हिमालय के उस पार त्रिविष्टप, यानी तिब्बत में हमारी देवभूमि है। वहां दुनिया के सबसे ऊंचे, सबसे सुन्दर और सबसे प्रभावी तीन सरोवर हैं। एक है पैंसठ मील के घेरेवाला मान-सरोवर। उससे कुछ छोटा उसी के पड़ोस में है रावण हृद या राकसताल। और उनके उत्तर-पूर्व में कैलास के नजदीक है, इन दोनों से छोटा, लेकिन इन दोनों से भी ऊंचा गौरीकुंड। इनके आसपास; हर दिशा में पहाड़ ही पहाड़ फैले हुए हैं जो चिर-हिम के श्वेत मुकुट पहनकर ध्यानी मुनि के जैसे बैठे रहते हैं।
इन पहाड़ों में भी अपनी ऊंचाई से अलग दिखने वाले दो भव्यतम पहाड़ हैं- कैलाश और गुर्ला मान्धाता। मानस-सरोवर और राकसताल के उत्तर में, समस्त जंबू द्वीप या एशिया-खंड के बिल्कुल केंद्र में विराजमान है कैलाश शिखर, जिस पर महायोगीश्वर, देवाधिदेव शंकर भगवान, पार्वती के साथ रहते हैं। और दक्षिण में है मान्धाता पर्वत, जो प्राचीन काल के एक विश्वविजेता भारतीय सम्राट का नाम धारण किए हुए है। सम्राट् मान्धाता और सम्राट् रावण दोनों का इसी स्थान पर युद्ध हुआ था। कवियों ने राम का यश बढ़ाया और रावण का घटाया। लेकिन रावण कुछ कम नहीं था। कुबेर का भाई, दुनिया का सम्राट्। भाई से लड़ने के बाद समझौते के तौर पर हिमालय छोड़कर, लंका में जा बसा। वहां के राक्षस लोगों की प्रीति उसने हासिल की। और उसने कुबेर से पुष्पक विमान छीन लिया। ऐसा यह बड़ा सम्राट्, मान्धाता का प्रतिस्पर्धी, इन सरोवरों में नहाता था और एकग्रता से शिव-पार्वती की उपासना करता था।
लोग कहते हैं, मानस-सरोवर हिमालय के उस पार कैलाश और मान्धाता पहाड़ के बीच में है। बात सही है। लेकिन, हमारा मानस-सरोवर तो भारतवर्ष का भूत, वर्तमान और भविष्य- सब भारतवासियों के हृदय में हैं। भारत के ऋषिमुनि, संत महंत तपस्वी, योगी, कवि और दार्शनिक सब के सब इस मानस का ही ध्यान चिंतन करते आये हैं। तुलसीदास ने रामचरित लिखा। किन्तु, अपने महान काव्य को ‘मानस’ कहे बिना कविवर को संतोष नहीं हुआ। भारत के समस्त कवियों के सुवर्ण-वर्ण कल्पना-कमल इस मानस में ही उगते हैं। नवखंड पृथ्वी की व्योमयात्रा करने वाले राजहंस भी इन मानस का ही आश्रय लेते हैं। प्राचीन काल से आज तक भारत के उग्र तपस्वी कैलाश और मानस की परिक्रमा करते आये हैं। बोद्धधर्म और उनके महायान संप्रदाय की योगविद्या इसी मानस-सरोवर के आसपास जो आठ या अधिक बौद्ध मठ है, उन्हीं के द्वारा संगृहीत हैं। पन्द्रह मील लम्बा, दस-बारह मील चौड़ा, दौ सौ वर्गमील के विस्तार का और 40 फुट गहरा यह सरोवर वैदिक और बौद्ध आध्यात्मिकता की जीवन-राशि है। भारत की चार प्रधान नदियां मानस के परिसर से ही निकलती हैं। पूर्वगामी ब्रह्मपुत्र और पश्चिमगामी सिन्धु-ये दोनों महानद हिमालाय के उस पार का सारा पानी इकट्ठा कर इस ओर लाते हैं। और सतलुज तो हिमालय को बींधकर रावणह्रद का पानी सिंधु तक पहुंचाती है।
