बिहार से सर्वेक्षण की रिपोर्ट अक्टूबर 1967 में केन्द्रीय जल और शक्ति आयोग को भेज दी गई थी जिसे उन्होंने विदेश मंत्रालय को अप्रैल 1968 में अग्रसारित कर दिया था। इस प्रस्ताव को संक्षिप्त रूप में नेपाल सरकार को भेज दिया गया। उन्होंने, जाहिर था, इसकी विस्तृत रिपोर्ट मांगी जो कि एक साल पहले भेज दी गई थी। इसके बाद राज्य सरकार या केन्द्र सरकार की तरफ से किसी ने भी यह जरूरी नहीं समझा कि वह नेपाल जा कर कोई बातचीत करे या उनको अगर कहीं दिक्कत है तो उसका हल खोजने की कोशिश करे।
संशोधित समझौते के इसी साल (1966) में केन्द्र ने कंवर सेन की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया और उससे कोसी परियोजना के सुचारु रूप से काम करने की दिशा में सिफारिशें मांगी। इस समिति के गठन के पीछे भारत सरकार की क्या मंशा थी यह तो पूरी तरह से स्पष्ट नहीं होता पर इतना जरूर था कि 1963 में डलवा में पश्चिमी कोसी तटबन्ध के टूटने और उसके बाद कुनौली में तटबन्धों पर लगातार बढ़ते दबाव ने सरकार को चिन्तित कर रखा था। इसकी दूसरी वजह नेपाल द्वारा पश्चिमी कोसी नहर योजना की स्वीकृति मिलने में होने वाली देर तथा उसके चलते उभरते हुये जनता और राजनीतिज्ञों के विक्षोभ को शान्त करने की नीयत जरूर रही होगी। कंवर सेन समिति ने अपनी रिपोर्ट 1966 में ही प्रस्तुत की और उसमें मुख्यतः निम्नलिखित सिफारिशें की गई थीं। (1) भीमनगर बराज से 23 किमी. नीचे डगमारा में एक बराज का निर्माण कर के नदी के प्रवाह को नियंत्रित किया जाय, (2) नदी की ट्रेनिंग के काम हाथ में लिए जायँ। (3) नदी के प्रवाह को नियमित करने के लिए ड्रेजिंग और बण्डालिंग की व्यवस्था की जाय। (4) बाढ़ चेतावनी की व्यवस्था विकसित की जाय और (5) बड़े पैमाने पर भूमि संरक्षण का काम किया जाय।इन सिफारिशों में डगमारा बराज का सीधा सम्बन्ध पश्चिमी कोसी नहर से था। यदि नेपाल से भारदह होकर पश्चिमी कोसी नहर निकालने पर सहमति नहीं हो पाती है तो भीमनगर बराज से 23 किलोमीटर नीचे पूरी तरह से भारतीय भू-भाग में प्रस्तावित डगमारा बराज से यह नहर निकाली जा सकती थी।
डगमारा बराज और राजनैतिक उठा-पटक
उधर नेपाल को भेजे गये परियोजना प्रस्ताव पर लम्बे समय तक ख़ामोशी छाई रही और इधर केन्द्रीय सिंचाई मंत्री डॉ. के. एल. राव ने 12 जुलाई, 1967 को लोकसभा को बताया कि, ‘‘... दूसरी बराज का जहाँ तक सवाल है तो मॉडल टेस्ट में यह पाया गया कि हनुमान नगर से लेकर डलवा तक के इलाकों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुये यही बेहतर होगा कि इस बराज का निर्माण न किया जाय। मॉडल टेस्ट से तो यही पता लगता है।’’यही बात उन्होंने लोकसभा में एक बार फिर 27 जुलाई 1967 को दुहराई। उनका कहना था कि डगमारा बराज से पश्चिमी कोसी नहर निकालने पर नहर का सिंचाई वाला क्षेत्र घट कर आधा रह जायेगा और फायदे को देखते हुये परियोजना की लागत बहुत ज्यादा हो जायेगी। लेकिन डगमारा बराज का निर्माण अगर मजबूरन करना पड़ जाय तब अलग बात है। डॉ.के.एल.राव के इन बयानों से बिहार के अधिकांश राजनीतिज्ञ खुश नहीं थे। सांसद भेगेन्द्र झा ने तो उन पर बिना किसी लाग-लपेट के यह इल्जाम लगाया कि राव साहब पहले डगमारा बराज के पक्षधर थे मगर जब 1967 के चुनावों में राज्य में उनकी पार्टी की हार हो गई और विपक्ष सत्ता पर काबिज हो गया है तबसे उनकी राय बदल गई है। अब वह राज्य सरकार के अनुरोध को भी ठुकरा रहे हैं।
