पीपीपी मॉडल के नाम पर इस देश में बुनियादी ढांचा क्षेत्र में जो खेल चल रहा है, वह सर्वजन हिताय या राष्ट्रीय हित का नहीं, बल्कि सरेआम लूट का खेल है। पीपीपी यानी जन-निजी भागीदरी! किंतु भारत में यह भागीदारी जिस तरह से निभाई जा रही है, इसमें न तो जनभागीदारी है, न जनमान्य नीति की पालन, न पारदर्शिता, न जवाबदेही, न विश्वसनीय परीक्षण न उचित नियमन और न ही तमाम जानकारियों तक जनता की पहुंच।
दिलचस्प है कि जहां मांग होनी चाहिए कि जलापूर्ति के क्षेत्र में निजी कंपनियों का प्रवेश पूरी तरह रोका जाये; विरोध होना चाहिए कि जन-निजी भागीदारी (पी पी पी) के नाम पर सुनिश्चित किए जा रहे पानी के व्यावसायीकरण का; विरोध होना चाहिए बुनियादी ढाचें में पीपीपी को लेकर सरकार, कर्जदाता और कंपनियों के बीच बढ़ती खतरनाक सहमति को लेकर; वहां विरोध हो रहा है दिल्ली में अपनाये जा रहे नागपुर मॉडल को लेकर। हालांकि इस आरोप में दम है कि नागपुर में जिस कंपनी के साथ जलप्रदाय परियोजना का अनुबंध किया गया है, वह धांधली कर रही है। उसे कुल परियोजना लागत का 30 फीसदी यानी 116 करोड़ रुपया लगाना था। उसने अब तक मात्र 10 करोड़ रुपये ही निवेश किए हैं। उस पर से तुर्रा यह कि इसकी एवज में वह रखरखाव आदि के नाम पर 7.90 रुपये की दर से प्रतिवर्ष करीब 72 करोड़ रुपया वसूल रही है। इसके अलावा कंपनी को कच्चा पानी, बिजली, ईंधन, टैक्स व सेस में छूट मिल रही है, सो अलग। तिस पर भी ज्यादातर महत्वपूर्ण जोखिम सरकार व स्थानीय निकाय के ही हैं। कंपनी सिर्फ निर्माण, डिजाइन और जलापूर्ति संचालन के मामूली जोखिम उठाने के लिए बाध्य है।मतलब यह कि कंपनी के चारों हाथों में लड्डू है और उपभोक्ता, सरकार तथा स्थानीय निकाय का सिर कढ़ाई में है। इससे भी बड़ी बात यह देखिए कि ’विओलिया वाटर इंडिया’ नामक जिस कंपनी के साथ नागपुर में और अब दिल्ली में अनुबंध किया जा रहा है, उसकी मूल फ्रांसीसी कंपनी - विओलिया को फ्रांस से भगाया गया है। सुना तो यह भी है कि यह सब जगहों से काम पूरा किए बगैर ही भागी है। कांग्रेसी नेता विलासबाबूराव की शिकायत पर जवाहरलाल नेहरु शहरी नवीनीकरण मिशन की तीन सदस्यीय कमेटी इसकी जांच भी कर रही है। निगम में विपक्ष के नेता विकास ठाकरे ने सी बी आई जांच की मांग भी कर दी है। राजनैतिक विरोधाभास यह है कि नागपुर में कांग्रेसी नेता नागपुर मॉडल व कंपनी का विरोध कर रहे हैं और दिल्ली प्रदेश की कांग्रेसी सरकार उसी मॉडल व कंपनी के लिए पलक पांवड़ें बिछाये तैयार बैठी है।
भाजपा नागपुर में पीपीपी की वकालत कर रही है और दिल्ली में विरोध। उत्तरी दिल्ली नगर निगम की मेयर मीरा अग्रवाल ने तो जलापूर्ति किसी और को सौंपने के दिल्ली सरकार के अधिकार पर ही सवाल उठा दिया है। इसके राजनैतिक कारण क्या हैं या बात कुछ अंदर की है... यह तो मालूम नहीं; किंतु इतना मालूम है कि फिलहाल पीपीपी मॉडल के नाम पर इस देश में बुनियादी ढांचा क्षेत्र में जो खेल चल रहा है, वह सर्वजन हिताय या राष्ट्रीय हित का नहीं, बल्कि सरेआम लूट का खेल है। पीपीपी यानी जन-निजी भागीदरी! किंतु भारत में यह भागीदारी जिस तरह से निभाई जा रही है, इसमें न तो जनभागीदारी है, न जनमान्य नीति की पालन, न पारदर्शिता, न जवाबदेही, न विश्वसनीय परीक्षण न उचित नियमन और न ही तमाम जानकारियों तक जनता की पहुंच।
