भारत के मन का सरगम हैं नदियाँ

861404 वर्ग कि.मी. में विस्तृत गंगा क्षेत्र भारत की सभी नदियों के क्षेत्र से बड़ा है और दुनिया की नदियों में चौथा। 2525 किमी लम्बा यह क्षेत्र देश के पाँच राज्यों उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल तक फैला हुआ है। गंगा तट पर सौ से ज्यादा आधुनिक नगर और हजारों गाँव हैं। देश की लगभग 40 प्रतिशत जनसंख्या गंगा क्षेत्र में रहती है। देश का 47 प्रतिशत सिंचित क्षेत्र गंगा बेसिन में है। पेयजल, सींच का पानी और आस्था स्नान में गंगा की अपरिहार्यता है। लेकिन यही गंगा तमाम बाँधों, तटवर्ती नगरों के सीवेज और औद्योगिक कचरे व शवों को ढोने के कारण मरणासन्न है।नदी नाद का सुख अप्रतिम। नदियाँ बहती हैं, यों ही। निरुद्देश्य गतिशील। नाद करते हुए। अथर्ववेद के ऋषि ने गाया- हे सरिताओं, आप नाद करते हुए बहती हैं, इसीलिए आपका नाम नदी पड़ा। नदियाँ भारत के मन का सरगम हैं, अपनी गति लय में। वे पवित्र हैं, पवित्र करती भी हैं। वैदिक ऋषियों ने उन्हें ‘पुनाना’ कहा है। बहती हैं धरती पर, लेकिन भारत के मन और प्रज्ञा को भी सींचती रहती हैं। गंगा ऐसी ही नदी हैं। गंगा ऋग्वेद में हैं। पुराण कथाओं में हैं। रामायण और महाभारत में हैं। काव्य, गीत, संगीत सहित सभी ललित कलाओं में हैं। सिनेमा में भी हैं। गंगा जैसी ख्यातिनामा नदी विश्व में दूसरी नहीं। वे धरती पर बहती हैं, आकाश की धवल नक्षत्रावली भी आकाश गंगा कही जाती है। वे भारत का सांस्कृतिक प्रवाह हैं। वे मुक्तिदायिनी हैं। 861404 वर्ग कि.मी. में विस्तृत गंगा क्षेत्र भारत की सभी नदियों के क्षेत्र से बड़ा है और दुनिया की नदियों में चौथा। 2525 किमी लम्बा यह क्षेत्र देश के पाँच राज्यों उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल तक फैला हुआ है। गंगा तट पर सौ से ज्यादा आधुनिक नगर और हजारों गाँव हैं। देश की लगभग 40 प्रतिशत जनसंख्या गंगा क्षेत्र में रहती है। देश का 47 प्रतिशत सिंचित क्षेत्र गंगा बेसिन में है। पेयजल, सींच का पानी और आस्था स्नान में गंगा की अपरिहार्यता है। लेकिन यही गंगा तमाम बाँधों, तटवर्ती नगरों के सीवेज और औद्योगिक कचरे व शवों को ढोने के कारण मरणासन्न है।

गंगा भारत का अन्तस् प्रवाह है। हमेशा चर्चा में रहती हैं। कभी सूख जाने की आशँका में तो प्राय: अविरल निर्मल गंगा की भारतीय अभीप्सा में। इस सप्ताह यही गंगा उत्तर प्रदेश के हमारे जिले उन्नाव में सौ से ऊपर शव ढोकर ले आईं। हड़कम्प मचा। शासन और देश सन्न हैं। गंगाजल पवित्रता का पर्याय रहा है, लेकिन गंगा में शव डाले जाते हैं। अधजले शव और पूरे के पूरे भी। नदियों में शव डालने की परम्परा प्राचीन नहीं है। इसका उल्लेख वेदों में नहीं है। वैदिक ऋषि नदियों को माँ जानते थे। उन्होंने जल को बहुवचन माताएं कहा है। ऋग्वेद में शव के अग्निदाह का स्पष्ट उल्लेख है। स्तुति है कि हे अग्नि, इस आत्मा को कष्ट दिए बिना संस्कार सम्पन्न करें। इसकी देह को भस्मीभूत करें और इसे पितरों के पास भेज दें। शरीर अनेक मूलभूत तत्वों से बनता है। आगे भावप्रवण स्तुति है- आँखें सूर्य से मिलें और प्राण मिले वायु से। अग्नि से प्रार्थना है कि मृतक के अज भाग को आप तेज से तपाएँ, प्रखर बनाएँ। फिर इसे दिव्य लोक में ले जाएँ। मृतक के दाह संस्कार से पृथ्वी स्थल दग्ध होता है। वनस्पतियाँ क्षतिग्रस्त होती हैं। इसलिए अन्त में अग्नि से ही प्रार्थना है कि आपने जिस भूस्थल को दग्ध किया है, उसे तापरहित बनाएँ। यहाँ फिर से घास उगे। पृथ्वी पहले जैसी हो जाए।

