समिति को इस उत्तर पर आश्चर्य हुआ कि दल-नायकों के पते-ठिकाने की जानकारी विभाग को नहीं है। समिति ने इस बात की जिज्ञासा की किस परिस्थिति में बिना पता-ठिकाना लिए हुये तथा बिना सही पहचान कराये ही दल-नायकों को अग्रिम रुपया दिया गया। विभाग ने कोई संतोषप्रद उत्तर नहीं दिया। उप-समिति को यह बतलाया गया कि प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू, योजना आयोग, राष्ट्रीय विकास परिषद तथा मुख्यमंत्री के आदेश पर बिना जमानत लिए दल-नायकों को अग्रिम का रुपया दिया गया। दिनांक 23 नवम्बर, 1970 को अपने साक्ष्य में मुख्य अभियंता (कोसी) ने यह बतलाया कि प्रधान मंत्री का आदेश था कि बिना बांड के ही रुपये अग्रिम दिये जायं। उप-समिति ने जानना चाहा कि उक्त आदेश में क्या यह भी कहा गया था कि दल-नायकों के पिता, उनके निवास स्थान, पोस्ट ऑफिस तथा थाना आदि की निश्चित जानकारी प्राप्त किये बिना ही उन्हें अग्रिम का रुपया दिया जाय। इस पर विभागीय पदाधिकारियों ने कोई उत्तर नहीं दिया।
उप-समिति ने यह भी जानना चाहा कि जब विभाग का ही यह निश्चित आदेश था कि ग्राम पंचायत के मुखिया या सहकारी समितियों के अधिकारीगण ही दल-नायक हो सकते थे तो ऐसे लोगों के साथ करार क्यों किये गये जिनका पता-ठिकाना मालूम नहीं था। विभाग ने इसका भी कोई उत्तर नहीं दिया। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि एक ही जगह काम करने के लिए भारत सेवक समाज के दल नेता तीन-तीन बार आये और पैसा लेकर चले गये और काम नहीं किया। कहीं-कहीं दो-दो आदमी एक ही काम का पैसा लेकर चले गये।
कुछ दल-नेताओं के यहाँ से सरकारी पैसे की वसूली इसलिए नहीं हो सकी कि भारत सेवक समाज और विभाग में इस बात पर सैद्धान्तिक मतभेद था कि नापी की प्रणाली कैसी हो-सेक्शन या पिट।
फिर यह निर्णय हुआ कि सेक्शनल मेजरमेंट पर 20 प्रतिशत अधिक भुगतान हो। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि निर्माण विभाग में मिट्टी के कार्यों में सेक्शनल मेजरमेंट से 20 प्रतिशत कम करके ही भुगतान की व्यवस्था है। उप-समिति ने विभाग से जब यह जानना चाहा कि 1965 के निर्णय का कार्यान्वयन क्यों नहीं किया जा सका या फिर इसमें आमूल परिवर्तन क्यों किया गया? इस सम्बन्ध में भी विभाग ने कोई उत्तर नहीं दिया।
इन सारे बयानों से लगता है कि बहुत से प्रशासनिक निर्णय मनमाने ढंग से लिए गये और उनके पीछे कोई लिखा-पढ़ी नहीं हुई। पं. नेहरू के जिस आदेश की बात कोसी परियोजना के चीफ इंजीनियर ने उप-समिति को पहली मीटिंग में बताई थी, उसे भी खोजा नहीं जा सका था और नदी-घाटी योजना के उप-सचिव ने समिति को बाद में बताया कि इस तरह का कोई आदेश था ही नहीं। उन्होंने केन्द्रीय सिंचाई और विद्युत मंत्रालय का एक पत्र जरूर दिखाया जिसमें जन-सहयोग के कामों के लिए दिशा निर्देश दिये हुये थे। अब सवाल उठा कि अगर इस तरह का कोई आदेश नहीं था और पैसे की वसूली नहीं हो पा रही है तो इसके लिए जिम्मेवार कौन है? स्वाभाविक है कि उंगलियाँ भारत सेवक समाज की ओर उठतीं। कोसी परियोजना से इन लोगों का परिचय भारत सेवक समाज ने ही करवाया था। उप-समिति ने जब यह मुद्दा कोसी परियोजना के मुख्य प्रशासक के साथ उठाया तो उनका मानना था कि भारत सेवक समाज पर इसकी नैतिक जिम्मेवारी भले ही हो सकती हो मगर कानूनी जिम्मेवारी तो नहीं डाली जा सकती है क्योंकि कानूनी रूप से यह मामला तो परियोजना अधिकारियों तथा यूनिट लीडरों के बीच का था।
