बयाबानों के शाह

अगर हमें हमारी आने वाली पीढ़ियों को बचाना है तो हमें यानी समाज को और धार्मिक अगुआ को मिट्टी, जंगल, जीव और पानी का सारा काम अपने हाथ में लेना होगा। अपने ही देश में विस्थापित कश्मीरी शरणार्थियों की तरह बिखरे तालाबों को सुंदर झीलों में बदलना होगा।

यह बात 1993 की है जब ‘जनसत्ता’ अखबार चण्डीगढ़ से निकलता था और श्री प्रभाष जोशी अपने ‘कागद कारे’ कॉलम में समृद्ध भारतीय लोक जीवन की परंपराओं को सुनहरे अक्षरों में लिखा करते थे। ‘जनसत्ता’ के 17 अक्तूबर के अंक में प्रभाष जी ने अपने कॉलम में गांधी शांति प्रतिष्ठान द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'आज भी खरे हैं तालाब' की समीक्षा और पुस्तक के लेखक श्री अनुपम मिश्र के बारे 'अपने पर्यावरण का यह अनुपम आदमी' शीर्षक से एक लेख लिखा। लेख मन-मस्तिष्क पर निर्मल श्रद्धा की तरह ठहर गया। अनुपम जी को पत्र लिखा, उसी सप्ताह पुस्तक घर पहुंच गई। जैसे-जैसे पुस्तक पढ़ता गया, अदृश्य केशवीय वाणी मन के सोये पार्थ को न केवल जगाती चली गयी बल्कि जीवन का कर्म और अपना स्वधर्म भी समझाती चली गई। एक बार तो भीतर का सब उथल-पुथल हो गया, रोजी-रोटी का संघर्ष तो था ही। इसी बीच दिल्ली किसी काम से अनुपम जी से मिलना हुआ, बस निरर्थक जीवन को जैसे कर्म की पगडंडी मिल गई। वापस मालेर कोटला (उन दिनों हम मालेर कोटला रहते थे) लौटते बस में बैठे पानी से जुड़ी यादों की अनेक बंद बहियां खुलती चली गईं...।

बाबू जी क्यों नहाते समय कहते थे, 'जल मिलिया परमेश्वर मिलिया, मन की टली बला।'
बीजी (माता जी) क्यों त्योहारों के दिनों पानी में जलते दीए छोड़ने को कहती थीं, क्यों पास के जोहड़ में आटे की गोलियां डालने के लिए कहती थीं, क्यों दशहरें की पूजा के दिन बहते पानी में जौ तैराने के लिए कहती थीं, क्यों हर रोज छत पर रखे बड़े कटोरे का पानी बदलने के लिए कहती थीं। क्योंकि जल से ही जीवन की ज्योति जलती है। ऐसी गहरी आस्थाओं से जुड़ी यादों के अनेक पन्ने खुलते चले गए ...लेकिन अचानक बचपन से जुड़ी यादों के ऐसे ही एक पन्ने पर जाकर आत्मा ठहर गई...।

यह बात अपने बचपन की यानी तीस-बत्तीस साल पुरानी है। उन भले वक्त में बच्चे गर्मियों की छुट्टियों में अपने नाना-नानी के पास जाया करते थे। मैं भी अपने ननिहाल गांव (पैल, लुधियाना) गया हुआ था। मुहल्ला चौहट्टा में नाना का घर था। नाना जी लकड़ी का काम करते थे। नाना जी के पास एक बुजुर्ग बैठे शायद कुछ काम करवा रहे थे, सामने ही मुहल्ले भर के बच्चे कंचे खेल रहे थे, मैं भी अपनी बारी के इंतजार में नाना के पास ही बैठा था। मुझे याद आया कि वह बाबा जी अपने किसी बेटे की बात कर रहे थे जिसकी हाल ही में किसी ऊंचे पद पर नौकरी लगी थी। कंचे खेलते बच्चे के शोर में मुझे उनकी बात में रस आने लगा। बाबा जी कह रहे थे, ‘नंद रामा ! मेरे यहां सात बच्चे पैदा हुए, कोई बचता ही नहीं था, सब बहुत दुखी थे। सब जगह माथा टेक आए थे, लेकिन हर बार खुशी की किलकारी की जगह घर के भीतर से मौत की चीख ही सुनाई देती। मैं बहुत हार गया था, बहुत टूट गया था, पता नहीं हमारी देहरी पर कोई दीप जलाने वाला होगा भी या नहीं।' बाबा जी थोड़ी चुप्पी के बाद फिर बोले, 'नंद रामा, एक दिन सुबह-सुबह अभी ब्रह्म बेला ही थी, मैं खेतों में जाते-जाते अपने चौतरे की त्रिवेणी वाले चौतरे पर बैठ गया, चढ़ते सूरज की ओर देखते हुए मन ही मन परमपिता से अरदास करने लगा, हे सच्चे पातशाह! अगर इस बार तू मेरे घर आने वाले जीव को जीवन बख्श दे तो मैं गांव के सभी रास्तों पर त्रिवेणियां (नीम, पीपल, बरगद) लगवाऊंगा और गांव के मंदिर की बावड़ी, गुरुद्वारे का सरोवर और श्मशान वाला घाट साफ करवाऊंगा।... नंद रामा! वो देख, देख यह वहीं त्रिवेणी है जो काके के जन्मदिन पर मैंने परमपिता को धन्यवाद देने हेतु लगवाई थी, वाहेगुरु! मेरे काके को उस त्रिवेणी की उम्र और उस त्रिवेणी को मेरे पुत्र की उम्र लगाये।'

मुझे आज भी उन बेनाम बाबा की आंखों की चमक याद है। यादों के उस पवित्र दौर में मुझे अनुपम जी की इसी पुस्तक ने पहुंचाया। बस में बैठा मैं सोच रहा था कि आज जब चारों और धर्म, धार्मिक अगुओं और धार्मिक लोगों का अखाड़ा है, वहां कहीं भी, किसी के पास भी उस बाबा जी वाली अरदास बची है, जिसे आगे आने वाली नस्लों के सुरक्षित जीवन से जोड़कर देखा जा सके, और ऐसी दुआओं को बोया जा सके ताकि आने वाली पीढ़ियां चंद नेकी की फसलों को काट सकें। क्योंकि हमारा आज का जीवन भी हमारे पूर्वजों की बोयी हुई दुआओं का ही सदका है। क्या सचमुच हमारे तथाकथित धर्मगुरु या हमारे चारों ओर रहने वाले धार्मिक लोग ऐसी दुआयें करते हैं जिनसे सबको छाया मिल सके, सबकी प्यास बुझ सके।

