बूँद बूँद कर बना सरोवर

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बूंद-बूंद से सागर कैसे भरता है इसकी मिसाल बिहार के माणिकपुर गांव में देखी जा सकती है। पटना से करीब सौ किलोमीटर दूर इस गांव के कमलेश्वरी सिंह ने सात साल तक अकेले ही खुरपी और बाल्टी की मदद से 60 फीट लंबा-चौड़ा और 25 फीट गहरा तालाब खोद डाला। आज जब दक्षिण बिहार के ज्यादातर गांवों के तालाब और कुएं पानी का संकट झेल रहे हैं, कमलेश्वरी के पसीने की बूंदों से तैयार ये तालाब लबालब भरा है।

माणिकपुर भी बिहार के कई उन गांवों की तरह ही है जहां बीते दो दशक में कुछ नहीं बदला। 2000 की आबादी वाले इस गांव में बिजली और सिंचाई के साधन पहले की तरह आज भी नदारद हैं। लेकिन 63 साल के कमलेश्वरी की उपलब्धि ने गांव को अचानक सुर्खियों में ला दिया है। उनकी तुलना दशरथ मांझी से होने लगी है जिन्होंने अकेले ही पहाड़ काटकर सड़क बनाने का असाधारण कारनामा कर दिखाया था। साल भर पानी से भरे रहने वाले तालाब का पानी गांववालों की प्यास बुझाने के साथ-साथ सिंचाई के काम भी आ रहा है।

कमलेश्वरी की उपलब्धि कई मायनों में असाधारण है। एक छोटी सी खुरपी लेकर सात साल तक खुदाई करने के लिए हौसला हर तेज धूप में पसीने से तरबतर एक इंसान को छोटी सी खुरपी के साथ खुदाई करते देखकर पूरा गांव हंसता था। लेकिन मिट्टी खोद रहे कमलेश्वरी खुद भी किसी अलग ही मिट्टी के बने थे।

किसी के पास नहीं होता। 15 साल पहले उनके पास 12 बीघा जमीन हुआ करती थी। लेकिन गैंगवार में उनकेबड़े बेटे की हत्या कर दी गई और उसके बाद कमलेश्वरी कानूनी लड़ाई के जाल में कुछ ऐसा उलझे कि इसका खर्च उठाने के लिए उन्हें सात बीघा जमीन बेचनी पड़ी। अदालतों के चक्कर से उकताए कमलेश्वरी ने एक दिन अचानक फैसला किया कि केस रफादफा कर किसी रचनात्मक चीज पर ध्यान लगाया जाए। क्या करना है ये सोचने में देर नहीं लगी और 1996 की गर्मियों में कमलेश्वरी ने घर के पास अपने खेत में तालाब के लिए खुदाई कर दी।

तेज धूप में पसीने से तरबतर एक इंसान को छोटी सी खुरपी के साथ खुदाई करते देखकर पूरा गांव हंसता था। लोग उन्हें तालाबी बाबा कहकर चिढ़ाते थे। परिवार ने भी उन्हें रोकने की कोशिश की लेकिन मिट्टी खोद रहे कमलेश्वरी खुद भी किसी अलग ही मिट्टी के बने थे। खुदाई के लिए उन्होंने खुरपी इसलिए चुनी क्योंकि फावड़ा भारी होने के कारण उससे काम करना मुश्किल था। खुरपी से मिट्टी खोदी जाती और बाल्टी में भरकर उसे फेंका जाता। सुबह छह बजे से शाम के सात बजे तक काम चलता रहता था।

सात साल की मेहनत के बाद आखिरकार तालाब तैयार हो ही गया। आज गर्मियों में भी तालाब में इतना पानी रहता है कि गांव को नहाने, कपड़े धोने और जानवरों के लिए पानी का इंतजाम करने की चिंता नहीं होती। चिंता पहले थी जब कुल जमा पांच हैंडपंप गांव की अलग-अलग जातियों की तरह ही आपस में बंटे हुए थे। लेकिन तालाब भेदभाव से आजाद है। ये बिना जाति पूछे हर किसी की प्यास बुझाता है और गांव के खेतों को पानी देता है। तालाब के किनारे कमलेश्वरी के लगाए हुए आम और जामुन जैसे दर्जनों फलदार पेड़ लहलहा रहे हैं। कभी कमलेश्वरी पर हंसने वाले गांववाले अब उन्हें कमलेश्वरी बाबा कहकर बुलाते हैं।

गांववालों की जिंदगी तालाब से भले ही कुछ सरल हो गई हो, कमलेश्वरी की जिंदगी की मुश्किलें जस की तस हैं। तीन बेटियों की शादी और बेटे के कत्ल के बाद कानूनी लड़ाई में उनके सारे संसाधन चुक गए। छोटा बेटा बेरोजगार है और परिवार के लिए दो जून की रोटी जुटाना भी आसान नहीं। कमलेश्वरी और उनके तालाब का किस्सा भले ही पटना में बैठे बड़े लोगों की जुबान पर हो पर स्थानीय नेताओं और अधिकारियों यहां तक कि गांव के सरपंच और मुखिया ने भी कभी इस तालाब तक आने की जरूरत नहीं समझी। गांव के विकास का मुद्दा उठाने के लिए कमलेश्वरी जल्द ही मुख्यमंत्री नीतिश कुमार के जनता दरबार में हाजिरी लगाना चाहते हैं। तालाब पर आज भी काम जारी है और कमलेश्वरी की खुरपी अब उसके रखरखाव में जुटी है।

अनंत एसटी दाससाभार- http://www.tehelkahindi.com/UjlaaBharat/BharatKiUjleeTasveer/48.htm


 

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