प्रकृति के विविध रूप हमारी परम्पराओं में पूजा स्थल के रूप में मान्य किए जाते रहे हैं। पर्वत, नदियां, समुद्र, वृक्ष हमारी मनौतियों को पूरा करने के साक्ष्य से लगाकर उर्जा प्रदान करने वाले स्रोतों से रूप में समाज को स्वीकार्य रहे हैं। थोड़ा और गहराई में जाएं तो हमारे संस्कार भी हर मोड़ पर प्रकृति से एकाकार होते नजर आते हैं। हाल ही के दशक में भारत की पहचान साफ्टवेयर क्रांति के नायक, अतरिक्ष में कुलांचे भरने, परमाणु परीक्षणों के धमाके या विज्ञान और शिक्षा के क्षेत्रों में सफलता के परचम फहराने के रूप में हुई है। लेकिन यहां के समाज की इन सबसे भी बड़ी पहचान लोक-गाथाओं, तीज-त्यौहारों, परम्पराओं और प्रकृति आधारित संस्कृति की रही है।
काल के साथ करवट बदलते भारत के ग्रामीण समाज का सबसे त्रासदायी और विसंगतियों से भरा पहलू यह रहा कि यह अपनी उस मूल आत्मा से दूर चला गया जो सही मायने में उसे ‘जिंदा’ रखे हुए थी। व्यवस्था ने जैसे-जैसे समाज की ‘दरारों’ में पांव पसारे –हम निरन्तर पंगु होते गए। कुछ करने के बजाए घिघियाना बहुत सरल औऱ सुविधाजनक माना जाने लगा। फिरंगियों से मुक्ति के बाद भारत का बहुसंख्य समाज इसी प्रवृत्ति वाले चंद प्रभावशाली लोगों के सामने या तो लाचार बना दिया गया या खुद बनता चला गया। मेरा यह मानना है कि इस लाचारी ने समाज को अनेक संकटों से घेरा। लेकिन सबसे अहम् और दीर्घकालिक नुकसान देने वाला संकट-प्राकृतिक संसाधनों के साथ समाज का उपेक्षा भाव रहा। हम इस संकट को चुटकियों में लेने या हँसी उड़ाने तक ही सीमित रखे रहे। हमारी हालत उस व्यक्ति जैसी होती गई जो बिना स्नान के केवल चेहरे के मेकअप और गले की टाई के सहारे दुनिया को यह जताने की कोशिश करता है कि वह अत्यंत तरोताजा है। कालान्तर में यह भ्रम इसके भीतर की ‘स्वयंभू हकीकत’ में बदल जाता है। हमारे समाज के सामने इस तरह के संकट आते रहे हैं। हम ऐसे विकास के सपने देखते रहे जिनका साकार होना या न होना उतना महत्वपूर्ण नहीं था जितना चिंताजनक समाज का अपने परिवेश से भावनात्मक धरातल पर दूर होते जाना था। दरअसल हम उस बहुसंख्य समाज की रचना कर चुके हैं जो सूखे से उपजा दर्द सहन कर लेगा, मवेशियों को 10 किमी दूर पानी पिलाने ले जाएगा, लेकिन अपने गांव से बहने वाले नाले को नहीं रोकेगा। उसके दिमाग में यह बात घर कर गई कि इसे रोकने का काम तो सरकार करेगी। वह भला क्यों करे।