भारत सेवक समाज इस कोशिश में लगा था कि दल नायकों द्वारा किये गये काम की नाप-जोख की प्रणाली को बदल दिया जाय और जहाँ तक मुमकिन हो सके उनकी बकाया राशि का समायोजन कर डाला जाय। ऐसी परिस्थिति में बिना कानूनी सलाह लिए कोसी परियोजना विभाग अगर यह कहता है कि इस मसले पर भारत सेवक समाज की जिम्मेवारी केवल नैतिक है, कानूनी नहीं तो कहीं न कहीं सरकार भारत सेवक समाज को संरक्षण दे रही है।
उप-समिति ने तब परियोजना के मुख्य प्रशासक से यूनिट लीडरों के साथ हुये इकरारनामें की प्रति मांगी जिसके जवाब में उन्होंने कहा कि यह नदी-घाटी योजना मंत्री का मौखिक आदेश है कि उप-समिति को यह कागजात न दिये जायें। उप-समिति को लगा कि मुख्य प्रशासक के बर्ताव ने उसके अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण किया है और उसके काम में रोड़े अटकाये हैं। समिति ने प्रशासक से कहा कि यदि उन्होंने मंत्रीजी के जबानी आदेश की लिखित पुष्टि करवा ली है तो उसे दिखायें। तब मुख्य प्रशासक ने मंत्रीजी के आदेश को दिखाया जिसमें लिखा था कि ‘‘अध्यक्ष, विधान सभा से विचार-विमर्श कर उन्हें सारी स्थिति से अवगत करवा दिया गया है और उन्होंने भी सारी बातें देखने के पश्चात महसूस किया कि समिति दायरे से बाहर जा रही है। तो वे इसे देखेंगे और उन्हें समुचित राय तथा इस पर मुनासिब निर्णय देंगे (दिनांक 11-12-1970)।’’ मगर इस विषय पर जब बिहार विधान सभा के अध्यक्ष से सम्पर्क किया गया तो उन्होंने अपने दिनांक 9 जनवरी 1971 के संदेश में कहा कि, ‘‘जहाँ तक उपर्युक्त समिति से सम्बन्धित विषय है इसके बारे में मुझसे कोई बात नहीं हुई है और न मैंने अपना कोई मंतव्य दिया है।’’ बाद में समिति ने इस पूरे मामले को सदन की विशेषाधिकार समिति को सौंप दिया।समिति ने यह भी पाया कि बाद के वर्षों में विवादास्पद जगहों पर मिट्टी की कटाई में नापी का सिद्धान्त ही बदल दिया गया।
‘‘1970 के दिसम्बर में नापी का दूसरा सिद्धान्त अपनाया गया जिसके अनुसार सेक्शनल मेजरमेंट पर 20 प्रतिशत अधिक देने की व्यवस्था की गयी है। नापी के सिद्धान्त परिवर्तन का औचित्य विभाग ने समिति को नहीं बतलाया। उप-समिति यह जानकर स्तब्ध हो गयी कि कार्य सम्पादन के 3 वर्षों के पश्चात नापी ली गयी थी। मिट्टी काटने के कार्य समाप्त होने के तीन वर्षों के बाद सही नापी लेना सर्वथा असम्भव है। यह नापी कथित ही हो सकती है और उसके नौ वर्ष बाद नापी के आधार को बदल कर उसका सही-सही मूल्यांकन करना सर्वथा असम्भव है। खातेबन्दी में अति विलम्ब कर दल-नायकों को लाभ पहुँचाने की चेष्टा की गयी अथवा नहीं, इसका पता तो उच्चस्तरीय जांच आयोग के विस्तृत जाँच के बाद ही किया जा सकता है।’’
