पिछले चार दशकों में भारत ने कृषि के क्षेत्र में शानदार कामयाबियाँ हासिल की हैं। इस सफलता का ज्यादातर श्रेय उन कई करोड़ छोटे और सीमांत किसान परिवारों को दिया जा सकता है, जो भारतीय कृषि और अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। नीतिगत सहायता, उत्पादन की रणनीति, बुनियादी ढाँचे में सार्वजनिक निवेश, अनुसंधान और फसल, पशुधन तथा मत्स्य पालन के क्षेत्र में प्रसार गतिविधियों से खाद्य पदार्थों का उत्पादन और इसकी उपलब्धता बढ़ाने में काफी मदद मिली है।
पिछले 40 वर्षों के दौरान भारत का खाद्यान्न उत्पादन दो गुना से अधिक बढ़ा है। 1979 में पांचवी पंचवर्षीय योजना के अंत में उत्पादन 12,32 करोड़ टन था जो 2017-18 में 284.8 करोड़ टन के स्तर पर पहुँच गया। उत्पादन में यह बढ़ोत्तरी उपज बढ़ने से ही हुई है न कि खेती के अन्तर्गत आने वाले क्षेत्रफल में वृद्धि से। प्रति व्यक्ति खाद्यान्न की उपलब्धता भी 455 ग्राम दैनिक से बढ़कर 518 ग्राम दैनिक हो गई है, जबकि इस दौरान देश की आबादी भी 68.3 करोड़ से बढ़कर करीब 1.30 अरब तक जा पहुँची है। अनाज और अनाज से इतर कृषि वस्तुओं के उत्पादन में भावी बढ़ोत्तरी के लिए मूलतः उत्पादकता में बढ़ोत्तरी करनी होगी, क्योंकि खेती का रकबा और पशुधन की संख्या बढ़ाने की सम्भावनाएँ बहुत कम रह गई हैं। भारतीय कृषि को कृषि उत्पादकता बढ़ाकर करोड़ों किसान परिवारों को आर्थिक लाभ पहुँचाने की ओर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है, क्योंकि कई फसलों के मामले में हमारे देश की उत्पादकता कई अन्य देशों की तुलना में काफी कम है। इसके अलावा, देश के भीतर भी व्यापक क्षेत्रीय असमानताएँ हैं। इसके कई कारण हैं जिनमें कम और दोषपूर्ण आधानों का उपयोग आधुनिक टेक्नोलॉजी तक किसानों की पहुँच ठीक न होना और हाल के वर्षों में कृषि के क्षेत्र में टेक्नोलॉजी सम्बन्धी कोई ठोस उपलब्धि प्राप्त न होना शामिल हैं। कृषि उत्पादकता और किसानों, खासतौर पर सीमान्त और छोटे किसानों की आजीविका में वृद्धि के लिए प्रबन्धन के बेहतरीन तौर-तरीके अपनाना बहुत बड़ा हिस्सा है। ऐसे कई तरीके हैं जिनसे जमीन के स्वास्थ्य और पर्यावरण पर बुरा असर डाले बिना उत्पादन और उत्पादकता में स्थायित्व लाया जा सकता है।
संरक्षण खेती
जलवायु परिवर्तन, मिट्टी के उपजाऊपन में गिरावट फसलों की उपज में कमी या ठहराव आने, जमीन के खराब होने और पर्यावरण प्रदूषण जैसी चुनौतियों से निपटने के लिए कंजर्वेशन एग्रीकल्चर यानी संरक्षण खेती को एक महत्त्वपूर्ण रणनीति माना गया है। फिलहाल दुनिया के फसल पैदा करने वाले करीब 8 प्रतिशत इलाके में संरक्षण का प्रसार हो चुका है। पिछले डेढ़ दशक में भारत में भी इसकी कुछ शुरुआत हुई है। सिंधु-गंगा मैदान अपनी उपजाऊ जमीन और पानी की पर्याप्त उपलब्धता (भूमिगत जल और नदियों से निकाली गई नहरों के पानी) की वजह से भारत का खाद्यान्न भंडार रहा है। इस क्षेत्र में ज्यादातर धान और गेहूँ की खेती पर आधारित कृषि प्रणाली प्रचलित है, लेकिन यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के