भोगेन्द्र झा का गुस्सा इतने पर ही शान्त नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि बहुत हंगामें के बाद सरकार ने यह तय किया कि नेपाल और भारत के इंजीनियर मिल कर नहर का सर्वे करें। जून में यह सर्वेक्षण पूरा कर लिया गया मगर रिपोर्ट दिसम्बर तक नहीं भेजी गई। नेपाल को जब रिपोर्ट ही नहीं भेजी जायगी तो वह सहमति किस चीज पर जतायेंगे? ‘‘इस तरह की उपेक्षा वृत्ति से काम नहीं चलेगा। मैं कहूँगा कि जो इसके लिए जिम्मेवार है उनको जेल में होना चाहिये। सिंचाई मंत्री को जेल में होना चाहिये।” बिना नाम लिए भोगेन्द्र झा ने सिंचाई मंत्री (डॉ. के.एल राव) का स्थान निर्धारित कर दिया था।
विधायक रसिक लाल यादव का आक्रोश अलग किस्म का था। वह मानते थे कि, ‘‘इस विभाग के मंत्री, राज्य-मंत्री और प्रशासक महोदय वाकचातुरी में प्रसिद्ध हैं। आप का कहना होता है कि इसका सम्बन्ध नेपाल से है। मैं आप से पूछना चाहता हूँ कि क्या गंडक योजना का सम्बन्ध नेपाल से नहीं था? उनकी समस्या कैसे हल हो गई? पूर्वी नहर का काम 1954-55 में शुरू हो गया था और 10-11 वर्ष बीत जाने पर भी काम आगे नहीं बढ़ रहा है। भले ही आप जनता का काम न करें, कम से कम हमारे शास्त्री जी के नाम पर कलंक नहीं लगावें।”
इसी बीच हरिनाथ मिश्र (1969) ने केन्द्र में अपनी ही पार्टी की सरकार पर यह आरोप लगाया कि वह ‘‘नई दिल्ली में बैठे हुये कुछ कांग्रेसी बॉसेज के हुकुम से इस अनाथ पश्चिमी कोसी नहर की हत्या हुआ चाहती है।’’ उनका कहना था कि 1967 में केन्द्र सरकार ने यह आश्वासन दिया था कि नहर का निर्माण शीघ्र किया जायगा मगर 22 महीनें बीतने के बाद भी पश्चिमी कोसी नहर का स्थान रसातल में ही बना हुआ था। बिहार से सर्वेक्षण की रिपोर्ट अक्टूबर 1967 में केन्द्रीय जल और शक्ति आयोग को भेज दी गई थी जिसे उन्होंने विदेश मंत्रालय को अप्रैल 1968 में अग्रसारित कर दिया था। इस प्रस्ताव को संक्षिप्त रूप में नेपाल सरकार को भेज दिया गया। उन्होंने, जाहिर था, इसकी विस्तृत रिपोर्ट मांगी जो कि एक साल पहले भेज दी गई थी। इसके बाद राज्य सरकार या केन्द्र सरकार की तरफ से किसी ने भी यह जरूरी नहीं समझा कि वह नेपाल जा कर कोई बातचीत करे या उनको अगर कहीं दिक्कत है तो उसका हल खोजने की कोशिश करे। सरकार ने अपनी तरफ से भले ही कुछ नहीं किया मगर उसे आम जनता से यह उम्मीद जरूर थी कि वह मान ले कि नेपाल की रजामन्दी नहीं मिलने से योजना में हाथ लगाना मुश्किल हो रहा था।