उप-समिति ने एक और बात पर अपनी टिप्पणी की। उसका कहना था कि 1958 में ऑडिट रिपोर्ट की कंडिका 36 के अनुसार कोसी परियोजना ने कुछ काम सीधे भारत सेवक समाज को सौंप दिया था जिसने दल-नायकों के कार्य क्षेत्र के अन्दर छोटे-छोटे कार्यकर्ताओं को काम का बंटवारा कर दिया। इन दल नायकों को मिलने वाले अनुदान से 10 प्रतिशत राशि भारत सेवक समाज अपने व्यवस्था खर्च और सामूहिक बचत कोष के लिए ले लेता था। भारत सेवक समाज इस कोशिश में लगा था कि दल नायकों द्वारा किये गये काम की नाप-जोख की प्रणाली को बदल दिया जाय और जहाँ तक मुमकिन हो सके उनकी बकाया राशि का समायोजन कर डाला जाय। ऐसी परिस्थिति में बिना कानूनी सलाह लिए कोसी परियोजना विभाग अगर यह कहता है कि इस मसले पर भारत सेवक समाज की जिम्मेवारी केवल नैतिक है, कानूनी नहीं तो कहीं न कहीं सरकार भारत सेवक समाज को संरक्षण दे रही है।
बाद के वर्षों में भारत सेवक समाज ने पकी हुई ईंटों को बना कर कोसी प्रोजेक्ट को आपूर्ति करने का भी काम किया था। यह प्रकरण भी बिहार की पाँचवीं विधानसभा की लोक लेखा समिति के 45वें प्रतिवेदन (8 जून 1972) में चर्चा का विषय रहा है, जिसके अनुसार ‘‘नहर प्रमण्डल संख्या 5, बथनाहा, कोसी परियोजना को भारत सेवक समाज द्वारा जो 1961-62, और 1962-63 के दौरान ईंट की आपूर्ति की गई थी उसमें समिति को पता चला कि भारत सेवक समाज ने देवी गंज, बरहरा एवम् चारने की चिमनियों से, जो नहर प्रमण्डल 5 के अन्तर्गत हैं, ईंटों की अपूर्ति में 20,352 घनफुट (577 घन मीटर) अधिक कोयले की खपत की। एकरारनामे की शर्तों के अनुसार इस अधिक कोयले का मूल्य दण्ड दर से वसूल होना था जो साधारण निर्गत दर से तिगुना होगा। इसी प्रकार के एक दूसरे मामले में, जिसमें भारत सेवक समाज ने नहर प्रमण्डल 4 के अन्तर्गत ईंटों की आपूर्ति की थी, सरकार ने भारत सेवक समाज द्वारा उपयोग किये गये अधिक कोयले का मूल्य सिर्फ साधारण निर्गत दर से ही वसूल करने का निर्णय लिया था दण्ड दर से नहीं, क्योंकि एकरारनामें के अनुसार दण्ड दर से वसूली उन्हीं ठेकेदारों से करना था जो कोयले का दुरुपयोग करते थे। जहाँ तक भारत सेवक समाज का सम्बन्ध है, उनके द्वारा चोरी या कोयले का दुरुपयोग करने की कोई शिकायत नहीं थी और कोयले का अधिक मात्रा में उपयोग चिमनी में ही हुआ जिसका कारण भारत सेवक समाज के अनुभवहीन दल लीडर की अकुशलता और कुप्रबन्धता थी। फलस्वरूप भारत सेवक समाज को बहुत ही क्षति हुई। भारत सेवक समाज एक ऐसा संगठन है जिसकी सेवा का एक बहुत सुन्दर रेकॉर्ड है। सरकार ने इस पर सहानुभूति पूर्वक विचार किया और आदेश दिया कि भारत सेवक समाज द्वारा जितने सारे कोयले का उपयोग किया जाता है उसका मूल्य साधारण निर्गत दर से ही वसूल होना चाहिये यद्यपि भारत सेवक समाज ने ईंटों की आपूर्ति मंप आवश्यकता से अधिक कोयले की खपत की।’’
लोक लेखा समिति के लिए यह निर्णय करना मुश्किल था कि इस बात का फैसला कैसे हो कि भारत सेवक समाज मुनाफा नहीं करता है और अगर उसका सेवा का बहुत अच्छा रिकॉर्ड है तो उसके दल लीडर अनुभवहीन, अकुशल और खराब प्रबन्धन वाले कैसे हो सकते हैं? समिति का मानना था कि भारत सेवक समाज को सरकार से मिलने वाला संरक्षण गलत है और इसके लिए दोषी व्यक्तियों के खिलाफ कार्यवाही होनी चाहिये।