इधर छोटी करनाली नदी मानस के पवित्र जल को लेकर सरयू को देती है। और सरयू प्रभू रामचंद्र के अश्रु से मिला हुआ वह पानी गंगा को दे देती है।
ऊधर चीन की प्राचीन और विशाल संस्कृति की दो माताएं व्हांगहो, और यंगत्सी कियंग थी तीब्बत के प्रदेश में जन्म लेकर, दो-दो हजार मील बहकर, एक पुरानी प्रभावशाली जाति को परिपुष्ट करती हैं। मानस-सरोवर सचमुच अनेक जातियों के मानस को चैतन्य प्रदान करता आया है।
इस तरह भारतीय मानस का केन्द्र बना हुआ यह मानस-सरोवर सनातन काल से एक बड़े विश्व की सेवा करता आया है।
मानस-यात्रा के लिए हिमालय के लांघने के अनेक मार्ग है। सबसे नजदीक का है लेपूलेख घाटी का रास्ता, अल्मोड़ा से दो सौ चालीस (240) मील जाने पर आप कैलाश के मानस-सरोवर को पहुंच सकते हैं। इससे पश्चिम में दूसरा रास्ता है मीलम होकर जाने वाला ऊंटा-धुरा घाटी का इस रास्ते यानी पहले ग्यानिया मंडी पहुंचता है। और फिर कैलाश और मानस-सरोवर के बीच जाकर दोनों की परीक्रमा अलग-अलग कर सकता है। ऊंटा-धुरा के भी पश्चिम में ‘होती’ और ‘नेती’ ये दो घाटियां हैं। बदरीनाथ होकर जाने लोग इसी रास्ते मानस-सरोवर की ओर जाते हैं। और जो लोग जमनोत्री-गंगोत्री होकर कैलाश जाना चाहते हैं, उनके लिए है मानाघाट। धर्मराज प्रमुख पांच पांडव शायद इसी रास्ते कैलाश गये थे। यह सबसे पश्चिम की तरफ का रास्ता है और सबसे लम्बा और कठिन भी है।
आजकल ज्यादातर लोग अल्मोड़ा से गरब्यांग से ताकलाकोट होकर मानस-सरोवर जाते हैं। इसमें गरब्यांग है लेपुघाटी के इस पार और ताकलाकोट है उस पार। तिब्बती भाषा में तालका का अर्थ होता है सिंह। इसलिए ताकलाकोट को हम सिंहगढ़ कह सकते हैं।
नेपाल के लोग अक्सर टिंकर की घाटी लांघकर खोजरनाथ को दर्शन के लिए जाते हैं। और, वहां से ताकलाकोट पहुंचते हैं। फिर, वहां से उत्तुंग मान्धाता को दाहिनी ओर छोड़कर धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं वहां दाहिनी ओर है मानस-सरोवर और बाईं ओर है। राकसताल। और बीच की छोटी-सी भूमि आपको कैलाश की ओर ले जाती है।
सनातनी साधु हों या बौद्ध भिक्षु, कुदरत-प्रेमी तो होते ही हैं। वे ऐसे स्थान पर अपने मठ खड़े कर देते हैं, जहां से प्रकृति का भव्य-से-भव्य दृश्य एक ही नजर में पिया जा सके। ऐसे भी स्थान है, जहां मानस-सरोवर और राकसताल दोनों का विस्तार एक साथ दीख पड़े, और मान्धाता और कैलाश दोनों शिखरों का एक साथ दर्शन हो सके। इतना भव्य इतना उन्मादक, इतना पावन और इतना शांतिदायक स्थान न यूरोप में कहीं है, न अमेरिका में, न अफ्रिका में न आस्ट्रेलिया में। जहां हरेक मनुष्य भक्तिनम्र और योगाग्र हो सकता है, ऐसा सारी पृथ्वी का गौरव-स्थान अगर है तो वह मानस और उसके आसपास का प्रदेश। मानस समुद्र की सपाटी से करीब