डॉ. राव पर इसी तरह के आरोप बिहार विधान सभा में भी लगे। महावीर प्रसाद (28 मई 1970) ने आरोप लगाया कि, “...सिर्फ एक व्यक्ति के कारण यह काम नहीं हुआ ...अगर यह काम पहले होता तो यह स्थिति नहीं होती यानी आज जिस स्थिति में हम हैं। अगर यह काम अब होता तो श्री के.एल. राव सोचते हैं कि इसके लिए वे दोषी ठहराये जायेंगे। अपनी गलती को छिपाने के लिए वे डगमारा के विरोध में हैं।” यही आरोप बैद्यनाथ प्रसाद मेहता ने भी लगाया (12 जून 1971), ‘‘... दूसरी टेकनिकल कमिटी ने अनुशंसा की है कि डगमारा बराज होना चाहिये लेकिन खेद का विषय है कि केन्द्रीय मंत्रिमंडल के मंत्री श्री के.एल. राव के इशारे पर जो सी.डब्लू.पी.सी. के चेयरमैन हैं ... इसमें बाधा डाल रहे हैं।”
बात केवल डॉ. के.एल. राव के नकारात्मक रुख तक नहीं टिकी। पार्टियों के आपसी आरोप-प्रत्यारोप भी उछाले गये। कर्पूरी ठाकुर ने कांग्रेस पर निशाना साधा कि, ‘‘पश्चिमी कोसी नहर निर्माण का इतिहास कांग्रेस सरकार के विश्वासघात और धोखेबाजी का इतिहास है। मैं जिन शब्दों का प्रयोग कर रहा हूँ, बिलकुल तौल कर कर रहा हूँ और सोच विचार कर कर रहा हूँ,’’ तो इस पर पलटवार किया बिलट पासवान ने, ‘‘पश्चिमी कोसी नहर के सम्बन्ध में बहुत से माननीय सदस्यों ने कहा है कि कांग्रेस सरकार से भी इस संबंध में भूल हुई है। इसके बाद गत संविद की सरकार सन् 1967 में आई। उस समय श्री कर्पूरी ठाकुर डिप्टी चीफ मिनिस्टर थे, किन्तु दुःख के साथ कहना पड़ता है कि उस समय भी इस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।”
विधायक धनिक लाल मंडल की मान्यता थी कि इस योजना से नेपाल की 20,000 हेक्टेयर जमीन की सिंचाई होने वाली थी और उनको शक़ था कि पहले बनी योजनाओं और उनसे सम्बन्धित समझौतों में बिहार सरकार ने नेपाल से जो लिखित या अलिखित वादे किये उन्हें पूरा नहीं किया और इसीलिए नेपाल सरकार मंजूरी देने में आनाकानी कर रही है।
पश्चिमी कोसी नहर के शीघ्र निर्माण की मांग को ले कर 1 मई 1969 को दरभंगा बन्द का आयोजन किया गया। लगभग इसी समय राधानन्दन झा ने बिहार विधान सभा में कहा (27 जून 1969) कि, ‘‘पश्चिमी कोसी नहर का दरभंगा से ऐसा सम्पर्क है कि यदि पश्चिमी कोसी नहर का निर्माण नहीं हुआ तो, जनसंख्या की जिस तरह से वृद्धि हो रही है, मुझे कहने में कोई संकोच नहीं है कि दरभंगा का आदमी, आदमी को खायेगा।’’
खरी-खोटी सुनाने में बैद्यनाथ प्रसाद मेहता ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। उनका मानना था कि, ‘‘उस सरकार का ध्यान डगमारा बराज पर नहीं था। उस सरकार का ध्यान तटबन्ध के निर्माण के बारे में और कटाव को रोकने पर था और डिसिल्टिंग रोकने पर था। एक कामधेनु और एक कल्पतरु। कामधेनु की विशेषता यह है कि उसके पास पहुँच कर जो इच्छा आप करेंगे, मनोवांछित फल आपको मिल जायेगा। उसी तरह कल्पतरु वृक्ष भी होता है, उसके नीचे पहुँच कर जो इच्छा आप करेंगे, मनोवांछित फल आपको मिल जायेगा। इस योजना को बर्बाद करने के लिए मोनोपोली हाउस है। मोनोपोली हाउस ऑफ पॉवर एण्ड पॉलिटिक्स है।’’
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