बुंदेलखंड का दर्द

सरकारी हैंडपंप पर जल के लिए लगी कतार
सरकारी हैंडपंप पर जल के लिए लगी कतार

एक बार फिर बुंदेलखंड राजनीतिक सरगर्मी का केंद्र बन गया है। पखवाड़े भर पहले ही भारतीय जनता पार्टी ने मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती की पार्टी में वापसी कराई है, जो कि बुंदेलखंड से ही आती हैं। भाजपा के इस दांव से पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बांदा में जनसभा कर चुके हैं, जिनके साथ कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी भी थे, जिनके एजेंडे पर बुंदेलखंड खास है। दरअसल कांग्रेस और भाजपा को लगता है कि उत्तर प्रदेश का पूर्वांचल और पश्चिमी क्षेत्र बसपा, सपा और रालोद के कब्जे में है, इसलिए बुंदेलखंड ही वह क्षेत्र है, जहां आसानी से कब्जा किया जा सकता है। मगर बुंदेलखंड का दर्द कोई नहीं समझ रहा है। हम बुंदेलखंड नामक जिस भौगोलिक क्षेत्र की बात करते हैं, वह उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के 16 जिलों को मिलाकर बना है। इंसाफ सेना और बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा जैसे संगठन इसी को अलग प्रदेश बनाने की मांग वर्षों से करते आए हैं।

उजड़ा कृषि क्षेत्र, जगह-जगह मरे पड़े जानवर, धूल भरी आंधियां, मीलों से गगरी भरकर लाती औरतें, पिचके गालों और पीठ में घुसे पेट वाले किसानों की तसवीरें यहां की बदहाली बयान करती हैं। पानी यहां की सबसे अनमोल वस्तु है। वह खून के रिश्तों पर भी भारी है। गर्मी के दिनों में जब पानी का स्तर नीचे चला जाता है, तो भाई-भाई के बीच खूनी संघर्ष होता है। रात की चोरियां भी अमूमन पानी के लिए होती हैं। बुंदेलखंड के कुछ गांव पानी के कारण कुंवारे पड़े हैं, लोग वहां अपनी बेटियों का विवाह नहीं करते, क्योंकि उनके बेटियों को मीलों चलकर पानी लाना पड़ेगा। यहां पानी कितना कीमती है, इसे यहां प्रचलित लोकगीत से समझा जा सकता है, गगरी न फूटे खसम मरि जाए, भौरा तेरा पानी गजब करि जाए।

लोग अपने पशुओं को चारा-पानी नहीं दे सकते, इसलिए उन्हें खुला छोड़ देते हैं। इसे यहां अन्ना प्रथा कहा जाता है। पानी के अभाव में यहां का किसान कभी अपने खेतों से मनचाही फसलें नहीं उगा पाता, उसे लागत भी नहीं वसूल हो पाती। वह एक साथ बैंकों और साहूकारों का कर्जदार हो जाता है। लिहाजा उसके पास आत्महत्या के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता। बुंदेलखंड के बीहड़ दुर्दांत डकैतों के कारण जाने जाते हैं, तो वह भी इसी गरीबी के कारण है। किसान परिवार के नौजवान जब अपनी महत्वाकांक्षाएं नहीं पूरा कर पाते, तो उनके हाथ बंदूक थाम लेते हैं या चोरी राहजनी करते हैं। समृद्ध कृषि के अभाव में यहां मध्यवर्ग का विकास नहीं हो सका। यहां एक तरफ क्रेशर मालिक, बड़े ठेकेदार और भू-माफिया हैं, तो दूसरी तरफ पिसते किसान-मजदूर। मध्यवर्ग के अभाव में आज भी यहां के बाजार अविकसित हैं। दिल्ली, कानपुर, ग्वालियर आज भी बुंदेलखंड के जमीदारों की पहली पसंद है।

विशेषज्ञों के अनुसार, जिस प्रकार पंपों, ट्यूबवेलों के जरिये पानी की निकासी हो रही है, उससे कुओं और तालाबों की रीचार्जिंग क्षमता खत्म हो गई है। इससे धरती के भीतर एक निर्वात पैदा हो जाता है, जो भूकंप का कारण बनता है। दरअसल बुंदेलखंड के बाशिंदों ने अपने इतिहास से सबक नहीं लिया। यहां के इतिहास में जिन चंदेल और बुंदेला राजाओं के नाम दर्ज हैं, वे जल संचय के प्रति इतने संवेदनशील थे कि उन्होंने यहां 700 बड़े तालाबों की श्रृंखला बनाई। अपने परिजनों की मृत्यु के बाद उनके नाम पर एक तालाब का निर्माण करना यहां एक धार्मिक रिवाज बन गया। उर्मिल सागर, कीरत सागर, बेला ताल यहां के बड़े तालाब हैं। महोबा का मदन सागर ऐसा ही एक तालाब है, जहां खकरा मठ जैसा दुर्लभ शिव मंदिर बनवाया गया।पर्यटन के प्रति उदासीनता ने भी बुंदेलखंड को गरीब बनाया। बुंदेलखंड के गर्भ में चंदेल, बुंदेला और मराठों द्वारा बनवाए आश्चर्यजनक निर्माण मिले हैं, पर न तो इनका सर्वेक्षण किया गया और न ही मार्केटिंग। धन के लालच में यहां के कुछ किले और मंदिर तक लोगों ने खोद डाले हैं। बुंदेलखंड के प्रति राजनीतिक दल जिस संवेदनशीलता का परिचय दे रहे हैं, वह कागजी, हवाई और राजनीतिक है। पैकेज जारी कर देने भर से सरकारी कर्तव्य की इतिश्री नहीं हो जाती। बुंदेलखंड अपना पुराना वैभव हासिल कर सके, इसके लिए सरकारी नजरिये के साथ ही जनमानस को भी बदलना पड़ेगा।
 

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