धान/गन्ना-गेहूँ की खेती करने वाले क्षेत्र से घिरा है। इन इलाकों में डेयरी/लद्दू मवेशियों की तादाद कम होने से धान और गेहूँ की फसल के अवशिष्ट पदार्थ बड़े पैमाने पर बेकार चले जाते हैं और इनका निपटान करना एक बड़ी समस्या है। इसलिए किसान अपने खेतों को तैयार करने के लिए इन अवशिष्ट पदार्थों को खेत में ही जला देते हैं ताकि खेतों को अगली फसल के लिए जल्द तैयार किया जा सके। लेकिन फसलों के अवशिष्ट से वायुमंडलीय प्रदूषण की बड़ी गम्भीर समस्या उत्पन्न होती है, खासतौर पर नवम्बर-दिसम्बर के महीनों में जब धान की पराली बड़े पैमाने पर जला दी जाती है। गर्मी और नमी की अधिकता भी फसलों के उत्पादन से जुड़े अन्य गम्भीर मुद्दे हैं। इसलिए भौगोलिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण इस क्षेत्र में संरक्षण खेती के लिए बड़ी अच्छी सम्भावनाएँ हैं। यहाँ कृषि अनुसंधान के क्षेत्र में किसी भी महत्त्वपूर्ण प्रयास का लक्षित समूह के सामने प्रदर्शन करके इसका किसानों में आसानी से प्रचार-प्रसार किया जा सकता है।
संरक्षण खेती की परिभाषा ऐसी टिकाऊ कृषि उत्पादन प्रणाली के रूप में की जाती है जिसमें खेती के ऐसे सुनिश्चित तौर-तरीके अपनाए जाते हैं जो फसलों और प्रत्येक क्षेत्र की स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार होते हैं ताकि मृदा प्रबंधन तकनीकों से मिट्टी के क्षरण और जमीन के बंजर होने की रोकथाम की जा सके, इसकी गुणवत्ता सुधारी जा सके तथा जैव विविधता को भी बेहतर बनाया जा सके। इसका उद्देश्य जल और वायु जैसे प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करने के साथ ही उपज को अधिकतम स्तर पर बनाए रखना भी है। संसाधनों के संरक्षण की इस अनूठी विधि के दायरे में मिट्टी के साथ न्यूनतम छेड़छाड़, फसलों के अवशिष्ट पदार्थों या फसलों के जरिए जमीन पर वनस्पतियों का आवरण तैयार करना तथा उत्पादकता बढ़ाने के लक्ष्य को प्राप्त करना और पर्यावरण सम्बन्धी प्रतिकूल प्रभाव को कम करने के लिए अदला-बदली करके फसलें बोना भी शामिल हैं।
संरक्षण खेती के तीन प्रमुख स्तम्भ हैः
- मिट्टी के साथ कम से कम छेड़छाड़,
- जमीन के लिए स्थायी आवरण बनाए रखना और
- फसल प्रणाली में विविधता लाना व फसलों को अदला-बदली करके बोना।
इन तरीकों को अपनाने से संरक्षण खेती के उद्देश्यों को पूरा करने में मदद मिलती है। जहाँ तक जमीन से कम-से-कम छेड़छाड़ का सवाल है, खेत जोतने पर पाबंदी लगाई जा सकती है या कम-से-कम जुताई अथवा केवल प्राथमिक जुताई करने का नियम बनाया जा सकता है। आपसी तालमेल कायम करने के लिए आपस में सम्बन्धित इन तीन मूल सिद्धान्तों पर साथ-साथ अमल किया जाना चाहिए। मिट्टी के स्वास्थ्य, प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण, अनाज, दलहन, तिलहन और सब्जियों की आवश्यकता पूरी करने, खेती से होने वाली आमदनी के नियमन, खाद्य और पोषण सुरक्षा हासिल करने, बाहरी आधानों के उपयोग को सीमित करने, पर्यावरण सुरक्षा सुनिश्चित करने और रोजगार के अवसर पैदा करने में इन सिद्धान्तों