जब दिसम्बर 1954 में यह तय हुआ कि भारत सेवक समाज कोसी परियोजना में जन-सहयोग के काम करेगा तब आम धारणा यह थी कि समाज ज्यादातर मिट्टी के कामों में लोगों को काम करने के लिए प्रेरित करेगा यद्यपि भारत सेवक समाज के प्रारूप में अन्य कामों जैसे भवन निर्माण, सड़क, पुल और नहर बनाने आदि का भी उल्लेख किया गया था मगर मानव श्रम इस तरह के कामों की मूल आत्मा थी। यह एक मोटा काम था जिसमें किसी प्रकार की दक्षता की जरूरत नहीं थी, कोई बड़ी पूँजी लगाने की जरूरत नहीं थी और जिसको सरकार और समाज ‘अन्तिम आदमी’ के नाम से जानता है, उनके बीच जाकर केवल उनके साथ काम करने की जरूरत थी। भारत सेवक समाज का जन्म ही इन्हीं उद्देश्यों के लिए हुआ था। मगर उसी भारत सेवक समाज ने बाद में सड़क, पुल, नहर और मकान बनाने शुरू कर दिये जिनमें मानव श्रम का हिस्सा कम था और खपत होने वाले सामानों की कीमत ज्यादा थी। उसने ईंटों की आपूर्ति करने के लिए भट्ठे तक खोल लिये और अपने आप को एक शुद्ध ठेकेदार की शक्ल में पेश करने लगा। तब उसका यह दावा कि वह एक गैर-सरकारी और गैर-मुनाफे वाली संस्था है, खोखला लगने लगा।
भारत सेवक समाज को सूचना और प्रसारण मंत्रालय, स्वास्थ्य मंत्रालय, ऊर्जा मंत्रालय तथा वर्क्स और हाउसिंग मंत्रालय से विभिन्न कार्यों के लिए अनुदान मिला जिनका समुचित लेखा-जोखा नहीं रखा जा रहा था।24 कोसी परियोजना में तो यह सब स्थाई भाव था। उधर दिल्ली के एक श्रम न्यायालय ने 15 सितम्बर 1966 को भारत सेवक समाज को एक पेशेवर और व्यापारिक संस्था करार दे दिया।
भारत सेवक समाज केवल बिहार में और केवल कोसी परियोजना में ही सक्रिय नहीं था वरन् उसका कार्य क्षेत्र बिहार की अन्य नदी घाटी परियोजनाओं और देश के विभिन्न हिस्सों में फैल चुका था। वह राजस्थान में सड़कों के निर्माण में लगा हुआ था तो दिल्ली में उसने घर बनाने के ठेके ले रखे थे। आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र तथा अन्य प्रान्तों में भी भारत सेवक समाज ने अपने ख़ेमे गाड़ रखे थे और प्रायः हर जगह से उसके खिलाफ अनियमितताओं की शिकायतें आ रही थीं और कई बार लोकसभा में भारत सेवक समाज की भूमिका और उसको मिलने वाले सरकारी समर्थन को लेकर वाद-विवाद चला करता था। यहाँ तक कि लोकसभा में एक बार रामगोपाल शालवाले ने फिकरा कसा कि, ‘‘...कांग्रेस पार्टी ने अपने बेकार तथा कुछ अनुपयोगी लोगों को काम पर लगाने के लिए क्या भारत सेवक समाज की स्थापना नहीं की और भारत सेवक समाज द्वारा क्या देश का करोड़ों रुपया बर्बाद नहीं किया गया है और हर प्रकार का भ्रष्टाचार उसके अन्दर नहीं है? देश के करोड़ों लोग भूख से मर रहे हैं। इसको देखते हुये इस प्रकार इस संस्था पर रुपया खर्च करना क्या उनके साथ अन्याय करना नहीं है? मैं जानना चाहता हूँ कि भारत सरकार क्या भारत सेवक समाज के कार्यकलापों को बन्द करने का विचार करेगी?’’ इस पर इंदिरा गाँधी का जवाब था कि भारत सेवक समाज एक राजनैतिक संस्था नहीं है और उसमें ऐसे लोग भी थे जो कांग्रेस के थे ही नहीं। उनके अनुसार कांग्रेस वालों को भी भारत सेवक समाज से यही शिकायतें थीं।