बुंदेलखंड विगत दो दशकों से सूखे का पर्याय बन चुका है। बावजूद इसके दृढ़ इच्छा शक्ति रखने वाले किसानों ने अपने ज्ञान व कौशल का उचित उपयोग कर सूखे में भी अपने लिए बेहतर आजीविका के विकल्प तैयार किये और क्षेत्र के लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत बने।
बुंदेलखंड क्षेत्र में कुछ ऐसी विशेष बातें हैं, जो इस पूरे परिक्षेत्र को अधिक नाज़ुक संवर्ग में रखती हैं।
जैसे –
सूखा की स्थिति बराबर बने रहना व उपलब्ध जल का दुरुपयोग।
विकास के नाम पर अनियंत्रित यंत्रीकरण तथा पहाड़ों व जंगलों के साथ हिंसक व्यवहार।
रासायनिक खेती को बढ़ावा, बदल रही ज़मीन की किस्म और कृषि, बीज, जल, संस्कृति पर दबाव
ग्राम विकास के नाम पर हित-अहित की अनदेखी, सड़कों का चौड़ीकरण।
कृषि योग्य भूमि एवं चारागाहों में परिवर्तन कर शहरीकरण व अन्य उपयोग करना।
नदियों के साथ छेड़-छाड़ एवं बड़े बांधों का निर्माण आदि।
उपरोक्त स्थितियों के चलते बुंदेलखंड में हरित क्रांति की संकल्पना मुंगेरीलाल के सपनों और संपूर्ण क्षेत्र के किसानों को तबाह कर मज़दूर बनाने के सिवाय कुछ नहीं है। इस संपूर्ण इलाके में गहरी बोरिंग बड़े बांध, चौड़ी सड़कें, रासायनिक खेती, पहाड़ों के खनन से रोज़गार देने का उपक्रम सहित अब तक नीतियों का अध्ययन विश्लेषण कर उनसे होने वाले प्राकृतिक नुकसान से पड़ने वाले प्रभावों का संपूर्ण आकलन करना इस क्षेत्र की प्रथम प्राथमिकता में हो तथा पारंपरिक जल संरक्षण की विधियों मेड़बंदी, तालाब गोचर, वन, उपवन, पहाड़ों के हरा-भरा रहने से इस क्षेत्र की जलवायु ऋतुयें, कृषि, पशुपालन, 5-6 दशक पुराने इतिहास के आधार पर समृद्धि का मापन करना भी लोगों के स्तर से एक महत्वपूर्ण कार्य है। तभी यहां पर बढ़ रहा मौसम परिवर्तन, पलायन, आजीविका संकट, बढ़ता तापमान, भूगर्भ जल संकट, नदियों में बढ़ता सूखा एवं किसानों में बढ़ती निराशा व हताशा तथा उससे उत्पन्न आत्महत्या की प्रवृत्ति के सही कारणों का पता लगाया जा सकता है और तभी इनका समाधान भी पाया जा सकता है। इसके साथ ही यदि एक किसान इस दिशा में पहल करे कि जैव विविधता व रसायन मुक्त खेती की जाये तो एक से अनेक होंगे और फिर पूरे क्षेत्र की खुशहाली का सपना साकार होगा। किसान का बेटा जब खेती किसानी को आधार मानकर अपने ध्यान, ज्ञान और श्रम का उपयोग करता हुआ जीवन, शरीर, परिवार, समाज, प्रकृति, अस्तित्व की ज़रूरतों को समझ कर जीना शुरू करता है तो प्रकृति, प्राणी, पदार्थ जीव और मानव स्वतः परिपुष्ट होते हैं। यही सोचकर बांदा जनपद के विकास खंड बड़ोखर अंतर्गत ग्राम बड़ोखर खुर्द के किसान प्रेम सिंह ने अपना कदम बढ़ाया और अब तो लोग उनका साथ दे रहे हैं।