गंगाजल पवित्रता का पर्याय रहा है, लेकिन गंगा में शव डाले जाते हैं। अधजले शव और पूरे के पूरे भी। नदियों में शव डालने की परम्परा प्राचीन नहीं है। इसका उल्लेख वेदों में नहीं है। ऋग्वेद में शव के अग्निदाह का स्पष्ट उल्लेख है। स्तुति है कि हे अग्नि, इस आत्मा को कष्ट दिए बिना संस्कार सम्पन्न करें। इसकी देह को भस्मीभूत करें और इसे पितरों के पास भेज दें।शव का अग्निदाह वैदिक परम्परा है। ऋग्वेद में जान पड़ता है कि शव के अग्निदाह की परम्परा ऋग्वेद से पुरानी है। शव के नदी प्रवाह की परम्परा होती तो जल से स्तुतियाँ होतीं कि इसे अपने साथ ले जाएँ। इसके शरीर के सड़ने से हे जल आपको कष्ट न हो, आदि। लेकिन शव का जल प्रवाह वेदकालीन परम्परा नहीं है। वैदिक साहित्य में शव के जल प्रवाह के विवरण नहीं हैं, लेकिन भूमि में शव को गाड़ने के संकेत ऋग्वेद में हैं। यहाँ मृतक से प्रार्थना है कि आप सर्वव्यापिनी पृथ्वी माता की गोद में विराजमान हों। ये पृथ्वी माता कोमल वस्त्रों के स्पर्श वाली और सभी ऐश्वर्य स्वामिनी है। फिर पृथ्वी से स्तुति है- हे पृथ्वी माता, आप कोमल वस्त्रों के स्पर्श वाली और सभी ऐश्वर्य स्वामिनी हैं। जिस तरह माता पुत्र को आँचल से ढँकती है, उसी तरह इसे आप सब ओर से आच्छादित करें। यहाँ मृतक को पृथ्वी माता की गोद में सौंपा गया है। स्तुति है- शव को आच्छादित करने वाली धरती माता हजारों रज कण इसके ऊपर अर्पित करें। अथर्ववेद के अधिकांश मन्त्र बाद के हैं, लेकिन अथर्ववेद में भी अग्निदाह के साथ शव को धरती में गाड़ने की परम्परा दिखाई पड़ती है।

वैदिक पूर्वजों का जल के साथ रागात्मक नेह रहा है। वे धरती पर प्रवाहित जल को जीवन जानते रहे हैं। वे भूगर्भ जल के प्रति भी सचेत रहे हैं। आकाशचारी मेघों पर उनकी नेह दृष्टि रही है। इन्द्र ऋग्वेद के प्रतिष्ठित देवता हैं। वे नदियों के प्रवाह में बाधक वृत्र को हटाने या मारने के लिए स्तुतियाँ पाते हैं। अविरल जल प्रवाह वैदिक समाज की अभीप्सा रही है। इसलिए पूर्वज नदी में शव प्रवाह करने की बात सोच भी नहीं सकते थे।

गंगा समूचे भारतीय इतिहास में उपास्य और माता हैं। महाभारत काल के भीष्म जैसे नायक गंगापुत्र कहलाए। गंगा अर्पण, तर्पण और श्रद्धा समर्पण का प्रवाह हैं, लेकिन हम भारत के लोगों के आचरण से ही उनका अस्तित्व खतरे में है। गंगा सहित सभी नदियों को पुनर्नवा नवयौवन देना भारतीय जनगणमन की गहन आकांक्षा है। नदियों में शव डालने की कुप्रथा बन्द करने का समय आ गया है। साधु-सन्त और धर्माचार्य आगे आएँ। गंगा, यमुना सहित सभी नदियों में शव सहित सभी प्रदूषणकारी वस्तुओं को डालने की प्रथा के विरुद्ध अभियान चलाएँ। गंगा में शव डालना दोतरफा निर्ममता है। हम अपने प्रियजन परिजन के शव को जलीय जीव-जन्तुओं के हवाले कैसे कर सकते हैं? हम अपनी श्रद्धा, आस्था और प्रणम्य नदियों में प्रियजनों के सड़ते-बहते शव कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं? परम्परा कालवाह्य होकर ही अकरणीय रूढि़ बनती है और कालसंगत होकर अनुकरणीय आदर्श।

नदियों में शव डालने की परम्परा किसी तात्कालिक आवश्यकता में ही शुरू हुई होगी। कब प्रारम्भ हुई? क्यों प्रारम्भ हुई? इसका शोध बौद्धिक कार्रवाई है, लेकिन प्रत्यक्ष रूप में यह कालसंगत नहीं है। यह जल प्रदूषण को बढ़ाने वाली है।नदियों में शव डालने की परम्परा किसी तात्कालिक आवश्यकता में ही शुरू हुई होगी। कब प्रारम्भ हुई? क्यों प्रारम्भ हुई? इसका शोध बौद्धिक कार्रवाई है, लेकिन प्रत्यक्ष रूप में यह कालसंगत नहीं है। यह जल प्रदूषण को बढ़ाने वाली है। नदियों के जीवन पर संकट है। इसलिए इस पर रोक अपरिहार्य हो गई है। विश्व भारत की ओर देख रहा है। भारत के प्राचीन दर्शन, ज्ञान और विज्ञान आकर्षक रहे हैं। यहाँ की जीवनशैली में त्याग, प्रीति और संयम, मर्यादा की गन्ध रही है। 21वीं सदी के भारत को विज्ञानसम्मत परम्परावादी होना चाहिए।

पवित्र नदी गंगा में सौ से ज्यादा सड़ते, बहते शवों की ताजा घटना विचारोत्तेजक है। गंगा की अस्तित्व रक्षा अपरिहार्य है। गंगा भारत की पहचान है। गंगा में सौ से ज्यादा शव मिलना असामान्य घटना है। इस घटना ने आत्मचिन्तन की नई सामग्री दी है। अब आस्था से पुनर्संवाद जरूरी है। परम्परा का पुनरीक्षण अपरिहार्य है। भारत की जीवनशैली में समयानुकूलन की अद्वितीय क्षमता है। आत्मचिंतन की चुनौती सामने है। इसे टाला नहीं जा सकता। गंगा सहित सभी नदियों को अविरल, निर्मल, सरस, सुरस, छन्दस् और लयबद्ध बनाने का उत्तरदायित्व हमारा ही है। हम अपने दायित्व और कर्तव्य का निर्वहन करें। दिक्काल हमारे अनुकूल होगा।

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