सारांश : भारत में जैविक कृषि का इतिहास लगभग 5000 वर्षों से भी ज्यादा पुराना है। यह सजीव खेती का ही परिणाम था कि इतने लम्बे समय तक अनवरत अन्न उत्पादन के साथ-साथ मिट्टी की उर्वरा शक्ति को भी बनाये रखा जा सका। सन् 1966-67 से भारत में हरित क्रांति की शुरूआत की गयी। कृषि प्रौद्योगिकीकरण के नाम पर सघन खेती शुरू की गई। साथ ही संकर बीजों और रासायनिक कीटनाशी व खरपतवारनाशी तथा अंधाधुंध रासायनिक उर्वरकों के दुष्परिणाम ने खेत, मिट्टी, उपज, किसान और पर्यावरण सभी को प्रभावित किया। मिट्टी की उर्वरा शक्ति, उत्पादकता, जैवविविधता खाद्य पदार्थ की गणुवत्ता के साथ-साथ समूचे पर्यावरण को भी खतरा उत्पन्न हो गया है। हजारों वर्ष पुरानी परम्परागत खेती के तरीके जिन्हें हमने रूढ़िवादी और पुरानी नीति समझकर नकार दिया था वही इन्द्रधनुषीय विकास के मूलसूत्र हैं। जैविक खेती को अपनाकर पुनः अपनी माटी को जगाया जा सकता है तथा किसान, गांव व देश को पर्यावरण प्रदूषण के संकट से उबारकर खुशहाल बनाया जा सकता है। जैविक खाद और जैविक कीटनाशी का उपयोग बढ़ाने के लिए खेती से जुड़े समाज-किसान को रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों के दुष्प्रभावों की जानकारी देने तथा जैविक कृषि अपनाने के प्रति जनचेतना जगाने के लिए एक अभियान चलाने की आवश्यकता है। भारत की केन्द्रीय सरकार व प्रान्तीय सरकारों को इसके लिए राष्ट्रीय नीति बनाकर किसानों को तकनीकी एवं आर्थिक सहयोग देना चाहिए ताकि द्वितीय हरित क्रान्ति पूर्णरूपेण प्रदूषण मुक्त हो सके।
Use of organic manure and insectides in India : In perspective of environment conservation : Abstract
There are sufficient evidences that the organic farming in India is more than 5000 years old. Due to organic farming soil fertility was maintained with continuous crop production for a long period. In India green revolution was started in 1966-67. In green revolution hybrid seeds, chemical insecticides, weedicides and chemical fertilizers were used in heavy quantities for getting more and more crop yield. Consequently, soil fertility, soil productivity, biodiversity and quality of food material were adversely affected along with the environment. A study was carried out to overcome these problems and use of organic manures and insecticides have been recommended in a better scientific way.
प्रस्तावना
भारत में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग लगभग 97kg/ha तथा कीटनाशकों का प्रयोग लगभग 300g/ha होता है। इस दृष्टि से हम विश्व में चौथे स्थान पर हैं। प्रयोग किये गये रासायनिक उर्वरकों का मात्र 23% ही फसलों को मिल पाता है। शेष 77% मात्रा से विभिन्न प्रदूषणजन्य विकार पैदा होते हैं। रासायनिक खाद, कीटनाशक, खरपतवारनाशक और संकरित बीजों के अंधाधुंध इस्तेमाल के चलते खेत की मिट्टी के अन्दर सूक्ष्म पोषक तत्वों तथा जीवाणुओं का नाश होता जाता है। यदि यह प्रक्रिया लम्बे समय तक जारी रहती है तो मृदा पौधे उगाने योग्य नहीं रहती। संविदा खेती (कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग) के चलते अमेरिका में सभी छोटे किसान समाप्त हो गये हैं। सन् 1950 में अमेरिका की कुल जनसंख्या की लगभग 25% आबादी खेती करती थी।
