भारत में आपदा प्रबन्धन

देश के सभी भागों में मौसम में बहुत ज्यादा बदलाव की भविष्यवाणी अब सम्भव है। देश के किसी भाग के निवासियों को अब पहले से सचेत करना सम्भव हो गया है और उन्हें मौसम खराब होने अथवा जान-माल के नुकसान की सम्भावना से चौकस किया जा सकता है। ऐसी पूर्व सूचना पाने में उपग्रह व्यवस्था बहुत सहायक होने लगी है। इसके जरिये आपदा से पहले और बाद की स्थिति का आकलन किया जा सकता है। दुनिया के लगभग हर भाग में आपदाएँ आती हैं। विश्व बैंक की प्राकृतिक खतरे और अप्राकृतिक आपदाएँ शीर्षक एक रिपोर्ट में कहा गया है कि बाढ़ और तूफान दुनिया भर में आते हैं, जबकि अफ्रीका में अक्सर सूखा पड़ता रहता है। दुनिया के जो भू-भाग बार-बार पड़ने वाले सूखे और बाढ़ से प्रभावित होते हैं, वहीं पर दुनिया की अधिकांश वह आबादी रहती है जो भूख और गरीबी से त्रस्त है। सम्भावना है कि जलवायु परिवर्तन से यह स्थिति और गम्भीर हो सकती है। इसीलिए इस बात की सख्त जरूरत है कि प्राकृतिक आपदाओं के निवारण, शमन और प्रबन्धन के लिए प्रभावशाली और व्यापक कदम उठाए जाएँ और उन स्थलों की पहचान की जाए, जहाँ ये आपदाएँ अक्सर आती हैं।

भारत के मामले में बाढ़, समुद्री तूफान और सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाएँ देश के किसी-न-किसी भाग में आती रहती हैं। देश के कई ऐसे जिले हैं, जहाँ कई प्रकार की आपदाएँ आती हैं और पूरे साल कोई-न-कोई आपदा चला करती है। भूकम्प, ओलावृष्टि, बर्फीले तूफान और भूस्खलन भारत के कुछ भागों में आते रहते हैं, लेकिन इनसे होने वाली तबाही इस बात पर निर्भर करती है कि वह जगह इनसे कितनी प्रभावित होती है। 1980-2010 के बीच भारत में जो प्राकृतिक आपदाएँ आईं, उनके विवरण नीचे दिए जा रहे हैं :

जिन विकसित देशों में प्राकृतिक आपदाओं की पूर्व सूचना देने वाले आधुनिक तन्त्र और राहत कार्यक्रम मौजूद हैं, वहाँ इनके कारण होने वाली तबाही कम हो जाती है, लेकिन जिन देशों में तैयारी कम होती है और राहत कार्यक्रम काफी नहीं होते, वहाँ प्राकृतिक आपदाओं से बहुत विनाश होता है। भारत में अन्य विकासशील देशों के मुकाबले प्राकृतिक आपदाओं के कारण जान-माल का नुकसान काफी ज्यादा होता है।

विश्व बैंक के एक अनुमान के अनुसार भारत में प्राकृतिक आपदाओं के चलते देश के सकल घरेलू उत्पाद के दो प्रतिशत के बराबर नुकसान होता है। उससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इन आपदाओं का प्रभाव गरीबों पर उनके अनुपात से ज्यादा पड़ता है।

संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी संयुक्त राष्ट्र अन्तरराष्ट्रीय आपदा न्यूनीकरण नीति (यूएनआईएसडीआर) ने 2005 में प्राकृतिक आपदाओं से सम्बन्धित ह्यूगो कार्यवाही रूपरेखा तैयार की, जिस पर भारत ने भी हस्ताक्षर किए हैं। इसमें आपदा जोखिम कम करने के लिए सामाजिक, आर्थिक विकास नियोजन और 5 प्रकार की प्रक्रियाएँ अपनाने की पैरवी की गई हैं। ये हैं—

राजनीतिक प्रक्रिया : इसके अन्तर्गत सभी देशों को ऐसी नीतियाँ और कानून तथा संस्थान विकसित करने हैं, जो आपदा जोखिम कम करने में सहायक हों, इस काम के लिए संसाधन निर्धारित करें और राहत पहुँचाने की तैयारी करें।