हम आज यह भूल ही गए हैं कि गली-मुहल्लों में घूमने वाले फकीरों को हम आज की तरह भिखमंगा नहीं कहते थे, तब ऐसे फकीर साल में एक बार अपने से जुड़े परिवारों में अवश्य आते थे। जिस साल यह नहीं आते थे उस वर्ष लोग उदास होते थे, क्योंकि ऐसे फकीर नदियों की, सरोवरों की परिक्रमा करके आया करते थे। तब ऐसा कोई नहीं कहता था 'बाबा आगे जा’ या 'बाबा हट्ठाकट्ठा है काम करके खाया कर।’ तब हमारी शिक्षा और बोलचाल की भाषा में ऐसी शब्दावली का भूमण्डलीकरण नहीं हुआ था, क्योंकि लोगों की ऐसी गहरी आस्था थी कि ये लोग ऐसे विशेष अनुभवों में लगे हैं जिसमें सबकी सलामती, सबकी खैर होगी।

मन को चलने के लिए पगडंडी मिल ही चुकी थी, मन की लहरों पर सैकड़ों प्रश्न तैरते रहते... दिन बीतते गए... बीतते गए। पुस्तक कई बार पढ़ चुका था। अपने आस-पास पुराने सड़ते जोहड़ देखता, पुराने पेड़ों की बची-खुची यादें देखता, अपने शहर मालेर कोटला की ठंडी सड़क जो फैक्ट्रियों की चिमनियों से निकलते विकास के काले धुयें के कारण खूब गर्म सड़क बन चुकी थी, उसकी पुराने लोगों से बातें सुनता। इसी ठंडी सड़क पर बचे चार-पांच काले पड़ चुके जामुन के पेड़ देखता। मन बैठ-बैठ जाता कि हमारा यह बेढ़ब विकास न जाने हमें किस अंधेर युग में ले जाएगा। पुराने जलस्रोतों पर, पर्यावरण पर कुछ साहित्य ढूंढ़ने की कोशिश करता, कुछ दोस्तों, बुजुर्गों से बात करता लेकिन लगभग निराशा ही हाथ लगती। बड़े भाई समान श्री खालिद किफायत साहिब से पूछता, आप तो मालेर कोटला शहर की तारीख के एकमात्र दस्तखत हो, आप ही बताये कि हमारे शहर की पानी से जुड़ी रिवायतें कैसी थीं? खालिद साहिब ने बताया कि नवाब मालेर कोटला ने शहर में सात जगह कुएं खुदवायें और अलग-अलग जगह का पानी उन कुओं में डलवाया। इन कुओं का पानी हमेशा मीठा रहे, ऐसी दुआएं पढ़वायीं, फिर अलग-अलग इलाकों से लोगों को लाकर इन कुओं के आस-पास बसाया। खालिद साहिब ने सिरहन्दी गेट के बाहर स्थित उस शाही तालाब की भी जानकारी दी जिसे पंजाब की एक अजीबोगरीब 'इंप्रूवमेंट ट्रस्ट' नाम की संस्था लगभग 20 लाख रुपये की मिट्टी से भर कर हटी थी। रोजी-रोटी के संघर्षों के साथ ऐसी बातचीत चलती रही।

बसों में आते-जाते बुजुर्गों से बात करता, देश के अकेले राज्य जिसका नाम पानी पर रखा गया, उसके पानी के साथ कैसे हमारे लोक जीवन के नित्तनेम (नित्य प्रति के नियम) जुड़े थे। कैसे पेड़, कुएं, तालाब, सरोवर, बावड़ियों के रूप में पानी हमारे लोकजीवन की धड़कन था। कैसे जलस्रोतों की पूजा की जाती थी, कैसे अमावस के ग्रहण के समय पानी में स्नान करके माहात्म्य दिया जाता था, कैसे दिवाली को नदियों के किनारे दीए जला कर रखे जाते थे ताकि पांचो तत्वों में जीवन-ज्योति बनी रहे, कहीं अंधेरा न रहे, कोई प्यासा न रहे, कोई भूखा न रहे, सबका मंगल हो।

फिर धीरे-धीरे छूटे पारंपरिक छोर पकड़ में आते चले गए। इस क्षेत्र में घने जंगलों के साथ-साथ पानी के पारंपरिक स्रोत लगभग आठ प्रकार के थे जिनमें दरिया, चो, बेईंया, छप्पड़, ढाब (पोखर), डिग्गी, कुआं तथा अन्य प्राकृतिक सोमे (स्रोत)। इन जलस्रोतों के किनारे बेहद घने, शांत और रमणीक जंगल थे, ये जंगल सदियों से तपस्वियों की शरणास्थली बने रहे। इन्हीं घने जंगलों में बैठ वेद रचे गए तथा प्राकृतिक गूढ़ रहस्यों की पड़ताल की गई।

संसार की सबसे विशाल तथा क्षेत्रफल के हिसाब से लंबी सभ्यता सिंधु घाटी की सभ्यता मानी गई है जो लगभग नौ सौ मील में फैली हुई थी। ऐसी विशाल सभ्यता के मूल में घने जंगल तथा वे तमाम दरिया ही थे जो आगे चलकर सिंध में मिल जाते थे। महाभारत काल में पंजाब का पुराना नाम पंचनंदा था। इससे भी पुराना नाम सप्तसिंधु था जब यहां सिंध और यमुना जैसे दरिया भी बहते थे। इन दरियाओं के आस-पास जंगलों का बेहद घना विस्तार था। ऐसे पवित्र वातावरण के कारण ही यहां दरियाओं तथा जंगलों के किनारों पर धर्मस्थलों, धर्मशालाओं का निर्माण हुआ। श्री गुरूनानक देव जी ने रावी के किनारे करतारपुर में पहली धर्मशाला का निर्माणकरवाया था। इसी प्रकार व्यास दरिया के किनारे भी श्री बाऊली साहिब, श्री हरगोबिंदपुर साहिब, कीरतपुर साहिब तथा श्री आनंदपुर साहिब जैसी धर्पनगरियों की स्थापना हुई।