की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। भारत सरकार ने 2019-20 के बजट में फसली अवशिष्ट पदार्थों, खासतौर पर उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में गेहूँ और धान की पराली को पर्यावरण की दृष्टि से अनुकूल तरीके से निपटाने के लिए 1,140 करोड़ रुपए का प्रावधान किया है। इसी तरह कई अन्य राज्य ‘हैपी सीडर’ जैसी उपयुक्त मशीनों की खरीद पर सब्सिडी देकर पराली जलाने को कम करने और संरक्षण खेती को बढ़ावा देने के कार्य में मदद कर रहे हैं। यह देखा गया है कि सिंधु-गंगा के मैदानों में फसलों के अवशिष्ट को जलाना काफी कम हुआ है। फसल प्रबंधन पर आधारित फसल संरक्षण के तौर-तरीकों से न केवल फसलों की उत्पादकता बढ़ी है, बल्कि उत्पादन लागत में भी कमी आई है और मिट्टी के स्वास्थ्य को बनाए रखने में मदद मिली है।
समन्वित खेती प्रणाली
खेती में लचीलापन लाने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि जोखिमों को छितरा दिया जाए और बफर का निर्माण हो। यानी ‘सभी फल एक ही टोकरी में’ रहें। खेती करने का तरीका महत्त्वपूर्ण और प्रासंगिक माना जाता है, खासतौर पर छोटे और सीमांत किसानों के लिए क्योंकि स्थान विशेष से सम्बन्धित समन्वित कृषि प्रणालियाँ जलवायु में परिवर्तन के बारे में ज्यादा लचीली और अनुकूलन करने वाली होती हैं। सीमान्त और छोटे किसान अगर खेती के साथ पशुपालन को भी समन्वित कर लें तो इससे सिर्फ फसल उगाने के मुकाबले अधिक अच्छे परिणाम हासिल किए जा सकते हैं। देश के विभिन्न भागों में अनुसंधान केन्द्रों और खेतों में किए गए अनुसंधान से बारानी खेती वाले इलाकों में कई टिकाऊ और लाभप्रद समन्वित कृषि प्रणालियों के अनेक मॉडलों की पहचान करने में मदद मिली है। आमतौर पर 500 से 700 मिमी. वर्षा वाले इलाकों में कृषि प्रणालियाँ पशुधन पर आश्रित होनी चाहिए और कम पानी की खपत करने वाली घास, पेड़-पौधों तथा झाड़ियों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए ताकि चारे, ईंधन और इमारती लकड़ी की आवश्यकता भी पूरी की जा सके। 700 से 1,100 मिमी. तक वर्षा वाले इलाकों में मिट्टी के प्रकार और उत्पादों के लिए बाजार को ध्यान में रखते हुए फसल, बागवानी और पशुपालन वाली कृषि प्रणाली अपनाई जा सकती है। इसी तरह जलग्रहण क्षेत्र आधारित कृषि प्रणाली में बड़े पैमाने पर वर्षा जल का संचय कर खेती की जाती है। जिन इलाकों में 1,100 मिमी. से अधिक वर्षा होती है, वहाँ धान की खेती के साथ मछली पालन को समन्वित करने वाला मॉडल अपनाया जा सकता है। सिंचित क्षेत्रों में जमीन की उत्पादकता और उर्वरता को बनाए रखने के लिए समन्वित कृषि प्रणाली के निम्नलिखित मॉडल बहुत उपयुक्त हैः
- कृषि प्रणाली के फसल घटक में सघनता और विविधता।
- अधिक आमदनी के लिए कृषि प्रणाली के अन्य घटकों में विविधता लाना।
समन्वित कृषि प्रणाली से यह साबित हो जाता है कि इसमें विभिन्न उपक्रमों को कृषि प्रणाली के साथ समन्वित करके कृषि को विभिन्न कृषि जलवायु तथा पारिस्थितिकीय स्थितियों वाले इलाकों के किसानों के लिए लाभप्रद गतिविधि बनाने की जबर्दस्त क्षमता है।