तकनीकी प्रक्रिया : इसके अन्तर्गत प्राकृतिक आपदा से होने वाली तबाही के आकलन, पहचान और मॉनीटरिंग के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल किया जाए और पूर्व सूचना तन्त्र विकसित किया जाए।

सामाजिक शैक्षणिक प्रक्रिया : इसका उद्देश्य नागरिकों में समझदारी और हर स्तर पर लचीलापन तथा सुरक्षा की भावना विकसित करना है।

विकास प्रक्रिया : इसका उद्देश्य विकास के हर सम्बद्ध क्षेत्र में आपदा जोखिम का एकीकरण और विकास के साथ नियोजन तथा कार्यक्रम बनाना है।

मानवीय प्रक्रिया : इसके अन्तर्गत आपदा के समय कार्रवाई और बचाव का काम करना शामिल हैं।

भारत सरकार ने अगस्त 1999 से ही इनमें से कुछ पर तब काम शुरू कर दिया था, जब जे.सी. पन्त (भारत सरकार के पूर्व कृषि सचिव) तथा कुछ विशेषज्ञों और अधिकारियों को मिलाकर एक आपदा-प्रबन्धन उच्चाधिकार प्राप्त समिति गठित की गई थी। इसे आपदा प्रबन्धन के क्षेत्र में संस्थागत सुधार के उपाय सुझाने की जिम्मेदारी सौंपी गई। भारत के संघीय ढाँचे को ध्यान में रखते हुए इस समिति को यह अधिकार भी दिया गया कि वह राष्ट्रीय, राज्य और जिला स्तरों पर व्यापक योजनाएँ तैयार करे। इसके गठन के कुछ ही समय बाद समिति के कार्यक्षेत्र में वृद्धि की गई और इसमें मानवकृत आपदाएँ भी शामिल कर ली गईं। इनमें रासायनिक, औद्योगिक, परमाणु और अन्य प्रकार की आपदाएँ शामिल हैं।

उच्चाधिकार प्राप्त समिति के गठन को मुश्किल से आठ महीने बीते थे कि 29 अक्टूबर, 1999 को ओडिशा तट पर जबरदस्त समुद्री तूफान आया। अपने प्रवाह और भयानकता में यह तूफान अभूतपूर्व था और इसके कारण करीब 10 हजार लोग मारे गए। ओडिशा के 12 जिलों के लगभग डेढ़ करोड़ से ज्यादा लोग प्रभावित हुए। इसके एक वर्ष 4 महीने के बाद गुजरात के भुज इलाके में जोरदार तूफान आया, जिसकी तीव्रता रिएक्टर पैमाने पर 6.9 आँकी गई। इस आपदा के कारण लगभग 20 हजार लोगों के प्राण गए, 1 लाख 55 हजार लोग घायल हुए और 6 लाख लोग बेघर हो गए।

आपदा प्रबन्धन अधिनियम, 2005 में व्यवस्था की गई है कि आपदाओं के समय केन्द्रीय, राज्य, जिला और स्थानीय स्तरों पर कानूनी, वित्तीय और समन्वय तन्त्र बनाए जाएँगे। ये संस्थान समानान्तर नहीं होंगे और एक-दूसरे के साथ निकट समन्वय बनाकर काम करेंगे। आपदा प्रबन्धन के विचार में एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब 26 दिसम्बर, 2004 को हिन्द महासागर में सुनामी ने दस्तक दी। इसका भारत पर जबरदस्त असर पड़ा और सात राज्य प्रभावित हुए। उसी समय महसूस किया गया कि चेतावनी, तालमेल और आपदा प्रबन्धन के कामों में भारी अन्तर है। 9 जनवरी, 2005 को एक सर्वदलीय बैठक बुलाई गई, जिसमें राष्ट्रीय स्तर पर प्राकृतिक और मानवकृत आपदाओं से निपटने की जरूरत पर जोर दिया गया। इस बैठक के बाद भारत सरकार ने आपदा प्रबन्धन पर एक कानून बनाने का निश्चय किया जिसका उद्देश्य इस काम के लिए एक संस्थागत तन्त्र की रचना और आपदा प्रबन्धन योजनाओं को लागू करने और इनकी प्रगति पर नजर रखना होगा। कहा गया कि सरकार के विभिन्न पक्षों द्वारा प्राकृतिक आपदाओं के शमन और निवारण के लिए उपाय करने और इस सम्बन्ध में किसी स्थिति से निपटने के लिए समग्र, समन्वित और अविलम्ब तरीके से कार्रवाई की जरूरत होगी। तदनुसार, 11 मई, 2005 को राज्य सभा में एक विधेयक प्रस्तुत किया गया।