तब 'नदी जोड़ों' जैसी बेहूदी योजनायें नहीं थीं, तब लोग ही नदियों से जुड़े थे, सभी प्राकृतिक स्रोतों से जुड़े थे। प्रकृति को ही परमपिता का हस्ताक्षर समझ पूजते थे। नदियां इतनी पवित्र मानी जाती थी कि उन्हें पापनाशक माना जाता था। लोग अपने तमाम सुख-दुख नदियों-पेड़ों से ही साझा करते थे। पंजाब का ऐसा कोई दरिया नहीं था जिसके किनारे अमावस, संक्रांति, पूर्णिमा, बसंत पंचमी, होली की पूजा और मेले नहीं लगते थे। जब श्री गुरु हरगोबिन्द जी को वडाली से अमृतसर लाया गया था तो श्री अमृतसर साहिब के नजदीक 'छिहरटे’ के पास पहली बार 1599 में बसंत पंचमी का मेला लगाया गया था। आज भी यहां गुरु जी की याद में छह हरटा (छह हल्टा) कुआं मौजूद है। ऐसा ही एक प्रसंग बैसाखी का भी है (जिसको नया समाज भुला चुका है)। 1589 में जब अमृतसर का सरोवर पूरा हुआ था तो श्री गुरु अर्जुनदेव जी ने बैसाखी मनाने का आदेश दिया था। सीधी-साधी निश्छल रीतियों वाले हमारे मेले आज नेताओँ ने अगवा कर लिए हैं।

यह बड़ी अजीब बात है कि जो लोग सदियों से सहज-सरल रूप से जीते और जीते रहते आए हैं, क्यों उनमें ऐसा कुछ नहीं रहा जो सत्कार योग्य हो, गौरवशाली हो? हमारी नदियां, हमारे सरोवर विश्व के दूसरे जलस्रोतों जैसे नहीं थे, वरना नदियों के इतने सुंदर नाम, इतने अर्थपूर्णनाम और 'सर' (तालाब) शब्द का हजारों धर्मस्थलों से नाम जुड़ता! हमारे जलस्रोत केवल मनुष्य के उपभोग की वस्तु नहीं थे। वे तो जीवन से ऊपर उठकर जीवनदायक बन जाते थे। आज हमें अपने इतिहास की किताबों से ‘लाल जिल्दें’ हटा कर फिर से सोचना होगा कि आखिर वे कौन-से नियम थे जिनके कारण हमारा पूरा समाज हजारों वर्षों तक प्रकृति के साथ एक सहज-सरल और बेहद आत्मीय संबंध बना सका। हम आज यह भूल ही गए हैं कि गली-मुहल्लों में घूमने वाले फकीरों को हम आज की तरह भिखमंगा नहीं कहते थे, तब ऐसे फकीर साल में एक बार अपने से जुड़े परिवारों में अवश्य आते थे। जिस साल यह नहीं आते थे उस वर्ष लोग उदास होते थे, क्योंकि ऐसे फकीर नदियों की, सरोवरों की परिक्रमा करके आया करते थे। तब ऐसा कोई नहीं कहता था 'बाबा आगे जा’ या 'बाबा हट्ठाकट्ठा है काम करके खाया कर।’ तब हमारी शिक्षा और बोलचाल की भाषा में ऐसी शब्दावली का भूमण्डलीकरण नहीं हुआ था, क्योंकि लोगों की ऐसी गहरी आस्था थी कि ये लोग ऐसे विशेष अनुभवों में लगेहैं जिसमें सबकी सलामती, सबकी खैर होगी। नए तर्कशील जरूर इसको अंधविश्वास या कर्मकाण्ड कह सकते हैं।

यह सब इतना पुराना नहीं हुआ कि बात का कोई सिरा हाथ ही न आए। जिस पंजाब-हरियाणा से आज गिद्धों के अलावा पक्षियों की 86 प्रजातियां गायब हो चुकी है यहीं पर कभी 'हरिके पत्तन’ की विशाल जलगाह पर हजारों परिन्दे आते थे। हीर-रांझा, सोहनी-महीवाल की आज भी सुनाई जाने वाली कहानियां कभी ऐसे ही रमणीय क्षेत्रों का सच थी।

पंजाब के सभी दरिया कभी हमारी आस्थाओं और जीवन-मूल्यों के सारथी थे। प्रकृति में जैसे प्रत्येक जड़-चेतन का स्वभाव अलग होता है वैसे ही इन दरियाओं के स्वभाव थे। आइये, जरा जाने इन्हें।

ब्यास


यह दरिया ऋषि-मुनियों का चहेता दरिया था। इसका प्राचीन नाम बिपसा-बिपतसा था। यह दरिया बेहद मर्यादित दरिया माना जाता रहा है, भले वक्तों में इसे वेदों का दरिया भी कहा जाता था।

रावी


यह दरिया श्री गुरु अर्जुनदेव जी की धर्मरक्षा हेतु शहीदी का साक्षी है। गुरूद्वारा सुधार लहर की कामयाबी के बाद गांधी जी को अपने अहिंसात्मक आंदोलन में कहीं ज्यादा मजबूती दिखी। पंजाबियों की इन्हीं कुर्बानियों को देखते हुए 1928 में कांग्रेस का सालाना सम्मेलन के किनारे ही रखा गया और फिर यहीं पर 'सम्पूर्ण स्वराज' की शपथ खाई गयी। यहीं से फिर प्रजा मंडल लहर भी शुरू हुई।

चिनाब


यह दरिया हमारे क्षेत्र के आंचलिक लोक जीवन का प्रतीक है। बेशक सोहनी के कच्चे घड़े जैसे दुखांत भी इससे जरूर जुड़े हैं लेकिन फिर भी गांव के जीवन में पलती छोटी-छोटी प्रेम कहानियों के प्रसंग आज भी इसकी बहती लहरों में तलाशे जा सकते हैं। पंजाबी के महान कवि वारिस शाह का बचपन और उनके काव्य-संसार के इतिहास की जड़े आज भी इस दरिया के किनारे की नमी में दर्ज हैं।

झेलम


यह दरिया कुदरत की गोद में सीधे-सादे मन-आत्मा वाले लोगों का दरिया है।

सतलुज


इस दरिया के किनारे ही दशमेश गुरु ने चिड़ियां संग बाज लड़ाने की शपथ ली थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद इसी दरिया पर भाखड़ा बांध बना। पंडित नेहरू ने इसकी नींव रखी भी और सैकड़ों लोगों को उजाड़ा गया था। श्री मंतराम जिनकी उम्र 66 वर्ष है, गांव उडप्पर, जिला बिलासपुर बताते हैं कि नेहरू जी ने जब इस बांध की नींव रखी तो चार-चार लड्डू बांटे गए थे लेकिन सिर्फ कर्मचारियों को। उजाड़े गए लोग वहीं पास ही थे, लेकिन उन्हें न उस समय लड्डू दिये गए न आज तक मुआवजा। ध्यान रहे श्री मंतराम भाखड़ा बनाने के लिए उजाड़े गए लोगों में एक है। इस बांध ने पंजाब, हरियाणा, राजस्थान को बिजली, खेती में खूब लाभ पहुचायां लेकिन काश! उस समय के दूरदर्शी और आज के योजनाकार तीनो राज्यों को दी गई बिजली के बिलों ने पांच पैसे इन उजाड़े गए लोगों के लिए जोड़ देते। सो सतलुज दरिया पर भाखड़ा बांध की नींव रखते समय अगर नेहरू जी ने कबूतर उड़ाये तो उजाड़े गए परिवारों की बद्दुआयें भी इन्हीं नीवों में दफन हैं। इसी दरिया पर बने बांध के कारण ‘हरित क्रांति' का सपना लोगों की आंखों में उतरा जो आज सबकी आंखों का मोतिया बन चुका है।