जनपद बांदा के विकासखंड मुख्यालय बांदा से पूरब-दक्षिण दिशा में बांदा-इलाहाबाद मार्ग पर लगभग 5 कि.मी. दूरी पर बसा गांव बड़ोखर खुर्द है, जिसे वर्तमान में बगीचों का गांव कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। 47 वर्षीय प्रेम सिंह ने इलाहाबाद से परास्नातक तक की शिक्षा प्राप्त की। तत्पश्चात् महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय चित्रकूट, जनपद सतना (म.प्र.) से एम.आर.डी.एम. के फाउंडर स्टूडेंट के तौर पर शिक्षा ग्रहण कर अपने ज्ञान, ध्यान व श्रम को कृषक के रूप में नियोजित करने का संकल्प लिया। उन्होंने गांव में रहकर खेती-किसानी को समझा और अपने पिता का हाथ बंटाया।
बड़ोखर खुर्द गांव का कुल क्षेत्रफल लगभग 2900 बीघा है, जिसमें लगभग 400 बीघा में रेलवे लाइन, स्कूल, तालाब, गांव, सड़कें, चकमार्गों आदि का विस्तार है। शेष 2500 बीघा कृषि प्रयोजन के लिये है। कृषि योग्य भूमि के लगभग 1000 बीघे में धान का रकबा था जो केन नहर प्रणाली से सिंचित था, जबकि शेष 1500 बीघे में अन्य फसलें। उक्त गांव विकास खंड मुख्यालय के नज़दीक रहने के कारण रासायनिक खादों, कीटनाशकों और नये बीजों, योजनाओं से गांव की निकटता थी। यही वजह रही कि खेती में दिनों-दिन इनका प्रयोग बढ़ता गया। साथ में नहर से मिलने वाले पानी से बीजों व फ़सलों की जरूरतें पूरी न हो पाने की स्थिति में ट्यूबवेलों की संख्या बढ़ी, जो आगे चलकर भू-जल-एवं भूमि उर्वरता के लिए घातक सिद्ध हुआ।
वर्ष 1987 से 1989 तक प्रेमसिंह को इन तीन वर्षों में यह बात समझ में आ गई कि खेती में निरंतर रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों का प्रयोग, नये-नये बीजों की जरूरत और बाजार में उनकी बढ़ती कीमत के एवज में उत्पादन मूल्य बहुत कम मिल पा रहा है। बाजार की वस्तुओं का मूल्य बढ़ना और किसान द्वारा उत्पादित वस्तुओं के मूल्य निर्धारण पर सरकार का नियंत्रण होना एक विषम परिस्थिति थी, जिसके आधार पर खेती का भविष्य भांपकर उन्होंने जैविक खेती की तरफ रूख करना शुरू किया। चूंकि एक बारगी खेती में रासायनिक खादों के प्रयोग को कम करना संभव नहीं दिखा, तब इसके विकल्प के लिए अपने एक चक, जिसका रकबा 5.44 हेक्टेयर था, में बाग लगाने का निर्णय लिया और 1989 में फलदार वृक्षों आम, अमरूद, आंवला, अमलतास आदि के पौधों को रोपित कर बाड़ लगाया। बहुत मशक्कत , रैन जागरण, के बावजूद बाग तीन चौथाई से ज्यादा उजड़ गया। फिर भी इन्होंने हार नहीं मानी और लगातार प्रयास से 1991 तक पूरा बाग अपने अस्तित्व में आना शुरू हो गया। 1993-94 तक पूरे बाग से उत्पादन का अल्प हिस्सा मिलने लगा। इस दौरान जब तक कि फलदार वृक्ष अपनी शैशवावस्था में थे, तब तक उन्होंने उस खेत में फसल भी लगाया। जैसे अमरूद के बगीचे में चने की खेती की, जिससे भी उनको अच्छी आय मिली।