सुनिश्चित पोषक तत्व प्रबंधन और मृदा स्वास्थ्य कार्ड
मृदा स्वास्थ्य कार्ड (एसएचसी) योजना 19 फरवरी, 2015 में शुरू की गई और 2018 तक देशभर में बड़ी संख्या में मृदा स्वास्थ्य कार्ड जारी किए जा चुके थे और उसी के अनुसार मिट्टी में पोषक तत्वों का प्रबंधन किया जाने लगा था। इसके परिणाम स्वरूप सूखे जैसी स्थितियों में भी देश में रिकार्ड खाद्यान्न उत्पादन हुआ। किसी स्थान विशेष से सम्बन्धित पोषक तत्व प्रबंधन 5-आर के सिद्धान्त पर आधारित है और ये ‘आर’ यानी राइट हैं। सही समय, सही मात्रा, सही स्थान, सही स्रोत और सही तरीका। स्थान विशेष से सम्बन्धित पोषक तत्व प्रबंधन (एसएसएनएम) दृष्टिकोण में आवश्यकता पड़ने पर उचित समय पर फसलों को पोषक तत्व उपलब्ध कराने पर जोर दिया जाता है। इसमें किसानों को इस तरह से सक्षम बनाया जाता है कि वे अधिक उपज देने वाली फसलें उगाने में उर्वरकों के उपयोग को संतुलित कर अनुकूलतम बना सकें और अधिक उपज देने वाली फसलों की पोषक तत्वों सम्बन्धी आवश्यकताओं को स्थानीय स्रोतों जैसे मिट्टी, जैविक खाद, फसलों के अवशिष्ट पदार्थों और सिंचाई के पानी से पूरा किया जा सके। खेतों में फसलों के लिए पोषक तत्वों के उपयोग की क्षमता बढ़ाने के लिए निम्नलिखित पोषक तत्व प्रबंधन रणनीतियाँ सबसे अधिक कारगर साबित हुई हैं।
- नीम लेपित यूरिया और जिंक सल्फेट लेपित यूरिया फसल की उपज, उपज की गुणवत्ता, सस्य विज्ञान सम्बन्धी दक्षता और फसलों की आभासी नाइट्रोजन रिकवरी बढ़ाने में लाभप्रद साबित हुए हैं।
- मिट्टी की हालत में सुधार और फसलों की महामारियों और बीमारियों का प्रकोप कम करने के लिए शत-प्रतिशत नीम लेपित यूरिया का उत्पादन करके पादप संरक्षण में काम आने वाले रसायनों के उपयोग में कमी लाना, फसल की उपज में समग्र बढ़ोत्तरी और गैर-कृषि कार्यों के लिए यूरिया के उपयोग को कम करना।
- एप्लिकेशन फॉस्फेट साल्यूब्लाइजिंग बैक्टीरिया (पीएसबी) और वैस्कूयलर आर्ब्यूस्क्यूलर मायकोरिजी (वीएएम) जैसे जैव-उर्वरकों का रॉक फास्फेट के साथ उपयोग करने से फसलों की उत्पादकता बढ़ जाती है। ये बायोफर्टिलाइजर जड़ की लम्बाई, आयतन और जड़ों का शुष्क वजन बढ़ाते हैं जिससे पौधे जोरदार तरीके से बढ़ते हैं और पैदावार बढ़ती है।
- मृदा स्वास्थ्य कार्ड के आधार पर फसलों के पौधों के स्थान और समय से सम्बन्धित आवश्यकताओं के अनुसार एनपीके (नाइट्रोजन, फॉस्फेट और पोटाश) उर्वरकों का उपयोग।
- लीफ कलर चार्ट (पत्तियों के रंग का चार्ट-एलसीसी), क्लोरोफिल मीटर और ग्रीन सीकर आधारित नाइट्रोजन प्रबंधन जिससे यह सुनिश्चित करने में मदद मिलती है कि नाइट्रोजन सही समय पर और सही मात्रा में दी गई है। इनके उपयोग से नाइट्रोजन उर्वरकों की बर्बादी कम करने में भी मदद मिलती है।
- अन्य समन्वित फसल प्रबंधन विधियों के साथ तालमेल, जैसे गुणवत्तापूर्ण बीजों का उपयोग, पौधों की अनुकूलतम संख्या, आईपीएम तकनीक और कुशल जल प्रबंधन।