बेईंया


दरियाओं का रिसता पानी बेईंयों के माध्यम से रिस कर समाज की सेवा करता था। पंजाब की सबसे प्रमुख और प्रसिद्ध दो बेईंया थीं, काली बेईं और चिट्टी बेईं। काली बेईं दसूहे से शुरू होकर टांढा के पास हरगोबिन्दपुर साहिब के नजदीक से निकल कर सुभानपुर, हमीरा,अमृतसर, कपूरथला के पास से गुजर कर सुल्तानपुर लोधी से होकर सतलुज ने मिल जाती है। इस बेईं की महानता पर अलग से पूरी पुस्तक लिखी जा सकती है। गंदे नाले में तब्दील हो चुकी यह वहीं काली बेईं है, जो कभी 'जपुजी’ के इल्हाम की साक्षी रहीं है। बाबा नानक ने तभी कहा था 'पहिला पानी जीऊ है जिन हरिया सब कोये।’ इन बेईंयों ने कभी अपने प्रसन्न जल के कारण हजारों लोगो को अपने नजदीक बसने का न्योता दिया था। तब सब लोग नदियों, वृक्षों जैसे ही थे, सबमें प्रकृति धड़कती थी। तब जलस्रोतों को गंदा करना पाप माना जाता था। ऐसा समझने वाले और ऐसा समझाने वाले लोग हर घर में थे। उस समय का खुला पड़ा जल भी निर्मल था, आज लोगों के दिलों की तरह सिकुड़े अंडरग्राउंड पाइपों से आते पानी में भी कीड़े निकलते हैं। संत बलबीर सिंह सींचेवाल को परमपिता इतनी लंबी उम्र, इतना हौसला दे कि वे काली बेईं को पहले सी रंगत दे पाएं। बलबीर जी! आपने सचमुच संतत्व की लाज रख ली है।

दरियाओं से दूर जहां भी कोई नया गांव बसाया जाता वहां के पानी का स्तर, पानी का स्वाद और ऐसा निचला क्षेत्र जहां पानी साल भर काम दे सके ऐसे सभी तथ्य उस गांव को बसाने में मुख्य भूमिका निभाते थे। गांव की साल भर की सभी गतिविधियां चलाने के लिए छप्पड़(जोहड़), ढाब (पोखर) और डिग्गियां बनाई जातीं। इनकी लंबाई-चौड़ाई गांव के क्षेत्रफ़ल के हिसाब से बनाई जाती। कुछ बड़े गांवों में बड़े छप्पड़, बड़ी ढाबें, बड़ी डिग्गियां थीं। ऐसी ही कुछ बड़ी ढाबों से श्री कौलसर, श्री अमृतसर, संतोखसर, बिबेकसर, रामसर, लक्ष्मणसर जैसे सरोवर थे जो बाद में महान तीर्थस्थल बने।

छप्पड़ गांवों के पास ही बनता ताकि पानी के अलावा छप्पड़ की मिट्टी का उपयोग भी लीपने-पोतने के लिए किया जा सके। लू के मौसम में जब इन छप्पड़ों का पानी उड़ने लगता तो दूसरे स्रोतों से इसे पुन: भर लिया जाता। लेकिन तपती लू से छप्पड़ फिर खाली हो जाते। फिरबरसात को पुकारने वाले गीत गाये जाते। इन छप्पडों के किनारों पर चावलों की देग उतारी जाती। छोटे-छोटे बच्चे टोलियां बना कर गांव की गलियों में गीत गाते फिरते- रब्बा-रब्बा मींह बरसा दे जोरम जोर। छप्पड़ गांव की जिंदगी का धड़कता प्रमाण होता। अक्सर छप्पड़ों केपास माता के थान होते जहां बच्चों को चेचक निकलने के बाद माथा टिकाया जाता। छप्पड़ के चारों ओर घने पेड़ होते जहां पाली (गाय-भैंस चराने वाले) अपनी भैसों को छोड़ कुछ न कुछ खेल-खेलते रहते।

ढाब


यह छप्पड़ से बड़ी और गहरी होती थी। इसमें लम्बाईं-चौड़ाई की बात नहीं रहती थी। सिर्फ यह यकीन और यह आस्था रहती कि इसका पानी कभी सूखता नहीं। ढाब का पानी हमेशा निर्मल रहे इसलिए इनमें मछलियां छोड़ी जाती। शाम को ज्यादातर बच्चें घरों से आटे की गोलियां बना का लाते और मछलियों को डालते और मछलियां भी जैसे उनकी बाट जोह रहीं होती। तब लोगों के मन ने इतना खोर नहीं था, आज की तरह लोग मांसखोर नहीं थे। आज तो गांव की पंचायतें बचे-खुचे जोहड़ों को सिर्फ कसाइयों को ही ठेके पर देती हैं। ढाब के पास गांव के ज्यादातर काम गतिमान रहते, जिनमे बढ़ई, ईंट पाथनेवाले, कुम्हार, मोची का काम तो जैसे ढाब का ही हिस्सा रहता। खुशी-गमी की सब रस्मों में ढाब से मिट्टी निकाली जाती ताकि उसकी गहराई और ज्यादा हो सके और गांव का जीवन और अधिक लम्बा और गहरा हो सके। ढाब के पास अक्सर शिवालय, ठाकुरद्वारा, देवीद्वारा या थान (देवता का स्थान) होता। जैसे कहते हैं कि बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है वैसे ही जब नहरें निकली तो प्राकृतिक स्रोतों की उपयोगिता निरर्थक मान ली गई और 'सुखना झील' देखने चण्डीगढ़ जाने वाली नई पीढ़ी ने इनको भी सुंदर झीलों में बदलने की बजाय इनको भरकर सिर्फ प्लाटों और महंगे प्लाटों की शक्ल में ही देखना पसंद किया। कमाल यह है कि पंजाब में बाढ़ों का इतिहास छप्पड़, ढाब, डिग्गियों को समाप्त करने और नहरें निकलने के बाद ही शुरू होता है। बेशुमार पानी अपनी गोद में भरने वाले यह सब प्राकृतिक जलस्रोत आज बेकदरी के गारे से भरे जा रहे हैं।