जो आज घटकर 2% ही रह गई है। यही हाल यूरोपीय देशों का भी हुआ है। अमेरिका, कनाडा और यूरोपीय देशों में हजारों एकड़ खेती की जमीन अब थोड़े से लोगों के हाथ में सिमट कर रह गई है और लाखों किसानों का खेती से पलायन हो चुका है।
ऐसी परिस्थिति में भारत के किसानों के सामने एक ही विकल्प है कि वे खेती करने का अपना तरीका बदलें। रासायनिक खेती के बदले जैविक खेती करें। संविदा खेती के दुष्चक्र से बचें और सामूहिक- पारिवारिक खेती ही करें। जो किसान गोबर और गोमूत्र (जैविक खाद एवं कीटनाशी) आधारित खेती कर रहे हैं उससे उत्पादन खर्च 90% तक घट गया है और उत्पादन प्रति एकड़ बढ़ गया है। परिणामस्वरूप मिट्टी की सूक्ष्म पोषकता बढ़ रही है, मिट्टी में पानी को सोखने की क्षमता बहुत बढ़ रही है, मिट्टी की कीटाणुनाशक क्षमता बढ़ी है और मिट्टी के अन्दर पनपने वाले सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या भी बढ़ रही है। महाराष्ट्र जैविक, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश आदि राज्यों के लगभग 5 लाख एकड़ क्षेत्र में गोबर - गोमूत्र आधारित खेती हो रही है। जो किसान जैविक खेती अपना रहे हैं वे पहले से अधिक सुखी व निरोगी हो गये हैं।
जैविक खाद रासायनिक खाद का ही विकल्प है। जैविक खाद के प्रयोग से भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है और उत्पादन वृद्धि के साथ-साथ इसके प्रयोग से पर्यावरण को भी प्रदूषण मुक्त बनाया जा सकता है। देश में प्रतिदिन एक करोड़ मैट्रिक टन कूड़ा-कचरा उत्पन्न हो रहा है। इसको जैविक खाद में परिवर्तित किया जा सकता है। इसके प्रयोग से रासायनिक खाद एवं कीटनाशक, जिसके आयात पर लगभग अस्सी हजार करोड़ रुपया प्रति वर्ष व्यय होता है, से देश को मुक्ति मिल सकती है। खेतों में रासायनिक खादों के प्रयोग से भूमि की उर्वरा शक्ति में कमी, उत्पादन में ठहराव, जमीन में जल स्तर में गिरावट, कृषि उत्पादन की लागत में निरन्तर वृद्धि तथा कीटनाशक दवाओं के अधिकाधिक प्रयोग से पर्यावरण प्रदूषण की समस्या पैदा हो गई है। स्थिति इतनी भयंकर हो रही है कि भूमि धीरे-धीरे रेगिस्तान में बदल रही है, चारा और चरागाह के अभाव में पशुधन समाप्त हो रहा है और किसान कंगाल हो रहा है। रासायनिक कीटनाशकों ने मानव शरीर में ही नहीं, मिट्टी, अन्न, फल, सब्जी, चारा तथा नदियों व तालाबों के पानी और हवा तक में जहर घोल दिया है। आज विश्व बाजार में ऐसे खाद्यान्नों, फलों एवं सब्जियों की मांग बढ़ती जा रही है जिसमें रासायनिक खाद व कीटनाशकों का प्रयोग न किया गया हो। जैविक खाद द्वारा उत्पादित खाद्यान्न, शाक-सब्जी, फलों व मसालों की मांग अधिक हो रही है जिसके लिए क्रेता अधिक कीमत भी देने के लिए तैयार हैं। पशु विशेषज्ञ सर एल्बर्ट हाबर्ट ने “एग्रीकल्चर टेस्टामेन्ट” नामक अपने ग्रंथ में लिखा है कि रासायनिक खाद कृषि भूमि को जीवांश प्रदान नहीं करती, केवल गोबर की कम्पोस्ट खाद और हरी खाद ही प्राकृतिक खाद हैं, जिसमें असंख्य जैविक बीजाणु और जीवाणु पाये जाते हैं। देश में लगभग 17 करोड़ गोवंश वस्तुतः बिना ईंधन और अन्य सहायता के 5 करोड़ हॉर्सपावर ऊर्जा पैदा कर सकते हैं और साथ ही उनके गोबर व गोमूत्र से प्राप्त जैविक खाद व जैविक कीटनाशी से भारत की कृषि भूमि को उपजाऊ व प्रदूषण मुक्त बनाया जा सकेगा।
