बुंदेलखंड के संकट की वजह

हाल के वर्षों में बुंदेलखंड क्षेत्र बार-बार सूखे की विकट स्थिति, भूख व गरीबी की भीषण मार के कारण चर्चित हुआ है। कभी भूख से होने वाली मौतों के समाचार सुर्खियों में रहे तो कभी किसानों की आत्म-हत्याओं के। सूखे के चरम दौर में अनेक गांवों में पशुधन इतना कम हो गया है कि इसकी क्षतिपूर्ति हो पाना बहुत कठिन है। पलायन जीवन का अनिवार्य हिस्सा हो गया है। किसानों पर कर्ज का दबाव इतना है कि भविष्य अंधकारमय नजर आता है, समझ नहीं आता कि राहत कैसे मिले। हाल के वर्षों में लोगों को प्रतिकूल व अप्रत्याशित मौसम की बहुत मार झेलनी पड़ी है। वर्षा संबंधी सरकारी आंकड़ों में यह पूरी तरह दर्ज नहीं हो पाता है कि किसानों को प्रतिकूल मौसम के कारण कितनी कठिनाई सहनी पड़ी है।

प्राय: इन आंकड़ों के आधार पर कह दिया जाता है कि औसतन किसी वर्ष में सामान्य वर्षा हुई है। पर जरूरत के समय वर्षा न होने व असमय अधिक वर्षा हो जाने से औसत चाहे सामान्य हो जाता है, पर किसान की फसल को दोहरा नुकसान होता है। ऐसा ही बुंदेलखंड के अनेक गांवों में हाल के वर्षों में होता रहा है। एक अन्य नई स्थिति यह है कि कई बार एक गांव में पानी बरसता है तो पास के ही अन्य गांव में नहीं बरसता है। इस स्थिति में तहसील या प्रखंड या जिले स्तर के लिए सभी गांवों का एक सा आकलन प्रस्तुत करने से भी भ्रामक स्थिति उत्पन्न हो सकती है।

अप्रत्याशित मौसम की स्थिति जलवायु बदलाव की विश्वव्यापी प्रवृत्ति से मेल रखती है। पर इस स्वीकृति का यदि अनुचित दोहन किया गया तो कई समस्याएं भी उत्पन्न हो सकती हैं। जो लोग स्थानीय क्षेत्र में अंधाधुंध अनुचित खनन कर रहे हैं या पेड़ काट रहे हैं वे भी पर्यावरण विनाश की अपनी जिम्मेदारी से यह कह कर बचने का प्रयास कर सकते हैं कि जो बदलाव पर्यावरण व मौसम में आ रहे हैं वे जलवायु परिवर्तन से आ रहे हैं, इसमें उनकी कोई गलती नहीं है। सर्वविदित है कि वन-कटान से मिट्टी का कटाव होता है व वर्षा का जल संरक्षित नहीं हो पाता है। यदि बड़े पैमाने पर वन-विनाश हो तो सूखे व बाढ़ दोनों का संकट बढ़ता है। विशेषकर बुंदेलखंड जैसे क्षेत्र में जहां पहाड़ों-पठारों से नीचे की ओर पानी वेग से बहता है और हरियाली के अभाव में इसकी मिट्टी काटने की क्षमता बहुत बढ़ जाती है। वन-विनाश के कारण गांववासी विशेषकर आदिवासी उपयोगी वन-उपज से भी वंचित होते हैं।

बड़े बांध जैसी परियोजनाओं से बहुत से वन नष्ट हुए। भ्रष्ट अधिकारियों, ठेकेदारों, अपराधियों और डकैतों आदि के गठजोड़ से न केवल बहुत से वन कटे हैं अपितु वन-प्रबंधन भी इस तरह का रहा है जिससे गांववासियों विशेषकर आदिवासियों-वनवासियों की समस्या बढ़ती है। बहुत से लोगों को जो वर्षों से खेती कर रहे हैं उन्हें प्लांटेशन के नाम पर उजाड़ा जाता है। वन्य जीवों की सेंचुरी-अभ्यारण, राष्ट्रीय पार्क, टाईगर रिजर्व आदि बनाने के नाम पर बहुत से लोगों को हटाया जाता है। जिस तरह वन-विनाश से बाढ़ व सूखे का संकट विकट हुआ है वैसे ही अवैध खनन ने भी लोगों की परंपरागत आजीविका कृषि व पशुपालन को उजाड़ा है तथा जल-स्रोत भी नष्ट किए हैं। नदी किनारे बालू के खनन से भूजल संरक्षण में भारी गिरावट आई है व साथ ही बाढ़ का खतरा भी बढ़ा है।

बुंदेलखंड के संकट को बढ़ाने में अनुचित प्राथमिकताओं पर आधारित नीतियों ने भी बहुत क्षति पहुंचाई है। बुंदेलखंड में बड़े बांधों का निर्माण बहुत हुआ है, पर इसके परिणाम अच्छे नहीं रहे हैं। यदि इस पर व्यय धन को परंपरागत जल स्रोतों को ठीक रखने, तालाब व छोटे चेक डैम बनाने आदि कार्यों में खर्च किया जाता तो कहीं बेहतर परिणाम मिलते। इस पूर्व अनुभव के बावजूद आज भी विशाल परियोजना केन-बेतवा लिंक के कार्य को आगे बढ़ाया जा रहा है जबकि स्थानीय लोगों व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसकी उपयोगिता पर गंभीर सवाल उठाए हैं। साथ ही इसके गंभीर सामाजिक व पर्यावरणीय दुष्परिणामों की ओर भी ध्यान दिलाया है। लोगों का कहना है कि इससे जो विस्थापन होगा वह सरकारी अनुमानों से कहीं अधिक है। इससे परियोजना क्षेत्र में बहुत सी उपजाऊ कृषि भूमि व वनों की क्षति भी होगी।

इसी तरह कृषि में रासायनिक खाद व कीटनाशकों पर आधारित महंगी तकनीकों को आगे बढ़ाया गया है, जबकि परंपरागत बीजों व देसी खाद पर आधारित कृषि तकनीक छोटे किसानों के हितों व पर्यावरण की रक्षा दोनों उद्देश्यों के अनुकूल है। फसल कटाई के लिए हारवेस्टर का उपयोग बढ़ता जा रहा है जबकि मजदूर रोजगार से वंचित होते हैं व बहुमूल्य भूसा-चारा नष्ट होता है। छोटे किसानों को भी ट्रैक्टर के कर्ज लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है जबकि वे ऐसे कर्ज प्राय: लौटा नहीं पाते हैं व कई बार जमीन बिकने की नौबत भी आ जाती है। दूसरी ओर देसी नस्ल के बैल-गाय पनप सकें, इसके लिए समुचित प्रयास नहीं किया जाता है। ऐसी विसंगतिपूर्ण नीतियों ने बुंदेलखंड के गांवों के संकट को बढ़ाया है।

स्थानीय कारणों से बुंदेलखंड का आर्थिक-सामाजिक व पर्यावरणीय संकट वैसे ही बढ़ रहा था पर जलवायु बदलाव के दौर में कृषि व पशुपालन जैसी परंपरागत आजीविकाएं अधिक संकटग्रस्त हो गई व आपदाएं और बढ़ गर्इं। विभिन्न प्रतिकूल स्थितियों के चलते बुंदेलखंड का संकट इतने विकट रूप से सामने आया है और इसे दूर करने के लिए कई स्तरों पर एक साथ प्रयास करने की जरूरत है।
 

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