डिग्गी


जहां पानी का चो गहरा होता, जिन क्षेत्रों में पानी खारा होता, जहां कुंयें खोदना महंगा होता वहां गांव की जरूरतें पूरी करने के लिए डिग्गियां बनाई जाती। मालवा क्षेत्र के संगरूर, फिरोजपुर, फरीदपुर, भटिण्डा आदि जिलों में कहीं-कहीं इन टूटी-फूटी डिग्गियों की मामूली यादें आज भी शेष है। अंबाला में भी दो बहुत बड़ी डिग्गियां थीं। एक डिग्गी पर आज अंबाला का मुख्य बस अड्डा है। दूसरी डिग्गी एस डी कॉलेज के पीछे थी जिसको पॉलीथिन समेत दूसरे अटपटे पदार्थों से भरकर अब वहां पार्क बना दिया गया है। डिग्गी कच्ची और पक्की दोनों तरह की होती थी। पशुओं के लिए अलग डिग्गियां होती थों। जहां पानी का स्तर ज्यादा गहरा होता ज्यादा गहरा होता वहां पशु और मनुष्यों के लिए एक ही डिग्गी होती थी और वहां पानी बेहद किफायत से इस्तेमाल किया जाता था। वहां आज की तरह पशु ट्रकों-टैंपुओं की तरह धोये नहीं जाते थे, जिनमें लाखों यूनिट बिजली या डीजल अतिरिक्त खर्चे नहीं डाले जाते थे। तब पशु और मनुष्य सब सहज थे। आज की तरह सब बल्ले-बल्ले नहीं था। चित्त और मस्तक दोनों साफ थे। ऐसे इलाकों में लोग पानी का उपयोग देशी घी की तरह करते थे। तब सभी सरल काम कठिन नहीं थे।

पंजाब-हरियाणा के बार्डरों पर लगे धन्यवादी साइनबोर्ड कुछ भी कहें लेकिन दोनो और की धरती के भीतर का दुख एक-सा ही है। हरियाणा के पास कुल 108 जलसंभर क्षेत्र हैं जिनमें से 65 डार्क जोन में बदल चुके हैं, जिनमें से करनाल के सभी 6 ब्लॉक डार्क जोन में बदल चुके हैं। लेकिन दोनों तरफ की सरकारों के पास अपने पुराने जलस्रोतों को ठीक करने की बजाय व्यर्थ का कहने-सुनने के लिए बहुत कुछ है। मुफ्त बिजली, पानी की बात दोनो तरफ हारने-जीतने वाले लगातार करते रहते हैं। लेकिन पानी आएगा कहां से? बिजली आएगी कहां से?

कुंए दो प्रकार के होते थे, पीने के पानी वाले और खेतों की सिंचाई वाले। सिंचाई वाले कुओं का इतिहास ईसा से भी सैकड़ों साल पहले का है। कुओं से पानी रहट (हलट) से निकालने की परंपरा रही है। कुआं खोदने के लिए सब लोग मदद देते थे। खुदाई से पहले ऐसी कामना भी की जाती कि कुएं से मीठा पानी निकले इसलिए किसी धर्माचरण वाले सज्जन के पीछे सब लोग अरदास करते। जहां सब लोग सबके लिए होते थे वहां विशेष सज्जन ढूंढ़ना बेहद मुश्किल होता था, लेकिन फिर भी पवित्र रस्मों की परंपरायें निभाई जाती। खुदाई के पहले गुड़, बताशे, मीठे चावल या लड्डू बांटे जाते। खुदाई करने वाले मेहनतकशों की खूब सेवा की जाती। खुदाई के दौरान बुजुर्ग निरंतर बताते रहते कि पानी अब कितनी दूर है। कुएं का घेरा वहां उगने वाली फसलों के स्वभाव के अनुरूप होता। यह घेरा 5 से 15 हाथ का होता। यह समय वो था जब कुआं गांव की संजीवनी माना जाता था। जैसे ही कुआं तैयार होता सबके प्राणों में ढोल बज उठते। कुओं के आस-पास लगे पेड़ों पर हजारों परिन्दे अपने घोंसले बनाते क्योंकि तब यहां ऐसे हजारों गीत गाये जाते थे- 'दाना-पानी खिच्च के लै आंदा, कौन किसे दा खांदा ओ।' हजारों परिन्दे वहीं चुगते, वहीं पानी पीते और पूरा वातावरण चहकाते रहते। तब उन्हें खाने वालो की इतनी गुलेलें भी नहीं बनी थीं न आज की तरह मैरिज पैलेस ही जिनके मीनू में शादी की धार्मिक रस्मों के बाद यानी परमपिता के नाम के तुरन्त बाद बकरे, मुर्गे के साथ-साथ कबूतर-तीतर-बटेर-खरगोश तक परोसे जाने लगे हों।

मुहल्लों के बाद कुआं ही लोक जीवन का सबसे जीवन्त केंद्र माना जाता था। अच्छे वक्तों में कहा जाता था, 'मेरे कुएं ये बसदा रब्ब नी।’ लेकिन आज हमारे पास विकास के मंथन से निकली एक गाली है- 'चल साला देसी।' लेकिन हम यह गाली देते समय भूल जाते हैं कि देसी क्या-क्या होता है, साला कौन है और इसमें क्या-क्या चला गया। इस देसी के चले जाने में मिट्टी, पानी, परिन्दे, हवा के साथ-साथ तंदुरूस्त लोक जीवन, लोक रीतियां, लोक गीत, लोक संगीत, सबके हित के लिए लिखा जाने वाला साहित्य भी चला गया है। हमारे जिस गेहूं पर सबको नाज था उसका बीज देसी था। जब उसकी जगह हमने विदेशी बीज पर भरोसा जताया तो उसके साथ एक तुखम भी आया, जिसे अब कांग्रेसी घास कहते है और यही तुखमी घास अब बंगलादेशियों की तरह अपने-आप में एक भयंकर समस्या है। इस देसी को गाली देने में हमारे अपने देश के स्वभाव के अनुरूप पेड़ भी गए। पेड़ों के जाते ही हमारी सांस्कृतिक विरासत भी चली गयी, सिर्फ मेलों में बल्ले-बल्ले ही बची है। अपने देश के पेड़ों से भरोसा छोड़ हमने सफेदे पर भरोसा टिकाया। सफेदे के पेड़ से कैसेकैसे नुकसान हुए यह जगजाहिर है। अदालतों में, सैकड़ों केस खेतों में लगाये गए सफेदों के झगड़ों के कारण चल रहे हैं। दुख इस बात का है अखबारी विज्ञापनों के कारण पापुलर हुए कुछ संत भी अपने डेरों में पापुलर सफेदा लगाने पर ही जोर दे रहे हैं।

