंतन में मनीषियों ने प्रकृति को मातृशक्ति के रूप में माना है और स्वयं को उसके पुत्र के रूप में-
माता भूमिः पुत्रोSहं पृथिव्याः।

धार्मिक कार्यों में पृथ्वी का पूजन किया जाता है और धरती माता के प्रति अगाध श्रद्धा व्यक्त करते हुए कहा जाता है-
ऊँ पृथ्वी त्वया धृता लोका देवि! त्वं विष्णुना धृता।
त्वं च धारय मा देवि! पवित्र कुरू चासनम्।


वास्तव में ऋषियों ने संपूर्ण प्राकृतिक शक्तियों को देवस्वरूप माना है। वेदों में जल को आपो देवता नाम से संबोधित किया गया है। जल सतत् प्रवहमान है। यह शरीर को जीवन देता है। मिट्टी के साथ मिलकर वनस्पतियों को उगाता है। उससे अन्न पैदा होता है। जल ही पशुओं में दूध बनाता और फलों को रस प्रदान करता है। जल से ही बल और तेज की उत्पत्ति होती है।

तैत्तिरीय उपनिषद् में वर्णन है कि सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न से ही जीवित रहते हैं, अन्न से ही बल और तेज दोनों हैं, अन्न के बिना जीवन दुर्लभ है। ऊर्जा के अक्षय स्रोत सूर्य को स्थावर जंगम की आत्मा कहा गया है-
सूर्य आतना जगत स्तस्तुषश्च।

यह कितने आश्चर्य की बात है कि हमारे मंत्र दृष्टा ऋषियों ने हजारों वर्ष पर्व जिस सूर्य को अक्षय ऊर्जा का स्रोत स्थावर जंगम की आत्मा बताया है, उसी को आज वैज्ञानिकों ने अपने प्रयोगों द्वारा प्रमाणित किया है।

सब मंत्रों में श्रेष्ठ गायत्री मंत्र माना जाता है-
ऊँ भूभुर्वः स्वः तत्सवितुवरेण्यम् भार्गोदेवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

वेद हमें पग-पग पर पर्यावरण संरक्षण का संदेश देते हैं। वेदों में वर्णित द्यआश्रम पद्धति का विभाजन प्रकृति पर आधारित है। आश्रम व्यवस्था में सूंपूर्ण मानव जीवन को चार आश्रमों में विभक्त किया गया है। इन चार आश्रमों में तीन आश्रम-ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास तो पूरी तरह से प्रकृति के साथ ही व्यतीत होते थे। विद्यध्ययन के लिए गुरुकुल सदैव वन प्रदेश एवं नदी तट पर होते थे। यहां बालक प्रकृति के सान्निध्य में पलता, बढ़ता एवं विद्याध्ययन करता था। आचार्य उसे विद्या अध्ययन के साथ-साथ प्रकृति से ताल-मेल एवं सामंजस्य का सूत्र भी सिखलाते थे। इस संदर्भ में संदीपनी आश्रम में श्रीकृष्ण-सुदामा का जंगलों से लकड़ियां लाना, वहां वन की कठिनाइयों से अवगत होना, विश्वामित्र का राम-लक्ष्मण को अपने यहां ले जाना और उद्दालक ऋषि के शिष्य आरुणि का प्रसंग सर्वविदित है। वन में श्री राम का सीताहरण के समय पशु-पक्षियों से संवाद-

हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी
तुम्ह देखी सीता मृगनयनी।


श्रीराम द्वारा जटायु का अंतिम संस्कार अपने हाथ से करना यह दर्शाता है कि भारतीय संस्कृति मानव को पशु-पक्षियों से भी संवेदनात्मक एवं भावनात्मक संबंध रखने का संदेश देती है।

गृहस्थ आश्रम की शुरुआत विवाह-संस्कार से प्रारंभ होती है, जिसमें व्यक्ति को गृहस्थी संबंधी जानकारियां दी जाती हैं। इस आश्रम में भी भूमि, जल, वृक्ष, वनस्पतियों के पूजन-अर्चन के माध्यम से लोकोपकार व लोक कल्याण हेतु जानकारियां दी जाती हैं। सनातन धर्म में विवाह को संस्कार माना गया है। इसका आरंभ द्वार-पूजन, भूमि-पूजन, जल-पूजन, कूप पूजन के रूप में मिट्टी-पूजन, माड़ों-पूजन में बांस का रोपण, दूर्वा-कुश आदि को नवगृह पूजन में प्रयुक्त करना, पूजा के कलश में सात नदियों का जल आदि नदी व भूमि को पवित्र बनाए रखने की प्रेरणा देता है। गृहस्थ आश्रम में रहते हुए विभिन्न मनोकामनाओं की पूर्ति हेतु विभिन्न वृक्षों व वनस्पतियों के पूजन का भी विधान है, जो पर्यावरण संरक्षण का संदेश देती हैं।