जैविक खाद बनाम रासायनिक खाद
सड़ी हुई गोबर की खाद के 20t/ha से 60 kg नाइट्रोजन तथा 40kg फॉस्फोरस प्राप्त होता है। पोल्ट्री की सड़ी खाद के 10 t/ha से 80kg नाइट्रोजन, 25kg फॉस्फोरस और 40kg पोटाश प्राप्त होता है। ढैंचा, लोबिया, सनई आदि को 50-60 दिन की अवस्था में हरी खाद के रूप में इस्तेमाल करने पर ढैंचे से 50 से 100kg, लोबिया से 100-110kg व सनई से 75-80kg नाइट्रोजन प्राप्त होता है। उत्तर प्रदेश व पंजाब के भूमिगत जल में 25ppm से ज्यादा नाइट्रोजन पाया जाता है, मिट्टी में भारी धातुओं की मात्रा भी लगातार बढ़ रही है। रासायनिक खाद जैसे यूरिया, कैल्सियम, अमोनियम नाइट्रेट, पोटाश, सिंगल सुपर फॉस्फेट, रॉक फॉस्फेट आदि में लैड व कैडमियम की मात्रा 116 से 1135 व 6 से 303ppm होती है। ये फसल की उपज व मृदा की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं, अतः रासायनिक खादों का इस्तेमाल पर्यावरण की दृष्टि से हानिकारक है। इसका एक ही विकल्प है कि जैविक खादों का ही उपयोग किया जाये।
जैविक खाद और रासायनिक खादों का तुलनात्मक अध्ययन एवं अनुभव करने पर यह पाया गया कि जैविक खाद ज्यादा गुणकारी और लाभकारी हैं, क्योंकि :
- 1. जैविक खाद व कीटनाशी तैयार करने में रासायनिक की तुलना में कम खर्च आता है (लगभग 75-86% );
- 2. ये स्थानीय सामग्री से ही तैयार किए जाते हैं अतः इनकी उपलब्ध आता ग्राम स्तर पर ही हो सकती है;
- 3. विषहीन, पर्यावरण मित्र और स्थानीय सामग्री से तैयार होने के कारण ये सुग्राह्य हैं;
- 4. जैविक खादों के उपयोग से कृषि उत्पादन निरन्तर बढ़ता जाता है;
- 5. जैविक खादों के उपयोग से उत्पादित खाद्यान्न, सब्जी, फल, पशु चारा अधिक स्वास्थ्यवर्धक व पौष्टिक होता है;
- 6. ये जैव विविधीकरण व विभिन्नता के संतुलित विकास में सहायक होते हैं;
- 7. कम लागत, स्थानीय उत्पत्ति, अधिक उत्पादन, पर्यावरण मित्र होने के कारण जैविक खाद किसानों के लिए मित्रवत् हैं;
- 8. जैविक खेती में कम लागत और अधिक उत्पादन के फलस्वरूप किसानों व मजदूरों की आर्थिक स्थिति में सुधार होगा;
- 9. जैविक कृषि उत्पादों की बिक्री व निर्यात में प्रोत्साहन तो मिलता ही है साथ ही इन उत्पादों का बाजार भाव भी 30-40% अधिक मिलता है;
- 10. जैविक खाद व कीटनाशी के इस्तेमाल से वायु, जल, मृदा, खाद्यान्न, फल, सब्जी, पशु चारा आदि को प्रदूषण व विषैलेपन से बचाया जा सकता है एवं
- 11. जैविक कृषि उत्पादों में भण्डारण क्षमता तुलनात्मक रूप से 30-40% अधिक होती है।
गोबर - गोमूत्र से खाद