कुएं जैसे पारंपरिक जल स्रोत समाज की नाभि माने जाते थे, धड़कन से भी ज्यादा। मंदिर की पहली घंटी, गुरूवाणी की पहली गूंज से ही कुओं पर गांव का पूरा संसार लहलहा उठता। बुजुर्ग-बच्चे कुएं चलाकर पानी की टंकियां भर देते। पशुओं की खेलियां (खुरलियां) भी भर देते। बच्चे अपने बुजुर्ग को ताजे पानी से नहलाकर सूरज की पहली किरण की तरह दिन भर के कामों में जुटने के लिए पहली आशीष लेते...।

अगर हम ईमानदारी से देखें तो पंजाब-हरियाणा हरे-भरे उसी समय थे जब यहां के प्राकृतिक स्रोत भी सहज-सरल थे। दूर-दूर फैले घने जंगल थे, पांच नदियों की 47 उपनदियां थी, लगभग 17500 छोटे-बड़े तालाब थे। मिट्टी की उर्वराशक्ति में सभी पोषक तत्वों का समावेश था। दूध-घी से जुड़ी अनेक कहावतें थीं। दूध की तुक पूत से थी। आज जब हजारों बच्चियां कोख में ही मारी जा रही हैं तो इसके साथ-साथ ममता का दूध भी मर रहा है। बेटे बाहर के मुल्कों में बेचे जा रहे है। अखबारों में लगातार छपती खबरें बेहद शर्मिन्दा करती हैं कि लड़को को बाहर भेजने के लालच में चाचा-मामा-ताया की लड़कियों से शादियां की जा रही है। सचमुच यह किसी सभ्य-सच्चे वातावरण की निशानियां नहीं हैं। यह एक प्रकार का भगदड़ी खो-खो है। इसके पीछे ममता के रेशम की कोई डोर नहीं। दूध को कहावतों का दर्जा दिलवाने वाली घास आज पूरे क्षेत्र से गायब हो चुकी है। खासतौर पर पंजाब में आटा-चक्कियों पर पिसने वाले चारे (दाने) में मरे हुए पशुओं की हड्डियों का चूऱा मिलाया जाता है तथा पावरा साहिब की तरफ से आने वाला नरम पत्थर पीसा जा रहा है। पशुओं को यह सब खिलाकर, ज्यादा से ज्यादा दूध निकालने के उल्टे-सीधे टीके लगाकर हम अपना पशुधन कब जिंदा रख पायेंगें?

आज चाह कर भी कोई पांच दरियाओं पर गीत नहीं लिख सकता। पंजाब-हरियाणा, सरकारें बेशक कुछ भी कहती हों लेकिन इन दोनों राज्यों का गेहूं चावल कहां बिकता है पता नहीं। आज गलियों में घूमने वाले अवारा कुत्ते तक घर की रोटी नहीं खाते, छत पर डाली जाने वाली रोटी परिन्दे छूते तक नहीं, खेतों में बिखरे दाने चुगकर पक्षी लगातार मर रहे हैं, मिट्टी और पानी में बाते जहरीले तत्वों के कारण बहुत सारे दरख्तों पर फलियां लगनी बंद हो गई हैं यानी पेड़ तक बांझ हो गए हैं तो हम कब तक अपने बारे में, अपनी आने वाली पीढ़ियों के बारे मेंगलतफहमियां पाले रख सकते हैं।

पंजाब, हरियाणा के किसान का कैसा मान था, कैसा सत्कार था! ये सब तभी तक था जब वो मेहनती था, धरती-पुत्र, कहलाता था। लेकिन धरती-पुत्र ने लड़ाई भी लड़ी तो किराये के सैनिकों के सिर पर। प्रवासी मजदूरों के सिर पर टिकी हमारी खेती कितनी देर और टिक पायेगी, यह सब हमारे खेती-बाड़ी के योजनाकारों से पूछा जाना चाहिए। फसल कटाई से पूर्व जब प्रवासी मजदूर आते हैं तो दृश्य देखने वाला होता है। अपने-अपने क्षेत्र के अच्छे-अच्छे राजा भोज उन मजदूरों के सामने गंगू तेली बने खड़े होते हैं। यह सब आने वाले किसी स्थायी विकास की आहट नहीं।‘हरित क्रांति’ के बाद आई तरक्की की पहली फैक्स 1988 में बाहर आई, जब पंजाब के कर्ज मं़ डूबे पहले किसान ने खुदकशी की। उसी वर्ष 15 और आत्महत्यायें हुईं। 1997 तक यह गिनती 400 थी लेकिन सन् 2000 आते-आते यह गिनती 2116 तक पहुंच गई। दुख यह है कि ये आंकड़े उन सरकार चलाने वाले नेताओं के हैं जो संसद मे, विधान सभाओं में बैठे दिन-रात देश की सेवा में धुत है। पंजाब में आज जिस किसान के पास 10 एकड़ जमीन है उसकी सिर्फ दो वक्त की रोटी ही मुश्किल से चलती है। 72 फीसद किसान तंगहाली के शिकार है। सिर्फ 28 फीसद किसान ही आंकड़ों के हिसाब से या बैंक खातों में दर्ज कामयाब किसान है, काम बेशक उनका कुछ भी रहा हो। लगभग 12.12 लाख कृषक परिवार गरीबी की रेखा से नीचे है। आज पंजाब के किसान पर 20 फीसद कर्ज सरकारी है और 80 फीसद कर्ज पठानी महाजनों का है। सरकारी कर्ज का ब्याज तो फिर भी किसी लक्ष्मण रेखा के भीतर रहता है लेकिन आढ़तिया ब्याज तो बिजली के जबरदस्ती लगाये गए नए मीटरों की नई परिभाषा की यूनिटों की तरह चलता है।