- फर्टिगेशन, उर्वरक देने की सबसे कुशल विधि है क्योंकि इसमें यह सुनिश्चित किया जाता है कि फसल की आवश्यकता के अनुसार पौधों की जड़ों को पानी और उर्वरक सीधे और समान रूप से मिलें। चूँकि पानी और पोषक तत्व दोनों ही सीधे जड़ों के पास के क्षेत्र में पहुँचा दिए जाते हैं, इससे संसाधनों की भारी बचत होती है।
- सॉफ्टवेयर पर आधारित कौशलों का उपयोग, जैसे फसलों की निगरानी और पोषक तत्व देने में पोषक तत्व विशेषज्ञों की सहायता, फसल प्रबंधन, भौगोलिक सूचना प्रणाली (जीआईएस) और ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (जीपीएस) का उपयोग।
कुशल जल प्रबंधन
‘पर ड्राप मोर क्रॉप’ यानी पानी की हर बूँद से अधिक उपज के भारत सरकार के मिशन के तहत प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के लिए अधिक धनराशि का आवंटन किया गया है कि ताकि किसान ड्रिप सिंचाई और स्प्रिंकलर सिंचाई अपनाकर तथा खेतों में तालाब जैसे छोटे जल स्रोतों का विकास करके अधिक क्षेत्र में सिंचाई की व्यवस्था कर सकें। शुष्क और अर्धशुष्क क्षेत्रों में, जहाँ सूखे के मौसम में कम बारिश होती है, बरसात में अधिक-से-अधिक बारिश का पानी इकट्ठा करना जरूरी होता है ताकि बाद में इसका उपयोग, खासतौर पर सिंचाई के लिए किया जा सके। बरसात में संचित पानी का उपयोग पीने के पानी के रूप में, मवेशियों को पिलाने के लिए और सिंचाई में किया जाता है। बहकर बर्बाद हो जाने वाले बरसाती पानी को सिंचाई की कमी वाले इलाकों में भेजकर फसल उगाने में इस्तेमाल किया जा सकता है। इससे भूमिगत जलाशयों को भी भरा जा सकता है। इसके लिए बारिश के पानी को उसी जगह जहाँ वर्षा हुई है या किसी दूसरी जगह ले जाकर जल-प्रबंधन करके फसलों की उत्पादकता उच्च-स्तर पर बनाए रखने में बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। वर्ष 2018 के केन्द्रीय बजट में प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के ‘हर खेत को पानी’ घटक के अन्तर्गत भूमिगत जल से सिंचाई करने की योजना ऐसे 96 जिलों में लागू की गई जहाँ 30 प्रतिशत से भी कम भूमि के लिए सिंचाई की पक्की व्यवस्था थी। पानी के दबाव पर आधारित सूक्ष्म सिंचाई( माइक्रो इरिगेशन) प्रणाली से न सिर्फ खाद्यान्न उत्पादन में पानी की बचत होती है, बल्कि इससे उत्पादकता बढ़ाने, लागत कम करने, जल उत्पादकता में वृद्धि और पारम्परिक सिंचाई विधियों की तुलना में ऊर्जा के उपयोग की दक्षता बढ़ाने में भी मदद मिलती है।
जैविक खेती
भारत में जैविक खेती का प्रचलन एक बार फिर से जोर पकड़ रहा है और रोजाना इसकी लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है। किसान, उद्यमी, अनुसंधानकर्ता, प्रशासक, नीति निर्माता और उपभोक्ता देश में जैविक खेती को बढ़ावा देने और विकास में अधिक दिलचस्पी दिखा रहे हैं। जैविक खाद्य उत्पाद पारम्परिक तरीकों से पैदा किए गए पदार्थों के मुकाबले कहीं अधिक सुरक्षित और पौष्टिक माने जाते हैं। जैविक खेती से मिट्टी की उर्वराशक्ति को बहाल करने में भी मदद मिलती है। इससे पर्यावरण का संरक्षण होता है, जैव विविधता बढ़ती है, फसलों की उत्पादकता बनी रहती है और किसानों की आमदनी में बढ़ोत्तरी होती है। जैविक खेती के दीर्घकालीन फायदों को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने देश में इसे बढ़ावा देने के लिए कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं। तमाम हितधारकों और सरकार के सहयोग से भारत में जैविक खेती आन्दोलन के दायरे का जबर्दस्त विस्तार हुआ है। जैविक खेती या परम्परागत खेती के मुख्य लक्ष्य इस प्रकार हैः