पिछले तीन-चार दशकों के दौरान ग्रामीण भारत की कहानियों का केंद्र बिन्दु कुछ इन्हीं मुद्दों के इर्द-गिर्द रहा है- मेरी इस बात से शायद आप ज्यादा असहमत नहीं होंगे। हम बड़ी ही अदब के साथ यह कहते हुए फक्र महसूस कर रहे हैं कि पिछले कुछ वर्षों से मध्यप्रदेश का समाज करवट बदल रहा है। हालांकि पग-पग रोटी, डग-डग नीर वाली जमीन पर अपना बहुत कुछ गंवाने के बाद हम इस दिशा में कदमों के उठने की आहट भर ही महसूस कर रहे हैं। लेकिन ये ध्वनियां भी यह शुभ संकेत दे रही हैं कि पानी संचय की परपरागत प्रणालियां तथा इनसे जुड़े रियासतों के सत्ता पुरुषों और तत्कालीन समाज के किस्से केवल हमारा इतिहास नहीं है। हम वर्तमान में भी कुछ इसी तर्ज पर बूंदों की इबारत लिख सकते हैं। मध्यप्रदेश में पिछले दो साल से अधिकांश क्षेत्रों में सूखा रहा है। यहां के उस ग्रामीण समाज को बार-बार नमन जिसने इन स्थितियों के सामने चीखने-चिल्लाने, रोने या घिघियाने के बजाए ‘हथियार’ उठाना बेहतर समझा। दरअसल लंबे समय से भटक रहे समाज को वह ‘कस्तूरी’ मिल गई जो खुद उसके पास ही थी। ग्राम स्वराज, स्वावलंबन और किसी हद तक जिंदापन से सराबोर गुणों वाला समाज हमें कभी पहाड़ों, कभी खेतों, कभी नदी के किनारों तो कभी नालों और कुओं के आसपास मिला। हमें लगा, इस समय यदि महात्मा गांधी मौजूद रहते तो वे निश्चित ही पानी के लिए जाग्रत हुए लोगों को, फिर भले ही वह मुट्ठी भर क्यों न हों, देखकर यह विश्वास पूर्वक कह देते कि भारत के इस समाज में अभी भी वह जज्बा मौजूद है, जो उनकी आवाज तो कभी चार पंक्तियों की चिट्ठी पर आंदोलित हो जाया करता था। दरअसल भारत की आजादी के बाद मध्यप्रदेश के समाज का यह पानी आंदोलन, अपनी तरह का अभिनव और अनूठी मिसाल लिए हुए है।
गांव-गांव, डगर-डगर........। हम निकल पड़े हैं ग्रामीण भारत के इस समाज को नमन करने जो आदरणीया बूंद साहिबा को बड़ी अदव के साथ रुक जाने की मनुहार कर रहा है। बेसब्र है, मोहतरमा की मेहमान नवाजी के लिए। बूंदों से बदलाव की इस खोज और शोधयात्रा में हम कई जगह अवाक रह गए। कभी लकड़ी काटने वाले हाथों ने कुल्हाड़ी पटककर लाठी उठा ली- अब कोई जंगल काटकर तो बताए! कुछ ही वर्ष में इन पहाड़ों पर हजारों की संख्या में वृक्षों का पुरोत्पादन हो गया। समाज ने थोड़ी मेहनत करने की ठानी तो पत्थर के पहाड़ पानी के पहाड़ों में बदल गए।
कभी पहाड़ियों पर यूं ही घूमने वाले दसवीं पास आदिवासी युवक को लोग ‘इंजीनियर’ कहने लगे। पूछा तो पता चला कि जनाब, अपने बलबूते पर ही एक नहीं दो नहीं, कुल 15 तालाब बना चुके हैं। बदनावर के पास बुजुर्ग स्वतंत्रता संग्राम सेनानी फुलजी बा को हमने आजादी के बाद दूसरी लड़ाई लड़ते देखा। इस बार उनके साथ ‘मतवालों की फौज नहीं’ थी। लेकिन उनका अपना बेटा पिता के दिए संस्कार के साथ सूखे को आँखें दिखा रहा था।