आज मौजूदा वर्ष में उस बाग से, जिस पर अन्य परिवार भी आश्रित हैं, उनके भरण-पोषण के अतिरिक्त अच्छा उत्पादन प्राप्त हो रहा है। किसान प्रेम सिंह को कभी सूखा जल संकट तो क्या मौसम की बेरूखी और बाजार का उतार-चढ़ाव भी नहीं। प्रेम सिंह से मिलने पर स्वतः महसूस होता है कि बुंदेलखंड में व्याप्त सूखा, जल संकट इनकी सीमा क्षेत्र में प्रवेश ही नहीं कर पा रहा। प्रेमसिंह बुंदेलखंड ही नहीं अब देश के जाने पहचाने जैविक कृषि के सरक्षण, सम्पवर्दन और उत्पादन संबंधी मूल्य संवर्धन वाले अग्रणी किसान के रूप में स्थापित किसान हैं।
इस पूरी प्रक्रिया में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि बुंदेलखंड में सूखा के चलते अभिशाप बने पशुओं, गायों आदि के लिए इनके बगीचे सर्वथा, सर्वदा उपलब्ध हैं। यहां पर गायों के चरने का पूरा प्रबंध है, गायों/बैलों के लिए चारा आदि ले जाने की भी पूरी व्यवस्था है। इस प्रकार इनके इस पहल से पशुपालन को बढ़ावा मिल रहा है।
वर्ष, 1989 के प्रारम्भ में किसान प्रेमसिंह की कड़ी मेहनत से स्थापित बाग और उसके लाभ से प्रभावित/ आकर्षित ग्रामीण किसानों ने इनका अनुपालन करना प्रारम्भ कर दिया। इन 20-22 वर्षों में बड़ोखर खुर्द गांव की कुल कृषि भूमि के एक चौथाई भू-भाग में बाग-बगीचे लग गये हैं।
वर्ष 2005 तक इस गांव में 67 ट्यूबवेल स्थापित हुये, जिनका उपयोग अधिक पानी वाली फ़सलों के लिये होता था। पर मौजूदा समय में इन ट्यूबवेलों का उपयोग बहुत कम और जरूरत वाली फ़सलों के लिये होना प्रारम्भ हुआ है। प्राकृतिक खेती का चलन बढ़ा है, ईंधन और रोज़मर्रा के ज़रूरतों की आपूर्ति व किसानों की आर्थिक समृद्धि में इज़ाफा हुआ है। क्षेत्रीय किसान भी इस पर अमल कर रहे हैं। सरकारी गैर सरकारी संगठनों-संस्थानों के लिए उदाहरण, आकर्षण व अनुसरण का केंद्र हैं – किसान प्रेमसिंह के प्राकृतिक कृषि प्रयोग और अनुसंधान सहित समृद्धि पूर्वक जीने का अंदाज़।
पढ़े-लिखे किसान श्री प्रेम सिंह की नजर में कुछ ऐसे विकल्प हैं जिन्हें सरकारी, सामुदायिक एवं व्यक्तिगत तौर पर अपनाकर बुंदेलखंड की समस्या का समाधान किया जा सकता है –
बुंदेलखंड क्षेत्र विशेष की भौगोलिक स्थिति, उत्पादन मात्रा, भूमि की बाजारू कीमत, संसाधनों, सीलिंग जोत सीमा और समृद्ध के अनुरूप कृषि नीति का नियोजन न्याय संगत होगा।
बुंदेलखंड क्षेत्र में पाये जाने वाले महुआ वृक्ष से उत्पादित पूल, फल और सन (सनई) के बीज, रेशा की उपयोगिता के अनुरूप गंवई उद्यम के रूप में स्थापित करने के लिये बुंदेलखंड महुआ एवं सन व मेंहदी कार्पोरेशन ऑफ इंडिया की स्थापना की जाए, जिसमें क्षेत्रीय किसानों व स्वैच्छिक संस्थाओं की भागीदारी सुनिश्चित की जाए।