पन्द्रह हजार फुट की ऊंचाई पर है और उसमें मानवी-मानस के सब लक्षण दीख पड़ते हैं। जब वह शान्त होता है, तब आकाश के जैसा निश्चय होता है और आकाश के सब तारे भी उसमें प्रतिबिंबित होते हैं। लेकिन जब उसमें तुफान उठते हैं, तब वाल्मीकि का रावण, व्यास का दुर्योधन, मिल्टन का शैतान और होमर का एगे मेमनन-सबके दुर्दान्त भावावेग का सम्मेलन वहां जम जाता है। कहते हैं कि रावणह्रद का पानी लोग अपवित्र समझने लगे, इसलिए मानस-सरोवर ने अपने पवित्र जल की एक छोटी-सी नदी अपने यहां से वहां तक भेज दी और रावणह्रद को पवित्र बना दिया। इस उभयान्वयी नदी को गंगाचु कहते हैं। यह नदी सरो-गा भी है और सरो-जा भी। दो सरोवर को जोड़नेवाली, युक्त करने वाली नदी ही सचमुच सरयू है।
भारत के और तिब्बत के कवियों ने इस प्रदेश के काल्पनिक काव्यमय वर्णन किये हैं। यहां से बहने वाली नदियों में से एक का उद्गम सिंहमुख से होता है। दूसरी का उद्गमगोमुख से। तीसरी का अश्वमुख से होता है। और चौथी का गजमुख से। कैलाश की चार बाजू पर बुद्ध भगवान के चार पदचिन्ह हैं। कैलाश के शिखर पर, जहां हमारे शिवजी रहते हैं, वहां उनके धर्मपाल रहते हैं, इत्यादि।
कितना उचित था कि महात्मा गांधी के बलिदान के बाद उनकी अस्थियों का विसर्जन भारत के जो अनेकानेक पवित्र स्थान है, वहां किया गया। गंगा यमुना और मध्ये गुप्ता सरस्वती के त्रिवेणी-संगम में उनकी अस्थियों का प्रधान हिस्सा विसर्जन करने के बाद बाकी के अवशेष और चिताभस्म भक्त भारतीय अनेक जगह पर से ले ले गये। थोड़ा हिस्सा गोवा के किनारे समुद्र में विसर्जन किया। थोड़ा हिस्सा वर्धा के पास पवनार नदी में, जहां अब परमधाम आश्रम है। और कछ अवशेष साबरमती नदी में विसर्जन किये, जहां गांधी जी ने सत्याग्रह आश्रम खोलकर हिन्द स्वराज की और विश्व सर्वोदय की साधना की थी। अफ्रिका तो सत्याग्रह की जन्म भूमि है। उसका महत्त्व स्वीकार कर कुछ अवशेष जिंजा के पास नील नदी में बहाये गये। पता नहीं, भारत में लोग इस तरह कहां-कहां तक उनके अवशेष ले गये लेकिन भारतीय मानस को पूरा संतोष तो तब हुआ, जब कुछ लोग, हिमालय के उस पार गये और मानस-सरोवर के दक्षिण किनारे, मोमोडुंगु अथवा मोनोटुकु के स्थान पर वे पवित्रतम जल में समर्पित कर सके। मुझे विश्वास है कि भारत के लोग, एवं युगावतार बुद्ध भगवान के तिब्बत-चीन के शिष्य मिलकर इस स्थान पर एक गांधी स्मारक खड़ा कर देंगे, जो हमारे लिए भारत-भक्ति का एक नया और उत्कृष्ट आकर्षण होगा। क्योंकि, भारतीय मानस में प्रकट हुए सब-के-सब सर्वोच्च आदर्शों का केंद्रस्थल यह मानस-सरोवर ही हमेशा रहा है।
उसका एक छोटा सा स्रोत गाने का यह मौका मिला, इसे मैं अपना अहोभाग्य समझता हूं। जय कैलास! जय मानस-सरोवर! जय भारत की देवभूमि, पुण्य भूमि और ध्यान भूमि !! जय जय!! जय जय!! जय जय!!!