पंजाब ने कुल खेती योग्य भूमि 50 लाख हेक्टेयर है। देश भर में लगभग 16 लाख ट्रैक्टर हैं, लेकिन सिर्फ पंजाब में ट्रैक्टरों की संख्या 5 लाख है। यानी देश की कुल धरती में 1.54 प्रतिशत हिस्से वाले क्षेत्र का किसान दूसरे किसानो के मुकाबले 24 गुणा अधिक क्षमता वाला किसान है। पंजाब के किसान को यही हाई-फाई होना महंगा पड़ा। उसके बाद अक्लमंदी का तुर्रा यह कि उसने 26 लाख हेक्टेयर भूमि पर धान की बुआई शुरू कर दी, उसके बाद प्रतिवर्ष लगभग 40 सेमी पानी नीचे जाने लगा।1960 में धान की पैदावार तीन लाख टन थी, लेकिन ‘हरित क्रांति' का नारा लगा तो उस समय से निकली लालची जीभ के कारण यह आंकड़ा 143 लाख टन तक पहुंचा दिया गया।

नई परिभाषाओं से ओत-प्रोत विकास की दूसरी सीढ़ियां भी हम लगातार चढ़ते गए। पूरे भारत में जलसंभर क्षेत्र (जलगाह) 4271 हैं, उनमें अतिदोहित क्षेत्र 231 हैं जिनमे से 107 सिर्फ हरियाणा-पंजाब में ही हैं।

पंजाब के कुल जलसंभर क्षेत्र 184 हैं जिनमें से 90 डार्क जोन में बदल चुके हैं। पंजाब-हरियाणा के बार्डरों पर लगे धन्यवादी साइनबोर्ड कुछ भी कहें लेकिन दोनो और की धरती के भीतर का दुख एक-सा ही है। हरियाणा के पास कुल 108 जलसंभर क्षेत्र हैं जिनमें से 65 डार्क जोन में बदल चुके हैं, जिनमें से करनाल के सभी 6 ब्लॉक डार्क जोन में बदल चुके हैं। लेकिन दोनों तरफ की सरकारों के पास अपने पुराने जलस्रोतों को ठीक करने की बजाय व्यर्थ का कहने-सुनने के लिए बहुत कुछ है। मुफ्त बिजली, पानी की बात दोनो तरफ हारने-जीतने वाले लगातार करते रहते हैं। लेकिन पानी आएगा कहां से? बिजली आएगी कहां से? अब तो दोनो तरफ की सरकारों को मुफ्त बिजली के एलान के साथ-साथ यह भी बताना होगा कि सरकारें बिजली लोगों को देंगी, किसानो को देंगी या उन बिजली वाले खजूरों को देंगी जो अब मुरथल से शुरू होकर पूरे हरियाणा-पंजाब के अंदर-बाहर घूमती हुई वाघा बार्डर तक पहुंच गई हैं।

पंजाब-हरियाणा कभी गेंहू के सर्वश्रेष्ठ क्षेत्र थे। लेकिन ‘हरित क्रांति’ के जेहादी नारे से यहां के किसानो ने ‘प्रेम और जंग में सब जायज है’ वाली कथनी में से 'प्रेम' हटा शेष सब रखकर उस पर अमल शुरू कर दिया है। एक किग्रा धान पैदा करने के लिए लगभग 5000 घनलीटरपानी की जरूरत होती है। हमारे नेताओं, नीतिकारो, योजनाकारों और खेती विश्वविद्यालयों में यूजीसी मार्का बुद्धिजीवियों तक को यह भी नहीं सूझा कि जब मामूली नलके लगने से हमारे कुएं सूख गए, ट्यूबवेल लगने से छप्पड़, तालाब, बावड़िया सब सूख गईं तो अब सबमर्सिबलपंप जो पाताल का पानी खींच रहे हैं, इनके बाद क्या होगा? पाताल तक पानी रिस कर पहुंचने में ढाई लाख वर्ष लगते हैं, वह भी तब जब हम रिसने की जगह छोडेंगे, पानी रिसेगा तो सिर्फ पारंपरिक स्रोतों के माध्यम से। हमारे देश का कोई भी धर्मस्थान तालाब, बावड़ी, सर-सरोवर के बिना अधूरा समझा जाता था, यहां तक कि श्मशान के साथ भी घाट होता था। लेकिन इन सभी स्थानो को संस्थाओ में तब्दील करने वाले अगुआ को लगा कि अरे, यहां इस तालाब का क्या काम, भरो इसको और दुकान बनाओ... इसके बाद दुकानदारी का अंतहीन सिलसिला है। आज गर ईमानदारी से जायजा लें तो देश की छोटी-बड़ी धार्मिक संस्थाओं द्वारा मात्र धार्मिक अनुष्ठानों पर खर्च होने बाला पैसा इतना ज्यादा है कि संसार के 40 देशों का साल भर का बजट है। आज देश का किसी भी धर्म का कोई अगुआ यह नहीं कहता कि हम पूरे देश में दरख्त लगायेंगे, कोई भी नहीं कहता कि हम सिर्फ पुराने तालाबों के किनारे कारसेवा के इजलास सजायेंगे। कोई धार्मिक नुमाइंदा, संस्था, परिषद् यह नहीं कहती कि हम अपने क्षेत्र का एक भी झड़ा पत्ता जाया नहीं जाने देंगें, हम उसकी जैविक खाद बनायेंगे और अपने-अपने क्षेत्रों को पेस्टीसाइडों के कारण आने वाली कयामत से निजात दिलायेंगे। जो लोग कुदरत का कोई काम नहीं करते, वे धार्मिक केसे हो सकते हैं !

अकेला पंजाब ही प्रतिवर्ष 159 लाख टन पराली (भूसा) जलाता है जिससे 233 लाख टन कार्बन डाइऑक्साइड तथा दूसरे सस्पेंडेड तत्वों को बढ़ावा मिलता है। भूसे के साथ प्रतिवर्ष दो इंच मिट्टी की परत जलकर बेकार हो जाती है। पराली से जैविक खाद तो बनाई ही जा सकतीहै। यदि पराली की मात्रा ज्यादा हो तो उसे उन राज्यों में भेजा जा सकता जहां पशुओं के लिए चारा कम होता है। लेकिन ऐसा करने के लिए पहले मन का जैविक होना जरूरी होता है। 'सरबत' का भला चाहने वाला अगुआ भी होना चाहिए।

