भारत के प्रधान सरोवर

जिस तरह भारत में असंख्य नदियां हैं और उन्हें हमारे पुरखों ने लोकमाता कहा, उसी तरह भारत में छोटे-बड़े सरोवर भी असंख्य हैं। सर, सरोवर, सरसी, तालाब, ताल, तलैया, झील, पुष्कर पुष्करिणी, ह्रद, कासार, खात, तडाग ऐसे तरह-तरह के कई नाम हमारे लोगों ने जलाशयों को दिये हैं। जिसके प्रति हमारी अधिक-से-अधिक भक्ति है ऐसा सरोवर तो हिमालय के उस पार कैलाश के रास्ते है। उसे मानस-सरोवर कहते हैं। उसी के पड़ोस में उतना ही बड़ा दूसरा सरोवर है, जिसे हमारे पुरखों ने नाम दिया है। ‘रावण ह्रद’।

मैं मानता हूं कि जिस नदी के प्रवाह में बीच-बीच में सरोवर बनते हैं ऐसी नदी को सरस्वती कहते होंगे। ऐसी नदी को ह्रादिनी तो कहते ही हैं। कश्मीर की नदी झेलम अथवा वितस्ता एक ओर से वूलर-सरोवर में जा गिरती है और दूसरी ओर से निकलकर आगे बढ़ती है। उसे हम जरूर ह्रादिनी कह सकते हैं।

मानस-सरोवर और रावण-ह्रद के परिसर से ही सिन्धु, ब्रह्मपुत्र, सतलुज और सरयू (घोग्रा) ये चार नदियां निकलती हैं। मैंने अन्य स्थान पर लिखा ही है कि जो नदियां सरोवर से निकलती हैं उन्हें हम या तो सरोजा कहें या सरयू कहें। भारत को महत्त्व की चार नदियां देने वाले इन दो सरोवरों के परिसर को भारत ने अपनी कृतज्ञता यात्रियों के द्वारा हमेशा अर्पण करने का रिवाज चलाया ही है। इसलिए, इनको प्रथम नमस्कार करके ही भारत के उन सरोवरों का स्मरण करना है, जिनके दर्शन से और स्नान-पान-दान से कृतार्थ हुआ हूं।

भूगोलवेत्ता कहते हैं कि भारत के चार सरोवर सबसे बड़े हैं, जिनमें से दो का पानी है मीठा और दूसरे दो का है खारा। इनमें सबसे प्रथम नाम आता है वूलर का, जो कश्मीर का नगीना गिना जाता है।

यों देखा जाय तो कश्मीर की उपत्य का ही पौराणिक काल में एक बड़ा सरोवर था। जिसका नाम था सतीसर; क्योंकि सती पार्वती अपनी सखियों के साथ इस सरोवर में जलविहार और नौकाविहार करती थीं। लेकिन, बड़े-बड़े असुरों ने इस सरोवर का आश्रय लिया । उनकों स्थान भ्रष्ट करने का एक ही तरीका था कि इस सारे सरोवर का पानी ही निकाल दिया जाय। श्रीविष्णु ने वराह का रूप धारण के जहां पहाड़ तोड़कर सरोवर का पानी नदी के रूप में बहाया, उस स्थान को ‘वराह-मूलम्’ कहने लगे उसी को आज बारामुल्ला के नाम से पहचानते हैं। आज भी बारामुल्ला के पास नदी का पात्र गहरा बनाने के लिए यंत्र के द्वारा कीचड़ निकाल दिया जाता है।सतीसर का संकोच होने से अब वूलर सरोवर ही बचा है। आज कभी-कभी बारिश बढ़ने पर इस सरोवर का विस्तार 103 वर्गमील का होता है। लेकिन, मामूली तौर पर उसका विस्तार 12-13 मील से ज्यादा नहीं है। अक्सर सब सरोवर शांत होते हैं, लेकिन वूलर अथवा उल्लोल सरोवर में कभी-कभी पहाड़ों के बीच से ऐसा तूफानी झंझावात चलता है कि बड़ी-बड़ी किश्तियों को भी डूबते देर नहीं लगती। यही कारण है कि जो पहले ‘महापद्मसरस्’ नाम से मशहूर था, उसे लोग उल्लोल सरोवर कहने लगे। (संस्कृत में बड़ी-बड़ी लहरों को उल्लोल कहते हैं।)