आपदा प्रबन्धन अधिनियम, 2005 में व्यवस्था की गई है कि आपदाओं के समय केन्द्रीय, राज्य, जिला और स्थानीय स्तरों पर कानूनी, वित्तीय और समन्वय तन्त्र बनाए जाएँगे। ये संस्थान समानान्तर नहीं होंगे और एक-दूसरे के साथ निकट समन्वय बनाकर काम करेंगे। नयी संस्थागत संरचना से उम्मीद की जाती है कि वह आपदाओं से निपटने की दिशा में संस्थागत तरीके से काम करेगी और इस काम के लिए पहले से ही निवारक कार्यवाही करेगी, जिसमें तैयारी, निवारण और शमन पर जोर दिया जाएगा।

2005 में आपदा प्रबन्धन अधिनियम बन जाने के बाद प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण की स्थापना की गई। उपर्युक्त अधिनियम में राज्य स्तर और जिला स्तर के आपदा प्रबन्धन प्राधिकरणों के गठन की व्यवस्था है। इसीलिए देश में अब आपदा प्रबन्धन की व्यवस्था के लिए कानूनी आधार भी प्रदान कर दिया गया है और इसके लिए नियम और जिम्मेदारी तय कर दी गई है। इस अधिनियम में आपदा में कमी लाने और राहत कार्यों के लिए बजट आवंटन की भी व्यवस्था कर दी गई है। यह संरचना अब तैयार है और यह केन्द्र और राज्य सरकारों के ऊपर निर्भर करता है कि वे इसकी व्यवस्थाओं के अनुसार प्रभावशाली तरीके से आपदाओं के कारण लोगों और देश पर पड़ने वाले कुप्रभाव को कम करने के प्रयास करें।

विश्व बैंक के एक अनुमान के अनुसार भारत में प्राकृतिक आपदाओं के चलते देश के सकल घरेलू उत्पाद के दो प्रतिशत के बराबर नुकसान होता है। उससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इन आपदाओं का प्रभाव गरीबों पर उनके अनुपात से ज्यादा पड़ता है।यह सर्वविदित है कि किसी भी आपदा के कारण सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले लोग गरीब वर्ग के होते हैं। अक्सर उन्हें जान-माल का नुकसान उठाना पड़ता है। उनकी जीविका के साधन नष्ट हो जाते हैं। इसीलिए आपदाओं के कारण सकल घरेलू उत्पाद पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर चिन्ता जाहिर की जा रही है। यह और भी चिन्ता की बात है कि हम सर्वसमावेशी विकास का लक्ष्य प्राप्त करने की कोशिश कर रहे हैं और जब तक आपदा, जोखिम कम करने में कामयाबी नहीं मिलती तब तक यह सम्भव नहीं होगा। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित उपाय जरूरी होंगे :

1. विकास के कार्य में आपदा जोखिम कम करने के उपायों को मुख्यधारा में लाना।
2. विज्ञान और प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करते हुए पूर्व चेतावनी व्यवस्था को प्रभावशाली बनाना।
3. जागरुकता और तैयारी बढ़ाना।
4. राहत और बचाव तन्त्र को मजबूत बनाना।
5. बेहतर पुनर्वास और पुनर्निर्माण।

भारत सरकार कृषि, ग्रामीण विकास, शहरी विकास, पेयजल, ग्रामीण सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षा एवं खाद्य सुरक्षा क्षेत्रों में अनेक महत्वाकांक्षी कार्यक्रम चला रही है। इन कार्यक्रमों के लिए काफी परिव्यय रखा गया है और इनका उद्देश्य लोगों के रहन-सहन की गुणवत्ता में सुधार लाना है। इन सबसे कुछ हद तक आपदा जोखिम कम करने में मदद मिली है, लेकिन आपदा जोखिम घटाने के प्रमुख घटक इनमें मौजूद नहीं हैं। अब कोशिश इस बात की होनी चाहिए कि इन योजनाओं में आपदा जोखिम कम करने के घटक शामिल कर लिए जाएँ।