बुंदेलखंड के गहराते जल संकट पर काबू पाने एवं गांव के गांव उजड़ने से बचाने के लिये पहली जरूरत है – प्रकृति विरूद्ध कार्यों, नीतियों, योजनाओं पर पाबंदी। बुंदेलखंड क्षेत्र को प्राकृतिक संरक्षण क्षेत्र के रूप में प्रस्तावित कर प्रकृति विरूद्ध होने वाले कार्य-कलापों, योजनाओं, नीतियों पर पाबंदी लगाकर इस क्षेत्र में प्राकृतिक कृषि के लिए अवसर, वातावरण व संसाधन मुहैया कराने का मार्ग प्रशस्त किया जाए, जिससे बुंदेलखंड के वर्तमान और भविष्य के ख़तरों को टाला जा सके।
बुंदेलखंड की समृद्धि का मार्ग है इस क्षेत्र के उत्पादन का गाँवों में प्रसंस्करण/उत्पादित अनाज, फल, सब्जियों आदि के संरक्षण, संवर्धन, प्रसंस्करण के लिये पंचायत स्तर पर एक-दो यूनिट स्थापना के लिये 10 वर्षीय ब्याज रहित धन उपलब्ध कराए जाने की नीति बनाई जाए।
बुंदेलखंड में पारंपरिक जल संरक्षण की विधियों एवं वृक्षारोपण के लिये किसानों को विचौलिया रहित संसाधन दिया जाना चाहिए। बुंदेलखंड (उ.प्र.) के सभी सातों जनपदों में सर्वाधिक ग्रामों में चकबंदी हो चुकी है अथवा प्रस्तावित व जारी है। चकबंदी से खेती की आकृतियां बदली हैं, जमीनों की किस्म, मिल्कियतों, वृक्षों, जल स्रोतों, परती, चारागाहों में आमूल-चूल परिवर्तन हुए हैं, इससे जल संरक्षण,वर्षा एवं पारंपरिक वर्षा आधारित कृषि, पशुपालन, देशज बीज और गोबर की खाद, गंवई सामंजस्य, स्वरोजगार आजीविका आदि पर संकट गहराया है, पर्यावरण बिगड़ा है। इसके समाधान के तौर पर प्रत्येक किसान को उसकी जोत (भूमि) के अनुरूप मेड़बंदी, तालाब, कुआं के निर्माण एवं वृक्षारोपण/बागवानी के लिए बिचौलिया रहित आर्थिक संसाधन दिये जायें। इससे पलायन, बेरोज़गारी, आत्महत्या, कुपोषण, कर्ज, जल संकट सहित अन्यान्य समस्याओं का समाधान होगा।
केन-बेतवा नदी गठजोड़ परियोजना पर पुनर्विचार करें एवं बुंदेलखंड के भविष्य के लिए इसे निरस्त किया जाना चाहिए। बुंदेलखंड एशिया के सर्वाधिक बांधों वाला क्षेत्र है, फिर भी कृषि योग्य भूमि के पांचवे हिस्से को भी पानी दे पाने में नाकामयाब है। बांधों की नहरों के पूर्व निर्धारित कमांड एरिया में 60-65 प्रतिशत तक कमी आई है। उदाहरण के लिए बांदा जिले में अतर्रा नगर एशिया की दोयम दर्जे की चावल मंडी के रूप में विकसित हुआ, जहां लगभग तीन दर्जन से अधिक बड़ी धान मिलें स्थापित थीं। एक दशक में उनके नामों निशान नहीं बचे। बांधों में अधिक पानी आ जाने से छोड़ा गया पानी निचले क्षेत्रों में प्रलय तो करता है, पर उनमें पर्याप्त सिंचाई के लिए पानी कभी नहीं भरता क्योंकि वे सिल्ट से भरे हैं। केन नदी का पानी बेतवा में ले जाने की प्रस्तावित योजना पर कर्ज के अरबों रुपये लगने से वर्षा होने और पानी भरने की गारंटी संभव नहीं है। इस पर पुनर्विचार कर सदैव के लिए पाबंद करना हितकर है, क्योंकि इस क्षेत्र के लिए केन-बेतवा गठजोड़ परियोजना अभिशाप और आखिरी अकाल साबित होगी। अतएव केंद्र सरकार बुंदेलखंड पर ऐसा प्रयोग न कर इसके भविष्य को सुरक्षित रख केन-बेतवा नदी गठजोड़ परियोजना को जनहित एवं पर्यावरणीय प्रकृति हित में हमेशा के लिए निरस्त करें।