भारतीय ऋषियों ने प्रत्येक वृक्ष में किसी-न-किसी देवता का प्रतिरूप देखा। प्रायः हर पेड़ के साथ कोई-न-कोई कथा जुड़ी है और धार्मिक महत्व मिला है। इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है पीपल का वृक्ष। स्वयं गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है-

‘अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां’ (समस्त वृक्षों में मैं पीपल का पेड़ हूं) योगेश्वर श्री कृष्ण द्वापर के अंत में गोलोक जाने के पूर्व इसी दिव्य वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यानावस्थित हुए थे। कलियुग में भगवान बुद्ध को भी बोधिसत्व की प्राप्ति पीपल वृक्ष के नीचे हुई थी। संभवतया इसके इन्हीं गुणों के कारण श्रीकृष्ण ने स्वयं को सभी वृक्षों का अश्वत्थ कहकर इस वृक्ष की महिमा प्रतिपादित की है। कई प्रदेशों में पीपल के वृक्ष को पुत्रदाता माना जाता है, इसलिए पुत्र चाहने वाली स्त्रियां सायंकाल पीपल वृक्ष के नीचे दीपक जलाती हैं। विग्रह-हवन और पूजा पाठ के समय पीपल के पत्ते व लकड़ियां शुभ मानी जाती हैं। इस वृक्ष की जड़ों में ब्रह्मा, तने में विष्णु और शाखाओं में शिव का वास माना जाता है। कहा भी गया है-

पत्रे-पत्रे देवानाम् वृक्षाराज नमस्ते।

भगवान बुद्ध अशोक वृक्ष की छाया में पैदा हुए, पीपल के पेड़ के नीचे ज्ञान प्राप्त किया, आम के बगीचे में धर्म का उपदेश दिया तथा सागौन वृक्ष के वन में परि-निर्वाण प्राप्त किया। अपने उपदेश में उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि प्रत्येक मनुष्य को पांच साल में कम-से-कम एक वृक्ष जरूर लगाना चाहिए। पीपल और तुलसी में दिव्य औषधीय गुण विद्यमान हैं। पीपल सर्वाधिक ऑक्सीजन देता है, यह वैज्ञानिक तथ्य है। तुलसी के औषधीय गुण सर्वविदित हैं। नारायण का कोई भी भोग तुलसी के बिना पूर्ण नहीं होता है। वायुमंडलीय शुद्धिकरण की दृष्टि से भी तुलसी अत्यधिक ऑक्सीजन प्रदान करने वाला पौधा माना जाता है। इनके पास हानिकारक जीवाणु-विषाणु नहीं पनपते हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार जिस घर में तुलसी की नित्य पूजा होती है, वहां यमदूत कभी नहीं पहुंचते और संभवतया मृत्यु शैया पर पड़े व्यक्ति को यमत्रास से मुक्ति दिलाने के लिए ही तुलसी और गंगा जल अंतिम समय में व्यक्ति के मुंह में डाला जाता है-

तुलसी यस्य भवने प्रात्यहं परिपूज्यते,
तदगृहं निर्वसंति कदाचित यम किंकरा।


इस प्रकार तुलसी भारतीय संस्कृति में जन-जन के रोम में बसी हुई है। तुलसी की रोग निवारक क्षमता के कारण ही आयुर्वेद में इसका महत्व है। कई आयुर्वेदिक दवाएं तुलसी के रस में दी जाती हैं।

आदिवासियों में विवाह के समय महुए के पेड़ पर सिंदूर लगाकर वधू उससे अचल सुहागिन होने का वरदान मांगती हैं और वर आम के पेड़ को प्रणाम कर उससे सफल वैवाहिक जीवन की कामना करता है।