12 अप्रैल, 1959 ई.
इन पहाड़ों में भी अपनी ऊंचाई से अलग दिखने वाले दो भव्यतम पहाड़ हैं- कैलाश और गुर्ला मान्धाता। मानस-सरोवर और राकसताल के उत्तर में, समस्त जंबू द्वीप या एशिया-खंड के बिल्कुल केंद्र में विराजमान है कैलाश शिखर, जिस पर महायोगीश्वर, देवाधिदेव शंकर भगवान, पार्वती के साथ रहते हैं। और दक्षिण में है मान्धाता पर्वत, जो प्राचीन काल के एक विश्वविजेता भारतीय सम्राट का नाम धारण किए हुए है। सम्राट् मान्धाता और सम्राट् रावण दोनों का इसी स्थान पर युद्ध हुआ था। कवियों ने राम का यश बढ़ाया और रावण का घटाया। लेकिन रावण कुछ कम नहीं था। कुबेर का भाई, दुनिया का सम्राट्। भाई से लड़ने के बाद समझौते के तौर पर हिमालय छोड़कर, लंका में जा बसा। वहां के राक्षस लोगों की प्रीति उसने हासिल की। और उसने कुबेर से पुष्पक विमान छीन लिया। ऐसा यह बड़ा सम्राट्, मान्धाता का प्रतिस्पर्धी, इन सरोवरों में नहाता था और एकग्रता से शिव-पार्वती की उपासना करता था।
लोग कहते हैं, मानस-सरोवर हिमालय के उस पार कैलाश और मान्धाता पहाड़ के बीच में है। बात सही है। लेकिन, हमारा मानस-सरोवर तो भारतवर्ष का भूत, वर्तमान और भविष्य- सब भारतवासियों के हृदय में हैं। भारत के ऋषिमुनि, संत महंत तपस्वी, योगी, कवि और दार्शनिक सब के सब इस मानस का ही ध्यान चिंतन करते आये हैं। तुलसीदास ने रामचरित लिखा। किन्तु, अपने महान काव्य को ‘मानस’ कहे बिना कविवर को संतोष नहीं हुआ। भारत के समस्त कवियों के सुवर्ण-वर्ण कल्पना-कमल इस मानस में ही उगते हैं। नवखंड पृथ्वी की व्योमयात्रा करने वाले राजहंस भी इन मानस का ही आश्रय लेते हैं। प्राचीन काल से आज तक भारत के उग्र तपस्वी कैलाश और मानस की परिक्रमा करते आये हैं। बोद्धधर्म और उनके महायान संप्रदाय की योगविद्या इसी मानस-सरोवर के आसपास जो आठ या अधिक बौद्ध मठ है, उन्हीं के द्वारा संगृहीत हैं। पन्द्रह मील लम्बा, दस-बारह मील चौड़ा, दौ सौ वर्गमील के विस्तार का और 40 फुट गहरा यह सरोवर वैदिक और बौद्ध आध्यात्मिकता की जीवन-राशि है। भारत की चार प्रधान नदियां मानस के परिसर से ही निकलती हैं। पूर्वगामी ब्रह्मपुत्र और पश्चिमगामी सिन्धु-ये दोनों महानद हिमालाय के उस पार का सारा पानी इकट्ठा कर इस ओर लाते हैं। और सतलुज तो हिमालय को बींधकर रावणह्रद का पानी सिंधु तक पहुंचाती है।
इधर छोटी करनाली नदी मानस के पवित्र जल को लेकर सरयू को देती है। और सरयू प्रभू रामचंद्र के अश्रु से मिला हुआ वह पानी गंगा को दे देती है।
ऊधर चीन की प्राचीन और विशाल संस्कृति की दो माताएं व्हांगहो, और यंगत्सी कियंग थी तीब्बत के प्रदेश में जन्म लेकर, दो-दो हजार मील बहकर, एक पुरानी प्रभावशाली जाति को परिपुष्ट करती हैं। मानस-सरोवर सचमुच अनेक जातियों के मानस को चैतन्य प्रदान करता आया है।