उल्लोल सरोवर के बाद आता है मंचर सरोवर, जिसमें सिंधु-नद प्रवेश करके बाहर निकल आता है। इसका वर्णन तो मैंने अन्यत्र किया ही है। यह सरोवर जब पानी से भर जाता है, तब मीठे पानी के सागर की शोभा देता है। जब उसमें कमल खिलते हैं, तब उसे सचमुच पद्म का सार नहीं, किन्तु पद्मसागर ही कहना चाहिए। और जब पानी कम होता है, तब उसके किनारे गेहूं की खेती होती है, जिसका सिंध के लोगों को बड़ा सहारा है।

हमारा तीसरा बड़ा सरोवर है सांभर, जो राजस्थान में जयपुर-जोधपुर के बीच सफेद नमक के कारण हमेशा चमकता रहता है। स्थानिक लोगों में इस सरोवर के बारे में एक सुन्दर कथा प्रचलित है।

देवी अन्नपुर्णा का अवतार है शाकंभरी। इस शाकंभरी ने भक्तों की सेवा से संतुष्ट होकर कहा की ‘जहां तुम लोग रहते हो, वहां के सारे प्रदेश को चांदी का बना देती हूं।’ देवी के वरदान का यह फल देखते ही अनुभवी गरीब लोग डर गये। हाथ जोड़कर माता से उन्होंने कहा की ‘चांदी तो हमारी मौत का कारण होगी। इतनी चांदी देखकर आसपास के राजाओं की नीयत बिगड़ेगी। वे इस भूमि पर अधिकार जमाने के लिए आपस में लड़ेंगे और हमारा तो खात्मा ही हो जायेगा।’ शाकंभरी को अपने भक्तों की दलील जंची और उसने कहा, ‘अच्छा तब मैं इस स्थान को चांदी के जैसे चमकने वाले शुद्ध नमक का सरोवर बनाऊंगी। वैसा ही हुआ। और तब से आजतक इस सरोवर के इर्द-गिर्द बसे हुए गरीब लोगों को अच्छा रोजगार मिल रहा है।’

चौथा बड़ा सरोवर उत्कल के पूर्व किनारे गंजाम के पास है, जो चिलका नाम से विख्यात है। समुद्र के किनारे होने से यह स्वाभाविकतया खारा सरोवर है। लेकिन, इसमें आकर गिरने वाली नदियों का जोर जब बढ़ता है, तब यह सरोवर करीब करीब मीठा बन जाता है। और, नदियों का पानी जब कम होता है और समुद्र में बाढ़ आती है, तब यह सरोवर फिर से खारा हो जाता है।

मुझे वह दिन ठीक याद है, जब हम लोग महात्माजी के साथ रंभा के जमींदार के मेहमान थे। राजा साहब के वाफर (Steam Launch) Lady of the lake ने हमें सरोवर में काफी घुमाया। नाचते पानी का रंग, आसपास की टेकरियों के ऊपर के पेड़ों का रंग और आकाश का नीला रंग, मानों एक नुमाइश हो। बीच में वाफर ने ज्यों ही सीटी फूंकी, आस-पास की ध्यानस्थ टेकरियां एकदम मुखरित हो गई और सीटी की प्रतिध्वनियां अनेक दिशाओं से आने लगीं।

सरोवर में काफी चक्कर लगाने के बाद हम एक-छोटे-से टापू के पास पहुंचे, जो एक मामूली कमरे से बड़ा नहीं था। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के एक गोरे अमलदार ने इस बेट पर बैठने के लिए छोटा-सा चबूतरा बनाया था और ऊपर छाया के लिए गुंबज भी बनाया था। स्थानिक लोगों से सुना कि वह गोरा रोज किश्ति में आकर इस बेट पर बैठकर छोटी हाजिरी या नाश्ता करता था।

कम्पनी बहादुर के दिनों का और एक किस्सा यहां सुना। ईस्ट इण्डिया कम्पनी का एक एजेन्ट यहां रहकर मनमाना कारोबार करता था। न पैसों का हिसाब, न नियमों का पालन। जब शिकायत कलकत्ता पहुंची, तब इस एजेंट से जवाब-तलब किया गया। उसने कहा, पाई-पाई का हिसाब मौजूद है। आप किसी हिसाब-नवीस को भेज दीजिये।

जब बड़ा हिसाब नवीस आ गया, तब सरोवर के किनारे उसकी अच्छी-से-अच्छी आवभगत-खातिरदारी की गई और उससे कहा कि हिसाब के बही-खाते और कागजात एक बेट पर रखे हुए हैं, वे तुरन्त मंगवाये जायेंगे। जब सारे हिसाब-किताब एक जहाज पर लादकर किनारे पर लाये जाते थे, पानी में कुछ तूफान हुआ और जहाज पानी में डूब गया! बेचारे मल्लाह मुश्किल से बच पाए! एजेंट ने और बड़े लेखा-निरीक्षक ने खूब अफसोस किया और सारा प्रकरण वहीं पर खतम हुआ!! ईस्ट इण्डिया कम्पनी के एजेंट हमारे यहां के नवाबों से भी बढ़े-चढ़ थे।