गोबर - गोमूत्र से खाद बनाने की कई विधियां हैं। सबसे आसान विधि द्वारा 15-20 दिन में खाद तैयार कर ली जाती है। इस विधि में एक गाय या बैल का 5 दिन का गोबर एक प्लास्टिक के ड्रम में भर लें। लगभग 5kg गुड़ और 5kg उड़द की दाल का आटा इसमें मिलायें। इस मिश्रण को 15 दिन तक एक ड्रम में भरकर रख दें। अब इसमें 1500L पानी मिलाकर छिड़काव कर घोल तैयार कर लें। यह घोल 5 एकड़ खेत में छिड़काव के लिए पर्याप्त होगा। उड़द की दाल के आटे के विकल्प के रूप में अरहर, मूंग, चना आदि की दाल का आटा भी इस्तेमाल किया जा सकता है। 15-20 दिन में एक बार (एक साल में 24 बार) इस तरह का घोल बनाकर खेत की मिट्टी पर डालना चाहिए। यदि गाय-बैल का गोबर कम पड़े अथवा उपलब्ध ही न हो तो भैंस का गोबर भी इस्तेमाल किया जा सकता है लेकिन भारतीय नस्ल की गाय के गोबर एवं मूत्र के परिणाम अधिक अच्छे आते हैं। सभी प्रकार के कृषि कचरे और पेड़ों की पत्तियों को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर (कुट्टी मशीन में काटकर) अथवा वैसे ही खेत की मिट्टी में डाल दिया जाये और उसके ऊपर इस घोल का छिड़काव किया जाये तो मिट्टी की उर्वरा शक्ति और खाद्यान्न की पैदावार में अधिक बढ़ोत्तरी होगी।
नगरीय कूड़े-कचरे से कम्पोस्ट खाद
नगरीय क्षेत्रों में कूड़े-कचरे को ठिकाने लगाना सबसे बड़ी समस्या है। वैज्ञानिकों ने कम्पोस्टिंग के रूप में कूड़े के ट्रीटमेंट का कारगर तरीका खोजा है। कूड़े को आमतौर पर जलाया जाता है या शहर के बाहर सड़कों के किनारे डाल दिया जाता है। यह अवैज्ञानिक तरीका पर्यावरण को भारी हानि पहुंचाने वाला है। इससे जल स्रोत प्रदूषित होते हैं, कूड़े में मिले घातक रसायन रिसकर भूमिगत जल और आसपास की भूमि को प्रदूषित करते हैं जिससे मानव स्वास्थ्य के लिए भी खतरा पैदा होता है। जैविक कचरे के प्रबंधन का सबसे अच्छा तरीका उसे कम्पोस्टिंग प्लान्ट द्वारा जैविक खाद में बदलना है। कर्नाटक राज्य में 'कर्नाटक कम्पोस्ट डिवेलपमेंट कारपोरेशन' द्वारा इस परियोजना को बढ़ावा दिया गया है। दिल्ली में भी कचरे से जैविक खाद बनाने के लिए कम्पोस्टिंग प्लान्ट लगाए गये हैं। छोटे शहरों के लिए कूड़े-कचरे को निबटाने और उससे बढ़ते प्रदूषण से छुटकारा पाने के लिए उसे जैविक खाद में बदलना सबसे सफल तरीका हो सकता है। इसे एक राष्ट्रीय अभियान और जन जागरण के रूप में अपनाना चाहिए।
कृषि अवशेष से कम्पोस्ट खाद (नाडेप कम्पोस्ट विधि) कृषि जनित कचरा (फसल अवशेष, चारा अवशेष) और पशुओं के गोबर से महाराष्ट्र के गांधीवादी किसान श्री नारायण देवराज पांडरी ( नाडेप काका) द्वारा सन् 1998-99 में विकसित की गई कम्पोस्ट खाद बनाने की विधि (नाडेप कम्पोस्ट विधि) खूब प्रयोग की जा रही है। इस विधि से खाद तैयार करने के लिए जमीन के ऊपर 10 × 6 × 31 आकार का एक टैंक बनाया जाता है। टैंक की 9 इंच मोटी दीवारें पक्की ईंटों और गारे से बनाई जाती हैं। दोनों लम्बी दीवारों में 7 " x 3" आकार के कई छेद छोड़ दिये जाते हैं ताकि टैंक के अन्दर वायु का प्रवेश सुगमतापूर्वक होता रहे। दीवारों को भीतर से गोवर-मिट्टी द्वारा लीप दिया जाता है। इस आकार के टैंक को भरने के लिए लगभग 305kg कृषि जनित कचरा, 11kg गोबर (शुष्क भार के अनुसार), 3kg यूरिया एवं 8kg सिंगल सुपर फॉस्फेट की आवश्यकता पड़ती है। टैंक में सबसे नीचे कृषि कचरे की 6 इंच मोटी परत बिछाकर अच्छी प्रकार पानी से तर किया जाता है। पहली