परिचय
बुंदेलखंड क्षेत्र में कुछ ऐसी विशेष बातें हैं, जो इस पूरे परिक्षेत्र को अधिक नाज़ुक संवर्ग में रखती हैं।
जैसे –
सूखा की स्थिति बराबर बने रहना व उपलब्ध जल का दुरुपयोग।
विकास के नाम पर अनियंत्रित यंत्रीकरण तथा पहाड़ों व जंगलों के साथ हिंसक व्यवहार।
रासायनिक खेती को बढ़ावा, बदल रही ज़मीन की किस्म और कृषि, बीज, जल, संस्कृति पर दबाव
ग्राम विकास के नाम पर हित-अहित की अनदेखी, सड़कों का चौड़ीकरण।
कृषि योग्य भूमि एवं चारागाहों में परिवर्तन कर शहरीकरण व अन्य उपयोग करना।
नदियों के साथ छेड़-छाड़ एवं बड़े बांधों का निर्माण आदि।
उपरोक्त स्थितियों के चलते बुंदेलखंड में हरित क्रांति की संकल्पना मुंगेरीलाल के सपनों और संपूर्ण क्षेत्र के किसानों को तबाह कर मज़दूर बनाने के सिवाय कुछ नहीं है। इस संपूर्ण इलाके में गहरी बोरिंग बड़े बांध, चौड़ी सड़कें, रासायनिक खेती, पहाड़ों के खनन से रोज़गार देने का उपक्रम सहित अब तक नीतियों का अध्ययन विश्लेषण कर उनसे होने वाले प्राकृतिक नुकसान से पड़ने वाले प्रभावों का संपूर्ण आकलन करना इस क्षेत्र की प्रथम प्राथमिकता में हो तथा पारंपरिक जल संरक्षण की विधियों मेड़बंदी, तालाब गोचर, वन, उपवन, पहाड़ों के हरा-भरा रहने से इस क्षेत्र की जलवायु ऋतुयें, कृषि, पशुपालन, 5-6 दशक पुराने इतिहास के आधार पर समृद्धि का मापन करना भी लोगों के स्तर से एक महत्वपूर्ण कार्य है। तभी यहां पर बढ़ रहा मौसम परिवर्तन, पलायन, आजीविका संकट, बढ़ता तापमान, भूगर्भ जल संकट, नदियों में बढ़ता सूखा एवं किसानों में बढ़ती निराशा व हताशा तथा उससे उत्पन्न आत्महत्या की प्रवृत्ति के सही कारणों का पता लगाया जा सकता है और तभी इनका समाधान भी पाया जा सकता है। इसके साथ ही यदि एक किसान इस दिशा में पहल करे कि जैव विविधता व रसायन मुक्त खेती की जाये तो एक से अनेक होंगे और फिर पूरे क्षेत्र की खुशहाली का सपना साकार होगा। किसान का बेटा जब खेती किसानी को आधार मानकर अपने ध्यान, ज्ञान और श्रम का उपयोग करता हुआ जीवन, शरीर, परिवार, समाज, प्रकृति, अस्तित्व की ज़रूरतों को समझ कर जीना शुरू करता है तो प्रकृति, प्राणी, पदार्थ जीव और मानव स्वतः परिपुष्ट होते हैं। यही सोचकर बांदा जनपद के विकास खंड बड़ोखर अंतर्गत ग्राम बड़ोखर खुर्द के किसान प्रेम सिंह ने अपना कदम बढ़ाया और अब तो लोग उनका साथ दे रहे हैं।
किसान का परिचय
जनपद बांदा के विकासखंड मुख्यालय बांदा से पूरब-दक्षिण दिशा में बांदा-इलाहाबाद मार्ग पर लगभग 5 कि.मी. दूरी पर बसा गांव बड़ोखर खुर्द है, जिसे वर्तमान में बगीचों का गांव कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। 47 वर्षीय प्रेम सिंह ने इलाहाबाद से परास्नातक तक की शिक्षा प्राप्त की। तत्पश्चात् महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय चित्रकूट, जनपद सतना (म.प्र.) से एम.आर.डी.एम. के फाउंडर स्टूडेंट के तौर पर शिक्षा ग्रहण कर अपने ज्ञान, ध्यान व श्रम को कृषक के रूप में नियोजित करने का संकल्प लिया। उन्होंने गांव में रहकर खेती-किसानी को समझा और अपने पिता का हाथ बंटाया।