- खेती के समन्वित, चिरस्थाई और जलवायु के प्रति संवेदनशील तौर-तरीकों के आधार पर प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग को बढ़ावा देना।
- किसानों की बाहरी आधानों पर निर्भरता कम करना, मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाना, प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और पोषक तत्वों का पुनर्चक्रण यानी रीसाइक्लिंग।
- किसानों की कृषि उत्पादन की लागत कम करना ताकि उनकी प्रति व्यक्ति आमदनी बढ़ाई जा सके।
- खतरनाक अकार्बनिक रसायनों से पर्यावरण का बचाव करने के लिए ऐसी पारम्परिक तकनीकें और खेती के प्रति संवेदनशील टेक्नोलॉजी अपनाना जो किफायती हों।
फसल विविधता
एक ही फसल की खेती करने से उत्पन्न होने वाली पर्यावरण सम्बन्धी समस्याओं के समाधान के लिए फसलों में विविधता लाना सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण साबित हुआ है। जिन इलाकों में कुछ खरपतवार फसलों के लिए बड़ी समस्या बन गए हैं, उनमें फसल-चक्र में बदलाव और एक साथ कई फसलें उगाने वाली प्रणाली में कुछ फसलों को शामिल करने से अनेक खतरनाक खरपतवार काफी हद तक कम किए जा सकते हैं। इससे खरपतवारनाशक रसायनों के उपयोग की आवश्यकता भी बहुत कम हो जाती है। फसल प्रणाली में फली वाली फसलों को शामिल करने से जमीन में नाइट्रेट की कमी की समस्या से कारगर तरीके से निपटने में मदद मिली है। अनाज की फसलों के साथ चौड़ी कतारों में फलीदार फसलों को उगाना बड़ा उपयोगी साबित हुआ है। दलहन, तिलहन, रेशेवाली फसलों के साथ-साथ फल, सब्जियों, फूलों, औषधीय व खुशबूदार पौधों और मसाले जैसी फसलें उगाकर विविधता लाने की आवश्यकता है। लेकिन यह कार्य कृषि-जलवायु सम्बन्धी स्थितियों और प्राकृतिक संसाधनों के कुशल प्रबन्धन में किसानों की सूझबूझ और उच्चतर उत्पादकता व लाभप्रदता को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। इसके अलावा, उपयुक्त कृषि वानिकी विकल्प को अपनाने से भी खेतों की उत्पादकता बढ़ेगी और मृदा स्वास्थ्य तथा किसानों की आमदनी में सुधार होगा।
संसाधनों का संरक्षण करने वाली टेक्नोलॉजी (आरसीटीज)
संसाधनों का संरक्षण करने वाली टेक्नोलॉजी का अभिप्राय ऐसे तौर-तरीकों से है जिनसे संसाधनों की बचत होती है, उनका अनुकूलतम उपयोग सुनिश्चित होता है और आधनों के उपयोग की दक्षता में बढ़ोत्तरी होती है। इन तकनीकों में शून्य या न्यूनतम जुताई (जिसमें ईंधन की बचत होती है), जमीन पर अवशिष्ट पदार्थों का स्थाई या अर्धस्थाई आच्छादन बनाए रखना, नाइट्रोजन का अधिक दक्षता से उपयोग करने वाली नई किस्मों का इस्तेमाल, लेजर से जमीन को समतल बनाकर सिंचाई के पानी की किफायत, धान की सघन खेती, सीधे बोया जाने वाला धान, नाइट्रोजन का एकदम सही मात्रा में इस्तेमाल करने के लिए लीक कल्चर चार्ट का उपयोग और खरपतवार की रोकथाम तथा उपज बढ़ाने के लिए ब्राउन मैन्योरिंग शामिल हैं। संसाधनों का सरंक्षण करने वाली टेक्नोलॉजी का अकेले इस्तेमाल करने की बजाय साझा उपयोग करने में ज्यादा कारगर रहती हैं।