परत के ऊपर गोबर के घोल का छिड़काव करके इसके ऊपर लगभग 45kg मिट्टी की परत बिछा दी जाती है। खाद की पोषक शक्ति को बढ़ाने के लिए 1kg यूरिया और 2.5kg सिंगल सुपर फॉस्फेट का पानी में घोल बनाकर मिट्टी की परत पर छिड़क दिया जाता है। टैंक भरने तक यह प्रक्रिया दोहराई जाती है। लगभग 15-20 दिन बाद कृषि कचरा नीचे बैठ जाता है जिससे टैंक के ऊपर जगह खाली हो जाती है। उसको भी इसी प्रकार परतें लगाकर टैंक की ऊंचाई से लगभग 1.5 फुट ऊपर तक भर दिया जाता है। अन्त में सबसे ऊपर गोवर और मिट्टी को मिलाकर 3 इंच मोटे आवरण से अच्छी तरह ढक दिया जाता है। समय-समय पर टैंक के ऊपर से दीवारों में बनाये गये छिद्रों से पानी का छिड़काव करके नमी (लगभग 60%) बनायी रखी जाती है। लगभग 4 माह में कम्पोस्ट खाद तैयार हो जाती है इस खाद में 1.2-1.7% नाइट्रोजन, 0.6-0.9% फॉस्फेट, 0.6- 0.8% पोटाश और अन्य पोषक तत्वों की समुचित मात्रा होती है। जबकि सामान्य कम्पोस्ट खाद में यह मात्रा इससे बहुत कम पायी जाती है।
नाडेप कम्पोस्ट खाद की विशेषताएं एवं लाभ
नोडप कम्पोस्ट खाद की विशेषताएं एवं लाभ कुछ इस प्रकार हैं:
1. नाडेप विधि द्वारा 1kg गोबर से 30 से 40kg उत्तम जीवाणुयुक्त अच्छी सुगंध वाली खाद तैयार होती है। 2. इस विधि से जो खाद बनती है वह कृषि भूमि को नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाश एवं अन्य सूक्ष्म पोषक द्रव्य बड़ी मात्रा में उपलब्ध कराती है। 3. इससे जो खाद बनती है वह गोबर की खाद से 3 से 4 गुणा अधिक प्रभावशाली होती है। 4. इससे ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार बढ़ेगा, उससे गांव की मनुष्य शक्ति और पूंजी गांव में ही रहेगी। ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार उपलब्ध होने से शहरों की ओर पलायन कम होगा परिणामस्वरूप शहरों पर बोझ कम होगा। 5. इससे किसान रासायनिक उर्वरक एवं कीटनाशक दवाओं के दुष्चक्र से बचेगा। 6. यह खाद सम्पूर्णतया अप्रदूषणकारी है। गांव के कूड़े-कचरे का कल्याणकारी उपयोग होने से गांव स्वच्छ एवं वातावरण स्वास्थ्यवर्धक होगा तथा पोषक अन्न की उत्पत्ति होगी। 7. यह तकनीक इतनी सरल है कि कोई भी किसान इसे थोड़े से प्रशिक्षण के बाद ही अपना सकता है और थोड़ी सी पूंजी लगाकर अपने आप ही उद्यमी बन सकता है। 8. इसमें भारतीय परिस्थिति, परम्पराएं, मानव स्वभाव, प्रवृत्ति, प्रकृति एवं साधन सामग्री का विचार होने से कोई भी व्यक्ति इसे बड़े प्रेम पूर्वक अपनाता है।
केंचुओं की मदद से बनाई गई वर्मी कम्पोस्ट खाद भी फसलोत्पादन एवं भूमि की उर्वरा शक्ति के संरक्षण की दृष्टि से उपयोगी सिद्ध हो रही है। इस प्रक्रिया में एक ओर जहां अधिकांश फसल अवशेषों, चारा अवशेषों एवं पशु मल-मूत्र का उपयोग हो जाने से प्रदूषण एवं इसके कारण रोगों का भय समाप्त हो जाता है, वहीं दूसरी ओर रासायनिक खादों का सुरक्षित एवं पोषक विकल्प भी सहज रूप से सुलभ हो जाता है।
जैविक कीटनाशी की उपयोगिता