गांव का परिचय
बड़ोखर खुर्द गांव का कुल क्षेत्रफल लगभग 2900 बीघा है, जिसमें लगभग 400 बीघा में रेलवे लाइन, स्कूल, तालाब, गांव, सड़कें, चकमार्गों आदि का विस्तार है। शेष 2500 बीघा कृषि प्रयोजन के लिये है। कृषि योग्य भूमि के लगभग 1000 बीघे में धान का रकबा था जो केन नहर प्रणाली से सिंचित था, जबकि शेष 1500 बीघे में अन्य फसलें। उक्त गांव विकास खंड मुख्यालय के नज़दीक रहने के कारण रासायनिक खादों, कीटनाशकों और नये बीजों, योजनाओं से गांव की निकटता थी। यही वजह रही कि खेती में दिनों-दिन इनका प्रयोग बढ़ता गया। साथ में नहर से मिलने वाले पानी से बीजों व फ़सलों की जरूरतें पूरी न हो पाने की स्थिति में ट्यूबवेलों की संख्या बढ़ी, जो आगे चलकर भू-जल-एवं भूमि उर्वरता के लिए घातक सिद्ध हुआ।
प्रक्रिया
वर्ष 1987 से 1989 तक प्रेमसिंह को इन तीन वर्षों में यह बात समझ में आ गई कि खेती में निरंतर रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों का प्रयोग, नये-नये बीजों की जरूरत और बाजार में उनकी बढ़ती कीमत के एवज में उत्पादन मूल्य बहुत कम मिल पा रहा है। बाजार की वस्तुओं का मूल्य बढ़ना और किसान द्वारा उत्पादित वस्तुओं के मूल्य निर्धारण पर सरकार का नियंत्रण होना एक विषम परिस्थिति थी, जिसके आधार पर खेती का भविष्य भांपकर उन्होंने जैविक खेती की तरफ रूख करना शुरू किया। चूंकि एक बारगी खेती में रासायनिक खादों के प्रयोग को कम करना संभव नहीं दिखा, तब इसके विकल्प के लिए अपने एक चक, जिसका रकबा 5.44 हेक्टेयर था, में बाग लगाने का निर्णय लिया और 1989 में फलदार वृक्षों आम, अमरूद, आंवला, अमलतास आदि के पौधों को रोपित कर बाड़ लगाया। बहुत मशक्कत , रैन जागरण, के बावजूद बाग तीन चौथाई से ज्यादा उजड़ गया। फिर भी इन्होंने हार नहीं मानी और लगातार प्रयास से 1991 तक पूरा बाग अपने अस्तित्व में आना शुरू हो गया। 1993-94 तक पूरे बाग से उत्पादन का अल्प हिस्सा मिलने लगा। इस दौरान जब तक कि फलदार वृक्ष अपनी शैशवावस्था में थे, तब तक उन्होंने उस खेत में फसल भी लगाया। जैसे अमरूद के बगीचे में चने की खेती की, जिससे भी उनको अच्छी आय मिली।
आज मौजूदा वर्ष में उस बाग से, जिस पर अन्य परिवार भी आश्रित हैं, उनके भरण-पोषण के अतिरिक्त अच्छा उत्पादन प्राप्त हो रहा है। किसान प्रेम सिंह को कभी सूखा जल संकट तो क्या मौसम की बेरूखी और बाजार का उतार-चढ़ाव भी नहीं। प्रेम सिंह से मिलने पर स्वतः महसूस होता है कि बुंदेलखंड में व्याप्त सूखा, जल संकट इनकी सीमा क्षेत्र में प्रवेश ही नहीं कर पा रहा। प्रेमसिंह बुंदेलखंड ही नहीं अब देश के जाने पहचाने जैविक कृषि के सरक्षण, सम्पवर्दन और उत्पादन संबंधी मूल्य संवर्धन वाले अग्रणी किसान के रूप में स्थापित किसान हैं।