समन्वित फसल प्रबंधन
समन्वित फसल प्रबंधन का मतलब है खेती के बेहतर तौर-तरीकों जैसे समन्वित पोषक तत्व प्रबंधन, समन्वित खरपतवार प्रबंधन, समन्वित बीमारी प्रबंधन और समन्वित कीट प्रबंधन आदि का उपयोग करके अच्छी फसल लेना। इस तरह आईसीएम, फसलों के उत्पादन की एक ऐसी वैकल्पिक प्रणाली है जो प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और उनमें वृद्धि करती है तथा आर्थिक दृष्टि से व्यावहारिक और चिरस्थाई आधार पर गुणवत्तायुक्त खाद्य पदार्थों का उत्पादन करती है। समन्वित जुताई और जल प्रबंधन विधियाँ भी समग्र रूप से इसके दायरे में ती हैं। इसमें पारम्परकिक विधियों और उपयुक्त आधुनिक टेक्नोलॉजी का समन्वय करते हुए कम लागत पर फसलों के उत्पादन और सकारात्मक पर्यावरण प्रबंधन के बीच संतुलन कायम किया जाता है। समन्वित फसल प्रबंधन छोटे और सीमान्त किसानों के लिए खास तौर पर फायदेमंद हैं, क्योंकि इसका उद्देश्य खरीदे गए आधानों पर निर्भरता को कम से कम करना र खेतों के ही संसाधनों का उपयोग करना है।
छोटे फार्मों की मशीनीकरण
बोई गई फसल का अंकुरण बढ़ाने, पौधों की पर्याप्त संख्या, अच्छी फसल लेने और फसल की उपज को टिकाऊ-स्तर पर बनाए रखने के लिए खेती की विभिन्न गतिविधियों को समय पर निबटाना बहुत जरूरी है। कृषि यंत्रों और उपकरणों तक किसानों की आसान पहुँच न होने से खेती वाला बड़ा इलाका परती रह जाता है या स पर देरी से बुआई हो पाती है जिसका नतीजा फसल की उत्पादकता में कमी के रूप में सामने आता है। इसलिए बुआई, फसल कटाई जैसे खेती से सम्बन्धित कार्यों के लिए कृषि में काम आने वाली मशीनरी तक पहुंच में सुधार करना अनुकूलन की रणनीति का महत्त्वपूर्ण आयाम है। इससे मानसून के देर से पहुँचने, फसल के मौसम के बीच में या अंत में सूखा पड़ने जैसे जलवायु सम्बन्धी बदलावों से निपटा जा सकता है और बरसात के बाद होने वाली फसलों की समय पर बुआई की जा सकती है। विभिन्न कृषि कार्यों के लिए कम लागत के कई दक्ष उपकरण बनाए गए हैं। इससे संचालन लागत में 20-59 प्रतिशत तक कमी लाने में मदद मिली है, कृषि गतिविधियों के समय में भी 45-64 प्रतिशत तक की बचत हुई है, बीजों और उर्वरकों की 38 प्रतिशत किफायत करने में मदद मिली है और बारानी फसलों की उत्पादकता में 18-53 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है। हाल में कृषि मशीनरी को निश्चित अवधि के लिए किराए पर लेने की उपयुक्त संस्थागत व्यवस्था भी सामने आई है जिससे छोटी जोत वाले किसानों की कृषि गतिविधियों का यंत्रीकरण करने में बढ़ोत्तरी होने की सम्भावना है। पहली बार नेशनल इनोवेशन ऑन क्लाइमेट रेजीलेंट एग्रिकल्चर (एनआईसीआरए) के अन्तर्गत एक व्यवस्थित प्रयास किया गया है। इसके अन्तर्गत देश भर में जलवायु की दृष्टि से संवेदनशील 130 गाँवों में कृषि मशीनरी को किराए पर लेने के लिए कस्टम हायरिंग सेंटर स्थापित किए गए हैं।