वैदिककाल से आज तक शमी वृक्ष भारत में अपने विभिन्न गुणों के कारण पूज्य रहा है। राजस्थान में विश्नोई समाज में शमी को विशेष तौर पर पूजते हैं शमी के काटे जाने पर एक बार विश्नोई समाज ने प्रबल विरोध करते हुए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। शास्त्र में शमी को समस्त पापों का शमन करने वाला बताया गया है-

शमी अमम में पापं अमी लोहित कष्टका।
धारिव्यर्जुन बागाचां शमस्य प्रियवादिनी।।


धार्मिक दृष्टि से शमी वृक्ष में लक्ष्मी का वास माना गया है। इसका उपयोग मांगलिक कार्यों में किया जाता है। अभिज्ञान शाकुंतलम महाकवि कालिदास ने शमी का वर्णन इस प्रकार किया है-

दुयंते नाहितं तेजो दधानां भृतये भुवः।
अवेहि तनया ब्रह्मस्त्राग्निगर्भा शमीमिव।।


राजस्थान में दुर्भिक्ष पड़ने पर शमी की फलियां खाकर लोग अपनी क्षुधा शांत करते हैं। शमी का महात्म्य भारतीय संस्कृति में जगह-जगह धार्मिक पुस्तकों में विशेषतौर पर बताया गया है।

पौराणिक मान्यता के अनुसार दूब की उत्पत्ति वासुकी नाग की पीठ से हुई मानी जाती है। भादों के शुक्लपक्ष की अष्टमी को दुर्गाष्टमी के रूप में मनाए जाने का विधान है। इसमें दूब की पूजा की जाती है।

जैन तीर्थकारों को जिन वृक्षों की छाया के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई उन्हें केवली वृक्ष कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि धार्मिक स्थलों पर केवली वृक्षों के रोपण से उस स्थल की आध्यात्मिक शक्ति में वृद्धि होती है-

एको सद्विप्रा बहुधा भवंति।

भारतीय ग्रंथ इस तथ्य का प्राण हैं कि कृष्ण ने गोकुलवासियों को इंद्र की पूजा की बजाय गोवर्धन पर्वत की पूजा करने हेतु उद्बोधित किया था। आज भी गंगा, यमुना, सरस्वती हमारे लिए पूजनीय संगम नदियां हैं, ये राष्ट्रीय एकता की भी प्रतीक हैं। इसी प्रकार सूर्य, अग्नि, चंद्रमा, वायु, पेड़, जल की भी उपनिषदों में देववत् उपासना की गई है।

प्रकृति के साथ सुसंबंधद्धता, मध्यकालीन भारत तथा मुगलकाल में भी एक प्रमुख लक्ष्य रहा है तथा मुगलकाल में कला व स्थापत्य कला का अद्वितीय विकास प्रकृति के साथ इस तारतम्यता को प्रदर्शित करता है कि उक्त काल में मुस्लिम तथा हिंदू कला व परंपराओं के तत्वों का सुखद मिश्रण था।

जिस तरह शरीर की शोभा प्राण की होती है, उसी प्रकार पर्यावरण की शोभा वनों से व वनों की शोभा वन्य प्राणियों से होती है। मानव वृक्षों के बिना जीवित नहीं रह सकता, इसलिए नहीं कि उसे मकान, ईंधन, चारा, छाया व फल, औषधि तथा रोजगार आदि वृक्षों से प्राप्त होते हैं, वरन् इसलिए भी कि वृक्ष जलवायु में संतुलन बनाकर तीक्ष्णता का शमन करते हैं, भूमि-कटाव से रक्षा करते हैं, मानव का समूचा अस्तित्व ही मृदा व जल के समुचित नियंत्रण पर निर्भर हैं। इसी प्रक्रिया में वृक्ष एक अपरिहार्य कड़ी हैं। ठीक ही कहा गया है- ‘वृक्ष से जल, जल से अन्न, अन्न से जीवन’।

वृक्ष बादलों को आमंत्रित करते हैं। भारत की अर्थव्यवस्था वर्षा पर निर्भर करती है। ये पशु के लिए छाया और पक्षियों के लिए रैन-बसेरा हेतु स्थान देते हैं, लेकिन गरीबों द्वारा ईंधन हेतु और विकास व भवनों के लिए पेड़ों को काटा जा रहा है। वह पेड़ जिसके नीचे बैठकर गौतम बुद्ध को बोध हुआ। हमें मालूम होना चाहिए कि सीमावर्ती प्रदूषण के आयात से पीपल, बरगद, नीम, आम आदि सुरक्षा करते हैं-