हमने पहले भी संकेत दिए थे कि भारत के समाज में एक बड़ी विसंगति यह रही कि चुनिंदा महानुभावों को छोड़कर ‘समाज के नेता’ ढूँढे नहीं मिलते हैं। गांवों में समाज के सहयोग से बनी जल संरचनाएं यह बता रही हैं कि थोड़ी सी भी पहल की जाए तो समाज में जागृति लाना संभव है। मध्यप्रदेश के भानपुरा क्षेत्र के समाज ने सहयोग देकर कुछ ही महीनों में 240 तालाब बनाकर बता दिये है। वहां अब चप्पे-चप्पे पर तालाब है। इसके अलावा पूरे नगर के 10 हजार लोगों ने मिलकर रेवा नदी को जिंदा कर दिया। श्री सुभाष सोजातिया ने राजनीति के नेता के साथ-साथ अपने क्षेत्र के ‘समाज के नेता’ का किरदार निभाया। कई मायनों में भानपुरा का जल प्रबंधन प्रदेश ही नहीं बल्कि देश में अपने तरह की मिसाल बन चुका है।
प्राकृतिक संसाधनों के प्रति जागृति लाने की सामाजिक शुरुआत एक अच्छी पहल के रूप में की जा सकती है। स्वाध्याय प्रवाह के प्रणेता श्री पांडुरंग शास्त्री आठवले जैसे संत पुरुषों से जुड़ा समाज भी बड़े पैमाने पर बिना कोई सरकारी सहायता स्वीकार किए पानी संचय के विविध तरीकों पर जुटा हुआ है। इसी तरह जैन तीर्थ स्थल मोहनखेड़ा के संत श्री ऋषभचंदजी महाराज भी जमीनी स्तर पर पानी रोकने का अभियान चलाए हुए हैं।
पर्यावरण के प्रति रुझान रखने वाले अनेक समाजसेवी भी गांवों में स्वयं सेवी संगठनों के माध्यम से पानी रोकने का व्यापक काम कर रहे हैं। सर्वश्री एचके जैन, तपन भट्टाचार्य, सुनील चतुर्वेदी, निलेश देसाई, भद्रेश रावल, आशीष मन्डल, मिहिर शाह के अलावा कई और महानुभाव भी इस दिशा में सक्रिय हैं।
बूंदों को रोकने से आए बदलाव की खोज और शोध यात्रा में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह रेखांकित हुआ कि समाज में प्राकृतिक संसाधनों के लिए कुछ कर गुजरने की ‘अंतर्धारा’ तो अभी भी जिन्दा है। हमने देखा-सूखे, अकाल या केवल पानी के अभाव से जूझते गांवों में सरकारी अफसरों, जनप्रतिनिधियों या संगठनों के लोगों ने जब पानी के लिए समाज के सहयोग का हाथ मांगा तो जिससे जो बन पड़ा, उसने वह देने की कोशिश की। एक स्थान पर हमने गरीबी रेखा के आसपास जीवन बसर करने वाले दो भाईयों के दीदार किये। इन्होंनें अपनी जमीने ही गांव में तालाब बनाने के लिए दान कर दी। इसके बाद तो पानी आंदोलन से जुड़े हर गांव में इस तरह की कोई न कोई कहानी सुनी। लोगों ने ट्रैक्टर दिए। नगद राशि उपलब्ध कराई। समाज का एक बड़ा वर्ग श्रमदान करने के लिए आगे आया। कभी पानी के लिए किसी के सामने खड़े होकर जुड़ने वाले हाथ, खुद अपने हाथों से गांव का तालाब बनाने जुटने लगे।
बूंदों को रुकने का बड़ा बदलाव सामाजिक और आर्थिक धरातल पर हुआ। कई गांवों में ये मामले सामने आए कि पानी आंदोलन के बाद लोगों ने शराब पीना छोड़ दिया। पुलिस थानों पर झगड़े कम जाने लगे। अपराधियों के लिए कुख्यात गांव में जीवन और समाज के बारे में नव चिंतन शुरू हुआ। फरार अपराधी आत्म समर्पण करने लगे।