फसलों में लगने वाले हानिकारक कीटों की रोकथाम के लिए जब जहरीले रासायनिक कीटनाशकों का प्रयोग किया जाता है तो हानिकारक कीटों के साथ-साथ कृषि मित्र कीट भी इनकी चपेट में आकर मर जाते हैं तथा भूमि में उपलब्ध लाभकारी बैक्टीरिया फंगस व ऐक्टिनोमाइसिटीज़ भी कम हो जाते हैं। अधिकाधिक कीटनाशक रसायनों के इस्तेमाल से मृदा, खाद्यान्न, जल और वायु प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि मानव एवं पशु स्वास्थ्य खतरे में आ गया है और अनगिनत जंगली पशु, पक्षी, जीव जन्तुओं की प्रजातियां ही विलुप्त हो गई हैं। आज हर व्यक्ति प्रतिदिन लगभग 0.27mg जहर रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के रूप में खाद्य पदार्थों के माध्यम से खा रहा है। हरित क्रांति में रिकार्ड अन्न उत्पादन के लिए प्रयोग होने वाले कीटनाशकों, फफूंदनाशकों, खरपतवार नाशकों और रासायनिक खादों ने हमारे अन्न भण्डारों को तो भर दिया लेकिन अब अपने विषाक्त पार्श्व प्रभावों से पर्यावरण को भी बुरी तरह प्रदूषित करना शुरू कर दिया है। इसके प्रयोग से सबसे अधिक ग्रामीण क्षेत्रों का जल प्रभावित हुआ है। एक सर्वेक्षण के अनुसार हमारे देश में कीटनाशक रसायनों के अवशेषों में 97.7% डीडीटी की उपस्थिति पायी गयी। नमूनों से यह बात स्पष्ट हो गई है कि बाजार में बिकने वाले अनाज, फल व सब्जी सभी में कीटनाशक रसायनों की उपस्थिति मानक से काफी ज्यादा है।
ऐसे कीटों की संख्या 500 से भी अधिक हो गई है जिन्होंने अपने अन्दर कीटनाशियों के विरुद्ध प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर ली है। अतः अब और भी अधिक विषैले रासायनिक कीटनाशियों की आवश्यकता पड़ेगी। बढ़ते जा रहे इस पर्यावरण संकट को कम करने के लिए जैविक कीटनाशियों का इस्तेमाल ही एक प्रभावी उपाय है।
जैविक कीटनाशी बनाने की विधि - कुछ उदाहरण विकसित किये गये और इस्तेमाल किये जा रहे जैविक कीटनाशियों को बनाने व इस्तेमाल करने की विधि निम्नलिखित है।
फसल पर साधारण कीटों का प्रभाव होने पर 25L पानी में 500mL गोमूत्र मिलाकर छिड़काव कर दिया जाता है। जब भी किसी फसल पर कीड़े लगें तो उसके लिए गोमूत्र और पत्तियों से घोल बनाकर छिड़काव किया जा सकता है। इसमें गाय का मूत्र और ऐसे पत्तों का घोल, जिन्हें जानवर नहीं खाते हैं, मिलाया जाये और तांबे के बर्तन में उबाला जाये। गोमूत्र और पत्तों की मात्रा का अनुपात 4:1 का होना चाहिए (4L गोमूत्र में 1kg पत्तियां)। 5 एकड़ की फसल के लिए 25L गोमूत्र और 5-6kg पत्तियों की चटनी बनाकर तांबे के बर्तन में उबालें और ठंडा होने पर 250L पानी मिलाकर फसल पर छिड़काव कर दें। 15-20 दिन में एक बार छिड़काव करने से कीट का असर समाप्त हो जायेगा।
देशी प्रजाति की गाय का 15L मूत्र तथा 5kg नीम की पत्तियों को एक घड़े में 21 दिन तक बंद करके रखने के बाद उसे तांबे के बर्तन में उबालें। एक चौथाई रह जाने पर ठंडा होने के पश्चात् छानकर चीनी के बोट अथवा कांच की बोतलों में भरकर रखें। जब भी आवश्यकता पड़े 2L घोल को 200L पानी में मिलाकर प्रति एकड़ नम खेत में सांयकाल फव्वारे से छिड़काव कर दें। इससे खेत में दीमक तथा कीड़े पैदा होने की संभावना नगण्य हो जायेगी। यह जुताई से पहले खेत को कीटमुक्त करने की विधि है।