चिलका सरोवर, उसके अंदर के टापू और आसपास के पहाड़ प्राकृतिक सौंदर्य का निधान है। हमारी सिफारिश है कि भारत के सौदर्यधामों की यात्रा करने वालों को चिलका से वंचित नहीं रहना चाहिए। लार्ड कर्जन की गवाही देकर हम कहते हैं कि इतना सुन्दर-स्थान आपकों अन्यत्र नहीं मिलेगा।

चिलका सरोवर के किनारे अनन्तकाल से एक प्राकृतिक द्वन्द्व चलता आया है। भार्गवी, दया आदि अनेक नदियां अपने प्रवाह के साथ कीचड़ और मिट्टी ला-लाकर इस सरोवर में छोटे-बड़े टापू बनाती हैं और समुद्र नदियों के आक्रमण से चिढ़कर अपनी ओर से ज्वार-भाटे के साथ रेत लाकर सरोवर के खिलाफ एक बांध खड़ाकर देता है। जिन्होंने मद्रास के समुद्र-किनारे अड्यार नदी के खिलाफ समुद्र का खड़ा किया हुआ बांध देखा है, या सौराष्ट्र के पश्चिम किनारे मेखल नदी को रोकने वाला सागरी बांध देखा है, उन्हीं को इस समुद्र लीला का ठीक खयाल हो सकेगा।

कहते हैं किसी अंग्रेज इंजीनियर ने चिलका सरोवर का पानी और पूर्वसागर का पानी दोनों को एक करने के लिए बीच का बांध-तोड़ने का पुरुषार्थ किया। मिट्टी इधर से खोदी, उधर से खोदी और समुद्रसागर मिलन के महोत्सव के दिन तोड़ने के लिए जमीन का थोड़ा-सा टुकड़ा रहने दिया।

उत्सव के लिए बुलाये गए बड़े-बड़े मेहमानों के देखते बारूद के द्वारा बीच का मिट्टी का हिस्सा उड़ा दिया गया और दोनों पानी एक हो गये! इंजीनियरी पुरुषार्थ की महिमा गाते-गाते लोग इधर उत्सव पूरा करते थे, इतने में समुद्र ने खूब रेत लाकर टूटा हुआ बांध भर दिया और सारे लोग मायूस होकर अपने-अपने स्थान चल गए!! मनुष्य के पुरुषार्थ की भी मर्यादा है। इधर कुदरत की लीला भगवान् की लीला होने से उसके लिए कोई मर्यादा नहीं। चिलका और समुद्र के बीच कम-से-कम 200 गज चौड़ाई का बांध कुदरत की लीला का महत्त्व आज भी सिद्ध करता है। चिलका सरोवर करीब 40 मील चौड़ा और 20 मील लम्बा है। सरोवर की गहराई पांच-सात फुट से अधिक नहीं है। सरोवर के बीच एक जगह नल बन नाम का एक पांच मील के घेरावेका बेट है, जिसकी जमीन आसपास के पानी से सिर्फ पांच-सात इंच ऊंची है। ऐसे बेट पर मनुष्य रह नहीं सकता, लेकिन अपने मकान के छप्पर के लिए यहां से चाहे जितना मसाला ले जा सकता है। नदी ऋषिकुल्या अगर चाहती, तो अपना पानी चिलका में ही छोड़ देती। लेकिन, उसने अपना पानी समुद्र को ही देना पसंद किया। लोगों ने दोनों के बीच नहर बांधकर समझौता करने की कोशिश की, लेकिन ऋषिकुल्या ने वह नहीं माना। चिलका का तो उससे कुछ नुकसान नहीं हुआ।

मद्रास से कटक के रास्ते कलकत्ता जाते ट्रेन से यह सरोवर दीख तो पड़ता है, लेकिन उसकी सच्ची शोभा किसी सरोविहारिणी किश्ती में बैठकर ही देखनी चाहिए।

भारत के इन चार सोरवरों के साथ जिसकी तुलना हो सके, ऐसा एक विशाल सरोवर मैंनें मणिपुर, आसाम की ओर खास जाकर देखा। उस ‘लबतक’ सरोवर का वर्णन तो स्वतंत्र रूप से ही होना चाहिए।

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