हमने अनेक गांवों में लोकतंत्र को स्थानीय स्तर पर मजबूत होते देखा। बूंदों ने समाज को कुछ यूं एक कराया कि डंडे चलाने वाला तबका यह देख सहम गया। सामाजिक धरातल पर एक बड़ा फर्क यह भी देखने में आया कि स्थानीय स्तर पर लोग इस बात को सहज स्वीकार करने लगे कि गांव के संसाधन हमारे अपने हैं। हमें इनकी देखभाल करनी है। गांव में अपने राज का मतलब केवल ‘सत्ता’ की प्राप्ति ही नहीं है बल्कि कुछ पुनीत कर्तव्य भी होते हैं। जिनके लिए हमें आगे आना होगा। जंगलों के संरक्षण व संवर्धन के प्रति भी चेतना जागी।
रुकी बूंदों ने आर्थिक धरातल पर भी ग्रामीण समृद्धि के नए द्वार खोले। जहां पानी थमा, वहां कुएं और हैंडपंप रिचार्ज होने लगे। अनेक गांवों में किसान दो औऱ कहीं-कहीं तो तीन-तीन फसल लेने लगे। पलायन में कमी अथवा इसकी अवधि कम होने के तथ्य भी मिले। हमने अनेक गांवों में समाज के अनुभव सुने की पहले गांव में केवल साईकलें थीं। बूंद रूकने के बाद मोटर साईकल और ट्रैक्टर तक आ गये। अनेक गांव ऐसे भी मिले जहां आम जन ने गेहूं का स्वाद नहीं चखा था, अब वहाँ बड़े पैमाने पर गेहूं का उत्पादन भी शुरू हो गया। व्यावसायिक फसलें लीं जाने लगी और रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता में कमी आई। खपरैल के मकान अनेक स्थानों पर पक्के मकान में तब्दील हो गए। सबसे बड़ी उपलब्धि समाज में जागृत हुए आत्मविश्वास को माना जाना चाहिए। इसे अपना खोया हुआ ‘परिचय’ पुनः मिल गया। कुछ स्थानों पर ऐसे कार्यों को समाज द्वारा करने की पहल की गई जिन्हें केवल सरकार की जिम्मेदारी ही माना जाता था।
महिलाओ का आगे आकर आंदोलन की कमान सम्भालने के क्या कहने! इस आंदोलन के साथ-साथ महिलाओं के बचत समूह सक्रिय हुए। इसके सुखद आश्चर्य कहा जा सकता है कि झाबुआ जैसे आदिवासी बहुल जिले के बचत समूहों में 10 करोड़ रुपए की राशि जमा है। इस तरह के गांवों में रूकी हुई बूंदों की प्रेरणा से साहूकारों के पास जाने की विवशताओं में कमी आई है। विपरीत समय से निपटने के लिए गांवों में अनाज बैंकों की स्थापनाएं भी की गई हैं।
तो आप भी चल रहे हैं ना, हमारे बूंदो की हमसफर यात्रा में!
हम मिलेंगे- संत, समाज सुधारक, इंजीनियर, डॉक्टर, दार्शनिक, दानदाता, जीवनदायिनी, लोकतांत्रिक, संजीवनी, आत्मविश्वासी, दृढ़ संकल्पित, टीचर जी, लखपति, करोड़पति, व स्नेही बूंदों से।
परिचय होगा, पुरानी जगहों पर नए समाज से।
बरसात के दिन- बूंदों के साथ कब निकल जाएंगे, पता नहीं चलेगा।
तेज धूप के साये और धूल के गुबार तो ये धीर- गंभीर बूंदें जज्ब कर लेंगी।
हंसती-खेलती, कूदती और किलकारियाँ भरती ये बूंदें............!
इन्हीं नन्ही जानों के साथ एक मजेदार व प्रेरणास्पद यात्रा!
आईये, सफर शुरू करते हैं........!
क्रांति चतुर्वेदी
1/2,बक्षीबाग, इन्दौर (म.प्र.)
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