इस तरह भारतीय मानस का केन्द्र बना हुआ यह मानस-सरोवर सनातन काल से एक बड़े विश्व की सेवा करता आया है।
मानस-यात्रा के लिए हिमालय के लांघने के अनेक मार्ग है। सबसे नजदीक का है लेपूलेख घाटी का रास्ता, अल्मोड़ा से दो सौ चालीस (240) मील जाने पर आप कैलाश के मानस-सरोवर को पहुंच सकते हैं। इससे पश्चिम में दूसरा रास्ता है मीलम होकर जाने वाला ऊंटा-धुरा घाटी का इस रास्ते यानी पहले ग्यानिया मंडी पहुंचता है। और फिर कैलाश और मानस-सरोवर के बीच जाकर दोनों की परीक्रमा अलग-अलग कर सकता है। ऊंटा-धुरा के भी पश्चिम में ‘होती’ और ‘नेती’ ये दो घाटियां हैं। बदरीनाथ होकर जाने लोग इसी रास्ते मानस-सरोवर की ओर जाते हैं। और जो लोग जमनोत्री-गंगोत्री होकर कैलाश जाना चाहते हैं, उनके लिए है मानाघाट। धर्मराज प्रमुख पांच पांडव शायद इसी रास्ते कैलाश गये थे। यह सबसे पश्चिम की तरफ का रास्ता है और सबसे लम्बा और कठिन भी है।
आजकल ज्यादातर लोग अल्मोड़ा से गरब्यांग से ताकलाकोट होकर मानस-सरोवर जाते हैं। इसमें गरब्यांग है लेपुघाटी के इस पार और ताकलाकोट है उस पार। तिब्बती भाषा में तालका का अर्थ होता है सिंह। इसलिए ताकलाकोट को हम सिंहगढ़ कह सकते हैं।
नेपाल के लोग अक्सर टिंकर की घाटी लांघकर खोजरनाथ को दर्शन के लिए जाते हैं। और, वहां से ताकलाकोट पहुंचते हैं। फिर, वहां से उत्तुंग मान्धाता को दाहिनी ओर छोड़कर धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं वहां दाहिनी ओर है मानस-सरोवर और बाईं ओर है। राकसताल। और बीच की छोटी-सी भूमि आपको कैलाश की ओर ले जाती है।
सनातनी साधु हों या बौद्ध भिक्षु, कुदरत-प्रेमी तो होते ही हैं। वे ऐसे स्थान पर अपने मठ खड़े कर देते हैं, जहां से प्रकृति का भव्य-से-भव्य दृश्य एक ही नजर में पिया जा सके। ऐसे भी स्थान है, जहां मानस-सरोवर और राकसताल दोनों का विस्तार एक साथ दीख पड़े, और मान्धाता और कैलाश दोनों शिखरों का एक साथ दर्शन हो सके। इतना भव्य इतना उन्मादक, इतना पावन और इतना शांतिदायक स्थान न यूरोप में कहीं है, न अमेरिका में, न अफ्रिका में न आस्ट्रेलिया में। जहां हरेक मनुष्य भक्तिनम्र और योगाग्र हो सकता है, ऐसा सारी पृथ्वी का गौरव-स्थान अगर है तो वह मानस और उसके आसपास का प्रदेश। मानस समुद्र की सपाटी से करीब पन्द्रह हजार फुट की ऊंचाई पर है और उसमें मानवी-मानस के सब लक्षण दीख पड़ते हैं। जब वह शान्त होता है, तब आकाश के जैसा निश्चय होता है और आकाश के सब तारे भी उसमें प्रतिबिंबित होते हैं। लेकिन जब