ताज्जुब है कि इसके तहत चल रही परियोजनायें वर्ष 2004 में क्षेत्र सुधार के नाम पर सफल जन-निजी भागीदारी के लिए भारत सरकार द्वारा जारी दिशा-निर्देशों की भी पालन नहीं कर रही। गरीबों की बेहतर सेवाओं के लिए प्रोत्साहन, न्यूनतम लागत पर मांगपूर्ति, परिसंपत्तियों की समुचित देखभाल और संचालन, स्थानीय समस्याओं के स्थानीय समाधान, स्थानीय निकाय व अधिकारों के प्रति संवेदनशीलता, नियमन और वित्तीय स्थायित्व। पीपीपी के तहत चल रही ज्यादातर परियोजनायें इनमें से किसी एक का भी तो ठीक से पालन करती दिखाई नहीं दे रही। इस खेल को सार्वजनिक नहीं किया जाता, इसलिए जनता सच से वाकिफ नहीं है।
देश में इतनी पीपीपी परियोजनायें हैं, लेकिन एक के बारे में पूरी प्राथमिक जानकारी भी उस जनता को नहीं है, जो इनसे प्रभावित होगी। दिल्ली में जलापूर्ति को निजी हाथों सौंपने के कारण, अनुबंध, कंपनी, शर्तें, उपभोक्ता पर उनके प्रभाव आदि के बारे में दिल्लीवासी कितना जानते हैं? दुर्भाग्यपूर्ण है कि जो इस खेल से वाकिफ हैं, उनमें से ज्यादातर शोर मचाने के बाद खुद इस खेल में शामिल हो जाते हैं। इसका खुलासा कई स्तरों पर बहुत पहले से होता रहा है। ऐसी भगोङा व दागी कंपनी के साथ जानते-बूझते अनुबंध करने के लिए कल को दिल्ली सरकार को भी सी बी आई जांच का सामना कर पड़ सकता है। कारण कि इस खेल में शंकाओं के लिए पूरी जगह है।
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में बिजली, सड़क, दूरसंचार, रेलवे, हवाई अड्डा, बंदरगाह से लेकर भण्डारण, गैस, सिंचाई, जलापूर्ति व स्वच्छता के क्षेत्र में 20,56,150 करोड़ का निजी निवेश प्रस्तावित था। फिलहाल देश में करीब 660 पीपीपी परियोजनायें सूचीबद्ध हैं। इनमें सर्वाधिक 371 सड़क परियोजनायें हैं। सिंचाई, जलापूर्ति तथा स्वच्छता के क्षेत्र में 30 परियोजनाओं के जरिए 1,43,730 करोड़ का निवेश सोचा गया था। विशाखापट्टनम, आदित्यपुर (झारखण्ड), कर्नाटक, देवास-खण्डवा-शिवपुरी (मध्य प्रदेश), जयपुर, भिवंडी, नागपुर, चेन्नई, दिल्ली,अलन्दूर-तिरपुर (तमिलनाडु) हल्दिया तथा कोलकाता समेत तमाम परियोजनायें मलनिकासी व शुद्ध पानी पिलाने की गारंटी के नाम पर सूची में हैं।
यूं कहने को तो हम कह सकते हैं कि विकास की औसत दर को बनाये रखने के लिए सरकार फिलहाल पिछली की तुलना में हर अगली पंचवर्षीय योजना में निवेश कम से कम दोगुना करने को बाध्य होंगी। कह सकते हैं कि बुनियादी ढांचा विकास के लिए लाखों करोड़ का निवेश जुटाना अकेले सरकार के बस की बात नहीं। पीपीपी मॉडल को लेकर जो मीठी-मीठी और सर्वश्रेष्ठ सेवा की लुभावनी बातें कही जाती हैं, वे असल में सिर्फ कागजों पर दिखाने के लिए ही होती हैं। अक्सर वे जमीन पर कभी उतरती नहीं। क्योकि लक्ष्य सेवा देना नहीं, मुनाफा कमाना होता है।
मुनाफे की दर और रियायत के नाम पर हुए खेलों को देखते हुए कोई ताज्जुब नहीं कि जांच करें, तो पीपीपी के तहत सिर्फ पानी-बिजली की परियोजनाओं में इतना भ्रष्टाचार उजागर हो, कि पिछले तीन वर्षों में उजागर हुए महाघोटाले भी पीछे छूट जायें। अभी भी वक्त है कि भारत विदेशी कर्ज की ताकत और जनता के पैसे की लूट पर टिके पीपीपी मॉडल से किनारा कर ले। मॉडल बुरा नहीं है। लेकिन भारत में मुनाफाखोरों की नीयत और बुनियादी ढांचा क्षेत्र को देखते हुए फिलहाल यह सबसे बुरा है। सीधे-सीधे निजीकरण में तो फिर भी सारे जोखिम कंपनी के होते हैं। लेकिन चूंकि उसमें अपना मुनाफा तय करने की पूरी छूट कंपनी को होती है; इसलिए उपभोक्ता हितों को ध्यान में रखते हुए बुनियादी क्षेत्र को पूर्ण निजीकरण के लिए भी नहीं खोला जाना चाहिए। बावजूद इसके विश्व बैंक, एशिया विकास बैंक, अंतरराष्ट्रीय और यूरोपीयन कमीशन की रुचि पीपीपी में ज्यादा है। सोच सकते हैं कि क्यों?