जहाँ भूख और गरीबी घटाने में कृषि का बहुत योगदान है, वहीं कृषि पर खराब मौसम का बुरा असर पड़ता है तो छोटे किसानों और खेतिहर मजूदरों की रोजी-रोटी पर असर पड़ता है तथा खाद्य सुरक्षा प्रभावित होती है। खेती के विकास के लिए जो भी कार्यक्रम बनाए जाते हैं उनमें इन बातों पर ध्यान नहीं दिया जाता। कृषि मन्त्रालय का एक प्रमुख कार्यक्रम है राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, जिसमें आपदा जोखिम कम करने के घटक शामिल किए जा सकते हैं। बीज के आरक्षित भण्डार बनाने, खेती में लगने वाले कीड़ों पर नजर रखने और महात्मा गाँधी राष्ट्रीय रोजगार गारण्टी योजना के सहयोग से जल भण्डारण उपायों के जरिये आपदा जोखिम कम करने के घटक शामिल किए जा सकते हैं।

तालिका : भारत में प्रमुख आपदाएँ

क्र. सं.

आपदाएँ

वर्ष

राज्य और इलाका

1.

सूखा

1972

देश का अधिकांश भाग

2.

समुद्री तूफान

1977

आन्ध्र प्रदेश

3.

सूखा

1987

15 राज्य

4.

लातूर भूकम्प

1993

लातूर, महाराष्ट्र का मराठवाड़ा क्षेत्र

5.

ओडिशा में समुद्री तूफान

1999

ओडिशा

6.

गुजरात भूकम्प

2001

रापर, भुज, भचाउ, अंजर, अहमदाबाद और सूरत

7.

सुनामी

2004

तमिलनाडु, केरल, आन्ध्र प्रदेश, पुडुचेरी और अण्डमान एवं निकोबार द्वीप समूह के तटवर्ती इलाके

8.

महाराष्ट्र में बाढ़

2005

महाराष्ट्र

9.

कश्मीर भूकम्प

2005

अधिकांश पाकिस्तान, अंशतः कश्मीर

10.

कोसी में बाढ़

2008

उत्तर बिहार

11.

समुद्री तूफान निशा

2008

तमिलनाडु

12.

सूखा

2009

252 जिले (10 राज्य)

13.

लेह में बादल फटे

2010

जम्मू-कश्मीर में लेह, लद्दाख

14.

सिक्किम भूकम्प

2011

भारत के पूर्वोत्तर इलाके, मुख्य केन्द्र नेपाल और सिक्किम सीमा के पास

15.

समुद्री तुफान

2011

तमिलनाडु, पुडुचेरी


ग्रामीण विकास मन्त्रालय की योजनाओं में आपदा के प्रभाव कम करने की बहुत सम्भावनाएँ मौजूद हैं। अधिकांशतः इन योजनाओं का लक्ष्य गरीब वर्ग है अतः इन योजनाओं में मामूली से परिवर्तन लाकर महत्वपूर्ण परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं। प्रधानमन्त्री ग्राम सड़क योजना में मानवीय बस्तियों को एक-दूसरे से जोड़ने की व्यवस्था है। इसी योजना के अन्तर्गत मानवीय बस्तियों को आपदाओं के समय काम आने वाले अस्पतालों, अनाज वितरण केन्द्रों, स्कूलों आदि से जोड़ा जा सकता है। जिन गाँवों तक हर मौसम में पहुँचने वाली सड़कें नहीं हैं अथवा जो बरसाती नदियों के कारण आर्थिक गतिविधियों से अलग-थलग पड़े हैं और जहाँ शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाएँ नहीं है, वहाँ इन सुविधाओं में मामूली परिवर्तन लाकर छोटे-मोटे पुलों की व्यवस्था की जा सकती है। इन्दिरा आवास योजना में गरीबों के लिए मकान बनाने का प्रावधान है। सामान्य रूप से यह मन्त्रालय आवासों के निर्माण के लिए संसाधनों का कुछ प्रतिशत इस काम के लिए आवंटित करता है। लेकिन इन आवासीय योजनाओं की डिजाइन ऐसी होती है कि उनके कारण आवासीय बस्तियों में आपदा प्रतिरोधी तत्व शामिल नहीं किए जा सकते। अगर इन आवासों के डिजाइन में मामूली फेरबदल कर दिए जाएँ और इस बात को ध्यान में रखा जाए कि आपदाओं से बचाने के लिए ये जरूरी होंगे तो इसके लिए 12वीं योजना के दौरान प्रस्तावों में उपयुक्त संशोधन किया जा सकता है।

जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी पुनर्निर्माण मिशन में देश के चुनिन्दा बड़े शहरों में मूल सुविधाओं के सशक्तीकरण की व्यवस्था है। इसके कारण जहाँ शहरी मूल सुविधाओं में स्पष्ट सुधार दिखाई दिए हैं, वहीं उन बातों पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है जो शहरी विकास के मास्टर प्लान में मौजूद नहीं हैं। अगर इस तथ्य को मान लें कि भारत में शहरी आबादी तेजी से बढ़ रही है और घनी आबादी वाले इलाकों में प्राकृतिक खतरों का डर ज्यादा है तथा इनके कारण वहाँ जान-माल का ज्यादा नुकसान हो सकता है तो आपदा प्रबन्धन की योजना बनाते समय इन शहरी विकास परियोजनाओं में बचाव के तरीके शामिल किए जा सकते हैं।

राजीव गाँधी राष्ट्रीय पेयजल मिशन का उद्देश्य गाँवों में पेयजल की व्यवस्था करना है। किसी प्राकृतिक आपदा की स्थिति में पेयजल और खाद्य सामग्री की उपलब्धता बढ़ाने पर तुरन्त ध्यान देना होता है। इस काम के लिए विभाग ने अपने परिव्यय का कुछ प्रतिशत निर्धारित किया हुआ है, जिसका इस्तेमाल आपदा के समय नलकूप आदि बनाने के लिए किया जाता है। यह एक स्वागत योग्य उपाय है लेकिन इसकी डिजाइन, निर्माण और स्थिति पर भी ध्यान देने की जरूरत है। निचले और बाढ़ की आशंका वाले इलाकों में यह और भी जरूरी है। बेहतर होगा कि इस प्रकार के नलकूप निचले इलाकों में ऊँचे मंच बनाकर बनाए जाएँ ताकि बारिश के दिनों में अथवा बाढ़ आने पर इनका पानी दूषित न होने पाए।

इसी प्रकार से स्वास्थ्य क्षेत्र का एक प्रमुख कार्यक्रम है— राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन। हालाँकि हमारा महामारियों से निपटने का तजुर्बा बेहतर रहा है और इसके लिए हमारे पास अस्पताल, नजर रखने वाला तन्त्र तथा ट्रॉमा केयर मौजूद है, फिर भी बड़े पैमाने पर हताहतों के प्रबन्धन आदि पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है।

आपदा जोखिम घटाने के उपायों को स्कूलों और कॉलेजों के पाठ्यक्रमों में भी शामिल किया जाना चाहिए ताकि बच्चों में सुरक्षा की संस्कृति और निवारक उपायों के प्रति जागरुकता बढा़ई जा सके। इसके अलावा स्कूल की इमारतों की सुरक्षा की भी समीक्षा किए जाने की जरूरत है। देश के सभी स्कूलों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए एक कानूनी संरचना भी स्थापित करनी होगी। आपदा जोखिम घटाने के क्षेत्रों में व्यावसायिक विशेषज्ञों की संख्या भी बहुत कम है। इस पर भी प्राथमिकता के साथ विचार करने की जरूरत है।

अगले पाँच वर्षों में उपयुक्त पूर्व चेतावनी तन्त्र की स्थापना करके सम्भवतः इस दिशा में सबसे प्रभावशाली कदम उठाया जा सकता है। हमने जहाँ सुनामी की पूर्व चेतावनी देने की अपनी क्षमता में वृद्धि की है, वहीं अन्य क्षेत्रों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। मौसम की भविष्यवाणी करने की व्यवस्था में पिछले पाँच वर्षों के दौरान काफी सुधार हुआ है। लेकिन इसके लिए जरूरी उपकरणों और जनशक्ति में काफी ज्यादा पूँजी निवेश की जरूरत है।

देश के सभी भागों में मौसम में बहुत ज्यादा बदलाव की भविष्यवाणी अब सम्भव है। देश के किसी भाग के निवासियों को अब पहले से सचेत करना सम्भव हो गया है और उन्हें मौसम खराब होने अथवा जान-माल के नुकसान की सम्भावना से चौकस किया जा सकता है। ऐसी पूर्व सूचना पाने में उपग्रह व्यवस्था बहुत सहायक होने लगी है। इसके जरिये आपदा से पहले और बाद की स्थिति का आकलन किया जा सकता है। इन क्षमताओं को ठीक समय पर उपयुक्त फैसले करके और प्रभावशाली बनाया जा सकता है। इसीलिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी, भू-विज्ञान और अन्तरिक्ष तथा आईएमडी, आईएनसीओआईएस, एनआरएससी और एसओआई जैसे संगठनों को आधुनिक उपकरणों और मानव कौशल से लैस करने की जरूरत है ताकि वे आपदाओं की सटीक जानकारी दे सकें।