वृक्ष न काटें, पौधे रोपें, सरिताओं को करें न दूषित,
कृत्रिम गतिविधियों से अपना, करें न वातावरण प्रदूषित।


गौतम बुद्ध के शब्दों में, “वृक्ष असीमित परोपकार वाली विलक्षण का नाम हैं, यह अपने निर्वाह के लिए कोई मांग नहीं करता और पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ अपने जीवन-चक्र द्वारा उत्पादित सभी उत्पादों को दान कर देता है। यह अन्य जीवों के साथ-साथ अपने काटने वाले, जो नष्ट करता है, को भी छाया अर्पित कर संरक्षण देता है।”

आने वाली पीढ़ियों के लिए पर्यावरण को सुरक्षित रखने तथा कृषि व वनों की उत्पादकता को बढ़ाने के लिए हमें जरूरी कदम उठाने होंगे, तभी हम अपने उद्देश्य पूरे कर पाएंगे व आने वाली पीढ़ियों को स्वस्थ पर्यावरण व वर्तमान को सुखी जीवन दे पाएंगे-

यदि शुद्ध हो पर्यावरण, यदि प्रबुद्ध हो हर आचरण।
भय दूर रहेगा रोग का, संतुलित होगा जीवन-मरण।


आज हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या प्रदूषण एवं शुद्ध पर्यावरण की उतनी नहीं है, जितनी पश्चिम की भौतिकवादी सभ्यता के फलस्वरूप होने वाले दुष्परिणामों की है, जिन्हें अपनाकर भारतीय मूल्य, परंपराओं एवं संस्कृति के मूलभूत आयामों पर चोट पहुंचाई जा रही है, जिसके फलस्वरूप चराहगाह नष्ट हो रहे हैं, पशुपालन उजड़ रहे हैं, जलाऊ लकड़ी का संकट निरंतर बढ़ता जा रहा है, खनिज उत्पाद से फसल और वन चौपट होते जा रहे हैं, झीलें सूख रही हैं, नदी के पानी के प्रदूषण के फलस्वरूप मछुआरों का जीवन अनिश्चित हो रहा है, हरित-क्रांति समाज पर बोझ बन रही है, बांध जिन्हें देश की प्रगति का नया तीर्थ स्थल कहा गया था, उनका कलश फीका पड़ रहा है। बिजलीघरों के झुंड तैयार हो रहे हैं, विकास के नाम पर झोले में असाध्य बीमारियां आ रही हैं, रासायनिक कीटनाशकों की कारखानों ने हजारों की जान ले ली है।

फर्टिलाइजर्स फैक्ट्रियां दांतों को विकृत कर फेफड़ों को कमजोर कर रही हैं, गैस रिसाव से सैकड़ों महिलाओं का गर्भपात हो रहा है और तो और हम आकाश में बिजलीघर स्थापित करने की व्यस्था करने जा रहे हैं। ये सब वैज्ञानिक आविष्कार मानव-जाति के लिए उपादेय सिद्ध न होकर हानिकारक सिद्ध हो रहे हैं। सरकार द्वारा पर्यावरण रक्षा का उत्तरदायित्व वहन करने हेतु कानूनों का निर्माण किया गया है, फिर भी विभिन्न प्रकार के प्रदूषण-जल, वायु, भूमि, ध्वनि, आकाश प्रदूषण निरंतर बढ़ रहा है-

जल, ध्वनि, वायु प्रदूषण, सब पर करना हमें नियंत्रण।
वृक्ष काटकर हम विनाश को, दे न खुला आमंत्रण।।


ऊर्जा की अंधाधुंध खपत व वनों की बेशुमार कटाई, अनायास बढ़ती हुई जनसंख्या, तेजी से फैलते हुआ प्रदूषण और उसके बीच संसाधनों का निर्मम शोषण यहीं बदला चुकाया मनुष्य ने प्रकृति की अनुकंपा का। फसलों की लालच ने पृथ्वी के गर्भ को चीरकर रासायनिक खाद से भरने को मजबूर किया, विलासिता के दृष्टिकोण ने मिलों, फैक्ट्रियों, कारखानों और संयंत्रों के माध्यम से चारों ओर प्रदूषण फैलाया। तेज रफ्तार की चाहत ने कारों, ट्रकों और स्कूटरों आदि की ताबड़तोड़ भाग-दौड़ से वातावरण में धुआं-ही-धुआं भर दिया। उपयोग की संस्कृति ने कोयले, पेट्रोलियम एवं अन्य खनिजों को स्वाहा करने के लिए उसे विवश किया तथा बहादुरी खान-पान और सजावट की लिप्सा ने जीव-जंतुओं के व्यापक संहार का रास्ता खोल दिया।