आज मिट्टी के सैंपल दोनों राज्यों में फेल हो रहे हैं। सैंपलों का परीक्षण करने वाले अधिकारी हालांकि सरकारी हैं, लेकिन कुछ कर्मचारी 5 बजे के बाद सच बोलकर अपना ईमान बचाने की कोशिश भी करते हैं। वे सार्वजनिक रूप से छपने वाली रिपोर्ट के पीछे का सच भी बता देते हैं। उनके अनुसार मिट्टी की गुणवत्ता प्रतिवर्ष पराली (भूसा) जलाने के कारण, कीटनाशकों का जाहिलाना ढंग से उपयोग करने, अंधाधुंध फसले बोने तथा कीटनाशकों की लगातार बढ़ती मात्रा के कारण दोनों राज्यों में औसतन 2 हेक्टेयर भूमि प्रतिवर्ष बंजर हो रही है। भटिण्डा जिले में ज्यादातर गांव कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग के कारण बयाबानो में बदल गए हैं। उदाहरण के लिए गांव 'ग्याना और मलकाना में पिछले 29 वर्षों में कीटनाशकों के कारण पानी से होने बाले कैंसर से हजारों मौतें हो चुकी हैं। कई गांवों के बाहर 'गांव बिकाऊ' का बोर्ड तक टंगा है। यह सब ऐसी खतरनाक प्राकृतिक आपदाओं की घंटिया हैं जो हमें धार्मिक इमारतों की ऊंची मीनारों पर लगे लाउडस्पीकरों के कारण सुनायी नहीं देती।

आज हम सबको उस धरती को फिर से याद करना होगा जिसे हम पूऱा जीवन बिताकर भी याद नहीं करते। हम लोग सिर्फ अपने बनाये तत्रं को ही प्रजातंत्र मान बैठे है। शायद यह ठीक रास्ता नहीं है। परमपिता परमेश्वर इस धरती पर सिर्फ मनुष्य को ही पैदा नहीं करता। वह पशु-पक्षी, कीट-पतंगे और पेड़-पौधे, जड़-चेतन सबकी रचना करता है। ये सब मिलकर ही तो प्रजा कहलाते हैं। इसलिए परमेश्वर का एक नाम प्रजापति भी है।

पशु-पक्षी, कीट-पतंगे और पेड़-पौधे हमारी तरह कोई विधान नहीं गढ़ते। वे स्वभाव से ही संसार के पक्ष में अलिखित मर्यादाओं का पालन करते हैं। हमारे अलावा कोई भी कुदरत के खिलाफ जंग लड़ता नहीं दिखता। आदमी को छोड़ सब अपनी जरूरत का ही शिकार करते हैं। चिड़िया अपनी चोंच में सिर्फ एक केंचुआ ही उठाती है उससे ज्यादा नहीं या फिर अन्न का एक छोटा-सा दाना। इन सबके लिए कहीं भी मालगोदामों की जरूरत नहीँ होती। हिंसक पशु न जाने कब से शिकार कर रहे हैं, लेकिन कहीं जानवरों की संख्या कम नहीं हुई। लेकिन आदमी के हाथ और अधिक मांसखोरी के लिए आज पूरी पृथ्वी पर जीवों के लिए खतरा बन चुके हैं। धरती पर अपनी बेमानी सुरक्षा के उपाय खोजने की हड़बड़ी में हमने पांच में से चार तत्व बिगाड़ लियें हैं। पृथ्वी, जल, आकाश, वायु के बिगड़ते ही अग्नि भारी हो जायेगी।

आज अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में सबसे अहम मुद्दा ‘धरती का बढ़ता बुखार' ही है। इन पांचों तत्वों का संरक्षण सरकारी नीतियों, सरकारी तंत्रों या हमारे तथाकथित नेताओं के हाथ नहीं छोड़ा जा सकता, क्योंकि आज देश की सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठे आदमी से लेकर सबसे नीचे बैठे कुर्सी वाले आदमी के घर के लिए टॉयलेट का पैसा भी वर्ल्ड बैंक से आ रहा है। 58 सालों की आजादी के बाद अगर हमारा नेतृत्व 'टॉयलेट' तक के लिए वर्ल्ड बैंक के आगे घुटने टेक सकता है तो इन लोगों पर देश के लोगों के लिए, देश के हजारों सालों से चले आ रहे स्वभाव के अनुरूप देश चलाने का भरोसा कैसे किया जा सकता है? आज हम जिस लोकतंत्र में जी रहे हैं उसका उदाहरण मैं महान साहित्यकार शरतचन्द्र के एक उपन्यास ‘पाथेर दाबी’ से देना चाहूंगा। एक गाय खूंटे से बंधी है, उसे दूर हरियाली दिखती है, पर बंधे होने के कारण वह वहां तक पहुंच नहीं पाती, वह चिल्लाती है। उसे बांधने वाला व्यक्ति इसकी रस्सी थोड़ी बड़ी कर देता है, लेकिन हरियाली फिर भी दूर ही रहती है, वह रस्सी कुछ और बड़ी कर देता है।

हरियाली पहुंच में आ जाती है, तो भी दो-एक कौर घास ही गाय के मुंह में आ पाती है, लेकिन खुलकर चरने वाला मन नहीं भरता। रस्सी एक हाथ और बड़ी कर दी जाती है। बस यही हमारी स्वाधीनता है, यही स्वायत्तता। लोकतंत्र की छाया इतनी डरावनी नहीं होती, जितनी हमारे देश को चलाने वालों ने इसे बना दिया है। इसलिए अगर हमें हमारी आने वाली पीढ़ियों को बचाना है तो हमें यानी समाज को और धार्मिक अगुआ को मिट्टी, जंगल, जीव और पानी का सारा काम अपने हाथ में लेना होगा। अपने ही देश में विस्थापित कश्मीरी शरणार्थियों की तरह बिखरे तालाबों को सुंदर झीलों में बदलना होगा।

धरती को महंगे प्लॉटों की तरह देखना बंद करना होगा। दरख्तों को सरकारी कर्मचारियों से मिलीभगत वाले ठेकेदारों की दृष्टि से देखना बंद करना होगा। अपने पशुओं की उस पीड़ा को महसूस करना होगा जो पीड़ा किसी बुगदे और ऑटोमेटिक बूचड़खानों के आरो पर कटते समय पशुओं को होती होगी। वरना संसार तो पांच तत्वों का ही है। इससे विमुख होने का अर्थ है धर्मनिरपेक्ष होना। ऐसे धर्मनिरपेक्ष होकर, पंच तत्वों के विरुद्ध जाकर सभ्यताओं के विकास की मीनार ज्यादा देर तक टिकायी नहीं जा सकती। संसार की समस्त पुस्तकों में हमेशा से यही पढ़ाया जाता रहा है कि सभ्यताओं का विकास मीठे जलस्रोतों के किनारों पर ही हुआ। लेकिन हम हमारी आने वाली पीढ़ी का विकास किन जलस्रोतों के किनारे करेंगे?

क्योंकि यह बात तो पुराने समय की है जब हम नदियों, जंगलों के वारिस थे, आज तो हम सिर्फ बयाबानों के शाह ही दिखते हैं।

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