उसमें तुफान उठते हैं, तब वाल्मीकि का रावण, व्यास का दुर्योधन, मिल्टन का शैतान और होमर का एगे मेमनन-सबके दुर्दान्त भावावेग का सम्मेलन वहां जम जाता है। कहते हैं कि रावणह्रद का पानी लोग अपवित्र समझने लगे, इसलिए मानस-सरोवर ने अपने पवित्र जल की एक छोटी-सी नदी अपने यहां से वहां तक भेज दी और रावणह्रद को पवित्र बना दिया। इस उभयान्वयी नदी को गंगाचु कहते हैं। यह नदी सरो-गा भी है और सरो-जा भी। दो सरोवर को जोड़नेवाली, युक्त करने वाली नदी ही सचमुच सरयू है।
भारत के और तिब्बत के कवियों ने इस प्रदेश के काल्पनिक काव्यमय वर्णन किये हैं। यहां से बहने वाली नदियों में से एक का उद्गम सिंहमुख से होता है। दूसरी का उद्गमगोमुख से। तीसरी का अश्वमुख से होता है। और चौथी का गजमुख से। कैलाश की चार बाजू पर बुद्ध भगवान के चार पदचिन्ह हैं। कैलाश के शिखर पर, जहां हमारे शिवजी रहते हैं, वहां उनके धर्मपाल रहते हैं, इत्यादि।
कितना उचित था कि महात्मा गांधी के बलिदान के बाद उनकी अस्थियों का विसर्जन भारत के जो अनेकानेक पवित्र स्थान है, वहां किया गया। गंगा यमुना और मध्ये गुप्ता सरस्वती के त्रिवेणी-संगम में उनकी अस्थियों का प्रधान हिस्सा विसर्जन करने के बाद बाकी के अवशेष और चिताभस्म भक्त भारतीय अनेक जगह पर से ले ले गये। थोड़ा हिस्सा गोवा के किनारे समुद्र में विसर्जन किया। थोड़ा हिस्सा वर्धा के पास पवनार नदी में, जहां अब परमधाम आश्रम है। और कछ अवशेष साबरमती नदी में विसर्जन किये, जहां गांधी जी ने सत्याग्रह आश्रम खोलकर हिन्द स्वराज की और विश्व सर्वोदय की साधना की थी। अफ्रिका तो सत्याग्रह की जन्म भूमि है। उसका महत्त्व स्वीकार कर कुछ अवशेष जिंजा के पास नील नदी में बहाये गये। पता नहीं, भारत में लोग इस तरह कहां-कहां तक उनके अवशेष ले गये लेकिन भारतीय मानस को पूरा संतोष तो तब हुआ, जब कुछ लोग, हिमालय के उस पार गये और मानस-सरोवर के दक्षिण किनारे, मोमोडुंगु अथवा मोनोटुकु के स्थान पर वे पवित्रतम जल में समर्पित कर सके। मुझे विश्वास है कि भारत के लोग, एवं युगावतार बुद्ध भगवान के तिब्बत-चीन के शिष्य मिलकर इस स्थान पर एक गांधी स्मारक खड़ा कर देंगे, जो हमारे लिए भारत-भक्ति का एक नया और उत्कृष्ट आकर्षण होगा। क्योंकि, भारतीय मानस में प्रकट हुए सब-के-सब सर्वोच्च आदर्शों का केंद्रस्थल यह मानस-सरोवर ही हमेशा रहा है।
उसका एक छोटा सा स्रोत गाने का यह मौका मिला, इसे मैं अपना अहोभाग्य समझता हूं। जय कैलास! जय मानस-सरोवर! जय भारत की देवभूमि, पुण्य भूमि और ध्यान भूमि !! जय जय!! जय जय!! जय जय!!!
12 अप्रैल, 1959 ई.
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