अतः हम मनुष्यों का ऐसे अवसर पर कर्तव्य है कि जिस तेजी से विज्ञान व तकनीक का विकास हो रहा है, उससे हम अध्यात्म पर हावी हो जाने के इस खतरे को टालते जाएं और सारे कृत्य मानवता से ओत-प्रोत ही हों, संसार में स्थित कोई भी वस्तु चाहे निर्जीव हो या सजीव, हम उसका प्रकृति से पृथक अस्तित्व स्वीकार नहीं कर सकते। विश्व का सारा वातावरण एक इकाई के रूप में समझा जाना वांछित है। अतः घर, परिवार, समाज, राष्ट्र, पड़ोसी, राज्य विभिन्न भूमंडलों में स्थित मानव व प्रकृति सभी पर्यावरण के रूप हैं। प्रकृति इन सब में सर्वोपरि है।

पर्यावरण संतुलन के विभिन्न घटकों-वायु, जल, भूमि, वन, वातावरण, नागरिक स्वास्थ्य, ऊर्जा, जीवन संपदा, राज्य, समाज, जीव-जंतुओं एवं वनस्पति का समग्र रूप से परस्पर समन्वय करते हुए गंभीरता से चिंतन करने की महती आवश्यकता है-
प्रदूषण मुक्त हो पर्यावरण, दूर हटाओ कृत्रिम आवरण।
तन-मन हो साफ-सुथरे, शुद्ध हो हर आचरण।।


व्यक्ति को व्यक्तिगत स्वार्थ को त्यागकर सामाजिक स्वार्थ को मान्यता देनी चाहिए। प्रकृति एवं मनुष्य में सह-अस्तित्व की भावना का विकास हो, सांस्कृतिक मूल्यों को सर्वोपरि समझते हुए कथनी व करनी में एकरूपता हो, आत्मावलोकन व आत्मनिरीक्षण का विकास, सामाजिक मूल्यों के संदर्भ में करते हुए मानव-समाज के हित में समर्पित भाव रखने से सामाजिक, राजनीतिक ही नहीं, प्राकृतिक प्रदूषण पर भी रोक लगेगी तथा पर्यावरण संतुलन की संभावनाएं स्वतः ही बढ़ जाएगी और वायु, जल, मिट्टी, वनस्पति अथवा भौतिक जलीय, वायु और आकाशीय रिश्तों में संतुलन स्थापित हो सकेगा। वस्तुतः पर्यावरण ही मानव-जीवन का मूल आधार है और इसके लिए आवश्यक है कि मानव समष्टि कल्याण की भावना के साथ पर्यावरण से मित्रवत् व्यवहार करें। यजुर्वेद में चर-अचर सभी को मित्र की दृष्टि से देखने का संदेश दिया गया है-

मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे
मित्रस्य चक्षुष समीक्षा महे।


यजुर्वेद मे ही एक और उदाहरण दृष्टव्य है-
सुमित्रिया न आप ओषधयः संतु दुर्भित्रियास्तस्मै
संतु योस्मान दृष्टि यं च वयं द्विष्मः।


अतः जब पर्यावरण के प्रति मानव में मित्रता का भाव रहेगा, तभी वह पर्यावरण सुरक्षित रख सकेगा। मानव को चाहिए कि वह अपने आस-पास की प्राकृतिक संपदाओं को मित्र समझकर उसका उपयोग करें। किसी भी प्राणी, समाज या समूह विशेष का पर्यावरण, उसके आस-पास की प्रत्येक जैविक व अजैविक वस्तुओं को मिलाकर बना है। इस प्रकार पर्यावरण और कुछ नहीं, बल्कि हमारे चारों ओर फैले हुए भौतिक व जैविक मंडलों की प्रतिक्रियाओं द्वारा उत्पन्न वातावरण है।

प्राध्यापक (हिंदी विभाग)
काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी (उ.प्र.)

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