इस पूरी प्रक्रिया में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि बुंदेलखंड में सूखा के चलते अभिशाप बने पशुओं, गायों आदि के लिए इनके बगीचे सर्वथा, सर्वदा उपलब्ध हैं। यहां पर गायों के चरने का पूरा प्रबंध है, गायों/बैलों के लिए चारा आदि ले जाने की भी पूरी व्यवस्था है। इस प्रकार इनके इस पहल से पशुपालन को बढ़ावा मिल रहा है।
प्रसार व प्रभाव
वर्ष, 1989 के प्रारम्भ में किसान प्रेमसिंह की कड़ी मेहनत से स्थापित बाग और उसके लाभ से प्रभावित/ आकर्षित ग्रामीण किसानों ने इनका अनुपालन करना प्रारम्भ कर दिया। इन 20-22 वर्षों में बड़ोखर खुर्द गांव की कुल कृषि भूमि के एक चौथाई भू-भाग में बाग-बगीचे लग गये हैं।
वर्ष 2005 तक इस गांव में 67 ट्यूबवेल स्थापित हुये, जिनका उपयोग अधिक पानी वाली फ़सलों के लिये होता था। पर मौजूदा समय में इन ट्यूबवेलों का उपयोग बहुत कम और जरूरत वाली फ़सलों के लिये होना प्रारम्भ हुआ है। प्राकृतिक खेती का चलन बढ़ा है, ईंधन और रोज़मर्रा के ज़रूरतों की आपूर्ति व किसानों की आर्थिक समृद्धि में इज़ाफा हुआ है। क्षेत्रीय किसान भी इस पर अमल कर रहे हैं। सरकारी गैर सरकारी संगठनों-संस्थानों के लिए उदाहरण, आकर्षण व अनुसरण का केंद्र हैं – किसान प्रेमसिंह के प्राकृतिक कृषि प्रयोग और अनुसंधान सहित समृद्धि पूर्वक जीने का अंदाज़।
प्रेम सिंह की नजर में बुंदेलखंड की समस्या का समाधान
पढ़े-लिखे किसान श्री प्रेम सिंह की नजर में कुछ ऐसे विकल्प हैं जिन्हें सरकारी, सामुदायिक एवं व्यक्तिगत तौर पर अपनाकर बुंदेलखंड की समस्या का समाधान किया जा सकता है –
बुंदेलखंड क्षेत्र विशेष की भौगोलिक स्थिति, उत्पादन मात्रा, भूमि की बाजारू कीमत, संसाधनों, सीलिंग जोत सीमा और समृद्ध के अनुरूप कृषि नीति का नियोजन न्याय संगत होगा।
बुंदेलखंड क्षेत्र में पाये जाने वाले महुआ वृक्ष से उत्पादित पूल, फल और सन (सनई) के बीज, रेशा की उपयोगिता के अनुरूप गंवई उद्यम के रूप में स्थापित करने के लिये बुंदेलखंड महुआ एवं सन व मेंहदी कार्पोरेशन ऑफ इंडिया की स्थापना की जाए, जिसमें क्षेत्रीय किसानों व स्वैच्छिक संस्थाओं की भागीदारी सुनिश्चित की जाए।
बुंदेलखंड के गहराते जल संकट पर काबू पाने एवं गांव के गांव उजड़ने से बचाने के लिये पहली जरूरत है – प्रकृति विरूद्ध कार्यों, नीतियों, योजनाओं पर पाबंदी। बुंदेलखंड क्षेत्र को प्राकृतिक संरक्षण क्षेत्र के रूप में प्रस्तावित कर प्रकृति विरूद्ध होने वाले कार्य-कलापों, योजनाओं, नीतियों पर पाबंदी लगाकर इस क्षेत्र में प्राकृतिक कृषि के लिए अवसर, वातावरण व संसाधन मुहैया कराने का मार्ग प्रशस्त किया जाए, जिससे बुंदेलखंड के वर्तमान और भविष्य के ख़तरों को टाला जा सके।