जलवायु के प्रति संवेदनशील खेती
बदलते जलवायु परिदृश्य में जलवायु परिवर्तन के प्रति किसानों का प्रतिरोध संसाधनों के उपयोग की दक्षता को अधिकतम करने में महत्त्वपूर्ण अनुकूलन प्रणाली का कार्य कर सकता है उदाहरण के लिए फसलों की जिन किस्मों का तना मुड़ जाता है (जैसे धान की छोटी नस्ल) उन्हें भी फसल के विकास के नाजुक दौर में तेज हवाओं को झेल सकने योग्य बनाया जा सकता है और ऐसी किस्में व्यावहारिक विकल्प बन सकती है। बुआई की तारीख में बदलाव करके तापमान में बढ़ोत्तरी के असर रको न्यूनतम किया जाता है। इसी तरह फसल की बाली को जीवाणुमुक्त करके उपज का स्थायित्व बढ़ाया जा सकता है। इसमें ऐसा प्रयास किया जाता है कि फसल में फूल आना सबसे अधिक गर्मी के दौर में न हो। फसल बुआई के समय में बदलाव जैसे अनुकूलन के उपायों से फसलों पर तापमान में बढ़ोत्तरी के बुरे असर को कम-से-कम किया जा सकता है। ऊष्ण-कटिबंधीय शुष्क और अर्ध-शुष्क जलवायु वाले क्षेत्रों में बुआई के मौसम के दौरान टाइफून और चक्रवाती तूफान के प्रकोप से निपटने में यह फायदेमंद साबित हुआ है।
संरक्षित खेत
सरंक्षित खेत का मुख्य उद्देश्य फसलों के लगातार विकास के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करना है ताकि जलवायु सम्बन्धी प्रतिकूल स्थितियों में भी अधिकतम क्षमता का उपयोग किया जा सके। संरक्षित खेती की टेक्नोलॉजी के कई फायदे हैं इससे सब्जियों, फूलों, उच्च गुणवत्ता के संकर बीजों के उत्पादन के लिए मौसम सम्बन्धी अनिश्चितताओं का जोखिम कम करने के साथ-साथ संसाधनों का कुशल उपयोग सुनिश्चित किया जा सकता है। छोटी जोत वाले किसानों के लिए इस तरह की खेती बड़ी प्रासंगिक है क्योंकि वे इसमें टेक्नोलॉजी का फायदा उठाकर अपनी जमीन से साल में ज्यादा फसलें ले सकते हैं खासतौर पर बेमौसमी फसलें उगाकर अधिक मुनाफा कमा सकते हैं। इस तकरह की फसल उत्पादन प्रणाली लाभप्रद कृषि उपक्रम के रूप में अपनाई जा सकती है, विशेष रूप से शहरों के बाहरी इलाकों में।
वर्तमान समय में इन फसलों की माँग और उत्पादन में भारी अन्तर है। घरेलू उपभोग और निर्यात के लिए पैदा की जाने वाली फसलों की गुणात्मक और मात्रात्मक जरूरतों को भी पूरा करने की आवश्यकता है जबकि उत्पादन के पारम्परिक तरीकों से ऐसा करना बड़ा मुश्किल है। इस तरह उच्च लागत की संरक्षित बागानी फसलों में क्षमताओं को बढ़ाने की व्यापक सम्भावना है। ऐसा करके भारत के किसानों की आमदनी, खासतौर पर भारत के छोटे किसानों की आय बढ़ाई जा सकती है। लेकिन इसके लिए उपयुक्त टेक्नोलॉजी सम्बन्धी हस्तक्षेप की आवश्यकता होगी।
(डॉ.वाई.एस. शिवे भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के एग्रोनोमी प्रभाग में प्रधान वैज्ञानिक डॉ.टीकम सिंह इसी प्रभाग में वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं।)
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