इसके अलावा इन प्रयासों के साथ ही आईसीएआर, आईसीएमआर, सीडब्ल्यूसी, जीएसआई आदि वैज्ञानिक संगठनों और विभागों से भी सक्रिय समर्थन प्राप्त करना होगा। आँकड़ों के विश्लेषण, सम्प्रेषण और प्रसार-प्रचार के लिए एक राष्ट्रीय मंच तैयार करना जरूरी है। उदाहरण के लिए भारी वर्षा सम्बन्धी आँकड़ों को नदी प्रवाह के आँकड़ों के साथ संयोजित करना जरूरी है ताकि बाढ़ के बारे में पूर्व सूचना मिल सके। इस काम में उपग्रहों से भी सहायता ली जा सकती है।

अक्सर देखा गया है कि आपदाओं के कारण होने वाली व्यापक जन-धन की हानि इस बात पर भी निर्भर रही है कि किसी विशेष समुदाय को किसी खास विषय के बारे में जानकारी थी अथवा नहीं थी, उदाहरण के लिए अक्सर कहा जाता है कि ज्यादा जनहानि भूकम्प के कारण नहीं, इमारतों के कारण होती है। बावजूद इसके हम भूकम्प क्षेत्र-4 और 5 में इमारतें बनाते समय नियमों का ध्यान नहीं रखते। हकीकत यह है कि भूकम्प के बिना भी इमारतें ढह जाती हैं। इसी तरह से आग से सुरक्षा के नियमों का भी हम पालन नहीं करते अथवा पूर्णतया पालन नहीं कर पाते। इस सम्बन्ध में सरकारी एजेंसियों द्वारा निरीक्षण और प्रबन्धन की व्यवस्था करना जहाँ जरूरी है वहीं नागरिकों में इस सम्बन्ध में खतरों के प्रति जागरुकता होना आवश्यक है। इन स्थितियों में वांछित परिणाम तभी मिल पाते हैं जब जनता जागरूक होती हैं। हमारी तैयारी तभी पूरी मानी जाएगी, जब सरकार और समुदाय स्तरों पर पूरी जागरुकता होगी। सच्चाई यह है कि अभी हमारे देश में सामुदायिक चेतना का नितान्त अभाव है। इसे सशक्त बनाने के लिए एक जोरदार अभियान चलाने की जरूरत है।

आपदा के समय परम्परागत रूप से हम राहत और बचाव के लिए तदर्थ आधार पर तुरन्त कदम उठाते हैं। राहत और बचाव के कार्य तदर्थ कार्रवाई नहीं रह सकते बल्कि इनकी सोच-समझकर योजना बनाने की जरूरत है। हमें ऐसे मामले में सोच-समझकर योजनाएँ बनाने और हर तरह की घटनाओं का सामना करने के लिए मानक संचालन प्रक्रियाओं का ध्यान रखना होगा, जिनमें यह तय कर दिया गया हो कि एक खास परिस्थिति में किसको किस तरह का योगदान करना होगा। अगर राष्ट्रीय, राज्य, जिला, नगरपालिका और पंचायत स्तरों पर प्रभावशाली तन्त्र मौजूद हों तो बड़े पैमाने पर जान-माल का बचाव हो सकता है और नुकसान कम किया जा सकता है।

आपदा के बाद पुनर्वास और पुनर्निर्माण भी महत्वपूर्ण गतिविधियाँ हैं, हालाँकि इस सन्दर्भ में चर्चा नहीं की जा रही है। इसीलिए महत्वपूर्ण सन्देश यह है कि हर तरह के खतरे आपदा नहीं होते। अगर इनसे बचाव के लिए बेहतर ढंग से नियोजन, तैयारी और राहत व बचाव के साधन जुटा लिए जाएँ तो इस प्रकार की आपदाओं से होने वाले नुकसान से निकट भविष्य में काफी हद तक बचा जा सकता है।

(लेखक भारत सरकार के राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण के सदस्य हैं)
ई-मेल : tnandkumar@ndma.gov.in

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