बुंदेलखंड की समृद्धि का मार्ग है इस क्षेत्र के उत्पादन का गाँवों में प्रसंस्करण/उत्पादित अनाज, फल, सब्जियों आदि के संरक्षण, संवर्धन, प्रसंस्करण के लिये पंचायत स्तर पर एक-दो यूनिट स्थापना के लिये 10 वर्षीय ब्याज रहित धन उपलब्ध कराए जाने की नीति बनाई जाए।
बुंदेलखंड में पारंपरिक जल संरक्षण की विधियों एवं वृक्षारोपण के लिये किसानों को विचौलिया रहित संसाधन दिया जाना चाहिए। बुंदेलखंड (उ.प्र.) के सभी सातों जनपदों में सर्वाधिक ग्रामों में चकबंदी हो चुकी है अथवा प्रस्तावित व जारी है। चकबंदी से खेती की आकृतियां बदली हैं, जमीनों की किस्म, मिल्कियतों, वृक्षों, जल स्रोतों, परती, चारागाहों में आमूल-चूल परिवर्तन हुए हैं, इससे जल संरक्षण,वर्षा एवं पारंपरिक वर्षा आधारित कृषि, पशुपालन, देशज बीज और गोबर की खाद, गंवई सामंजस्य, स्वरोजगार आजीविका आदि पर संकट गहराया है, पर्यावरण बिगड़ा है। इसके समाधान के तौर पर प्रत्येक किसान को उसकी जोत (भूमि) के अनुरूप मेड़बंदी, तालाब, कुआं के निर्माण एवं वृक्षारोपण/बागवानी के लिए बिचौलिया रहित आर्थिक संसाधन दिये जायें। इससे पलायन, बेरोज़गारी, आत्महत्या, कुपोषण, कर्ज, जल संकट सहित अन्यान्य समस्याओं का समाधान होगा।
केन-बेतवा नदी गठजोड़ परियोजना पर पुनर्विचार करें एवं बुंदेलखंड के भविष्य के लिए इसे निरस्त किया जाना चाहिए। बुंदेलखंड एशिया के सर्वाधिक बांधों वाला क्षेत्र है, फिर भी कृषि योग्य भूमि के पांचवे हिस्से को भी पानी दे पाने में नाकामयाब है। बांधों की नहरों के पूर्व निर्धारित कमांड एरिया में 60-65 प्रतिशत तक कमी आई है। उदाहरण के लिए बांदा जिले में अतर्रा नगर एशिया की दोयम दर्जे की चावल मंडी के रूप में विकसित हुआ, जहां लगभग तीन दर्जन से अधिक बड़ी धान मिलें स्थापित थीं। एक दशक में उनके नामों निशान नहीं बचे। बांधों में अधिक पानी आ जाने से छोड़ा गया पानी निचले क्षेत्रों में प्रलय तो करता है, पर उनमें पर्याप्त सिंचाई के लिए पानी कभी नहीं भरता क्योंकि वे सिल्ट से भरे हैं। केन नदी का पानी बेतवा में ले जाने की प्रस्तावित योजना पर कर्ज के अरबों रुपये लगने से वर्षा होने और पानी भरने की गारंटी संभव नहीं है। इस पर पुनर्विचार कर सदैव के लिए पाबंद करना हितकर है, क्योंकि इस क्षेत्र के लिए केन-बेतवा गठजोड़ परियोजना अभिशाप और आखिरी अकाल साबित होगी। अतएव केंद्र सरकार बुंदेलखंड पर ऐसा प्रयोग न कर इसके भविष्य को सुरक्षित रख केन-बेतवा नदी गठजोड़ परियोजना को जनहित एवं पर्यावरणीय प्रकृति हित में हमेशा के लिए निरस्त करें।
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