देशी प्रजाति की गाय के दूध से तैयार 4kg दही तांबे के बर्तन में 15 दिन तक रखें। दही का रंग हरा हो जायेगा। उसमें देशी प्रजाति की गाय का 20 दिन पुराना 30L मूत्र तथा 160L पानी अच्छी तरह मिलाकर नम खेत में सांयकाल फव्वारे से छिड़काव कर दें तथा अगले दिन पाटा लगा दें। यह बुआई से पहले भूमि शोधन की विधि है। इससे खेत में दीमक व अन्य कीड़े लगने की संभावना समाप्त हो जायेगी।
बीजों को देशी प्रजाति की गाय के मूत्र में पांच मिनट भिगोकर जूट/ टाट के बोरों पर छाया में सुखायें। सूखने पर बुआई करें। यह बीज शोधन की स्वस्थ विधि है, इससे बीज शीघ्र एवं स्वस्थ अंकुरित होते हैं।
10L गोमूत्र में 25mL नीम का तेल मिलाकर तांबे के बर्तन में उबालें, जब यह आधा रह जाये तब ठंडा करके इसे छान लें। इसकी 500mL मात्रा को 25L पानी में मिलाकर फसल पर छिड़काव कर दिया जाता है।
तांबे के चार बड़े बर्तनों में 100-100L गोमूत्र भरें। एक में 10kg नीम की पत्तियां, दूसरे में 10kg निम्बोली, तीसरे में 10kg सीताफल की पत्तियां और चौथे में 10kg आकड़े (फुडकर) डुबोकर 15 दिनों तक बन्द करके रख दें। इसके बाद चारों बर्तनों की सामग्री को एक साथ मिलायें और इसमें 100g लहसुन व 100g तम्बाकू की पत्तियां मिलाकर उबालें। उबालते उबालते जब आधा रह जाये तब ठंडा करके छान लें। जब भी आवश्यकता समझें 100ml कीटनाशी दवा को 25L पानी में मिलाकर छिड़काव करें। यदि कीट का प्रकोप ज्यादा हो तो 200mL दवा 25L पानी में मिलाकर 15-20 दिन के अन्तर पर कीट का पूरा सफाया होने तक छिड़काव करते रहें।
10kg गाय के गोबर में 25g गाय का घी मिलाकर मथते हैं, फिर उसमें 500g शहद मिलाकर पुनः मथते हैं, और जब तीनों ठीक से मिल जायें तो इसको 200L पानी में घोल लें। इस प्रकार तैयार कीटनाशी को 'अमृत पानी' कहते हैं। नर्सरी से पौधे निकालकर खेत में लगाने से पूर्व उनकी जड़ों को अमृत पानी द्वारा शोधित करने से पौधों का विकास तेजी से होता है और फफूंदीजन्य रोगों का आक्रमण भी कम होता है। खड़ी फसल के लिए सिंचाई के समय चलते पानी के नाके पर बूंद-बूंद टपकाकर अमृत पानी का इस्तेमाल किया जा सकता है। पेड़-पौधों की कटाई-छंटाई के दौरान कटी सतहों पर 'जैविक वृक्ष लेप' का इस्तेमाल करने से कीट व्याधि एवं अन्य रोगों की रोकथाम हो जाती है।
एक मिट्टी के घड़े में देशी गाय के 15kg ताजे गोवर में 15L गोमूत्र मिलायें। 500g गुड़ को पानी में घोलकर उक्त मिश्रण में डालें तथा घड़े के मुंह को कपड़े से ढक दें। पांचवे दिन घड़े के सम्मिश्रण में 200L पानी मिलायें इस प्रकार 'अमृत संजीवनी' तैयार हो जायेगी। इसके प्रयोग से उत्पादन में वृद्धि, मृदा में सूक्ष्म जीवाणुओं एवं केचुओं में वृद्धि तथा रोगों की रोकथाम होती है।
जैविक खाद एवं कीटनाशी उपयोग का आर्थिक पक्ष
रासायनिक खाद और कीटनाशक के विकल्प के रूप में गोबर - गोमूत्र आधारित जैविक खाद और कीटनाशी का उपयोग करने वाले किसानों की खेती पर कुल लागत 90% कम हो जाती है यानि रासायनिक खेती की तुलना में 10% खर्च में ही खेती की जा सकती है। दूसरे शब्दों में किसानों का पहले वर्ष से 90% लाभ शुरू हो सकता है। यह लाभ थोड़े वर्षों में जब जमीन की पोषकता पूरी तरह सुधर जाती है तब 900% तक हो सकता है। जैविक खेती में जो भी उत्पादन होता है वह शुद्ध, विषरहित एवं स्वास्थ्यवर्धक होता है, अतः इसको खाने वाले लोगों को शारीरिक-मानसिक बीमारियां कम होने के कारण इलाज का खर्च बहुत कम हो जायेगा। जानवर भी स्वस्थ रहेंगे, काम ज्यादा करेंगे, लम्बी उम्र जियेंगे, दुधारू पशु दूध ज्यादा देंगे।