याद रहे कि विश्व बैंक के कई पूर्व अधिकारियों के अनुभव बुनियादी ढांचे में निजीकरण के खिलाफ जाते हैं। 1995 में इंटरनेशनल फाइनेंस कार्पोरेशन के पत्रक की भूमिका में निजीकरण को दो अलग-अलग दिशाओं में भागने वाले दो घोड़ों की ऐसी गाड़ी बताया था, जिस पर लदी अंगूरी शराब की बोतलें अपने लक्ष्य पर पहुंचने से पहले ही टूट जाती हैं। ताज्जुब है कि वही ’आई फी सी’ आज विश्व बैंक से कर्ज लेकर पीपीपी’ को बढ़ावा देने के लिए ’आई आई एफ सी एल’ को ऊंची दर और लंबी अवधि वाले ऋण दे रहा है। ‘आई आई एफ सी एल’ पीपीपी मॉडल में निवेश हेतु निजी कंपनियों को कर्ज देगा। ताज्जुब है कि निजी निवेशक के पास भी कर्ज का ही पैसा है। कड़ी-दर-कड़ी कर्ज के इस खेल में भला जनता का भला प्राथमिकता पर कैसे हो सकता है।
रूस और मैक्सिको में निजीकरण कार्यक्रम से जुड़ी रही विश्व बैंक की एक अधिकारी इजाबेल गुरेरो ने निजी तौर पर निजीकरण को एक बड़ी भूल माना। 13 अक्तूबर, 2007 को दिए अपने एक साक्षात्कार में इजाबेल ने कहा – “शायद कभी-कभी हम पर उचित कारणों से आरोप लगते हैं। आरोपों की पृष्ठभूमि में पिछले समय की कुछ सच्चाइयां हैं। हमने निजीकरण को आगे अवश्य बढ़ाया। पतन के बाद रूस जाने वाली टेम में मैं भी शामिल थी। हम सबने कहा था कि निजीकरण अच्छा समाधान है। बाद में हमने अनुभव किया कि वह एक भूल थी। अगर आपके पास सही गवर्नेन्स न हो, तो निजीकरण के कारण कुछ लोगों का कब्जा हो जाता है। तब आप असमानतायें पैदा करते हैं। 1991 के दशक में निजीकरण, जो शायद विश्व बैंक की सहायता से हुआ था के परिणामस्वरूप खूब सारा समेटकर कुछ लोग बहुत अमीर हो गये और नुकसान देने वाले भी। निजी एकाधिकार के कारण मैक्सिको में टेलीफोन दरें विश्व में सर्वाधिक हैं और यह बुरे निजीकरण के कारण ही हुआ।’’
विश्व बैंक के ही एक अन्य अधिकारी ने भी पूर्व में अनुभव किया कि 1990 का दशक बहुत खोया हुआ दशक था। यह उस दशक की नादान सोच थी कि निजी क्षेत्र बुनियादी ढांचे को संभाल लेगा। यदि आप पानी सेवा देने वाली कंपनियों के नीति दस्तावेज व मांगपत्र देखेंगे, तो विश्वास हो जायेगा कि समूचा खेल ही अनुचित के लिए है। इस खेल में नीयत से लेकर नीति तक कुछ उचित है ही नहीं। विकल्प और भी हैं। उनकी चर्चा बगैर बात अधूरी रह जायेगी।
सामुदायिक भागीदारी के ब्राजील के रेफिके और पोर्टो एलेग्रे मॉडल। जल सहकारी उपक्रम, सांताक्रूज (बोलीविया)- ब्यूनस आयर्स (अर्जेन्टाइना)। कर्मचारी यूनियन आधारित मॉडल -ढाका (बांग्लादेश) और नॉमपेन्ह (कंबोडिया)। जन-जन भागीदारी- दक्षिण अफ्रीका व बाल्टिक गणराज्य। आंतरिक सुधार मॉडल - साओ पाउलो (ब्राजील) व कोलंबो (श्रीलंका)। ग्रामीण सामुदायिक प्रबंधन मॉडल - गुजरात व राजस्थान (भारत)। मॉडल कई और भी हो सकते हैं। प्राकृतिक संसाधनों के व्यावसायीकरण के साथ-साथ पैसे की लूट से देश को बचाने के लिए फिलहाल जरूरत है, पीपीपी की परम प्रलोभन परियोजना संचालन के वर्तमान तौर-तरीकों से निजात पाई जाये। लेकिन यह तभी हो सकता है कि जब देश के कर्णधारों की नीयत ठीक हो। निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर वे पूर्व के अनुभवों से सीखने को तैयार हों। क्या जनता उन्हें ऐसा करने को बाध्य कर सकेगी?
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