भारत सेवक समाज के गैर-राजनीतिक स्वरूप को बाध्यतावश बहुत से राजनीतिज्ञ मानते थे मगर वह यह भी कहना नहीं भूलते थे कि गैर राजनीतिक संस्था होने के बावजूद कांगे्रस के अलावा किसी भी राजनीतिक पार्टी का सदस्य भारत सेवक समाज में नहीं है। कुछ इसी तरह की बात भारतीय साम्यवादी पार्टी के ए. के. गोपालन ने कही थी जब वह कोसी परियोजना काम का देखने के लिए कोसी क्षेत्र आये थे। साम्यवादी पार्टियाँ वैसे भी कभी इस तरह के प्रयोग से प्रभावित नहीं थीं।
अप्रैल 1965 में लोकसभा की लोक लेखा समिति की चौंतीसवीं (तीसरी लोकसभा) रिपोर्ट आई जिसमें भारत सेवक समाज के कार्य-कलाप पर काफी चर्चा हुई थी। इस रिपोर्ट ने तो भारत सेवक समाज के खिलाफ विरोध का छत्ता छेड़ दिया। सांसद नन्द कुमार सोमानी ने भारत सेवक समाज पर हेरापफेरी, गबन, भाई-भतीजावाद तथा भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुये कहा कि भारत सेवक समाज एक स्वयंसेवी संस्था होने के सारे फायदे उठाने के साथ-साथ एक सरकारी विभाग जैसा आलोचना से बचने का लाभ भी उठा रहा है। उनका कहना था कि भारत सरकार के सभी प्रशासनिक और वित्तीय नियम कानून को ताक पर रख कर यह संस्था सरकार से सारी रियायतें लेती है और सभी अनियमितताओं से बच निकलती है। हमें यह देखना चाहिये कि आम जनता के पैसों की बरबादी की सड़ांध फैलाने के लिए मुख्य रूप से कौन जिम्मेवार है। भारत सेवक समाज को सूचना और प्रसारण मंत्रालय, स्वास्थ्य मंत्रालय, ऊर्जा मंत्रालय तथा वर्क्स और हाउसिंग मंत्रालय से विभिन्न कार्यों के लिए अनुदान मिला जिनका समुचित लेखा-जोखा नहीं रखा जा रहा था।24 कोसी परियोजना में तो यह सब स्थाई भाव था। उधर दिल्ली के एक श्रम न्यायालय ने 15 सितम्बर 1966 को भारत सेवक समाज को एक पेशेवर और व्यापारिक संस्था करार दे दिया। इस लोक लेखा समिति की रिपोर्ट के चलते तत्कालीन गृह मंत्री गुलजारी लाल नन्दा को भारत सेवक समाज से अलग हो जाना पड़ा था। सोमानी ने समाज के खिलाफ यहाँ तक आरोप लगाया कि गुजरात भारत सेवक समाज के अध्यक्ष ने स्वमूत्र चिकित्सा पर एक पुस्तक लिखी जिसके अनुसार प्रत्येक स्त्री और पुरुष को अपनी सारी बीमारियों से बचाव के लिए स्वमूत्र चिकित्सा करनी चाहिये। इस पुस्तक और प्रचार का सारा जिम्मा भारत सेवक समाज का था और उसकी प्रस्तावना तत्कालीन उप-प्रधान मंत्री ने लिखी थी। उन्होंने इस सारे प्रकरण की न्यायिक जांच का प्रस्ताव किया।
भारत सेवक समाज के एक संस्थापक सदस्य प्रो. एन. जी. रंगा ने, जिन्होंने 1960 में ही भारत सेवक समाज से अपने आप को अलग कर लिया था, भी संस्था के सारे महत्त्वपूर्ण पदों पर कांग्रेस नेताओं के मौजूद होने की बात की और न्यायिक जांच की मांग की थी। यह मांग करने वालों में मधु लिमये, राम अवतार शर्मा, गुणानन्द ठाकुर, एस. एम. बनर्जी आदि बहुत से अन्य नेता भी थे। दूसरी ओर सारे सवालों का जवाब देने के लिए अकेले ललित नारायण मिश्र खड़े होते थे। इस समय तक केन्द्र सरकार भी बचाव वाली मुद्रा में आ चुकी थी और किसी तरह इस पूरे मसले से अपना पीछा छुड़ा लेना चाहती थी।
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