भारत में यदि जैविक खेती का अभियान (खेती में गोवर-गोमूत्र का उपयोग) सफल हो गया तो यहां पशु हत्या, गोहत्या भी बन्द हो जायेगी ( बूचड़खाने बन्द हो जायेंगे) क्योंकि बड़े पैमाने पर पशुओं का गोबर-मूत्र उपयोग में आने से लोगों की दृष्टि में दूध न देने वाले पशुओं का भी उपयोग बढ़ जायेगा।
भारत में प्रतिवर्ष 72,00,000 मीट्रिक टन पशु मांस का उत्पादन करने के लिए लगभग 4,50,00,000 पशुओं का कत्ल किया जाता है। इसके कारण देश को प्रतिवर्ष 45,000 करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा है। दूसरी ओर सरकार को यूरिया व डी. ए. पी. उर्वरकों के उत्पादन पर प्रतिवर्ष लगभग 20,000 करोड़ रुपये की सब्सिडी देनी पड़ रही है। इसका पूरा लाभ उर्वरक उत्पादक कम्पनियों को ही मिलता है, किसानों को कोई लाभ नहीं मिलता है। अतः पशुओं के कत्ल से देश को हर साल 65,000 करोड़ रुपयों का नुकसान होता है। इस नुकसान को खेती में पशु गोबर-मूत्र का उपयोग करके फायदे में बदला जा सकता है। भारत के किसान हर साल लगभग 3,80,000 करोड़ रुपये की रासायनिक खाद, कीटनाशक एवं डीजल खेती में उपयोग करते हैं। इस खर्च में बड़ी भारी कमी की जा सकती है। भारत में जैविक खेती से न केवल किसानों की आय बढ़ेगी बल्कि पूरे देश की समृद्धि और खुशहाली भी बढ़ेगी।
संदर्भ
1. दुबे राजेश, माटी को जगायें जैविक खेती अपनायें स्मारिका प्रकृति - 2003 प्रकृति आधारित सतत् विकास पर अखिल भारतीय सम्मेलन, गोष्ठी एवं प्रदर्शनी, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा, नई दिल्ली, (11-13 अक्तूबर 2003) 25-30.
2. जोशी मुरली मनोहर, 'कृषि और ऋषि संस्कृति', स्मारिका प्रकृति 2003 प्रकृति आधारित सतत् विकास पर अखिल भारतीय सम्मेलन, गोष्ठी एवं प्रदर्शनी, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा, नई दिल्ली, (11-13 अक्तूबर 2003) 22.
3.मित्तल परमानन्द, जैविक खेती कम लागत की खेती', स्मारिका प्रकृति 2003 प्रकृति आधारित सतत् विकास पर अखिल भारतीय सम्मेलन, गोष्ठी एवं प्रदर्शनी, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा, नई दिल्ली, (11-13 अक्तूबर 2003) 44.
4. ज्योत्सना मधु, 'रासायनिक कीटनाशकों से प्रदूषण, विज्ञान (विज्ञान परिषद् प्रयाग, इलाहाबाद) (जून 2006) 27-28, 31.
5. 'खेती किसानीः छोटो किसानों के लिए उपयोगी कम्पोस्ट खाद', राष्ट्रदेव साप्ताहिक पत्रिका (22 फरवरी 1999 ) 3.
6. 'कम्पोस्टिंग : कूड़ा ट्रीटमेन्ट की कारगर तकनीक', दैनिक जागरण, 25 फरवरी 2006.
7. दीक्षित राजीव 'संभव है समाधान' भारतीय पक्ष मासिक पत्रिका, 1 (2007) 13-15.
लेखक एनएस त्यागी, एमपी सिंह एवं राकेश कुमार, केन्द्रीय भवन अनुसंधान संस्थान (सी.एस.आई.आर.), रुड़की 247 667 (उत्तराखण्ड) से जुड़े हुए हैं।
/articles/bhaarata-maen-jaaivaika-khaada-evan-kaitanaasakaon-kaa-parayaoga-parayaavarana-sanrakasana